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१२४-सम्यक्त्वपराक्रम (४)
व्याख्यान सब गुणो का भिन्न-भिन्न वर्णन करना कठिन है, अतएव संग्रहनय की दृष्टि से, समुच्चय रूप मे यहा यह प्रश्न पूछा गया है कि सर्वगुण सम्पन्नता से जीव को क्या लाभ होता है ? जैसे किसी वस्तु की वानगी द्वारा हजारोलाखो मन वस्तु का सौदा हो सकता है, उसी प्रकार समस्त गुणो को ज्ञान, दशन और चारित्र-इस रत्नत्रय में सग्रह कर लिया गया है और कहा गया है कि ज्ञान दर्शन तथा चारित्र मे-रत्नत्रय में-सभी गुणो का समावेश हो जाता है।
जो वस्तु जैसी है उसे वैसी ही जानना ज्ञानगुण है। वस्तु का सिर्फ ज्ञान प्राप्त कर लेने मात्र से काम नहीं चल सकता, अतएव दूसरा गुणदर्शन कहा गया है। जो वस्तु जैसी है, उसे उसी रूप मे श्रद्धान करना अर्थात् मानना दर्शनगुण या सम्यक्त्वगुण है। लेकिन वस्तु का ज्ञान और श्रद्धान कर लेने से भी काम नही चल सकता, अतएव तीसरा गुण चारित्र कहा गया है । जिस वस्तु को जिस रूप में जाने और माने, उसी रूप मे उसका व्यवहार करना चारित्रगुण है ।
शास्त्र मे ज्ञान, दर्शन और चारित्र के भी भेद बतलाए गए हैं । ज्ञानगुण के मुख्य रूप से पाच भेद कहे गए हैं। यहा आशका हो सकती है कि जब किसी वस्तु को जानना ज्ञान है तो फिर ज्ञान मे भेद किस अभिप्राय से किये गये हैं ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि वास्तव मे तो ज्ञान एक ही है, परन्तु कर्मों के क्षयोपशम और क्षय की भिन्नता के कारण ज्ञान में भी भेद किये गये हैं । ज्ञान के भतिज्ञान,श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन पर्यायज्ञान और केवलज्ञान