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१३६-सम्यक्त्वपराक्रम (४)
दें, परन्तु अगर तुममें समभाव होगा तो ज्ञानीजन कहते है कि तुम उन कठोर शब्दो को भी कर्णप्रिय बना सकोगे । अतएव समभाव रखो तो कल्याण ही होगा।
वीतरागधर्म समभाव का विधान करता है । समभाव के द्वारा वीतरागभाव प्रकट होता है। अतएव हृदय मे समभाव रख कर वीतरागभाव प्रकटाओगे तो स्त्र पर कल्याणसाधन कर सकोगे ।
राग और द्वेष, यह दोनो कर्म के बीज हैं । इन कर्मबीजो को ससार का बीज भी समझना चाहिए, क्योकि जब तक राग और द्वेष के बीज मौजूद हैं तब तक कर्म के अकुर फटते ही रहते हैं और जब तक कर्म के अकूर फुटते रहते हैं तब तक ससार-वक्ष फलता-फूलता रहता है । ससार के वधनो से मुक्त होने के लिए सर्वप्रथम राग-द्वष के बधनो से मुक्त होना आवश्यक है । वीतराग और वीतद्वेष हए विना कोई मोक्ष नही प्राप्त कर सकता । जीवन को रागरहित बनाने के लिए शास्त्रकारो ने अनेक उपाय बतलाये हैं । सम्यक्त्वपराक्रम अध्ययन मे बतलाये हुए ७३ बोल वीतराग और वीतद्वेष बनने के ही उपाय है । कपाय का त्याग करने से जीवन मे वीतरागता प्रकट होती है, यह बात शास्त्र में स्पष्ट रूप से कही गई है। फिर भी इस पैतालीसवें बोल मे यह प्रश्न किया गया है कि वीतरागता प्रकट होने से जीव को क्या लाभ होता है ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए टीकाकार कहते है- शास्त्र का यह ध्येय है कि शब्द बढ जाए तो भले ही बढ जाए, इसमें कोई हानि नही । पर शास्त्र की बात सब की समझ मे आ जानी चाहिए । यह बात दृष्टि मे रखकर ही शास्त्र मे एक हो बात को विशेप