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५४ सम्यक्त्वपराक्रम ( ४ )
प्रथम स्वावलम्बी बनना आवश्यक है । स्वावलम्बी बने बिना कोई देश या समाज स्वतन्त्र नही बन सकता । श्रात्मा को भी कर्मबन्धनों से मुक्त करके स्वतन्त्र बनाने के लिए पर की सहायता त्याग कर स्वावलम्बी बनना आवश्यक है । जो मनुष्य स्वावलम्बी नही होता उसे पद-पद पर आपत्तियो का सामना करना पडता है ।
आज जितने सुखसाधन बढे हैं, उतने ही परतन्त्रता के बन्धन बढ गये है । आज जो साघन सुखसाधन कहलाते है, वे वास्तव मे सुखदायी नही है । वे परतन्त्रता के बन्धन है । परतत्रता के इन बन्धनो को ढीला करने के लिए तथा कर्मबद्ध आत्मा को स्वाधीन बनाने के लिए दूसरो की सहायता का त्याग करके स्वावलम्बी बनने की आवश्यकता है । सुखसाधनो की जो जितनी सहायता लेता है वह उतना ही परतन्त्र बनता है । उदाहरणार्थ - - मान लो, किसी जगह जल्दी पहुचने के लिए रेलवे का साधन मौजूद है । तो क्या इस साधन के कारण तुम परतन्त्र नही बने हो ? क्या रेल कभी तुम्हारी प्रतीक्षा करती है ? इसके विपरीत तुम्हे रेल की प्रतीक्षा करनी पडती है । अतएव रेल तुम्हारे प्रधीन नही, वरन् तुम्ही रेल के अधीन हो । यही तो परतन्त्रता है ! जो लोग रेल का त्याग कर देते हैं वे रेल के अधीन नही हैं । इसी प्रकार ज्योज्यो और सुखसाधन बढे हैं त्योत्यो परतन्त्रता के बन्धन बढ े हैं ।
परतन्त्रता मे मानसिक स्थिति डावाडोल रहती है । स्वतन्त्र अवस्था मे ही मन एकाग्र रह सकता है । अतः जो एकाग्रता के उपासक है, उन्हे दूसरो की सहायता का त्याग