Book Title: Jinduttasuri Charitram Purvarddha
Author(s): Chhaganmalji Seth
Publisher: Chhaganmalji Seth

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Page 411
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७३ जाना यह मेरे को साथमें ले जायगा यह सिंधितुरक दुष्ट विचावाला हैं कोई वक्त मेंरेपर अनर्थ भी करदेवेगा म्लेच्छोंका क्या विश्वास किया जावे ऐसा विचारके रात्रिमें चलके अपने देशमें चले आए जयदेव आचार्यको वस्तीवासमार्ग अंगीकार किया श्रीजिनदत्तसूरिजी के पासमें सुनके जिनप्रभाचार्यका अभिप्राय भया मैं भी चैत्यवासकात्याग करूं परन्तु इनका अत्यन्तकठिनमार्ग सुनते हैं जो कोई सुकरतरधर्ममार्ग होवे तो ठीकहोवे बादमें उसने केवलिक परिज्ञानसे विचारा पहले वक्त में जिनदत्तसूरि ऐसा नाम आया वाद विचारा अंकव्यत्यय न होगयाहोवे दूसरी वक्त और गिनतीकरी तथापि उसीतरह जिनदत्तसूरि ऐसानाम आया और निश्चयकरनेके लिएतीसरीवक्त गिननाप्रारंभ किया तब आकाशसे अग्निपुंजगिरा आकाशमें वाणी भई जो तेरे शुद्ध मार्ग से प्रयोजन है तो बहुतवार क्यागिनता है तो यही जिनदत्त - सूरि आचार्य संसार निस्तारक और शुद्ध मार्गके प्ररूपक सद्गुरु है वाद यह जनप्रभाचार्यनिःसन्देह भए श्रीजिनदत्तसूरि के पास में आए तब ज्ञानभानु श्रीजिनदत्ताचार्यने कहा तुहारा चूड़ामणि परिज्ञान हमारे समीपमें नहीं फुरेगा जिनप्रभाचार्य बोले मत फुरो, मेरे विधिमार्गसे प्रयोजन है, ऐसा कहनेसे पूज्योंने जिनप्रभाचार्यको चारित्र उपसम्पति दिया बाद जिनप्रभाचार्यने आचार्य की आज्ञासे विहार किया तथा वहां रहे हुए जिनदत्तसूरि अतिशय ज्ञानियों के पासमें जयदेवआचार्य जिनप्रभाचार्यने वस्ती - वास अंगीकार किया सुनके विमलचन्द्रगणी नामका चैत्यवासीने For Private And Personal Use Only

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