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१४६ - सम्यक्त्वपराक्रम (४)
है । जिस प्रकार गृहस्थ अपने घर के पास के गड की सुखपूर्वक आवागमन करने के उद्देश्य से पूर देता है, उसी प्रकार मुनिजन उदर रूपी गडहे को सयम रूपी गाडी चलाने के लिये ही भरते हैं । इस तरह जो मुनि सयम के निर्वाह के लिए ही भोजन करता है वह क्षमा द्वारा क्षुत्परिषह को सहन कर सकता है । मुनियो मे कैसी क्षमा होती है, यह तो उनके आचार-विचार से ही जाना जा सकता है । जब मुनि भिक्षाचर्या के लिए जाते हैं तब कितनेक लोग कर्णकटु शब्द कहते है, लेकिन क्षमाशीलमुनि उन कर्णकठोर शब्दो का समताभाव के साथ सहन कर लेते हैं। सच्चे साधु को न भोजन देने वाले पर राग होता है और न कटु शब्द कहने वाले पर द्वेष ही होता है । चक्रवर्ती राजा भी छह खड के वैभव का त्याग करके साघुता श्रगीकार करता है और घरघर भिक्षा के लिए जाता है । तब उस मुनि को भी कोई कहता है - 'राज्य भोगते-भोगते भिक्षा मागने को मन में आई है ! साधुपना निकम्मा है ।' इत्यादि । इसपे विपरीन कोई साधुवृत्ति की प्रशंसा करके उसके पैरो में गिरता है । तब शास्त्र कहता है- 'हे मुनि ! तुम किसी के प्रति रागद्वेप मत करो | कटुक शब्द कहने वाले या निंदा करने वाले पर द्वेष न करना और प्रशंसा करने वाले पर राग न करना ही साधु का लक्षण है ।' इस प्रकार निंदा प्रशसा के शब्द सुनने पर भी राग-द्वेष मन में न आने देना क्षमा का ही प्रताप है ।
अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि क्षमा के द्वारा परिषह जीत लेने से आत्मा की कैसी अवस्था होती है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि लौकिक विजय प्राप्त करने से जैसी प्रसन्नता होती है और जिस प्रकार के आनन्द का