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चालीसवां बोल
भक्तप्रत्याख्यान
शास्त्र मे आत्मकल्याण के अनेक मार्ग बतलाये गये हैं । उनमे से एक मार्ग दूसरो की सहायता का त्याग करके स्वावलम्बी बनना भी है । जो स्वावलम्बी बनना चाहता है वह शरीर के अधीन भी रहना पसन्द नही करता । जब स्वावलम्बी आत्मा शरीर की अधीनता भी पसन्द नही करता तब यह स्वाभाविक ही है कि वह शरीर को पुष्ट करने वाले भोजन का त्याग कर दे । प्राणान्त तक भोजन का त्याग करना अर्थात् अनशन धारण करना साधारण जनता को दुष्कर प्रतीत होगा परन्तु स्वावलम्बी आत्मा के लिए ऐसा करना दुप्कर नही सुकर होता है। भोजन का त्याग करने से आत्मा को क्या लाभ होता है, इस विषय मे गौतम स्वामी भगवान् महावीर से प्रश्न करते हैं ।
मूलपाठ प्रश्न-भत्तपच्चक्खाणणं भंते ! जीवे कि जणयइ ? उत्तर-भत्तपच्चक्खाणेण अणेगाई भवसयाइ निरू भइ।४०।