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७६ - सम्यक्त्वपराक्रम ( ४ )
जिस पर पडती है, उसका जीवन नष्ट हो जाता है ।
आत्मा राजा सावधान होने के कारण वासनावृत्ति रूपी तलवार के प्रहार से कुशलतापूर्वक बच गया और राजमहल में आकर चोर को पकडने का उपाय सोचने लगा । गहरा विचार करने के बाद राजा, चोर को भर बाजार मे से पकड लाता है । चोर के पास से रत्न निकलवाने के लिए वह युक्ति से काम लेता है । वह सब से पहले बुद्धिरूपी चोरकन्या के साथ लग्न-सम्बन्ध जोडता है और चोर को प्रधान बनाता है । तत्पश्चात् विविध उपायो द्वारा चोर के कब्जे में जो रत्न थे, उन्हे अपने अधिकार मे करता है । राजा शरीर-चोर से रत्न निकलवाने के लिए हो उसे प्रधान बनाता है । चोर को प्रधान बनाने से प्रजा, राजा की निन्दा करने लगी थी उसी प्रकार कुछ लोग यह कहकर साधुओ को निन्दा करते है कि साधु हो जाने पर भी इन्हे खाने और कपडा पहनने की क्या आवश्यकता है ? परन्तु साधुश्रात्मा लोगो की निन्दा की परवाह न करके शरीर-चोर के कब्जे मे से ज्ञान, दर्शन, चरित्र रूप रत्न लेने के लिए शरीर-चोर को ग्रादर देते हैं । जब आत्मा को बुद्धि द्वारा मालूम होता है कि अव शरीर-चोर के पास एक भी रत्न शेष नही रहा तब साघु आत्मा शरीर रूपी चोर को सथाररूपी शूली पर चढा देता है और आप स्वावलम्बी बन जाता है । स्वावलम्बी आत्मारूपी राजा ही प्रजा को स्वावलम्बी चना सकता है | जब तक नायक स्वयं स्वावलम्वी नही बन जाता तब तक वह जनसमाज को कैसे स्वावलम्बी बना सकता है ?