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संयोग, भरत क्षेत्र, छउं खंडमें, अपनी आज्ञा मनाई ( इस वास्ते ) इसका नाम, भरतखंड, ऐसा प्रसिद्ध हुवा || ( जब ) छखंड साधके, भरत पीछा विनीता नगरीमें आया । ( तथापि ) चक्ररत्न आयुधशालामें प्रवेश करे नहिं ( जब ) अपणे ९९ भाइयां कूं अपणी आज्ञा मनाणेके लिये दूत भेजा । ( तब ) बाहुबलजी विगर ९८ भाइयांने विचार किया ( कि ) राज्य तो हम पिता ऋभदेव स्वामी देगए हैं ( तो ) इस भरत की आज्ञा कैसें माने। चलो, अब पिता पुछें । जो पिता आज्ञा देवेगा सो करेगें । ऐसा विचारके भगवान् केपास गए ( तब ) ऋषभदेव स्वामीनें उनके मनका अभिप्राय जानके, ऐसा उपदेश करा । जिनसें ९८ भाइयोंनें दीक्षा ग्रहण करी । सब झगडे छोड दीये (और) बाहुबलजी दूतके मुख से सुनके, बहुतसे क्रोधमें आयके युद्धकी त्यारी करी ( तब ) भरतजीभी चढके आये | दोनूंके आपस में बडा युद्ध हुवा || भरत तो चक्रवर्त्ती था (और) बाहुबलजी बहोत बल पराक्रमका धरनेवाला था । इसवास्ते बाहुबली युद्धमें हारा नहिं । चक्ररत्ल, गोत्रपर चले नहिं । इसवास्ते भरतजी जीतसके नहीं ( शेषमें ) बाहुबलजी आपसें समझ दीक्षा ग्रहण करी । तब लोकोंमे भरतजीकी अपकीर्ति भई ( पीछे ) भरतजीभी अपणा सब भाईयोंकूं दीक्षालीवी सुनके, चित्तमें उदास होके, उनोंकूं राजी करणेकेलिये, भोजन करानेकों, पकवानोंके गाडे भरायके, भगवान् के, समोसरणमें आया (और) केनें लगा, कि अपने भाइयोंकूं भोजनकरायके, मेरा अपराधकुं ३ दत्तसूरि०
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