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१०४ सम्यक्त्वपराक्रम ( ४ )
गम्य हैं, बुद्धिगम्य नही है; इसलिए भगवान् ने कहा है कि साधुवेष धारण करने से ही आत्मा को लघुता का अनुभव होता है ।
कहने का आशय यह है कि साधुवेष धारण करने से जीवात्मा द्रव्य से और भाव से हल्का वन जाता है । द्रव्य से तो उपकरण आदि के भार से हल्का हो जाता है और भाव से प्रमादभार से हल्का हो जाता है । शास्त्र में साव के लिए जितने भडोपकरण आदि रखने का विधान किया गया है, उससे अधिक भडोपकरण आदि साधु प्रपने पास नही रख सकता और इसी कारण साधु द्रव्य से उपकरण आदि के भार से हल्का बन जाता है । साधु ऐसी कोई वस्तु नही होनी चाहिए, जिसके विषय में पूछने पर साधु उत्तर न दे सके । साधु के पास जो भी कोई वस्तु हो वह सयम में सहायक और उपयोगी होनी चाहिए । कोई भी निरुपयोगी वस्तु साधु के पास नही होनी चाहिए । जिस वस्तु के द्वारा इन्द्रियो के विषयों का पोषण हो और साधुता का ह्रास हो ऐसी वस्तु साधु नही रख सकता । साधु तो सयम में सहायक और साधुता की पोषक वस्तु ही रख सकता है और वह भी शास्त्रविहित परिमाण में ही । इस प्रकार साधु द्रव्य से अनेक उपकरणो की उपाधि
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मुक्त होकर हल्का हो जाता है और भाव से क्रोध आदि कपायो का परित्याग करके हल्का हो जाता है । साधुलिंग को धारण करने वाला कोई व्यक्ति कदाचित् क्रोध करने लगे तो श्रावक, साधु से कह सकता है कि, महाराज ! साधु होकर क्रोध करना आपके लिए उचित नही है । हम गृहस्थ हैं, मगर आप तो क्रोध आदि को जीतने वाले साधु