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८०-सम्यक्त्वपराक्रम (४)
लाभ होता है ?
उत्तरवृत्ति मात्र का त्याग करने से जीवात्मा अनि. वत्तिकरण पाता है और अनिवत्तिकरण को प्राप्त अनगार केवली होकर बाकी बचे हुए चार ( वेदनीय, प्रायु, नाम और गोत्र ) कर्माशो को खपाता है और फिर सिद्ध, बुद्ध तथा मुक्त होकर शान्त हो जाता है और सब दुखो का अन्त करता है।
व्याख्यान इस प्रश्न पर ऊहापोह करते हुए टीकाकार कहते है यह प्रत्याख्यान सभी प्रत्यास्यानो मे प्रधान है। यह प्रत्याख्यान अन्तिम अवस्था का है चरम सीमा का है। और प्रत्याख्यान तो एक बार करने के बाद फिर भी करने पडते हैं, परन्तु यह ऐसा प्रत्याख्यान है कि एक बार करने के वाद फिर कभी इसे करने की आवश्यकता ही नही होती। इसी कारण यह प्रत्याख्यान सब प्रत्याख्यानो मे प्रधान स्थान रखता है।
इस प्रत्याख्यान का नाम सद्भाव-प्रत्याख्यान है। सदभाव का प्रचलित सामान्य अर्थ 'अच्छा भाव' होता है। परन्तु यहा यह प्रचलित अर्थ नहीं लिया गया है । यहा सद्भाव का अर्थ 'परमार्थभूत' किया गया है। जिस प्रत्याख्यान को एक बार स्वीकार कर लेने पर फिर दूसरी बार कभी कोई प्रत्याख्यान नही लेना पडता, उस परमार्थभूत प्रत्याख्यान को सद्भावप्रत्याख्यान कहा है । गौतम स्वामी ने इस सद्भावप्रत्याख्यान के विषय मे ही प्रश्न किया है । सद्भाव