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२७६ व्याख्या-अमृतरसकी (पक्षे चंद्रकी ) उत्पत्तिवाले और सदाकाल नियमित जलवाले एसे यह समुद्रों धैर्य और गांभीर्य गुणके योगसें और मर्यादाभंगके भयो, प्रथम कबिभी क्षोभ नहिं पाये हैं, और हा हा इति खेदे दैवयोगसे कोई वखतमें कभी क्षोभपावे तो पृथ्वी न रहे पर्वतोंका समूह पण न रहे और तिससमय चंद्रसूर्य भि न रहे, परन्तु यह सर्व एक समुद्ररूप होवे, ? अहो हम लोक एकेक विद्याके धारणेवाले हैं, अर्थात् एकेक शास्त्रके विषयकों जानते हैं, सामान्यपणे ( अस्पष्टपणे ) विशेष प्रगटतर स्पष्टतर स्पष्टतम एकेक शास्त्र के विषयको हम लोक नहिं जानते हैं, और यत् किंचित् सामान्यपणे हम लोक एकेक शास्त्रके विषयके अधिकारी हैं, परन्तु यह श्वेताम्बराचार्यश्रीजिनवल्लभसूरिजी तो सर्व विद्यानिधान हैं, अर्थात् चउद विद्याके पारंगामीहैं, स्वसिद्धान्त परसिद्धान्त पदशानादिरहस्यसहित प्रगटतर स्पष्टतम विषयको जानते हैं, अत यह श्वेताम्बराचार्य श्रीजिनवल्लभमूरिजी संपूर्ण सर्वशास्त्रके अधिकारी हैं, इसलिये कैसे इण श्रीमान् जिनवल्लभसूरिजीकेसाथ विवाद करणेकुं शक्तिमान् होवें, अर्थात् श्वेताम्बराचार्य श्रीमान् जिनवल्लभसरिजीके साथ शास्त्रार्थ करणेकी शक्ति हमारी नहिंहै, इनके साथ हम शास्त्रार्थ करणेकों समर्थ नहिं हैं, इसतरे वृद्ध ब्रामणने विचारके, सबहि ब्राह्मणोंको कहा, अहो, अहो ब्राह्मणों तुम लोक हृदयचक्षु करके क्या नहिं देखो हो, अर्थात् क्या नहिं जानोहो, तुम लोक सबहि एकेक मलिन (अस्प ष्टतर अस्पष्टतम ) विद्याके धारणेवाले हो, और वह श्वेताम्बराचार्य
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