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___ चवालीसवां बोल-१२७
देखने-जानने में आया था, वह क्या मिथ्या था? इम कथन का उत्तर यह है कि पहले हृदय सरल हो और वस्तु का स्वरूप निष्कपटभाव से माना हो, तो फिर ज्ञान मे वृद्धि होने पर भी पहले का ज्ञान मिथ्या नही है । अर्थात् ज्ञान की वृद्धि होने से पहले भी अगर समभाव मौजूद है तो ज्ञान अल्प होने पर भी मिथ्या नहीं, वरन् सम्यग्ज्ञान ही है । पहले का जानना भी ज्ञान था और बाद में जानना भी ज्ञान ही है, क्योकि समभाव तो वही है जो पहले था । सम्यक्त्व द्वीन्द्रिय जीव मे भी होता है, अतएव ऐमा नही समझना चाहिए कि अब ज्ञान वढ जाने से हम कुछ और ही देखने लगे हैं और पहले जो जानते थे वह अज्ञान था । बुद्धि के क्षयोपशम से आज जो वस्तु जिस रूप में दिखाई देती है, वह वस्तु बुद्धि का अधिक क्षयोपशम होने पर दूसरे रूप में दिखाई देती है, परन्तु समभाव तो वही का वही है । अतएव पहले का जानना-देखना भी ज्ञान मे ही है-अनान मे नही । हृदय सम और सत्यमय होने के कारण जो कुछ देखाजाना जाता है, वह अज्ञान नही, ज्ञान ही है । सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के बीच का अन्तर जानने के लिए शास्त्र में कहा गया है: -
माई मिच्छदिट्टी, अमाई सम्मादिट्टी ।
अर्थात् - कपटभाव न रखना ही समभाव है और कपट रखना मिथ्यात्व है। अतएव किसी प्रकार मिथ्या विचार मन मे न रखते हुए ज्ञान प्राप्त करने के लिए अग्रसर रहना चाहिए ।
कहने का आशय यह है कि श्रुतज्ञान और मतिज्ञान दोनो परोक्ष हैं, किन्तु उपकारी श्रुतज्ञ न ही है । सभी ज्ञान