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अर्थ :- जिनयात्रा स्नात्रादिक दोषक्षयके वास्ते किए जाते हैं दोषके उदयमें उन्होंके भवहरणका संभव कैसे होवे है ॥ १११ ॥ जा रत्ति जारस्थिणमिह, रई जणइ जिणवरगि हेवि । सारयणी रयणिअरस्स, हेउ कह नीरयाणं मया ॥ ११२ ॥
अर्थ: - यह जो रात्रि तीर्थकरों के मंदिरों में भी जार स्त्रियोंको रति उत्पन्न करे है वह रात्रि पापसमूहका कारण किस प्रकार से निष्पापोंके इष्ट होवे है ॥ ११२ ॥
साहु सयणासणभोअणाई, आसायणं च कुणमाणो । देवहरण लिप्पड़, देवहरे जमिह निवसतो ॥ ११३ ॥ अर्थः साधुः जैनमंदिरमें सोना बैठना भोजनादि आशातना करता हुआ देवद्रव्यके उपभोगके पापसे लिप्त होवे है जो जिनमंदिरमें रहता है ॥ ११३ ॥
तंबोलो तं बोलइ, जिणवसहिट्ठिएण जेण खद्धो । खद्धे भव दुक्ख जले, तरइ विणा नेअ सुगुरुतरं १९४ अर्थः- तीर्थकरके मंदिरमें रहेहुये जिसने तांबूल खाया वह संसारमें डूबता है संसारसमुद्र में डूबता हुआ सुगुरुरूप जहाज सिवाय नहीं तरता है ॥ ११४ ॥
तेसिं सुविहिअजइणोय, दंसिआ जेउ हुति आययणं । सुगुरुजणपारतंतेण, पाविया जेहिं णाणसिरी ॥ ११५ ॥ अर्थः- सुविहित साधुओंने जो दिखाया वह आयतन होवे है जिन्होंने ज्ञानलक्ष्मी सुगुरु जन पारतन्त्रसे पाई है उन्होंके ॥ ११५ ॥
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