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७४- सम्यक्त्वपराक्रम ( ४ )
चाहिए | तुम्हारे पिता अब मेरे ससुर है । मैं उनका भी सन्मान करूगा और गौरव बढाऊ गा ।
राजा ने मडूक चोर को प्रधान मन्त्री बना दिया । जब यह बात नगर मे फैली तो सभा लोग राजा को धिक्कारने लगे । राजा इसके लिए तैयार था । वह जानता था कि पहले पहल लोग मेरे इस कार्य से अप्रसन्न होगे । मगर जब इसका नतीजा सुनेगे तो प्रसन्न हुए बिना नही रहेगे ।
राजा चोर प्रधान को धमकाकर या समझा-बुझाकर चोरी के रत्न निकलवाता रहता था । उसके पास अभी कितने रत्न है, यह वात राजा चोरकन्या अर्थात् अपनी पत्नी से मालूम कर लेता और फिर उन्हे किसी उपाय से निकलवा लेता । इस प्रकार कभी धमकी देकर और कभी फुसलाकर राजा ने चोर-प्रधान के पास से सभी रत्न निकलवा लिए । जव उसके पास कुछ भी शेष न रहा तब राजा ने नगर-जनो को बुलाया और कहा - यह प्रधान नहीं, चोर है। चोर से सब रत्न निकलवाने के उद्देश्य से ही मैंने इसे प्रधान वनाया था । अब इसके पास कुछ बाकी नही रहा । अतएव चोरी करने के अपराध मे इसे फासी की सजा दी जाती है ।
चोरी गये सब रत्न राजा ने वापस कर दिये । प्रजाजन राजा की बुद्धिमत्ता और चतुराई की प्रशमा करने लगे । राजा प्रजा मे प्रेम की वृद्धि हुई । राज्य का अच्छी तरह सचालन होने लगा ।
यह एक दृष्टान्त है । साधुजीवन पर यह दृष्टान्त दिया गया है । इस दृष्टान्त से क्या सार ग्रहण करना चाहिए,