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१०२-सम्यक्त्वपराक्रम (४)
द्वार नदी के सन्मुख था और नदो को तरफ से सांय-साय करता हुआ पवन आ रहा था । मेरे शरीर पर सिर्फ गाती पछेवडी थी और प्रोढने के लिए एक चादर था । ओढने के इतने साधन होने पर भी मुझे ठड नही लगी और रात्रि में ऐसी गाढी निद्रा आई कि पता ही नहीं चला कि रात्रि कव व्यतीत हो गई है । हालाकि इस रात्रि में भी पहली रात्रि जितनी ही सर्दी थी । थोड़े-से वस्त्रो का उपयोग करने पर भी मुझे सर्दी न लगने के कारण पर विचार करने पर मुझे यह विचार आया कि कल मैं साधुवेष में नही था, इसी कारण बहुत-से कपड ओढने पर भी सर्दी कम नही मालूम हुई और आज मैं साधुवेष मे हूं, अत इतने कम वस्त्र ओढने पर भी सर्दी नही लगी । यह साधु वेष की ही महिमा है। जब मैंने दीक्षा ली थी तव मेरी उम्र अधिक नही थी, फिर भी मुझे ऐसा प्रतीत होता था कि मेरे सिर पर का बोझा हल्का हो गया है । जब छोटी उम्र मे भी साधुवेष धारण करने से लघुत्ता का अनुभव हुआ तो फिर छह खड की ऋद्धि का परित्याग करके दीक्षा लेने वालो को कैसी लघुता का अनुभव होता होगा । इस प्रकार साधुवेष धारण न करने से जीव पर ससार का बोझा लदा रहता है परन्तु साधुवेष धारण कर लेने पर वह हल्का-लघु बन जाता है ।
साधुवेष धारण करने से मनुष्य हल्का हो जाता है, इस बात का प्रमाण बतलाते हुये भगवान् कहते हैं- जब आत्मा हल्का होता है तब वह प्रमादरहित बन जाता है । यद्यपि प्रमत्त अवस्था षष्ठ गुणस्थान तक बनी रहती है परन्तु यहा जो प्रमादरहित होने का कथन किया गया है, उसका अर्थ यह है कि आत्मा साधुलिंग धारण करते ही मद, विषय,