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६६-सम्यक्त्वपराक्रम (४) स्थान पर नहीं आ सकता । ''कुछ लोगो का कहना है कि कल्पमर्यादा में क्या धरा है ? पर ऐसा कहने वालो को समझना चाहिए, कि महापुरुषो ने जो कल्पमर्यादा बताई है, वह सहेतुक होने के कारण व्यर्थ नही है। मर्यादा बाधना व्यर्थ है, ऐसा कहने वाले मर्यादा का पालन न कर सकने के कारण उसे व्यर्थ कहते है। वास्तव में मर्यादा बाघना व्यर्थ नही है । मर्यादा बांधने में तो महान उद्देश्य और आशय छिपा है।
जैसे शेषकाल और चातुर्मास की मर्यादा बाघी गई है, उसी प्रकार वस्त्र, पात्र, भोजन, स्थान आदि की भी मर्यादा बतलाई है । यह मर्यादा भगवान् ऋषभदेव और भगवान महावीर के साधुओ के लिए ही है। शेष तीर्थंकरो के साधुओ के लिए ऐसी मर्यादा नही है। इस कथन पर शका हो सकती है कि ऐसा होने का क्या कारण है ? यह तो एक प्रकार का पक्षपात जान पडता है । इस गका का समाधान यह है कि महापुरुषो ने किसी के साथ पक्षपात नही किया है। उन्होने अपने ज्ञान में देखकर आवश्यकता के अनुसार ही परिवर्तन किया है। आवश्यकता के अनुसार ही मर्यादा बाधना उचित है, यह बात एक लौकिक उदाहरण द्वारा समझाता हूं।
एक सेठ के दो पुत्र थे। दोनों का विवाह हो गया था । एक पुत्रवधू सोच-समझकर काम करतो और अपने काम की मर्यादा भी रखती है, मगर दूसरी ऊटपटाग काम करती है और किसी प्रकार की मर्यादा भी नही रखती है। इस दूसरी पुत्रवधू की अव्यवस्थित कार्यप्रणाली देखकर सेठ ने उसके लिए ऐसी मर्यादा वाघ दी की वह अमुक रकम