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११२-सम्यक्त्वपराक्रम (४)
सेवा कहते हैं। कितनेक लोग सेवा करने को हल्का काम मानते हैं । परन्तु ज्ञानीजनों का कथन है कि सेवा को हल्का काम समझने वाला स्वय ही हल्का बना रहता है । अर्थात् वह उच्च अवस्था प्राप्त नही कर सकता । वास्तव मे सेवा छोटा काम नही है । वह तो महान् कर्तव्य है। सेवा करने वाले को यह मानना चाहिए कि मै जो सेवा कर रहा हूं वह परमात्मा की ही सेवा कर रहा हूं। ऐसा मानकर जो साधु स्वयसेवक की भाति सेवा करते है, उनके लिए भगवान् ने कहा ही है कि वैयावृत्य-सेवा करने वाला तीर्थहरनामगोत्र बाधता है । जब दूसरे की सेवा करते समय यह समझा जाता है कि मैं परमात्मा की सेवा कर रहा हूं, तब वह सेवा अनोखी-अनुपम ही होती है ।
कुछ लोग सेवा के नाम पर सेवा का ऊपरी ढोग करते हैं परन्तु भीतर से सच्ची सेवा नही करते । ऐसे लोगो के विषय मे ज्ञानीजनो का कथन है कि वे झूठ-कपट का सेवन करने वाले लोग वास्तव मे परमात्मा की सेवा नही करते वरन् गुलामी की सेवा करते हैं । सच्ची सेवा में कभी झूठकपट का व्यवहार किया ही नहीं जा सकता । श्रीस्थानागसूत्र मे दस प्रकार की सेवा बतलाते हुए कहा है:
(१) पायरियवेयावच्च (२) उवज्झायवेयावच्च (३) थेरवेयावच्च (४) तवसीवेयावच्च (५) सेक्खवेयावच्च (६) गिलाणवेयावच्च (७) गणवेयावच्च (८) कुलवेयावच्च मघवेयावच्च (१०) साहम्मियवेयावच्च ।
अर्थात् सेवा दस प्रकार की है-(१) आचार्य की सेवा (२) उपाध्याय की सेवा (३) स्थविर की सेवा (४) तप..