Book Title: Jinduttasuri Charitram Purvarddha
Author(s): Chhaganmalji Seth
Publisher: Chhaganmalji Seth

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Page 404
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६६ जिनदत्तसूरिजी से कहा कितने दिनोंके अनन्तर श्रीपत्तनसे विहार करना श्रीजिनदत्तसूरि बोले इसीतरह करेंगे || अन्यदिनमें जिनशेखरने साधुविषयमें कुछ कलहादिक आयुक्त किया तब देवभद्राचार्यने निकाल दिया वाद जहां जिनदत्तमूरि बहिर्भूमि जाते थे। वहां जा रहा वहां आए भए पूज्योंके पगोंमें पड़कर दीनवचनसे जिनशेखर बोला हेप्रभो मेरा यह अन्याय एकवक्त आप क्षमा करें दूसरी वक्त ऐसा नहीं करूंगा तब कृपासमुद्र श्रीजिनदत्तरिने जनशेखरको प्रवेशकराया अर्थात् ले आए उसके बाद देवभद्राचार्य ने कहा तुमने युक्त नहीं किया यह दुरात्मा तुमको सुखदेनेवाला नहीं होगा पामायुक्त उष्ट्रके जैसा इसको बाहिर निकालनाही युक्त है तब श्रीजिनदत्तसूरि बोले श्रीजिनवल्लभसूरिके पीछे लगा हुआ यह है अर्थात् साथमें यह रहताथा जबतक यह आज्ञामें वर्तता है तबतक रखते हैं देवभद्राचार्य बोले जैसी इच्छा वाद श्रीदेवभद्राचार्य आदिकने पाटनसे अन्यत्र विहार किया कितने कालके वाद समाधि से आयुः पूर्ण करके स्वर्गपधारे, श्रीजिनदत्तरिभी पत्तनसे विहारकरनेकीइच्छा करते श्रीदेवगुरूस्मरणके अर्थ तीन उपवास किए तदनंतर देवलोक से श्रीहरिसिंहाचार्य आए और बोले किसवास्ते मेरा सरण किया आचार्य बोले कहां विहारकरें तब हरिसिंहाचार्यदेव बोले मरुस्थलादि देशों में विहार करना ऐसा कहके अदृश्य हो गए जबतक पूज्य नहीं रहते हैं विहार करनेवाले हैं लब्धोपदेश हैं उतने मरुस्थल में रहनेवाले मेहर, भाषकर, वासल भर्तादिक श्रावक व्योपारकेवास्ते वहां आए For Private And Personal Use Only

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