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चालीसवां बोल-७७
इस कथा का सार यह है कि महावीर भगवन् ने भत्त (भोजन) के त्याग के विषय में जो कुछ कहा है, वह निर्दयता से नही वरन् आत्मा के कल्याण के लिए कहा है। पर संथारा करने और कराने मे विवेक की खास आवश्यकता है । अगर सथारा करने-कराने मे विवेक से काम न लिया जाये तो जनधर्म का उद्योत नही होता । जब ससार के पदार्थों पर ममता नही रहती और सासारिक पदार्थों की जरा भी सहायता नही ली जाती, तभी भोजन का त्याग करके सथारा लिया जा सकता है । आत्मा की पूर्व तैयारी के बिना सथारा लिया जाये तो मृत्यु पर विजय नही प्राप्त की जा सकती । यही नहीं, वरन् आत्मा का घात होता है। सथारा तो मृत्यु को जीतने का एक श्रेष्ठ साधन है । मृत्यु को आह्वान करना साधारण प्रात्मा का काम नहीं । जो आत्मा ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र का बल पाकर बलिष्ठ और निर्भय बन चुका है, वही बलवान् आत्मा भोजन का त्याग करके मृत्यु का आह्वान कर सकता है। वही मृत्यु को जीत सकता है। शरीर का प्रत्याख्यान करने के साथ ही भोजन का प्रत्याख्यान किया जा सकता है ।
भगवान ने आत्मकल्याण करने के लिए जो कुछ कहा है, उसे नि:शक होकर सत्य समझो और उसी ध्र वसत्य के अनुसरण का प्रयत्न करो । आत्मकल्याण के लिए सर्वप्रथम स्थूल पाप का त्याग करो । स्थूल पाप का थोड़ा-सा त्याग करने पर सूक्ष्म पाप का भी त्याग कर सकोगे । स्थूल पाप त्यागे बिना सूक्ष्म पाप का त्याग नही हो सकता । यह बात स्पष्ट होने पर भी कितने ही लोग स्थूल पाप का त्याग