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बयालीसवां बोल
प्रतिरूपता
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सद्भावप्रत्याख्यान अन्तिम दशा का प्रश्न है । उसका विवेचन किया जा चुका है । यहाँ साधक दशा के सम्बन्ध में प्रश्न किया गया है। सभी प्रत्याख्यानो में व्यवहार मुख्य है, अतएव अब व्यवहार के विषय में प्रश्न किया जा रहा है। श्री गौतम स्वामी, भगवान् महावीर से प्रश्न करते हैं:
मलपाठ प्रश्न-पडिरूवयाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ?
उत्तर-पडिरूवयाए ण लाघवियं जणयइ, लभूए णं जीवे अप्पमत्ते, पागलिगे पसलिगे, विसुद्धसम्मत्ते सत्तसमिइसमत्ते, सध्वपाण-भूय-जीव-सत्तेसु विससणिज्जरूवे अप्पडिलेहे जिइदिए विउलतवसमिइसमन्नागए यावि भवइ ।४२॥
शब्दार्थप्रश्न-भगवन् !-प्रतिरूपता (आदर्श-जिनकल्पी की बाह्य और आन्तरिक उपाधि से रहित दशा) से जीव को यका लाभ होता है ?