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बयालीसवां बोल-६५
ही है। अधिक समय तक सूत्र का पाठ किया जा सके, इसलिए उस सूत्र में दूसरी बातो का भी वर्णन किया गया है, फिर कल्पसूत्र मुख्य रूप से कल्प बताने के लिए ही है। कल्प बताकर साधुओं से कहा गया है कि जैसी स्थिति और जैसी शक्ति हो, वैसे ही कल्प का पालन करो । ऐसा न हो कि शक्ति न होने पर भी कल्पातीत बन जाओ । शक्ति के अनुसार ही कल्प-मर्यादा का पालन करना चाहिए । शक्ति के अभाव में कल्पातीत नही बना जा सकता ।
भगवान ऋषभदेव और भगवान् महावीर के साधुओं के लिए स्थितकल्प बतलाया गया है । जपे एक शेषकाल पूर्ण हो जाने के बाद उसी स्थान पर साधु को रुकना चाहिए या नहीं ? इस विषय मे कहा गया है कि भगवान् ऋषभदेव और भगवान् महावीर के शासन के साधु एक शेषकाल पूर्ण हो चुकने पर उसी स्थान पर नहीं रुक सकते। उसी स्थान पर अधिक ठहरना उनके लिए मर्यादा-विरुद्ध है । अगर इस प्रकार की कोई मर्यादा न बांधी गई होती तो बारबार क्लेश होता और मर्यादा पालने वाले साधुओ का स्थान मर्यादा न पालने वाले साधु ले लेते । इस अव्यवस्था को हटाने के निमित्त साधुओ के लिए यह मर्यादा बतलाई गई है कि वे एक स्थान पर एक शेषकाल से आधक न रुके । इसी प्रकार चातुर्मास के लिए भी मर्यादा बाची गई है । शास्त्र में उत्तम, मध्यम और जघन्य, इस प्रकार तीन तरह के चातुर्मास कहे गये हैं । चातुर्मास-कल्प के विषय में बतलाया गया है कि साधु चातुर्मास के जितने दिन एक स्थान पर रहा हो, उसके दुगुने दिन दूसरी जगह व्यतीत करने के बाद ही उस स्थान पर आ सकता है । इससे पहले उस