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चालीसवां बोल ७५
यह विचारणीय है।
साधु के लिए कहा गया है कि यह शरीर मंडूक चोर के समान है। बुद्धि शरीररूपी चोर की कन्या है । शरीर यद्यपि चोर के समान है, फिर भी अनेक रत्न इसके कब्जे मे हैं । इस शरीर के बिना मोक्ष प्राप्त नही हो सकता । हे मुनियो ! तुम्हारे शरीर मे रहा हुआ आत्मा राजा है । शरीर चोर है और वृद्धि चोरकन्या है। मनुष्य मे जैसी बुद्धि है, वैसी और प्राणियो में नही है । आत्मारूपी राजा शरीररूपी चोर के घर मे आया है। आत्मारूपी राजा खानपान के प्रलोभन मे न पडकर बुद्धिरूपी चोरकन्या को पहले खिलाकर ही आप खाता है । अर्थात् शास्त्र मे खान-पान सम्बन्धी जो विधि बतलाई गई है, वृद्धि द्वारा उसका निर्णय करने के बाद ही खाता है । इस प्रकार बुद्धि द्वारा निर्णय करके जो खाता है, वही आत्मारूपी राजा है। बुद्धिरूपी चोरकन्या आत्मा-राजा को पैर पकडकर कुए मे डाल देना चाहती है, पर आत्माराजा के लक्षणयुक्त चरण देखते ही वह उसे महान् समझकर बचा देती है । चरण का अर्थ पैर भी है और आचरण भी है । जब बुद्धि के हाथ चरण आता है और वह उसके अच्छे लक्षण देखती है, तब कहती हैऐसे पुण्यात्मा को कूप मे पटकना ठीक नही । इस प्रकार चुद्धिरूपी चोर-कन्या प्रात्माराजा को मुक्त होने का मार्ग बतलाती है और आत्माराजा उस मार्ग पर चलकर मुक्त हो जाता है । जब आत्मा-राजा ससार के पदार्थों का ममत्व तजकर भाग जाता है तो काम, क्रोध, मान, लोभरूपी चोर वासनावृत्ति की तलवार हाथ में ले आत्मा के पीछे दौडता है । वासनावृत्ति रूपी तलवार बहुत तीखी है। यह सलवार