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६२-सम्यक्त्वपराक्रम (४) शारत्र तो दूसरों की सहायता लेने वाले को भिग्वारी कहता है। सच्चा साहकार वह है जो दूसरों से मिलने वाली सुलभ सहायता का भी परित्याग कर देता है ।
स्वतंत्रता चाहने और रवतत्रता पाने में बहुत अन्तर है। आज लोग रवतत्रता च हते है परन्तु उसे पन के लिए प्रयत्न नहीं करते । बितता पान के लिए स्वतयता के मार्ग पर चलना श्रावश्यक है । स्वावलंबी बनना रक्त यता प्राप्त करने का मूग्य मार्ग है ! दूसरो की सहायता की लगमात्र भी अपेक्षा न रखना ही ग्वावलम्बन है।
प्रत्येक स्त्री या पुरुप ग्वावलम्बन के मार्ग पर चल सकता है। स्वावलम्बन का राजमार्ग सभी के लिए गला है। राजीमती रत्री होने पर भी रवावलम्बन के राजमार्ग पर चल कर आत्मा को स्वतय बना सकी थी। यही नहीं, वरन रथने मि जैसे कत्र्तव्य भ्रष्ट योगी को भी स्वावलम्बन की गिक्षा देकर उसने आरस-रक्तवता के पथ पर अग्रसर किया था।
स्वतत्र व्यक्ति ही दूसरी को स्वतंत्रता का सदेश दे सकता है । पगवलवी पुरुप ग्यतयता का संदेश नही सना सकता । स्वतंत्रता-देवी का प्रधान द्वार स्वावलवन है। रवावलबी बने विना र वतत्र बनना राभव नही । इसीलिए भगवान महावीर ने मात्मा को कर्म-बंधनो से मुक्त करने, रवतत्र बनाने के लिए स्वावलवन का यादर्श पाठ जगत के समक्ष उपस्थित किया था । इस रवावलवन के प्रादर्श का अनुसरण करने में ही देग, समाज तथा धर्म का अभ्युत्थान तथा कल्याण है।