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छयालीसवां बोल-१५१
उसका अधिकांश श्रेय अहिंसा तथा क्षमा देवी के ही हिस्से में जाता है । जगत् मे अहिंसा और क्षमा का अस्तित्व न रहे तो जगत् की शान्ति सर्वथा अदृश्य हो जाये ।आजकल भी अहिंसा-क्षमा आदि आध्यात्मिक गुणों के कारण ही शान्ति का अनुभव होता है ।
हिंसा के प्रयोग से अथवा हिसक अस्त्र-शस्त्रों से प्राप्त की जाने वाली विजय सदा के गिए स्थायी नही रहती। प्रेम और अहिंसा द्वारा हृदय में परिवर्तन करके जनसमाज के हृदय पर जो प्रभुत्व स्थापित किया जाता है, वही सच्ची और स्यायी विजय है कहा भी है: -
न हि रेण वेराणि समन्तीधे कदाचन ।
अर्थात् वैर का वदला वैर से लेने पर जगत् में कभी वैर घट नही सकता । उलटा वैर बढता है । वैर की शान्ति तो अवैर से होती है । प्रेम के द्वारा ही दूसरों के हृदय पर प्रभुत्व स्थापित किया जा सकता है । यह सच्ची और स्थायी विजय है और ऐसी सच्ची एव स्थायी विजय प्राप्त करना ही जैनधर्म या सनातनधर्म है।
लाखो सुभटो को जीतने की अपेक्षा एक दुर्जय आत्मा को जीतना अधिक कठिन है । आत्मा वास्तव मे दुर्दम है। जो महापुरुष आत्मा को जीतकर जितेन्द्रिय और जितात्मा चन जाता है, वह बदनीय हो जाता है । अत. आत्महितैषी को चाहिए कि वह अपनी आत्मा को अपने अधीन बनाने का प्रयत्न करे । शास्त्र में कहा भी है:
अप्पा चेव दमेयच्छो प्रप्पा हु खलु दुद्दमो । मप्पा तो सुही होइ, प्रस्सि लोए परत्व या ।।