________________
उनचालीसा बोल-६१
आत्मा को ही प्रिय मालूम होते हैं। परन्तु आजकल तो ससार में उत्क्रम चल रहा है । जिस आत्मा को सभी वस्तुए प्रिय लगती हैं वही आत्मा आज भुलाया जा रहा है
और आत्मा की शक्तियो के विषय मे कोई विचार ही नही किया जाता । आत्मा मे ऐसी महान् शक्ति विद्यमान है कि उसे परतन्त्र रहने की आवश्यकता ही नही है । परन्तु आज आत्मा अपने भीतर विधमान महान् शक्ति को भूलकर परतत्र बन रहा है ।
कहा जा सकता है कि आजकल का तोतारटत ज्ञान भी आत्मा की परतत्रता का कारण है । इस ज्ञान की बदौलत आत्मा दूसरो की सहायता अधिक लेने लगा है और नतीजा यह हुआ है कि वह परतन्त्रता की बेडो मे बध गया है । जगल मे रहने वाले पशुयो-पक्षियो को देखो। मालूम होगा कि वे मनुष्यो के समान दूसरोकी सहायता नही लेते है। कहा जा सकता है कि अज्ञान होने के कारण वे दूसरो की सहायता नही लेते हैं । इसके उतर मे कहा जा सकता है कि मनुष्य समाज मे जो ज्ञान है वह क्या परतत्रता बढाने के लिए है ? सच्चा ज्ञान तो वही है जो आत्मा को बधनो से मुक्त करता है । बधनो से मुक्त न करने वाला ज्ञान वास्तव मे ज्ञान ही नही है । ज्ञान की व्याख्या करते हुए कहा गया है
'सा विद्या या विमुक्तये । अर्थात् सच्ची विद्या वही है जो बधनो से मुक्त करती है।
तुम लोग आज दूसरो की बहुत सहायता लेते हो, इस कारण तुम मे भिखारीपन आ गया है । भिखारी को सुख कहा ? जब उसे कोई वस्तु नही मिलती तो वह दुखी होता है। शास्त्रकार भिखारी की प्रशसा नहीं करते ।