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छयालीसवां बोल-१४६
क्षमा रूपी खड्ग लेकर कर्मशत्रुओ पर विजय प्राप्त करके अपना जैनत्व चमकाता है । जैन होकर भी कायर बन कर बैठ जाने से और आन्तरिक शत्रुओ को परास्त करने का प्रयत्न न करने से जैनत्व की शोभा घटती है । प्राचीनकाल के जैन जैनत्व की रक्षा के लिए प्राण भी अर्पण कर देते थे, मगर जैनत्व को तनिक भी फीका नही पड़ने देते थे । अाजकल कायरता के कारण जैनो का जैनत्व फीका पड़ गया है। इसी कारण वीरोचित अहिंसा, क्षमा आदि को भी निर्बलता का चिह्न समझा जाता है। वास्तव मे अहिंसा या क्षमा निर्बलो के शस्त्र नहीं हैं । यह तो वीर पुरुषो के शस्त्र हैं। तलवार चाहे जितनी तीखी धार वाली क्यो न' हो, अगर वह कायर के हाथ मे जाती है तो निकम्मी हो जाती । वही तलवार जब किसी वीर पुरुष के हाथ आती है तो अपने जौहर दिखलाती है। इसी प्रकार अहिंसा और क्षमा के शस्त्र कायरो के हाथ पडकर निष्फल सावित होते हैं और वीर पुरुपो के हाथ लग कर अमोघ शस्त्र सिद्ध होते हैं। यह सचाई आज प्रत्यक्ष अनुभव की जाती है। जन लोग अगर अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा करना चाहते हो तो उन्हे अपने जैनत्य को तेज प्रकट करना चाहिए । जैनों। का जैनत्व, क्षत्रियो के क्षत्रियत्व से जरा भी हल्का नही है। बल्कि जैनत्व मे अस्मिक क्षात्रत्व होने के कारण वह अधिक तेजस्वी है । जैन अर्थात् विजेता । सच्चा विजेता वही है जो कर्मशत्रुओ के साथ सदैव जीवनसग्राम लडता है। वह किन-किन शस्त्रो द्वारा अहिंसक युद्ध लडता है, यह बतलाते हुए, शास्त्रकार कहते हैं.-. . सद्ध नगरं किच्चा तवसवरमग्गल ।