Book Title: Jinduttasuri Charitram Purvarddha
Author(s): Chhaganmalji Seth
Publisher: Chhaganmalji Seth

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Page 414
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar ३७६ बनाया पुस्तकमें लिखवाके विक्रमपुर नगरमें मेहर वासल वगैरेहः श्रावकोंको बोध होनेके वास्ते भेजा देवधर सम्बन्धी संण्हियापुत्र जनकघरके पासमें पौषधशाला है उसमें बैठके जिनदत्तमूरिके भक्त श्रावकोंने चर्चरी ग्रन्थकापुस्तक खोला उसअवसरमें मदोन्मत्त देवधर आके चर्चरी टिप्पन यह है ऐसा कहके अपने हाथमें जबरदस्तीसे लेकर फाडडाला उसका यह कुछ नहींकरसकते हैं उन्मत्त होनेसे श्रावकोंने उसके पिताके आगे वह स्वरूप कहा तव देवधरकापिताबोला यह अत्यन्तदुरदान्त है तोभी मैं मना करूंगा वाद श्रावकोंने श्रीपूज्योंकोविनतीलिखी उसमें चर्चरीका खरूप लिखा तब पूज्योंने और चर्चरीग्रन्थ लिखवाके भेजा और पत्र भेजा उसमें यह लिखा देवधरके ऊपर विरूप किसीको मानना नहीं अर्थात् विरुद्ध नहीं करना श्रीदेवगुरुके प्रसादसे यह भव्य होगा वह दूसरा टिप्पन पहुंचनेसे नमस्कार करके श्रावकोंने खोला समाधान हुआ देवधरने विचार किया यद्यपि मैंने टिप्पनक फाड़दिया तथापि आचार्योंने दूसराभेजा है इहां कुछकारण होना चाहिये इस लिए मैं एकान्तमें प्रछन्नपने वांचू और विचार करूं उसमें क्या लिखा है वादमें जब श्रावक टिप्पनक स्थापनाचार्यके आलयमें रखके दरवाजाबन्धकरके गए तब अपनेघरसे ऊपर वाड़ेसे प्रवेश करके बाहरका दरवज्जा बन्धरहते भी चर्चरी पुस्तक लिया और वांचना शुरू किया जैसे २ उसको वांचे वैसा २ भाव उल्लास होवे सो लिखते हैं For Private And Personal Use Only

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