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११०-सम्यक्त्वपराक्रम (४)
चरबिहे समणसंघे पण्णते, तंजहा-ममणाए, समणीते, सावयाए, सावियाए य ।
अर्थात्- साधु-साध्वी, श्रावक और धाविका, यह चतुविध सघ है । अतएव तुम्हे भी कोई काम ऐसा नहीं करना चाहिए, जिसके कारण सघ या शासन की प्रतिष्ठा को कलक लगे । तुम्हें ऐसे ही सुकार्य करना चाहिए, जिससे सघ और शासन की प्रतिष्ठा और कीर्ति बढे ।
जिन्होने साधूवेष धारण किया है उन्हे ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि अब हमे कुछ करना शेप नहीं रह गया है। उन्हे विचारना चाहिए कि दूसरे लोग भले ही कर्तव्य से भ्रष्ट हो जाए पर मैं अपने कर्तव्य का परित्याग नहीं करूगा।
शास्त्रकारों ने जनसमाज को कल्याण का यह मार्ग बतलाया है । इस कल्याणमार्ग पर चल कर अनेक साधुओ ने स्व-पर का कल्याण साधन किया है और अनेक साधक कल्याण साध रहे है । कल्याण के मार्ग पर आरूढ होकर सभी लोग स्व-पर का कल्याण साधन करे, बस यही हृदयगत भावना है।