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१५०-सम्यक्त्वपराक्रम (४)
खति निउणपागार तिगुत्तं दुप्पधसयं ॥ घण परक्कम किच्चा जीव च इरियं सया । घिद च केयणं किच्चा सच्चेण पलिमथए । तव-नारायजुत्तेण भित्तण कम्मकंचयं । मुणी विगयसंगामो भवानो परिमुच्चई ॥
-उत्तरा० अ० ६ गा० २०-२१-२२ । अर्थात-श्रद्धा (सत्य पर अडिग विश्वास) रूपी नगर, तप-सवर रूपी आगल, क्षमा रूपी सुदर गढ, तोन गुप्ति ( मन, वचन, काय का नियमन ) रूपी दुःप्रघर्ष । दुजय शतध्नी-शस्त्रविशेष ), पराक्रम रूपी धनुष, ईर्या ( यतनापूर्वक गमन ) रूपी डोरी और धैर्य रूपी वाण यानि तीर बना कर सत्य-चिन्तन करना चाहिए। क्योकि तपश्चर्या रूपी बाणो से युक्त मुनि, कर्म को भेद कर सग्राम मे विजय प्राप्त करता है और ससार से मुक्त हो जाता है।
ऊपर की गाथाओ मे शास्त्रकार ने यह बतलाया है कि सत्याग्रह-सग्राम अहिंसक होने पर भी कितना विजयशील होता है। आजकल होने वाले हिंसात्मक युद्धो मे लाखोकरोडो मनुष्यो का सहार होता है और युद्ध भूमि रक्तरजित हो जाती है। फिर भी नहीं कहा जा सकता कि विजय किसे प्राप्त होगी ? भौतिक युद्ध मे हिंसा होती है, रागद्वेप बढ़ते है और फलस्वरूप जगत मे अशान्ति का साम्राज्य फैल जाता है । परन्तु इस अहिसक संग्राम मे किसी का एक बूद भी रक्त नहीं गिरता, सुखशान्ति का प्रसार होता है, क्लेश नही बढता और जीवन शान्तिपूर्वक व्यतीत होता है। यह सब अहिंसा देवी और क्षमा माता का ही प्रताप है। आज भी अगर थोड़ी-बहुत सुखशान्ति का अनुभव होता है तो