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४०-सम्यक्त्वपराक्रम (४)
है वह शरीर है । कितने ही लोग शरीर को क्षेत्र भी कहते हैं ज्ञानीजन कहते हैं--जव आत्मा शरीरहीन हो जाता है तव शरीर के साथ रहने वाले विकार भी नष्ट हो जाते हैं ।
ज्ञानीजन शरीर का प्रत्याख्यान करने के लिए कहते है। परन्तु यह विचार करना आवश्यक है कि शरीर का त्याग किस प्रकार करना चाहिए ? शरीर त्याग करने का अभिप्राय यहा यह नहीं है कि फासी लगाकर शरीर त्याग दिया जाये । ऐसा करने से तो आत्महत्या हो जायेगी। फासी लगा कर मर जाना शरीरप्रत्याख्यान करना नही है। प्रत्याख्यान शब्द प्रति+आ उपसर्ग लगाकर ख्या धातु से बना है । इस शब्द का अर्थ यह है कि किसी वस्तु का इस प्रकार त्याग करना कि त्यागी हुई वस्तु के प्रति फिर ममता ही न रह जाए । उदाहरणार्थ-धन का त्याग दो प्रकार से होता है । एक तो दान देने से धन का त्याग होता है, दूसरे किसी को उधार देने मे भी त्याग होता है । दोनो प्रकार के इस त्याग मे बहुत अन्तर है । दान मे धन का जो त्याग किया गया है उसमे धन के प्रति ममत्व नही रहता, मगर उधार दिये धन के प्रति ममता बनी रहती है । दान आदि सत्कार्य मे व्यय किये हुए धन के प्रति ममत्व न रहने के कारण धन का वह सच्चा त्याग है । उधार दिये हुए घन के पीछे और अधिक धन पाने की ममत्ववुद्धि रहती है । अतः वह सच्चा त्याग नहीं है । यह तो स्पष्टतः धनमोह है । जहा मोह-ममत्व होता है वहा त्याग या प्रत्याख्यान नही हो सकता । अत शरीर सम्बन्धी मोह-ममता का त्याग करना ही शरीरप्रत्याव्यान कहलाता है । आखिरकार सभी को शरीर का त्याग करना पड़ता है । शरीर अस्थिर है।