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६८-सम्यक्त्वपराक्रम (४)
द्वारा अपराध साबित न हो जाये तब तक उसे दण्ड नही दिया जा सकता । दोनो एक दूसरे के सामने आये और
आपस मे पूछने लगे- 'तुम कौन हो ?' किसी ने अपना परिचय नही दिया । अन्त मे चोर ने कहा- मैं कौन ह, यह जानने की तुम्हे क्या आवश्यकता है ? तुम अपना काम करो, मैं अपना काम करता हू। चोर के इस कथन का आशय राजा ने यह समझा कि चोर ठीक ही कह रहा है कि 'मैं चोर हू । चोरी करने जाता है । तुम राजा हो तो मुझे पकड लो।'
इस प्रकार विचार कर राजा वहा से चलता बना । जाते-जाते राजा ने यह भी निश्चय कर लिया कि चोर सामने के पहाड मे रहता है और इस रास्ते से शहर मे आता है।
दूसरे दिन राजा ने भिखारी का भेष बनाया । वह उसी रास्ते पर चुपचाप बैठ गया, जिस रास्ते से चोर आयाजाया करता था। चोर भी भेष बदलकर शहर मे आया। रात अन्धेरी थी। भिखारी के भेप मे पडे हुए राजा पर उसकी निगाह न पडी । अत चोर के पैर मे राजा की ठोकर लग गई। ठोकर लगते ही वह चिल्ला उठा । चोर ने पूछा -
तू कौन है ?
राजा ने कहा – 'मैं गरीब भिखारी हूं । रहने को कही जगह नही । इसलिए यहा पडा हू ।'
चोर बडा ही चालाक था । समझ गया, यही राजा है । उसने सोचा--किसी भी उपाय से राजा को नष्ट किया जा सके तो फिर कोई आफत ही न रहे ।