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१२:-सम्यक्त्वपराक्रम (४)
मौनान्मुकः प्रवचनपटर्वातुलो जल्पको वा, धृष्टः पार्वे नियतं दूरतश्चाप्रगल्भः ।। क्षान्त्या भीर्यदि न सहते प्रायशो नाभिजातः, सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः ॥
इस श्लोक का सार यह कि सेवाधर्म बडे-बडे योगीमहात्माओ के लिए भी अगम्य होता है । इस बात को स्पष्ट करते हुए कवि कहता है-सेवक जब चुप रहता है तो स्वामी उसे गू गा कहता है । स्वामी का यह कथन सुनकर सेवक मन मे विचार करता है कि मेरे मुख से कोई अनुचित शब्द न निकल जाए, यह सोचकर मैं चुप रहता था परन्तु चुप रहने से स्वामी मुझे गू गा कहते हैं। तो फिर मुझे बोलना चाहिए । इस प्रकार विचार कर सेवक अगर बोलने लगता है तो स्वामी कहता है यह सेवक तो बहुत ही बकवाद करता है। चुप रहना जानता ही नही । इस प्रकार सेवक चुप रहता है तो गूगा कहलाता है और अगर बोलता है तो बकवादी कहलाता है। अगर सेवक, स्वामी के पास खड़ा रहता है तो स्वामी उसे निर्लज्ज कहता है। अगर दूर रहता है तो उसे काम-चोर को पदवी से विभूषित किया जाता है। इस प्रकार स्वामी के पास खडा रहने पर भी उसे उपालभ मिलता है और पास न खडा रहने पर भी उपालभ मिलता है । इसके अतिरिक्त सेवक अगर स्वामी की कोई बात शान्तिपूर्वक सहन कर लेता है तो वह डरपोक कहलाता है। अगर स्वामी की बात सुनकर उत्तर देता है तो स्वामी उसे कुलहीन कह देता है। इस प्रकार सेवक की स्वामी की बात सुन लेने पर भी मुसी