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तेतालोसवां बोल
सेवा
जो साधु, साधुवेष धारण करके कर्त्तव्यपालन में तत्पर रहता है, वह आत्मकल्याण की साधना करता है । साधुवेष की शोभा वास्तव मे सेवा में है। नीतिकारो ने सेवा को परमधर्म माना है । सेवा भी तपोमार्ग है । अतएव वैयावृत्य (सेवा) के विषम मे गौतम स्वामी, भगवान महावीर से प्रश्न करते हैं..
मूलपाठ प्रश्न--वेयावच्चेणं भते ! जीवे कि जणयइ ? उत्तर--वेयावच्चेण तित्थयरनामगोत्त फम्म निबधइ ।
शब्दार्थ प्रश्न-भगवन् ! वैयावृत्य अर्थात् सेवा से जीव को क्या लाभ होता है ।
उत्तर-वैयावृत्य से तीर्थकरनाम-गोत्र का कर्म बध होता है।
व्याख्यान - वैयावच्च अथवा वैयावृत्य को व्यावहारिक भाषा में