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छयालीसवां बोल-१४७
अनुभव होता है, वैसी ही प्रसन्नता और वैसा ही प्रानन्दानुभव क्षमा द्वारा परिषह को जीत लेने पर होता है । लौकिक विजय की अपेक्षा यह लोकोत्तर विजय महान है । अतएव लौकिक विजय के प्रानन्द की अपेक्षा लोकोत्तर विजय का आनन्द अधिक होता है । यह बात स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण दिया जाता है ।
मान लीजिये, एक योद्धा शत्र पर विजय प्राप्त करके किसी महात्मा के पास गया । वह योद्धा महात्मा को ध्यान मे मग्न देखकर कहने लगा - महात्मन् ! आप तो घर में ही धुसे रहकर ध्यान मे मगन रहते हो और कोई पराक्रम नहीं दिखलाते, मगर हम तो शत्रुओ के मध्य मे जाकर उनके शस्त्र-अस्त्र के प्रहार और आघात सहन करते हैं और शत्रुओ को परास्त करके उन पर विजय प्राप्त करते हैं । अब प्राप ही बतलाइये कि ऐसी स्थिति में वास्तव मे महान कौन है ? हम बडे या आप ?
तुम्हे इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए कहा जाये तो तुम किसे महान् कहोगे ? महात्मा को महान कहोगे या विजयी योद्धा को महान कहोगे ? इस विषय मे शास्त्र तो स्पष्ट रूप से कहता है11 + जो सहस्सं सहस्साणं संगामे दुज्जए जिणे । एग जिणिज्ज अप्पाणं एस से परमो जो ॥
उत्तराध्ययन, ६ अ० अर्थात् - दस लाख सुभटो को दुर्जय सग्राम मे जीतने की अपेक्षा एक मात्र आत्मा को जीतना अधिक उत्तम है और यही श्रेष्ठ विजय है। यही वात अधिक स्पष्ट करने के लिए शास्त्रकार आगे कहते हैं -