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बयालीसवां बोल - ६६
दोनो का ध्येय तो एक ही मोक्षप्राप्ति होता है परन्तु दोनो की मोक्ष जाने की गति मे अन्तर होता है । जिनकल्पी की अपेक्षा स्थविरकल्पी की मोक्ष जाने की गति धीमी होती है ।
शास्त्र मे स्थविरकल्पी की दस मर्यादाएँ बतलाई गई हैं । इन सब मर्यादाओ के वर्णन करने का यहा अवकाश नही है, अतएव सक्षेप मे यही कहता हू कि स्थविरकल्पो साधु दस प्रकार की मर्यादाओ का समुचितरूप से पालन करता हुआ स्व-पर का कल्याण करता हुआ मोक्ष प्राप्त करता है ।
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साघु तो जिनकल्पी भी होता है और स्थविरकल्पी भी होता है, ऐसी अवस्था में अगर कोई जिनकल्पी को ही साघु माने और स्थविरकल्पी को साधुन माने तो वह विराधक है । इसी प्रकार अगर स्थविरकल्पी को ही साधु माने और जिनकल्पी को साघु न माने तो भी विराधक है दोनो प्रकार के साधुम्रो को साधु मानने की उदारता रखनी चाहिए, तुच्छता नही रखना चाहिए । भगवान् ने जिनकल्पी और स्थविरकल्पी - दोनो को साधु कहा है । भगवान् ने कहा है कि स्थविरकल्पी साधु के बिना सघ की सेवा नही हो सकती । स्थविरकल्पी साधु पर संघ की सेवा का भार है । अतएव स्थविरकल्पी साधु को ऐसा व्यवहार रखना चाहिए जिससे सघ की सेवा भलीभाति हो सके । यद्यपि सघ का भार स्थविरकल्पी साधु पर है परन्तु उस भार को वहन करने के लिए श्रावको का सहकार होना भी आवश्यक है । अगर कोई साधु उन्मार्ग पर जाता हो तो उसे सन्मार्ग बतलाना श्रावक का कर्त्तव्य है । अगर साधु बिगडेगा तो ससार बिगड जाएगा और यदि साधु सुधरेगा तो ससार सुधरेगा । ससार
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