________________
११४-सम्यक्त्वपराक्रम (४)
भरतजी तथा बाहुबलीजी पूर्वजन्म में पांच सौ मुनियों की सेवा करते थे । उन मुनियो की वहिरग सेवा भरतजी करते थे और अन्तरग सेवा बाहुबलीजी करते थे। इस सेवा के फल-स्वरूप बाहुबलीजी को शारीरिक बल की प्राप्ति हुई और भरतजी को ऋद्धि-सम्पदा का बल प्राप्त हुआ । सेवा का यह फल वहिा है। सेवा द्वारा दूसरा जो फल मिलता है वह तो अत्यन्त ही महान है और उसके विषय मे भगवान् ने कहा ही है कि सेवा करने वाला तीर्थङ्कार-गोत्र का उपार्जन करता है । भगवान् ऋषभदेव के विषय मे भी कहा जाता है कि उन्होने जीवानन्द वैद्य के भव मे एक मुनि की खूब ही सेवा की थी और उस सेवा का महान फल मिला था।
शास्त्र मे जव मुनियो के लिए भी सेवा करने वा विधान किया गया है तब तुम्हें कितना अधिक सेवाकार्य करना चाहिए, इस बात का विचार तुम स्वय ही कर सकते हो । क्तिनेक लोगो को सामायिक-पोषध आदि धार्मिक क्रिया करने का तो खूब चाव होता है, परन्तु सेवा कार्य करने मे अरुचि होती है। और अगर किसी रोगी की सेवा करने का अवसर आ जाता है तो उन्हे बडी कठिनाई मालूम होती है । रोगी कपडे में ही के दस्त कर देता है और कभी-कभी रास्ते मे ही चक्कर खाकर गिर पड़ता है। ऐसे रोगी की मेवा करना कितना कठिन है। फिर भी जो सेवाभावी लोग रोगी की सेवा को परमात्मा की सेवा मान कर करते हैं, उनकी भावना कितनी ऊ ची होगी ।
वास्तव में यह अखिल ससार सेवा के कारण ही टिक रहा है। जब ससार मे सेवाभावना की कमी हो जाती है