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चवालीसवां बोल-१२५
यह पाँच भेद किये गये हैं। इनमे से पहले के चार ज्ञान क्षायोपशमिक हैं और पाचवा ज्ञान क्षायिक है । यह पाचों ज्ञान प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो भागो मे विभक्त किये गये हैं । मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष है और बाकी के तोन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं । प्रत्यक्ष ज्ञान के भी दो भेद हैं -एक विकलपारमार्थिक प्रत्यक्ष और दूसरा सकलपारमार्थिकप्रत्यक्ष । अवविज्ञान और मन.पर्याय ज्ञान विकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष हैं और केवलज्ञान सकलपारमार्थिकप्रत्यक्ष है ।
__ मतिपूर्वक होने के कारण मतिज्ञान, मतिज्ञान कहलाता है । उमका दूसरा नाम प्राभिनिबोधिज्ञान भी है । मतिज्ञान इन्द्रिय ओर मन को सहायता से उत्पन्न होता है । यह ज्ञान एकेन्द्रिय से लेकर पचेन्द्रिय पर्यन्त सभी जीवो को होता है। यह ज्ञान जब मिथ्यात्व से युक्त होता है तो मिथ्याज्ञ न कहलाता है और 'सम्यक्त्व-युक्त होने पर सम्यग्ज्ञान कहलाता है । यह ज्ञान, अज्ञान (मिथ्याज्ञान) के रूप मे तब परिणत होता है, जब ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम के साथ मिथ्यात्व का उदय होता है । ज्ञानावरण का उदय होने के कारण यह ज्ञान, अज्ञान नही कहलाता वरन् मिथ्यात्व के उदय से हो यह प्रज्ञान कहलाता है । ज्ञानावरण का क्षयोपशम होने से ज्ञान तो होता है मगर मिथ्यात्व के उदय के कारण पदार्थों का ज्ञान विपरीत होता है । मिथ्यात्व के उदय से सीधी वस्तु भी उलटी मालूम होती है । उदाहरणार्थ - काच सफेद और स्वच्छ होने पर भी अगर कांच के सामने दूसरे रग की कोई चीज रख दी जाये तो कांच भी उसी रग का दिखाई देने लगता है। सफेद काँच अगर दूसरे रग का दिखाई देता है तो इसमें काच का कोई दोष नही है, दोष