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तेतालीसवां बोल-११५
तभी उत्पात मचने लगता है । और जब सेवाभाव की वृद्धि होती है तब यह ससार स्वर्ग के समान बन जाता है । अतएव सेवा कार्य करने मे तनिक भी उपेक्षा नहीं करना चाहिए
और न छल-कपट ही करना चाहिए । जो मनुष्य मातापिता अथवा अन्य किसी भी मनुष्य की सेवा करने मे छलव पट करता हुआ भी अपने को सेवाभावी कहलवाता है, वह वास्तव मे सेवाभावी नही वरन् ढोगी है। सेवक तो वही है जो सेवा करने मे झूठ-कपट का आश्रय नही लेता और सेवा कार्य के प्रति घृणाभाव भी प्रदर्शित नहीं करता । जहा घृणा है वहा सच्ची सेवा नही हो सकती।
मुनि के लिए किस सीमा तक सेवा करने का विधान दिया गया है, यह बताने के लिए एक जैन उदाहरण देकर ममझाने का प्रयत्न करता हू: -
नदिसेन नामक एक मुनि बहुत ही सेवाभावी थे। उनकी सेवा की प्रशसा इन्द्रलोक तक जा पहुची । इन्द्र ने देवसभा मे नदिसेन मुमि की सेवा की प्रशसा करते हए कहा
राजकुमार होने पर भी नदिसेन मुनि ऐसी सेवा करते हैं कि उन जैसी सेवा करना दूसरो के लिए बड़ा कठिन है ।
इन्द्र के यह प्रशसात्मक वचन सुनकर एक देव ने विचार किया- इन्द्र महाराज देवो के सामने एक मनुप्य की इतनी प्रशसा क्यो करते हैं ? अच्छा, उस सेवाभावी मुनि की परीक्षा क्यो न की जाय ? आखिर नदिसेन मुनि मनुज्य हैं । मनुष्य की नाक मे दुर्गंध जाती है। अतएव दुर्गन्ध द्वारा उन्हे घबरा देना स्वाभाविक और सरल है। इस प्रकार विचार करके उस देव ने नदिसेन मुनि की परीक्षा लेने का दृढ निश्चय कर लिया ।
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