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१४८ - सम्यक्त्वपराक्रम ( ४ )
अप्पाणमेव जुज्झाहि, कि ते जुज्भेण वज्भनो । श्रपणामेवमप्पाणं, जइत्ता सुमेह ||
--उत्त० अ० ६ गा० ३५
अर्थात् -- आत्मा के साथ युद्ध करो। बाहरी युद्ध में क्या रखा है ! शुद्ध श्रात्मा द्वारा दुष्ट प्रकृति वाली आत्मा को जीतकर ही सुख प्राप्त किया जा सकता है । दुर्जय आत्मा को किस प्रकार जीत सकते हैं, यह बतलाते हुए शास्त्रकार कहते हैं:
पंचिदियाणि कोह माणं मायं तहेव लोहं च । दुज्जय चेव श्रप्पाण, सव्व अप्पे जिये जिय ॥
उत्त० प्र० ६ गा० ३६
अर्थात् -- पाच इन्द्रियाँ, क्रोध, मान, माया और लोभ तथा दुर्जय आत्मा को जीतना ही उत्तम है । क्योकि आत्मा को जीत लिया तो सभी को जीत लिया
मुमुक्षु आत्मा बाह्य युद्ध की अपेक्षा कर्मशत्रुओ को परास्त करने के लिए आन्तरिक युद्ध करना ही पसंद करते हैं। क्योकि बाह्य युद्धो की विजय क्षणिक होती है और परिणाम मे परिताप ही उपजाती है । इस विजय से बाह्य युद्धो की 'परम्परा का जन्म होता है और कभी युद्ध से विराम नही मिलता । साथ ही इम वासना के कारण ही अनेक जन्म लेने पड़ते हैं । अतएव बाह्य शत्रुप्रो को उत्पन्न करने वाले भीतरी - हृदय मे घुसे हुए शत्रुप्रो का नाश करने के लिए प्रयास करना ही मुमुक्षु का कत्तव्य है ।
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सच्चा जैन निरन्तर जीवनसग्राम मे सलग्न रहता है । वह कायर बन कर घर मे नही बैठा रहता । वह हाथ मे
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