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अड़तीसवां बोल-४१
वह हमेशा टिका नही रहता । परन्तु जो आत्मा शरीर की अस्थिरता समझकर शरीर पर से मोह-ममता उतार देता है- शरीर का त्याग कर देता है वह निर्मोही शरीरत्यागी आत्मा; विदेही बनकर सिद्धत्व के गुण प्राप्त करता है और सिद्ध भगवान् की कोटि मे पहुच जाता है। निर्मोही बनकर शरीर का त्याग करने से सिद्धि प्राप्त होती है। शरीरत्याग से जीव मुक्ति प्राप्त करने का अपूर्व लाभ पा लेता है।
जब शरीर के त्याग के विषय मे प्रश्न चल रहा है तो यह विचार कर लेना भी आवश्यक है कि शरीर क्या है ? और उसके कितने प्रकार हैं ?
जिसका स्वभाव ही जीर्णशीर्ण होने का है, वह शरीर है। शरीर के पांच प्रकार हैं--(१) औदारिकशरीर (२) वैत्रिय शरीर (३) आहारक शरीर (४) तैजस शरीर (५) कार्मण शरीर । संक्षेप में शरीर दो प्रकार का है-सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर । सूक्ष्म मे अर्थात कार्मण शरीर में सभी सस्कार विद्यमान रहते हैं। जैसे एक सजीव बीज में सारा वृक्ष विद्यमान रहता है । बीज तो वृक्ष से पृथक् होकर नीचे गिर जाता है, फिर भी उस बीज मे वृक्ष के सब सस्कार रहते ही हैं । वह बीज पृथ्वी, पानी आदि का सयोग मिलते ही विकसित हो जाता है और वह छोटा-सा बीज ही क्रमशः वृक्ष का रूप धारण करता है। इसी प्रकार ममतापूर्वक शरीर का त्याग करने पर भी सूक्ष्म कार्मण शरीर आत्मा के साथ रहता है और उसमे जीव के सभी संस्कार विद्यमान रहते हैं और संयोग मिलते ही वे सस्कार गररिक रूप धारण कर लेते हैं । जैसे वट वृक्ष का बीज प्रमाण