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६० - सम्यक्त्वपराक्रम (४)
वैकालिक सूत्र के चौथे अध्ययन मे भी भगवान् से प्रश्न किया गया है कि - हे प्रभो ! जीव जब योग का निरोध करता है तब उसे क्या अवस्था प्राप्त होती है इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फर्माया है:
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जया जोगे निरु भित्ता सेलेसि पडिवज्जइ । तया कम्म खवित्ताणं सिद्धि गच्छर नीरश्रो ॥ जया कम्म खवित्ताण सिद्धि गच्छइ नीरश्रो । तथा लोगमत्ययत्यो सिद्धो भवइ सासश्रो || दश ४- २४-२५
अर्थात् - जव जीवात्मा योग का निरोध करता है तब गैलेगी अवस्था प्राप्त करता है और उसके बाद कर्मों का क्षय करके लोक के अग्रभाग पर पहुचता तथा शाश्वत सिद्धि प्राप्त करता है । कर्मों का नाश होने पर जीवात्मा सिद्ध, बुद्ध तथा मुक्त हो जाता है ।
यही बात सद्भावप्रत्याख्यान सम्वन्धी इस प्रश्न के विषय मे समझनी चाहिए । कुछ लोग कहते है कि सद्भाव का अर्थ अच्छे भाव और प्रत्याख्यान का अर्थ त्याग है । तो क्या इस प्रश्न मे अच्छे भाव का त्याग करना कहा गया है ? इस प्रश्न के उत्तर मे शास्त्रकार कहते हैं - चौदहवें गुणस्थान की शैलेशी अवस्था व्यवहार मे स्वतः और निश्चय मे करने से प्राप्त होती है । प्रत्येक क्रिया कर्त्ता के करने मे ही होती है । कर्त्ता द्वारा विना किये कोई क्रिया नही हो सकती । परन्तु कुछ क्रियाएं ऐसी समझ मे आ जाती हैं और कुछ क्रियाए आती । उदाहरणार्थ- पेट मे गया हुआ दूध रसभाग और खलभाग में परिणत हो जाता है । यद्यपि यह परिणति आत्मा की शक्ति द्वारा ही होती है, परन्तु यह परिणति किस
होती हैं कि वे समझ मे नही