Book Title: Jinduttasuri Charitram Purvarddha
Author(s): Chhaganmalji Seth
Publisher: Chhaganmalji Seth
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दादासाहिब जं० यु० प्र० श्रीजिनदत्तसूरिचरितपूर्वार्धम् For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar प्राचीन पुस्तकोद्धारक फंड ग्रंथांक २६ ॥ अर्हम् ॥ हासाहिब जंगमयुगप्रधान भट्टारक जिनदत्तसूरिचरितम्। पूर्वार्द्धम् । नाचार्य श्रीमजिन कृपाचन्द्रसूरिजी महाराजके सदुपदेशसें दक्षिणहैदराबादनिवासी जैतारणवाला सेठ छगनमलजी आदिकने प्रकाशित किया। मुम्बापुयाँ नर्णयसागरमुद्रालये मुद्रयित्वा प्रकाशितम् । वि० सं० १९८२, सन १९२५. मूल्यं ॥ रुप्यकसार्धम् । [प्रति ५००. For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Published by Shet Chhaganmalji Jaitaranwala, Hyderabad Deccan. Printed by Ramchandra Yesu Shedge, at the Nirnaya-sagar Pregg, 26-28, Kolbhat Lane, Bombay. For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ॐ अर्हनमः॥ श्रीजिनदत्तसूरिचरितप्रस्तावना ॥ ॥जयति विनिर्जितरागः सर्वज्ञः त्रिदशनाथकृतपूजः । सद्भूतवस्तु वादी, शिवगतिनाथोमहावीरः ॥१॥ सिद्धये वर्द्धमानस्तात्ताम्रायन्नखमंडली, । प्रत्यूहशलभप्रोषे दीप्रदीपांकुरायते ॥ २॥ सर्वारिष्टप्रणाशाय, सर्वाभीष्टार्थदायिने । सर्वलब्धिनिधानाय, श्रीगौतमस्वामिने नमः ॥ ३ ॥ श्रीमद्वीरजिनास्यपद्मदतो निर्गम्यते गौतम, गंगावर्त्तनमेत्यया प्रविभवे मिथ्यात्ववैताढ्यकं, । उत्पत्तिस्थितिसंहतित्रिपथगा ज्ञानांबुधावृद्धिगा,। सा मे कर्ममलं हरख विकलं-श्रीद्वादशांगी नदीः॥४॥ कृपाचंद्रसूरि नौमि, गछखरतरान्वितं, । स्याद्वादविधिविद्वांसं श्रद्धालुजनसेवितम् ॥ ५ ॥ जयतिश्रीमदानंदमुनिः मौनव्रतसमायुक्तः। मुनिगणवृषभसमं स बुधरत्नः गुणगणखनिः ॥६॥ तत्प्रसादमाधाय, किंचित्संयोजितं मयका, तेन लभन्तु लोकाः, सद्घोधिरत्नाः चिराच्छिवम् ॥ ७॥ चित्रचरित्रं गुरूणां ॥ शृण्वन्तु भो भव्या सादरा संतः प्रदत्तैकावधानाः॥अचिरान्मौख्यं प्रपद्यतु॥८॥ __ अहो सज्जनो सावधान होकर सुणो, एकावतारी जैनसंघ याने जैन कोमके उत्पादक स्तंभभूत श्री वीरशासनमे श्री उद्योतनसूरिजीके हाथसें जो गच्छस्थापन किये गये उनोंके परम पूजनीक चोरासीगच्छोंको अलंकृत करनेवाले, प्रायें करके समस्त जैन प्रजाओंकी वृद्धि करनेवाले, For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतः चोरासीगच्छोंमे चक्षुतिलक स्थूणा जिहाज सार्थवाह निर्यामकसमान चारित्रपात्रचूडामणि अनेक चारित्रहीन सिथलाचारी आचार्योंको और साध्वादि संघको सुविहित चारित्र और सुविहित विधिमार्गमे प्रवर्त्तनेवाले, प्रायें लुप्तप्राय सद्विधिकों प्रगट करनेवाले, तीर्थंकर प्रतिरूप श्रीगौतम श्रीसुधर्मादि अवताररूप श्रीसीमंधरस्वामी के मुखारविंदसें निर्णय हुवा है एकावतारीपणा जिणोंका अर्थात् एक भवकरके मुक्तिनगरीमें जानेवाले, युगप्रधान पद विभूषित ऐसे अनेक क्षत्रिय वैश्य ब्राह्मणादिक महर्द्धिकलोकोकों प्रति बोधके जैनकोम बनानेवाले दस दस हजार कुटुंब सहित बोहित्थ कुमारपालादि ४ राजाओंको १२ व्रत सम्यक्तसहित धरानेवाले और भी भाटी पडिहार चहुआण पवार देवडा राठोड आदिराजाओंको जैनधर्मतर्फ झुकानेवाले, जैनधर्म जैन प्रजा के ऊपर आये हुवे अनेक तरहके उपद्रवोंको दूर हटानेवाले, विक्रमपुर में १२०० साधु साधवीयां को दीक्षादेनेवाले, १ लाख तीस हजार घरकुटुंबको प्रतिबोध देनेवाले, अनेक मिध्यात्वी देवीदेवताओंसें जैनधर्मकी सेवाकरानेवाले, भवनपति व्यंतर जोतिषि वैमानिक इन ४ निकाय के अनेक सम्यग्दृष्टि देवी देवताओंसें सुसेवित होनेवाले, श्रीसूरिमंत्रके बलसें धरणेंद्रादि ६५ सूरिमंत्राधिष्ठायकों को आकर्षणकरनेवाले, परकायाप्रवेशादि विद्यानिपुण, और चितोडनगरी में श्री चिंतामणिपार्श्वनाथ स्वामिके मंदिर में गुप्तरहिहुइपूर्वाचार्यसंबंधि अनेक विद्यान्नायसें भरीहूइ आम्नाय पुस्तक विद्याबलसें ग्रहणकरनेवाले, उज्जेणी महाकाल मंदिर के स्तंभ में पूर्वाचार्यांने गुप्तसुरक्षितपणें विद्यान्नाय पुस्तकें For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ रखीथी, तिसके अन्दरसें १ विद्यान्नाय पुस्तक श्रीसिद्धसेनदिवाकरनें ग्रहणकरी थी, तिस महाकालमंदिरस्तंभगत विद्याम्नाय पुस्तककों विद्याबलसें आकर्षणकर ग्रहण करनेवाले, और अनेक देव एकसो आठ जातिके भैरव, ५२ प्रकार के क्षेत्रपाल विमलेश्वर पूर्णभद्र माणिभद्र कपिल पिंगल कुमुद अंजन वामन पुष्पदंत जय विजय जयन्त अपराजित तुंबरू खट्टांग अर्चिमालि कुसुम अग्निकुमार मेघकुमार गोमुखादि २४ यक्ष सेलयपर्वतवासी क्षेत्रपाल, सिंधुगतपंचनदी अधिष्ठायक पंचपीरादिदेवगणसें सेवित होने. बाले, चक्रेश्वरी आदि २४ यक्षणी, धृतिलक्ष्मी आदि २४ महादेवी, १६ रोहिणीआदि विद्यादेवी, सरस्वती, श्री लक्ष्मी धृति कीर्ति बुद्धि ही ६ देवी पद्मा जया विजया अपराजिता वैरोट्या नया विजया जयन्ती अपराजिता जंभा स्तंभा मोहा अंधा गंगा रंभा चोसहयोगिणी आदि देव देवगणसें सेवित होनेवाले, अनेक विद्या ही विद्या परमेष्ठीविद्या आचामंत्रविद्या वर्धमानविद्या परकायाप्रवेशविद्या सकुनिविद्या दृशविद्या अदृशविद्या रूपपरावर्त्तिनीविद्या आकर्षणी, मोचनी, स्तंभिनी, तालोद्वाटिनी, संजीविनी, खेचरी, सरसवस्वर्णसिद्धि आकाशगामिनी, वैक्रियादि विद्याओंसें अणिमादि अष्टसिद्धिओंसें सेवित होनेवाले, अतिवृष्टि अनावृष्टि आदि ७ ईतियाँ स्वचक्र परचक्रादि ७ भयसें प्राणिगणको मुक्तकरनेवाले, स्वसिद्धान्त पर सिद्धान्त पारंगामी कंठविराजित सरसती दादा जगमे श्री जिनदत्तसूरींद विघ्नहरण मंगलकरण, संपतकरण, करो पुण्य आणंद एसे महाप्रभाविक पुन्यपवित्र चारुगात्र अतिशुद्ध मोक्षमार्गके आराधन करनेसें और पूर्वभवोपार्जित अतिशुद्ध युगप्रधान• For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पदके परिपाकसे स्वर्ग मृत्यु पातालवासी सर्व जीवजिणोंकी आणा खशिरपर धारनेवाले भये, और सर्वोत्कृष्टपणे श्री वीरशासनकी प्रभावना करनेवाले ऐसे परम पूज्यपाद प्रातःस्मरणीय जंगमयुगप्रधान श्रीमजिनदत्तसूरिजी महाराज बडेदादासाहेबका आमूलचूलापर्यन्त, इतिहासरूप, यहचरित्र सिद्ध हूवाहै, सो सहर्ष सादर आपलोकोंके कर. कमलोंमे पूर्वार्ध प्रथम भाग रूप श्री पूज्यपादका चरित्र समर्पण करता हुं सो इसकों दत्तावधान होकर एक चित्तसें पढ़ें, और श्रीगुरुमहाराजकी भक्तिमें लयलीन होवें, भवसागरका पार पावें इत्याशास्महे उ । जयसागर गणिः ॥ यह पूज्यपाद आचार्य महाराज कबसें कबतक विद्यमानथे, इस शंका पर पूज्यपादश्रीका सत्ता समय देखातें है, श्री वीरात् १६०२ विक्रमार्क ११३२ जन्म, वीरात् १६११ वि० ११४१ दीक्षा, वी० १६३९ वि० ११६९ आचार्यपद् वी० १६८१ वि० १२११ स्वर्ग सर्वायु ७९, जन्मस्थान, दीक्षास्थान, धवलकपुर, प्रतिबोधक चारित्रोदयमें सहायक गीतार्था धर्मदेवोपाध्यायसत्का श्रीमती आर्या, दीक्षागुरु धर्मदेवोपाध्यायाः, बृहद्गच्छीय खरतरविरुदधारक श्रीमन्जिनेश्वराचार्य सुशिष्याः, श्रीपूज्यपादके मातुश्री का नाम श्रीमती बाहडदेवी, पितृनाम श्रीमद् वाछिगमंत्रीश्वरः, हुंबड गोत्रीयः श्रीमतां विद्याभ्यास पंजिकादिरूप लक्षणादि शास्त्र जैन भावडाचार्यसे, और श्रीआवश्यकादि सूत्र सिद्धान्त योगविधि पूर्वक स्वगुरु समीपे पढे, सूरिपद प्राप्तिस्थान, चित्रकूट दुर्गे, आचार्यपद चितोडगढमे, स्वर्गारोहणस्थान हर्षपुर याने अजमेर, १२११ में श्रीवीरात् चुमालीसमेपाटे For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achan श्रीसुधर्मात् तेंतालीसमेपाटे मुख्यशाखामे नवांगवृत्तिकर्ता श्रीजिनाभयदेव सूरिसुशिष्यः श्रीमजिनवल्लभसूरिजीके पट्टको अलंकृतकरतेथे, इसतरे सर्वायु गुणयासी (७९) वर्षकापालके १२११ आषाढ सुद ११ गुरु सौधर्ममेगये इत्यादि विशेष अधिकार तो गणधरसार्ध शतकादिकसे जाणना, तथाचोक्तं युगप्रधानपदभृत्, श्रीजिनवल्लभसूरयः सूरिः श्री. जिनदत्ताहः । तेषां पट्टे दिदीपिरे ॥१॥ युगप्रधानपदभृत् , सूरिः श्रीमजिनदत्ताहः। श्रीवीराचतुश्चत्वारिंशत्तमे पट्टे च समभवत् ॥२॥ इति सूरिसत्तासमयः । श्रीवीरात्सुधांच, वेदाग्नि ४३ वेदधर्म ४४ तमपट्टे, युक्ते समभवन्पूज्याः श्रीजिनदत्तसूरयः ॥ १ ॥ श्रीसद्गुरुके शोभननामाक्षरोंको धारन करनेवाले श्रीवीरशासनप्रभावक श्रीगुरुमहाराजके नामाक्षरोंको सत्यार्थ शोभित करनेवाले श्रीवीरशासनमें यथार्थसिद्धान्तरहस्यार्थ जाणनेवाले, शुद्धनरूपक, शुद्धश्रद्धानयुक्त भिन्न भिन्नगच्छोंमे अनेकाचार्य हूवेहैं, आगे इस पंचम आरेमें श्रीसुगुरुके नामाक्षरोंको यथार्थ सत्यशोभितकरनेवाले, आचार्य महाराज निसंदेह होनेवाले हैं और श्री सद्गुरुका नाम हि ऐसा प्रभावशाली है, इस लिये श्री गुरुके नामकाहि निरन्तर स्मरण ध्यान भव्योंको कल्याणकारि है इसमें अहो सजनो सादर भक्तिभावपूर्वक निरंतर तुम एक श्रीगुरुमहाराजके नामका स्मरण करो इस भवमें योगक्षेम परभवमें स्वर्ग अपवर्गादि सर्व संपदाको प्राप्त होवोगे इत्यलं विस्तरेण श्रीमान् चरित्रनायक पूज्यपादका पट्टक्रम न्यास इसतरे है, तथाहि For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achan १ श्रीवीरवर्धमानः १७ श्रीवनसेनसूरिः १६ ३५ श्रीविमलचंद्रसूरि:३४ २ श्रीइन्द्रभूतिसुधौं १/१८ श्रीचंद्गसूरिः १७३६ श्रीदेवसूरिः ३५ ३ श्रीजंबूस्वामी २१९ श्रीसमंतभद्सूरिः १८३७ श्रीनेमिचंद्रसूरिः ३६ ४ श्रीप्रभवस्वामी ३२० श्रीदेवसूरिः १९/३८ श्रीउद्योतनसूरिः ३७ ५ श्रीशय्यंभवसूरिः ४२१ श्रीप्रद्योतनसूरिः २०३९ श्रीवर्धमानसूरिः ३२ ६ श्रीयशोभद्रसूरिः ५२२ श्रीमानदेवसूरिः २१/४० श्रीजिनेश्वरसूरिः ३९ ७श्रीविजयसंभूतिसूरिः६ २३ श्रीमानतुंगसूरिः २२ श्रीबुद्धिसागरसरिः ८ श्रीभद्रबाहुसूरिः ७२४ श्रीवीरसूरिः २३ ४१ श्रीजिनचंद्रसूरिः ४० ९ श्रीस्थूलभद्रसूरिः ८२५ श्रीजयदेवसूरिः २४ ४२ श्रीजिनाभयदेव१० श्रीआर्यमहागिरि- २६ श्रीदेवानंदसूरिः २५, सरित सूरिः ९२७ श्रीविक्रमसूरिः २६ | ४३ श्रीजिनवल्लभसूरिः ४२ ११ श्रीआर्यसुहस्ति- २८ श्रीनरसिंहसूरिः २७ ४४ श्रीजिनदत्तसूरिः ४३ सूरिः १०/२९ श्रीसमुद्रसूरिः २८ ४५ श्रीजिनचंद्रसूरिः १२श्रीसुस्थितसुप्रतिबद्ध. ३० श्रीमानदेवसूरिः २९ ४६ श्रीजिनपतिसूरिः सूरिः ११३१ श्रीविबुधप्रभ १.४७ श्रीजिनेश्वरसूरिः १३ श्रीइन्द्र दिन्नसूरिः १२, सूरिः ३० १४ श्रीदिन्नसूरिः १४३२ श्रीजयानंदसूरिः ३१ शाखांतरमें १५ श्रीसिंहगिरिसूरिः १४१३३ श्रीरविप्रभसूरिः ३२ श्रीजिनसिंहसुरिः १६ श्रीवनसूरिः १५३४ श्रीयशोभद्रसूरिः ३३ | तत्पट्टे श्रीजिनप्रभसूरिः विशेष खुलासापूर्वक निर्णय चरित्रसें अथवा गणधर सार्धशतकसें जाणना और यहां चरित्रके आदिमे शोभायमान चरित्रनायकके गुरुवर्यका तथा श्रीमान पूज्यपादश्रीमजिनदत्तसूरिजीमहाराजका यथार्थावबोधकस. चित्रजरूर देना अत्यावश्यक है और निष्कारण परमोपकारी श्रीमान् दादासाहिब जब कि इसमनुष्य लोकमे विद्यमान थे, तब जैनधर्मानुरागी भव्यों. की वृद्धिकरनेवालेथे, और अनेकतरहकी संपत्तिकों प्राप्तकरानेवाले, अनेकतरहकी विपत्तिका नाश करनेवाले थे, और जैनधर्मद्वेषी प्राणिगणके तरफसें For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करी हूइ धर्मकी हानिरूप दूषणरूप आचर्यरूप वा चमत्कारप्रवृत्तिरूप अनेकतरहके दोपों को दूर हटाकर असदापत्तियोंका नाशकरनेवाले थे, श्रीवीरशासनका स्तंभभूत महान् समर्थपुरुषभये, तिसकारणसें सर्वत्र हिन्दुस्थानमे याने आर्यावर्त्तखंड में दरेक राजधानी दरेकशहर दरेकग्राम में सर्वत्र चरण स्थापना भई है, और मूर्तिभि कहां कहां है यह आचार्यश्री के स्वर्गारोहण अनंतरहि मणिधार श्रीजिनचंद्रसूरिजीभि अत्यंत उपगारी भये इसी सेंहि चरित्रनायक बडेदादासाहिबके नामसें श्रीजैनसंघ में प्रसिद्ध भया है, इसलिये सर्वगच्छका श्वेताम्बर जैनसंघ वगेरह अभेदबुद्धिसें मानते पूजते स्मरण करते कराते आयें हैं, और इससमय कितनेक जैनभाइ दृष्टिरागी के उपदेश भेदभाव रखतें हैं, भेदभाव करते हैं, कराते हैं, सो लाजिम नहीं है, किंतु उनोकी भूल है, सो सुधारलेनी चाहिये, यह उनों के आत्माका परात्माओं का भी कल्याण है, और यह कुतर्के कुशंकायें नहिंकरनी चाहिये, श्रीगुरुका अवर्णवादरूपनिंदा है, और भोले भद्रीक जीवसंदेहरूप भरमजाल मेगिरतें हैं, तथाहि — दादाजीका काउस्सग्गक्योंकरतेहो, करते हो तो दूसरे आचार्यों काहि करो, श्री गौतमस्वामिका और श्रीसुधर्यस्वामिकभी करो, वेभी परमोपकारी है, श्रीस्तंभनपार्श्वनाथजी काहि निरंतर परमोपकारी पणेंसें चैत्यवंदन करते हो तो श्री महावीर स्वामिकाभी आसत्रोपकारीपणेंसें करो, बोलवा बोलतें हैं शीरणी करते हैं उसमेसें थोडाक भाग चढायदे हो बाकी सब वैचदेते हो या खायजाते हो, यह तो सर्बाह गुरुद्रव्य है, तो श्रावक केसा खायसके, इत्यादि अनेकतरहकी कुयु - क्तियां दृष्टान्त देकर देव गुरु धर्मकी भक्तिभाव सें प्राणियोंका परिणाम हीयमान करते हैं, करवाते है, उन प्राणियों के जन्मान्तरमें कडवाफल होने For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाला है, अहो सजनो ऊपरोक्त कुतर्क कुशंका कुसंगत कुदृष्टिराग कुग्राह कदाग्रह पक्षपात स्थित्यादिकका त्यागकरके शुद्ध प्ररूपक गुणयुक्त सुगुरुके उपदेशसें यथा संप्रदाय सिद्धान्तानुसार सुविहितविधिमार्ग में प्रवृत्ति करो शुद्ध सूत्रार्थ पाठ उच्चारणसहित प्रधानभावपूर्वक श्रीदेवगुरु धर्मकी त्रिकरण योगसें आराधाना निरन्तर करो जिससे इसभवमें परभवमें सर्वोत्कृष्ट सुख प्राप्त हो और ऊपर देखाई हूइ कितनीक कुशंकाओंका परिहार यथाअवसर यथासंप्रदाय समाधान युक्ति हेतु दृष्टान्तपूर्वक करदीया जावेगा, इहांपर प्रस्तावना जादा वढजावै इस्से नहिं लिखा है, इत्यलं पल्लवितेन, और इहांपर चरित्र लेखकके गुरुवर्यका यथार्थ सञ्चित्र और चरित्र लेखकमुनिगण वृषभः पं० श्रीमान् आनंदमुनिजीमहाराजका सञ्चित्र देना अत्यावश्यक है, नम्रशिरोहि इति विज्ञ. पयति जयमुनिः ॥ अथ ग्रंथलेखकः स्वगुरुचरित्र परिचयं संक्षिप्तमा. त्रम् दर्शयति । तथाहि देश मरु राजधानी जोधपुर राजा श्रीमान् तखतसिंहजी विजयराज्ये जोधपुर जिल्हे पश्चिम भागमे वरनामहै, उसका नाम चतुर्मुख याने चामुं है, पिताकानाम श्रीमेघरथ गोत्र वाँफणा वृद्ध शाखा ज्ञाति ओशवाल, मूल वंश ऊकेश, माताकानाम श्नी अमरादेवी जन्म १९१३ जन्म नाम श्रीकीर्तिचंद्रकुमारः किसीसमय शहर आनाहूवा, तत्र श्रीमती आर्या धर्मश्रीजीके समागममे मातासहितपुत्रको प्रतिबोधहूवा, वहसाल याने वर्ष १९२६का था, उससमय आपश्रीकी अवस्था करीब १३ वर्षकीथी, तिससमय आपश्रीकी भवविरक्ति परिणति भइ, परन्तु पढमनाणं तओदया, एवं चिट्ठइ सबसंजए, अभाणी किं काही, किंवा नाहीइ, छेअपावगं,१०सोचाजाणइ कल्लाणं, सोचा जाणइपावगं, उभ For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org जन्म सं० १९१३. श्रीमद् जैनाचार्य श्री श्री १००८ श्री जिन कृपाचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज. दीक्षा सं० १९३६. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्यपद सं० १९७२. For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यपि जाणइ सोचा, जंसेयं तं समायरे ११ ज्ञानक्रियाभ्याम् मोक्षः, सच सर्वकर्मक्षयरूपोमोक्षः सर्वकर्मक्षयश्च सम्यग्ज्ञानपूर्विकयाक्रिययाविना न भवति, तत्सम्यग्ज्ञानं क्रमायातसुगुरुसमीपे अभ्यसनाद भवति इति अध्यवस्यता तेन कथितं, आयो प्रति, हे भगवति मां सुगुरुसमीपे शीघ्रं प्रेषयतु इत्यादि अर्थः पहिलाज्ञानपीछेक्रिया संबररूप. होवे, इसतरे सर्वमुनिरहे, पड्द्रव्यके ज्ञानविना मुनि नहोवे, द्रव्यसें मस्तक मुंडाकर घरवासका त्यागकर जंगलमेरहेणेसें मुनि न होवे नाणेण मुणि होइ, न हु रण्णवासेणं इसवचनसें सम्यग्ज्ञानसेंहिमुनिहोते हैं' केव. लवेषमात्रसें मुनि नहिं होवेहै, किन्तुयथार्थसत्यासत्यबोधजनकसम्यग्ज्ञानसेंहि सर्वेष्टसिद्धि होवेहै' इसवास्तेकहाहे कि सम्यग्ज्ञानसहितसम्यक् क्रियासेंहिमोक्षहोवेहै अर्थात् सर्वकर्मोसे रहित जीवहोवेहै और वह मोझ सर्वकर्मक्षयरूपहै, सर्वकर्मका क्षय तो सम्यग्ज्ञानसहितक्रियाविना प्रायें नहिं संभवेहै' वहसम्यग्ज्ञानअविछिन्नपरंपरासेंआयेहूवे, सुगुरुकेपास अभ्यास करणेसें होवे, एसाविचार करतेहूवे कुमरनें साध्वीजीसे कहाकि हे भगवति मुजकों शुद्धप्ररूपकसुगुरुकेपास विद्याभ्यासकरनेके लिये जलदि भेजो, साध्वीने समजाकि यह कोइ विनयसहित पूर्वभवाराधितज्ञानचरणशीलजीवहै, इसलिये इसकेयोग्यसुगुरुगछमें कोण है, यह उपयोग देके इसके योग्य श्रीसमुद्रसोमजीके सुशिष्य इसकुमारकेयोग्यसुगुरुहै, उनोंकेपासहि विद्याअभ्यासकेलिये भेजना ठीक है, यह विचारके और माताको पूछके, अछे मूहुर्तमें श्रीवीकानेररवाने करा, क्रमसें चलतेहूवे, चैत्रसुद् ३ के रोज सुगुरु के पास हाजिर हूवा, और श्रेष्ठमुहूर्तमें विद्याभ्यास करना शुरुकरा, धार्मिक For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १० व्यावहारिक संस्कृतव्याकरणादिकग्रन्थपढलिखके हूसियारभया, तब गुरुमहाराजनें जैनसिद्धांतपढाणेयोग्य जाणके, संवत् १९३६ की सालमें आषाढ शुदि १० को यतिसंप्रदायिक दीक्षादी, कारण के पात्र आनेपरअनवसरमेभि सिद्धान्तवाचना देना एसामि सिद्धान्तमें अपवादमार्गसें माना है, कुशिष्यादिको बाचना देना उनोंकेपाससे वाचना लेना सर्वथा निषेध किया है, अविनीत निरंतरविगईभक्षी उत्कटक्रोधी दुष्ट मूर्ख व्युदप्राहित अन्यतीर्थीग्रस्त परिव्राजकादिक, खतीर्थीग्रस्त पासत्थादिक उनोंको वाचनादेना उनोंकेपाससे वाचनालेना करेतो साधु प्रायच्छित्त पावे ऐसा छेद श्रुतमे लिखा है, इत्यादिक विचारके, बहुश्रुत गीतार्थ श्रीगुरुमहाराजनें सांप्रदायिकदीक्षा देके सिद्धांतोंकी वाचनादी, उससमय आपकी अवस्था करीब २३ सालकीथी जब व्रतग्रहणकिया, सर्वसिद्धान्तोंकी क्रमसें वाचना ग्रहण करके स्वसिद्धान्तमें अत्यंत निपुण भये, तब श्री गुरुमहाराजसहित शुद्ध सिद्धान्त विध्यनुसार क्रियोद्धार करणेका परिणाम भया, तब पर सिद्धान्तोंका अवगाहन करते हुवे, दर्शनशुद्ध्यर्थ अनेक देश अनेक शहर प्रामादिकमे जिनेश्वरका दर्शन करते हुवे, पूर्व देश तीर्थों की जात्रा करते हुवे अंतरिक्षपार्श्वनाथतीर्थ कुलपाकतीर्थ केसरियाजीतीर्थ श्री गुर्जरदेशीयतीर्थ मांडवगढ मकसी सामलीया अवंती बिबडोद ना. कोडा लोद्रवा कापेडा फलोधीपार्श्वनाथ मेदनीपुर जवालीपुर करेडा अद्भूतशांतिनाथ देवलवाडा चित्रकूट राजनगर लघुमरुभूमिसंबंधि अनेकतीर्थ आबु प्रभास वलेच मांगरोल जामनगर गिरनार तीर्थ ओसीयां इत्यादि अनेक जिनगणधर मुनि आदि जन्मदीक्षा ज्ञान समवसरण चतु For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११ विघ संघस्थापन निर्वाण आदि अनेक कल्याणक भूमियोंमे प्राचीन सातिशायितीर्थभूमियोंमे परिभ्रमणकरते हुवे और भी अनेक तीर्थपूर्व देशीय गुर्जर बृहत्मरु लघुमरु कच्छ काठियावाड कोंकण लाट वढियार मालव छत्तीसगढ वराड मेवाड सिंधुसौवीर पंचालादि अनेकतीर्थोंकी जात्रा करते हुवे, और अनेक शहर ग्रामादिकमे अनेक प्राचीन अर्वाचीन श्री जैनमंदिरोंके दर्शन शुद्ध भावसें करते हुवे, श्री शत्रुंजयादि तीर्थ भूमि और कल्याणकादितीर्थ भूमियों को स्पर्शन करके आपश्रीनें अपने शरीर और आत्माको पवित्र किया, यथार्थ शुद्धसिद्धान्तका अवगाहनकरके निर्वद्यभाषाके स्वीकारपूर्वक शुद्धरूपणाकरणेकरके अपने वचनकों पवित्रक्रिया पंचमहाव्रत की २५ शुभभावना तथा अनित्यादि १२ भावना मननकरके अपनेमनको पवित्र कीया और दानशीलतपजपसंयमादिकर के त्रिकरणयोगकों पवित्रकिया और यथार्थपणें परसिद्धान्तों का अवगाहन किया, षड्दर्शनका प दार्थ यथार्थ जाणा और परमार्थ ग्रहणकिया और स्वसमय परसमयका अध्ययनकरके, और प्राचीन अर्वाचीन सातिशयितीर्थ भूमियों को और कल्याणकादि तीर्थभूमियोंको स्पर्शकरके अपने समकितकों निर्मलकिया, विनयादियुक्तज्ञानग्रहण और शुद्ध प्ररूपणाकरके ज्ञानको निर्मलकिया, आलोयण प्रायश्चितशुद्धभावसे, शुद्धतग्रहणकर के अखंड पालने सें चारित्रकों निर्मलकिया, वांछारहित बाह्य अभ्यंतर इच्छा निरोधरूपयथाशक्तितपकरके, अपनेतपरूप आत्मगुणकों निर्मलकिया, और सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपरूपमोक्षमार्गको देशकालादिकके अनुसारे यथाशक्ति आराधन करना यहि मनुष्यभवका सार है, इसीलिये आप श्रीनें सम्यग्ज्ञानसहिततपसंयम आराधकरनेका दृढ निश्चय किया, और आप श्री अहोरात्रिकसाध्वाचार विचार For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२ नित्यक्रियाकांडरूपचारित्रकी तुलना करनाभी चालु करदीया, आप श्रीका आसरे ३५ वर्षका विद्याभ्यासमे परिश्रम है, स्वसिद्धान्तपर सिद्धान्तका हृदपर्यंत कालसें ६१ की सालपर्यंत परिपूर्णज्ञान हासिलकर विराम कियाहै, और तीर्थ विद्या शास्त्र गुण कला देश सहर ग्रामदिक देशका - लानुसार यथाशक्ति परिश्रम के आधारपरतो आप श्री के परिचयमे आया नहो सातो विरलाहि प्रायें होगा, और आपश्रीका अष्टप्रवचनमाताविषय उपयोग स्मरणशक्ति व्याख्यानशैली प्रश्नोत्तरपद्धति प्रत्युत्तरशक्ति हेतुदृष्टान्तयुक्ति विरोधखंडन विसंवादसमन इन्साफ युक्तायुक्त विवेचन पंक्तिउचारणविनाअर्थशक्ति वचनलाघवादि और धीरकान्तादि अनेक गुण यथार्थपणे वर्त्तमानसमय विद्यमान है, और इससमय तो ऐसा गुणी पुरुष हिंदुस्थान याने आर्यावर्त्तखंड में दूसरा कमहि होगा और इससमय श्रीजैनधर्म उपदेशक आचार्य एकसें एक गुगाधिक है, परंतु देशकालानुसार सर्व गुणगणालंकृत ऐसे विरले पुरुष होते हैं, और श्रीजी की यतिसांप्रदायिकपर्याय मे वर्ष ९ रहना हूवा सो केवल स्वसिद्धान्तपरसिद्धान्त अवगाहन निमित्तहि रहना हूवा, ४५ के नागपुर मे क्रिया उद्धार कीया और जिसमे भी ७ वर्षतो भावचारित्रपर्यायतुलनामेहि रहे, फक्त एक रेलका संघट्टाखुलाथा, उससमय आप श्रीरायपुरसहरमे (२) दोमंदिरोकी प्रतिष्ठाकरी और नागपुरसहर में विराजमान थे, इसलिये इतना बाकीरखाथा, कारण कि वह देश विहारका न होनसें, उस समय आपश्री के श्रीगुरुमहाराजका सहवासयोगथा, वादमे ४१ सालने चेत सुदी १५ को आपश्री के गुरुमहाराजका वियोग हुवा तब हि जादातर संवेग परिणति वढतिहि रहि, बाद श्रीमान् कपूरचंद - साल For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३ जी महाराजका आशीवाद मिला तद्नंतर उनोंके पत्र श्री इन्दोरके श्रीसंघने आगमश्रवणनिमित्त आपश्रीकों नागपुर विनंतीपत्र भेजा तव नागपुर मे आपश्री पन्नवणासूत्रवृत्ति प्रवचनसारोद्धार प्रकरणवृत्ति वाचतेथे, सो पूर्णकरके, वाद आप श्री इन्दोर पधारे वहां श्रीसंवके आग्रहसें पर उपगारार्थ ४५ आगमोंकी वाचना मे कितनकभगवतीपन्नवणा आवश्यकबृहद्वृत्ति १० पवन्नानंदीवगेरह वांचे, वादकुछकालतक विचरतेर है, अमदावाद पालीताणा गिरनार संखेसर भोयणी तारंगाजी विबडोद सेमलीयाजीवंतीजी मकसीजी वगेरा जात्रा करतेहूवे तराणें कायथे पधारे, और वहां आपने बहुत उपगार किया, वाद आपनें श्रीघुलेवाजीकी जात्राके लिये उपदेश किया, वह उपदेश कायथेवालोनें मिलकरमंजूर किया, अंदाजन ४०-५० आदमीयोंकि साथ आप श्री धुलेवा पधारे, बादमे आपश्रीनें ५२ की सालका चोमासा उदेपुरकिया, तवमुनिराज दोठाणा थे, खेर वाडेके मंदिरकी प्रतिष्ठा करी पंचसमितितीनगुपतियुक्त साधुमुनिराज - विचरतेभये, वाद यथार्थ साध्वाचारकों पालते रहै, चोमासे वादक्रमसें विहारकरतेहूवे, आप श्रीदेसुरी पधारे, और गोढवाल मे उपदेश करके नाडलाइ वगेरेके मंदिरों का जीर्णोद्धारका उपदेश कीयाऔरभया वाद त्रेपनकी सालका चोमासा देसुरी किया, वाद ५४-५५-५६-५७-५८ जोधपूर में भगवतीवांची जेसलमेर भगवतीवां० फलोधिमें भगवतीवां ० बीकानेर में ठागांगवृत्ति जेतारण में भगवतीवांची क्रम से चोमासे किये, बाद गोढवालसंबंधि मोटी छोटी पंचतीर्थीक जात्राकरतेहूवे, जालोर आहोर गडे कोटडे पावटे जात्रा करतेहूवे, आनंदमुनि जय मुनि नामक साधु २ सहित आप श्री सिवगंजपधारे, और वहां श्री फूलचंदजी गोलेछाका फलोधीसें संघ आया For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४ उसकेसाथ श्रीसिद्धाचलजी छह (६) साधुसैं पधारे सं० १९५९ मे चैत्री पूनमकी जात्राकरी, वाद महूवा दाटा तलाजावगेरे जात्राकरी, वादवह ५९ सालका चोमासा पालीताणे किया, वादविहारकरतेहूवे श्रीगिरनार वनस्थली मांगरोल वैरावल प्रभासपाटण वलेच पोरबंदर भाणवड जामनगर जात्राकरके पीछे पोरबंदर आये और ६०की सालका चोमासा पोरबंदर किया जीवाभिगमत्रांचा सदापर्युषण जैसा वरतताथा, चोमासे वादविहार करते हुवे गिरनार सेयुंजय जात्राकर नवागांव सणोसरापालियादसुदामडासायला थान वांकानेर मोरवी होते हूवे, मालियाका रण उत्तरके, कछअंजारगये, भद्रेसरतीर्थकी मेलेपर जात्राकरी, कछमुंद्रा उत्तराध्य यन कछ भुज भगवती कछ मांडवी पन्नवणा कछभिदडा - भगवती वांची भाडिया, कछअंजार, ६१-६२-६३-६४ - ६५ क्रमसें यह ५ चोमासा किया, सुथरी घृतकल्लोलतीर्थ जखाऊ नलीया तेरा कोठारा वगेरे जात्राकरी, हरसाल ५ वर्षतक उपधानतप हूवा एकंदर छ देश में साधु साधवीयाकी १० आसरेदीक्षाहूइ, और ६५ की सालमे कछमांडवीका नाथाभाइ वजपालका संघछहरी पालता निकला उसके साथ श्रीसिद्धगिरिजीकी जात्रा १७ठाणेसाथकरी, और ६६की सालका चोमासा पालीताणे किया नंदीसरद्वीपकी रचना भइ साधुरसाधवीओं ३ की दीक्षा५भइ बाद गिरनार की जात्राकरी, ६७की सालका चोमासा जामनगर किया, भगवतीवांची समवसरणकी रचना उछव पूजा प्रभावना उपधान तपदीक्षा ४ वगेरे हूवे, वाद ६८ का चोमासा मोरवी किया, भगवती व्याख्या - नमें वांची वाद गीरनारसत्रुंजय संखेश्वर भोयणीयात्राकर ६९ का चोमासा अहमदावाद कोठारीपोल नवाउपासरामे किया, चोमासैवाद पानसर भोयणी For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar तारंगाजी होते हुवे वीसनगर वडनगर लादोल विजापर माणसा पीथापुर देगांव कपडवंज महूधा खेडा श्रीसच्चादेवमातरमें, खंभातमें श्रीस्तंभणापार्श्वनाथ स्वामिकीजात्राकरी, वाद ७० का चोमासा रतलामवालासे ठाणीजी सेठ श्रीचांदमलजीकी धणियाणी के आग्रहसें पालीताणे किया,भगवती शत्रुजय महात्मवाचा उपधानतप पूजा प्रभावना सामीवत्सलवगेराहूवे, वाद सीहोर वरतेज भावनगर घोघा तणहो तापस तलाजा जामवाडी श्रीश@जयकीजात्राकरके क्रमसें विहारकरते हुवे क्लेमें १ साध्वीकी दीक्षाभइ, खंभायत आये, तबसुरतसें जव्हेरी पाना भाइ भगुभाइ वीन. ती करणेकों आये, तब उनोंकी वीनती मानकर सुरततरफ विहार किया, क्रमसें बडोदा पालेज जिनोरहोते जगडीयाकी जात्राकरते हुवे मार्गमे १ साधुहुवा सुरतरपधारे प्रवेश उत्सव साथ गोपीपुराके नवा उपासरामे पधारे देशनादी, ७१ सालका चोमासा सुरतमें किया, नंदीव्याख्यारमें वांचा१साधुकी दीक्षाहुइ वाद विहार करके कतारगाम कठोर वगेरा फरसते हुवे, तीर्थ जगडीयापधारे, जात्राकरी, मांडवे होके भरुअच्छकी जात्राकरी, वाद क्रमसें पालेज पधारे, वाद वहांसें आमोदजंबूसर होते गंधार तथा कावीतीर्थोंकी जात्राकरके' क्रमसें पादरा दरापरा पधारे पर• न्तु वहां असाताके उदयसें, बुखार मुदती हूवा, परन्तु पंन्यास आणंदसागरजीकी शास्त्रार्थ के लिये आणेकी प्रतिज्ञाथी, तिसकारणपोषी १५ की म्याद पूरण करने के लिया, आपश्री शहर वडोदाकेपास ५ कोसपर ठहरे हुवेथे, आगे विहार नहिं किया, प्रतिज्ञाहानिके भयसें, आपश्रीके जादा तकलीफ होनेपरभी आपश्री स्वप्रतिज्ञा पर्यंत वहांहि रहै, परंतु पंडितामिमानी वह पंन्यास आणंदसागरजी स्वप्रतिज्ञापर हाजरनहिं हूवा, For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाद वैद्यके आग्रहसें इलाजकरानेकों शहरवडोदापधारे, वैद्यनें तनमनसे इलाज किया, तीन महिनेसें तबियत कुछ विहारलायक हूइ, तब मुंबईकी फरसनाके प्रबलतासें वैशाखमासमे वडोदासेविहार किया, क्रमसें डभोइ सीनोर जगडीवा सुरत नवसारी बिल्लीमोरा वरसाड वापीश्रीगांव देणु अगासी भयंडर अंदेरि महिम वगेरा गामोंकों फरसते हुवे, श्रीजिनमंदिरको जात्राकरते हूवे, श्री मुंबई शहर भायखलामें प्रथम पधारे वाद प्रवेशम • होत्सव के साथ लालबागमे पधारे, वहां हि आपका चोमासा सकारण दोय ७२-७३सालका हूवाथा,उससमय आप भगवती सूत्रवृत्ति भावनामे अभय कुमारचरित्र पांडवचरित्र फरमातेथे, उसवाणीको आपके मुखारविंदसे श्रवण करतेंहिं पूर्वसूरियोंका स्मरणहूवा तिसकारण श्रीमुंबई संघने सांप्रदायिक क्रमागत महोत्सवसहित यथाविधि सूरिमंत्रपूर्वक आचार्यद्वारा आचार्यपदमे स्थापित किये, पौषी १५ पुष्यनक्षत्रे आठसें ११ पर्यंत समय में हुवे, मुख्यनाम श्रीमज्जिन कीर्तिसूरीश्वरः, अपरनाम श्रीमजिनकृपाचंद्रसूरीश्वरः नाममें प्रसिद्ध भये, उससमय भगवतीसमाप्त्यर्थ आचार्यपदनिमित्त पंचतीर्थोत्सव पंचपहाडरूप १६ दिनमहोत्सवसामिवत्सलप्रभावनावगेरा बहुतसें धर्मकृत्य हूवेथे, ७३ के चोमासेवाद माघ मासमे विहार किया, क्रमसे धीरे धीरेविहार करते हूवे, अगासी देणुं वापी दमण वलसाड गणदेवी होते हुवे, सुरत जिल्लेमे पधारे मार्गमें ३ साधुकी दीक्षाभइ तिस अवसरमे सुरत निवासनी कमलागुलाबनामकबाईने वुहारी पधारणेंके लिये विनती करी, वाद आप अष्टगांव सातम होते हूवे कडसलिये पधारे, वहांवुहारीसें मुख्यलोक आकर विनती करी, तबसबकी विनती मानकर, बुहारी पधारे उहां श्री For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वासुपूज्यस्वामीका तीनमजलका देरासरमे ३ बिंब श्रीशीतलनाथस्वामी वगैरे ऊपरले मजलमें प्रतिष्ठितकरवाकर विराजमान वाई कमलाने किये, वादशांतीस्नातकराइ, वाद संघने मिलकर चोमासेकेलिये आग्रह कियाथा १ दीक्षासाधुकी वाजीपुरमेहुइ इसलिये ७४ कीसालका चोमासा बुहारीमें किया, २ दीक्षासाधुकी चोमासेवाद हुइ वाद फरसनासाथ कडसलीया सातम अष्टगाव नवसारी जलालपुर फरसते हुवे, सुरत पधारे, और सुरतमें बहुतसे धार्मिककारणोंसे ७५-७६ साल के दोय (२) चोमासे किये, ५ साधु २ साधवीकीदीक्षाभई जिसमे जवेरि पानाभाइ भगुभाइ वोथरागोत्रीयसुश्रावकने आसरे ३६००० रुपिया खरचके प्राचीन शीतलवाडीउपासरेकाजीर्णोद्धारकराया श्रीजिनदत्तसूरि ज्ञानमंदिर बंधाया और प्रेमचंदभाइ केसरिभाइ धमाभाइ मंछुभाइ वगेरे ने ऊजमणा किया, भूरियाभाइने यात्रियोके उतरणेकी १ धर्मशाला कराइ वाद विहार करते हूवे, कतारगाम कठोर क्रमसें जगडीया तीर्थमें श्रीरिषभदेवस्वामीके जन्मोत्सवकेदिनयात्राकरी सुकलतीर्थ जीनोर पाछापुरा पालेज मियागांव वगेरा स्थलोंकों फरसते हुवे, क्रमसें विहार करते हुवे, आषाढ वदि १० भृगुरेवतीके रोज शहर बडोदामें पधारे, और ७७ सालका चोमासा शहरबडोदामें किया, भगवतीवांची चोमासे वाद विहार करते हुवे छाणी वासद् आणंद नलीयाद मातरमें सच्चादेव खेडावगेरामें जिनदर्शनकरतेहूवे श्रीराजनगरपधारे, वाद नरोडा वगेरा होतेहूवे, कपडवंजपधारे, वाद गोधरा देवद क्रमसे रंभापुर झाबुआ राणापुर पिटलाद कर्मदीहोतेहूवे मालवादेशमें शहररतलाम जेठमास के व०४ कुं पधारे, वहां ७८ सालका चोमास किया जिसमें भवगतीसूत्र वखाणमें वांचा उपधानतप साधु ३ साधवी जि. द. २ For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ की दीक्षावगेरा बहुतसे धर्मकृत्यहूवे, चोमासेवाद वांगडोद सेमलीया, सरसी जावरा रोजाणा रिंगणोद गुणदी ताल आलोट पधारे वाद पीछे रिंगणोद पधारे वै० व० ७ की यात्राकरी, वादशीतामहु से मानपुर ताल वगेरा होते हुवे महिंदपुर पधारे वहां १ साधवीकी दीक्षा हुइ, वादक्रमसें विहारकरते हुवे, उज्जयनपधारे, श्रीऐवंतिपार्श्वनाथजीकीयात्राकरी उज्जेनसें कायथा होतेहूवे श्रीमकसीपधारे, यात्राकरी क्रमसें देवासवगेरा होते हूवे, आषाढ वदि १० को इन्दोरमें आपश्री पधारे, वहां आपका ७९ सालका चोमासा हूवा, जिसमें भगवती सूत्रवृत्तिकी वाचनाकरी, तपउपधान हूवा, चोमासेमे १ ज्ञानभंडार हूवा, जिसमे बहुत पुस्तक कपाट वगेराका संग्रहकीयागया है, महोपाध्याय १ वाचक २ पं०३ पदवी दीया १ साधुकीदीक्षाभइ चोमासेवाद संघसाथ तीर्थमांडवगढजात्राकरके धारा नगरी पधारे, वाद अमीजरा भोपावरमें श्रीसांतिनाथस्वामी राजगढमें श्रीमहावीरस्वामीकी यात्राकरी वाद देशाइ कडोद वगेरा होते हुवेवखतगढ वदनावर वडनगर वगेरा फरसते हुवे, क्रमसें खाचरोद पधारे १९८० में चैत्रकी ओलीकरी वाद खाचरोद से विहारकर क्रमसें सेंमलीया नामली पंचेड सहाणा आये दरवारको उपदेशकरा वाद पीपलोदा सुंखेडा अरुणोदवगेरा होते हुवे, आपश्री प्रतापगढ पधारे, वाद प्रतापगढसें क्रमसें तीर्थ वईपार्श्वनाथस्वामिकी यात्राकरी, वईसें क्रमसें आपश्री दशपुर नगर याने मंदसोर पधारे, वहां आपश्रीका ८० सालका चतुर्मासक हूवा, नंदीसूत्रवृत्तिः शत्रुजयमहात्मकी वाचना भइ, मंदसोरसें विहार करते हुवे क्रमसें वई कणगेटी जीरण नीमचछावणी जावद केसरपुरा नीबाडा शतखंडा वगेरा देखते हुवे, चित्रकूटगढ पधारे, चितोडसें सिंगापुर कपासण तीर्थ For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करेडामे श्रीपार्श्वनाथस्वामिकी १४ साधुसाथ यात्राकरी सणवाड मावली पल्हाणो देवलवाडा नागदा एकलिंगशैवतीर्थकेपास जैनअद्भुतश्रीशान्तिनाथस्वामीका स्याममूर्तिरूपतीर्थ है इत्यादिजात्रा करते हुवे, क्रमसें उदेपुर पधारना हूवा था, वादकुछ ठेरकर आपश्री कलकत्ते निवासी बाबू चंपालाल प्यारेलाल वगेरेके संघसाथ श्रीकेसरियाजी पधारेथे, वहां कारणवसात् मास २ ठेरनाहूवाथा औरवहां आपश्रीके परिश्रमसें श्रीजैनश्वेताम्बरोंकाहकसमर्थक १ शिलालेख प्राप्तकियाथा, फिरवापीस उदेपुर पधारे, श्रीसंघके आग्रहसें ८१ सालका चतुर्मासक २५ ठाणासै उदेपुरकिया, चोमासेवाद महेता गोविंदसिंघजीकी सरायमे ४ दिन ठहरे वादवेदला मंदार गोगुंदा नंदेसमा ठोल कमोल सायरा भाणपुरा होते रांणकपुर पधारे औरजात्राकरी, वादसादडी घाणेराव महावीर स्वामिकीजात्राकरी, वाद देसुरीसोमेसर णादलाइ नाडोल वरकाणापार्श्वनाथस्वामिकी जात्राकरी, वादराणी इसस्टेसन राणीगाम खीमेल सांडेराव दुजाणा खिमाणदी भारंदो कोरंटपुर वांकली तखतगढ पादरली चांदराइ चूंडा संखवाली आहोर गोदण गढजवालिपुर याने जालोरदेवावास भमराणी रायस्थल मोकलसर सीवाणोगढ कुशीव आओत्तरा वालोतरा नगरवीरमपुर याने महे. वामें, श्रीनाकोडापार्श्वनाथस्वामिकीयात्रा ४ वक्तकरी जसोलवालोत्तरा पंचभद्रा वालोत्तरा वादक्रमसें बालोतरे ८२ सालका चोमासा वर्तमान है, अब आपश्रीके साधुसाध्वीयोंकाएकंदर समुदाय करीबन ४५-५० का है, जिसमे १० या १२ आपश्रीके साथविचरतें हैं, बाकी साधु अलगदेशोमे विचरतें है, एकसाधुनवावासकछमें ६३ के साल काल धर्म प्राप्त हूवा था, श्रीमतीसौभागश्रीजी नामक मुख्यसा For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २० ध्वीजी अमदावाद चोमासे के पहलां ६९ में काल धर्म प्राप्त हूइथी, मुनिकुंजर श्रीमान् पं० आणंदमुनिजी महाराज ७० का चैत्र वद २ शुक्रवारकों उमरालेमें स्वर्गवास प्राप्त हुवे थे आसरे ३१ साध्वीयां आपश्रीकी विद्यमान हैं और आसरे २५ साधु आपश्री के विद्यमान है और कितनेक शिष्य यति वेषमेभि विद्यमान है, और आपश्रीके तीनठिकाणे पुस्तकोंका संग्रहरूप ज्ञानभंडार विद्यमान है प्रथम वीकानेर २ सुरतवंदरमें ३ मालवा शहर इन्दोरमें है, और आप श्रीके चारित्र पर्यायमें एकंदर चोमासा ४६ व्यतीतहुवा है, और सैतालीसमाचालु है, और आप श्री नित्य एकल आहारी हैं और आप श्री सदा अप्रमादी है, आपश्रीकी ६९ आसरे वर्षकी अवस्था है, तथापि आप श्री जराभि प्रमाद नहिं करते हैं, और आपश्री परिपूर्ण ज्ञानहासिलकरके पीछे सर्वअशुभक्रियाका त्यागरूप संबर चारित्रकी आराधनाकरनेवाले भये है, सम्यक्चारित्र या भावचारित्र इसीकों कहतें हैं, इसीकों सम्यक्ज्ञानी चारित्री शास्त्र कारफरमातें हैं, इसीलिये दरेक धार्मिकक्रिया ज्ञानपूर्वकहि करना चाहिये, तथाहि शास्त्रसंमति, प्रथमज्ञपरिज्ञा पश्चात् प्रत्याख्यान परिज्ञा पूर्वकहि व्रतादिक करना ऐसा श्रीआचारांग है, और प्रथमज्ञान अने पीछे दया यानेजीवरक्षादि क्रिया है, एसा श्रीदशवकालिक है, ज्ञानपूर्वक त्याग सुपञ्चरुकाण रूपसें श्रीभगवती है इत्यादि अनेक सिद्धान्त है, इसीलिये सिद्धान्तानुसार आपश्रीकी सम्यक्प्रवृत्ति है, अतः सम्यक् ज्ञानी शुद्धप्ररूपक कंचन कामिनी के परिहारक श्रेष्ठ मोक्षमार्गाराधक स्वपरात्मोपकारक सुगुरु हैं, अतः अहो सज्जनो एसे सुगुरुवोंकी आणापालणी शुद्धचित्तसें सेवाकरणी विनयवैयावञ्चकरणी तपसंयमादिक For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीमद् जैनाचार्य श्री श्री १००८ श्री जिन कृपाचंद्र सूरीश्वरजी महाराज के शिष्य. स्वर्गीय पंडित श्री आनंदमुनिजी महाराज. जन्म संवत १९४२. दीक्षा संवत १९५६. स्वर्ग १९७१. For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१ ग्रहण करणा भक्ति भावना करणे कराणे अनुमोदने से इहलोक परलोक आत्मा शरीरादिक निर्मल होवे है, स्वर्ग अपवर्ग की प्राप्ति होवे यह नि:संदेह है, और आपश्री वयस्थविर पर्यायस्थविर श्रुतस्थविरभी हैं, अतः महान् पुरुषहैं, नमोस्तु भगवते श्रीवर्द्धमानाय सर्वकर्मक्षयायच नमोनमः श्रीइन्द्रभूत्यादि एकादशगणधरेभ्यः नमोस्तु अनुयोगवृद्धेभ्यः सर्वसूरिभ्यः नमोनमः कोटिकगणवाशाखखरतरविरुदचांद्रादिकुलधारकेभ्यः नमोस्तुयुगप्रधानपदभृत्, श्रीमजिनभद्रसूरये श्रीमजिनकीर्तिरत्नसूरये च नमोनमः नमोस्तु श्रीसंघभट्टारकाय, इति श्रीकीर्तिरत्नसूरिशाखायां तत्प. रम्परायांच युगप्रवरागमश्रीमजिनकृपाचंद्रसूरिवराणां नाममात्रेण चरित्रलेशोयं दर्शितः सारंसारं स्फुरद्ज्ञानधामजैनं जगन्मतं, कारंकारं क्रमांभोजे, गौरवे प्रणतिं पुनः ॥ १॥ यथा स्मृत्यनुसारेण, श्रीमदानंदमुनेः चरितमिदमुपदर्श्यतेत्र मयाका, भव्यहितं खपरोपकाराय ॥ २॥ श्रीमदानंदमुनेः चरित्र लेशो यथा-अहो सज्जनो युगप्रवरागमसत्संप्रदायिसत्कियोद्धारकारकः श्रीमजिनकृपाचंद्रसूरिवराणां विद्वतशिरोमणि जेष्ठांतेवासी श्रीमद् आनंदमुनिजी महाराजका लेशमात्र मेरी बुद्धि अनुसार याने स्मृतिधारणानुसार चरित सुणाता हूं सो आपलोक सावधान होकर सुणिये, इसीजंबुद्वीपका यह दक्षिणार्धभरतक्षेत्रके मध्यखंडमे बृहत्मरु नामकदेशहै, उसमे शहर जोधपुरसे पश्चिम भागमे वारणाऊ नामक बरग्रामहै, तत्र भोगवंशे सर्वसंपत्तिसमन्वितो बलश्रीः नाम्नः अभवत्कुलपुत्रकः, इत्यादि उसग्राममें भोगवंशमें उत्पत्ति जिसकी एसा सर्व संपदायुक्त बलश्री नामका एक कुलपुत्रीया रहाता था, For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२ उसके उपकुलसंभूता शीलसुंदरी नामकी प्रधान स्त्रीथी, उणोके सुखसें काल जातां थकां कालक्रमकरके शुभस्वप्नसूचित एक पुत्र हूवा, कुलक्रमागत मर्यादारूप पुत्रका जन्मोत्सवकिया, वाद सूतक निकालके, स्वजातिवगेराकों भोजनकराके पीछे सर्वलोकोंके सामने माता पिताने यह विचार कियाकि यह पुत्र अपने कुलकों अतिशय आनंदकरनेवाला है, इसलिये कुमरका नाम आनंदकुमार होवो, वाद समय जन्मका जोतिषीको देखाया, तव जोतिषीने ग्रह मिलाकर विचारके कहा इसकी माताने वृषभका स्वप्नदेखा है, यह बालक तुमारे कुलमे दीपक समान होगा राजा. ओंकाराजा होगा अथवा विद्वान शिरोमणि भावितात्मा आणगार होगा, और इसका १५ में वर्षमें विवाहहोगा वाद कर्म दोपसें संपदा क्षीयमाण होगा, और तुमारे काल धर्म प्राप्त हूवे वादभी यह कुमार विदेश गमनसें महान् लाभ प्राप्त होगा, और स्त्री सुहवदेवी होगा, उसके पतिका संयोग करीबन डेढ वर्ष पर्यंत रहेगा, बाद विदेशगमन करेगा, और यह कन्याऊंबर पर्यंत सौभाग्यवती हि पिताके घरमे रहिथकी आपना आयु पूर्ण करेगी, और यह कुमर आयु ३३ वर्षके भीतर हि भोगवेगा, और इसकी माताने वृषभका स्वप्नदेखा यह अत्युत्तम है, और शुभ स्वप्नके देखणेसें अल्पायुरादि दोष नहिंहोनाचाहिये, परंतु इसके ग्रहोंसें यह दोष स्पष्टहि मालूम होवे है इसलिये यह हीयमानकालका हि प्रभाव है, इत्यादि निमित्तभावि कहके शुभाशीर्वाददेके जोतिषी खाना हूवा, वाददूसरेदिन बहुत हि तपासकरी परंतु वह नैमित्तीयातो नहिं मिला तब बडे हि आश्चर्यकों प्राप्त हूवे, और विचार किया कि इस बालकके तकदीरसें आयाथा सोचलागया, नहितो विद्वान विदेशी कहांसें For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .२३ इहां आवे, इसतरे विचारकरके अपने सांसारिक कार्य में लगगये, वाद कितना काल वीतने पर नैमित्तीयेके वचनानुसार भाव होने शरु हूवे तथापि मोहके वश होकर सुहवदेवी नामुकी कन्या के साथ सगाई करी, वाद क्रम से विवाहभी हूवा वाद माता पिता समाधिसें कालधर्म प्राप्त हूवे, वाद अपने माता पिताका स्वकुलोचित लोकिक व्यवहार निपट करके, तिसकेबाद दायभागादिकभी देलेकर निश्चित हूवाथका अपनी स्त्री सुवदेवीकों उसके पीहर पोहोचाके, अपना हार्दिक अभिप्राय किसीके आगेनहिं कहके विदेशगमनकेलिये किया है मनमे निश्चय जिसनें ऐसा यह आनंदकुमार अपने घर आयके रहा, और चोथ शनि रोहिणी का संयोग आनेपर रात्रिके पश्चिम भागमे अर्थात् कषाकाल मे विदेशजानेका मन ऐसा यह आनंदकुमार चंद्रनाडी वहां थकां डावा पाव आगे करके अपने घरसें उत्साह सहित निकला तब माघ मास था, अनुक्रमसें ग्रामनगर आकरादिक फिरता हूवा यह आनंदकुमार श्रीफल - वर्धिक पुर में प्राप्तहूवा और विसनगरमे स्वेछासें फिरता हूवा धर्म स्थानोंकोदेखरहा है, तिसअवसरमे उसके प्रबल पुन्यसेंहिमानुं खेंचा हूवा होवे एसा एक मुनि अकस्मात् उपाश्रयसें बाहिर निकला, तब उस मुनिकों देखकर यह आनंदकुमार अनहद हर्षकों प्राप्त हुवा, और कहा आपलोक कोनहो और क्या करोहो, तबमुनि बोला हे भद्र इमलौक जैनीसाधू हैं, और ज्ञान ध्यानतप संयम करतें हैं, और तेरे कोंभि यह करना होतो हमारेपास आव, तब वह धर्म श्रद्धालु आनंदकुमार शीघ्र हि सर्व मुनियों सहित श्रीगुरुमहाराजके समीपमे आकर नमस्कार करके इसतरे बोला कि हे भगवन् आपकावेश वचन धर्मकृत्य मुझे भिरुचा For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४ है, बहुतहि अछा है, मेंभी आपकी सेवामेरहूं, अर्थात् मेंभी आपका शिष्य होवू, तब गुरु महाराज बोले, हे भद्र जैसा सुखहोवे वेसाकरो परंतु शुभकार्यमें देरीनहिंकरणी ऐसा महाराजश्रीका वचन सुणके जैनधर्म ऊपर परिपूर्ण श्रद्धाभइ, और क्रमसें गुरुवचनानुसार चारित्रग्रहणकरके और धार्मिकशास्त्र न्याय व्याकरण वगेरे शास्त्रोंकी शिक्षा ग्रहण करके विचक्षण भये और सर्वमुनिमंडलमे शिरोमणि हूवे और जैनमुनियों में पंडितशिरोमणि थे, और कितनेक जैन सिद्धान्तोंका गुरुमुखसे अवगाहनकियाथा और कितनेक कर रहेथे, इस अवसरमे हमारे अभाग्यके दोषसें और जैन प्रजाके गुणीव्यक्तिका अभाव ज्ञानि देखा था इस कारणसे आपका देहान्त हुवा, और आपने चारित्रग्रहण करके १४ चोमासे श्रीगुरुमहाराजके साथहि कियेथे, ५७-५८ वीकानेर शहर और जेतारणमें हुवाथा, देश मारवाड, ५९-६० यह चोमासे देश काठियावाड पालिताणा और पोरबंदर में हुवेथे, वाद ६१-६२-६३-६४-६५ कछ मुंद्रा कछभुजराजधानी कछमांडवीवंदर, कछभिदडा कछअंजारशहर, यह ५ चोमासे कछदेशमे अनुक्रमसें हुवेथे, वाद ६६ का चोमासा फिर पालिताणेमें हुवा था, देश काठियावाड, वाद ६७-६८ जामनगर और मोरवी राजधानी मे हुवे थे, चोमासे, वाद ६९ का चोमासा देश गुजरात राजनगर याने अमदावाड़ मे हुवा था, वादरतलामवाले सेठाणी साहबके जादातर आग्रहसें फिर पालिताणे मे हुथा, यह ७० की सालका चोमासा देश काठियावाड मे (सोरठ) अपश्चिम हुवाथा, और आपकी ऊंबर तो छोटीथी, परन्तु बुद्धि और प्रतिभा बहुतहि अतिशायिनीथी, और For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आप आचार्य नेमविजयजी पं० मणिविजयजी मु० वल्लभविजयजी मु० चारित्रविजयजी मु० बुद्धिसागरजी अजितसागरादि बहुतसें ज्ञानवृद्ध मुनियोंसें मुलाकात रुबरुलेकर अपनेज्ञान गोष्ठिका परिचय दिया करते थे, और आप मुक्तकंठसें प्रशंसाभि बहुतसीहिहासिल करतेथे, और आपकी अतिशयिनी ज्ञानवगेराकी शक्तियोंको देखकर मुनिमंडल आश्चर्यकों प्राप्तहोते थे, अहो इति आश्चर्ये यह मुनि क्या देवसूरिहै, या निर्जितशुक्रमति है अथवा साक्षात् देवसूरिहि या दैत्यसूरिही इस मर्त्यलोकमे यह मुनिरूप धारण करके आया है क्या, अन्यथा मनुष्य तो इससमय ऐसा होना दुर्लभ है, कारणके स्वरउच्चारण रूप आकार इंगित चेष्टित प्रायें मनुष्यका एसा होना इस समये असंभव है, इत्यादि संदेहकों प्रेक्षकवर्ग या मुनिमंडल प्राप्त हुवा करते थे, आप थोडेहि अरसेमे श्रीशासनप्रभावक बडे भारी विद्वान समर्थपुरुषहोनेवाले थे, परंतु इसतरेके पंडित महामुनिका कालचक्रने थोडे हि समयमें संहरणकरलिया यह जैनसमाजके लिये बडे अपशोचकी वात भई ॥ आपका गुरु सह संगमस्थान फलोधि है आपका जन्मस्थान वारणाऊ है, आपका दीक्षास्थान खीचंद है आपका खर्गवास स्थान ऊंबराला नामक ग्राम है, देश काठियावाड मे पालिताणासे १२ कोश हे साल ७० चैत्रवदि २ शुक्रवार दिनमें ३ वजे आसरे है नमोस्तु भगवते श्रीपार्श्ववीराय जन्मजरामरणातीताय नमोस्तु सर्वसूरये नमोनमः श्रीमज्जिनभद्रसूरये श्रीमजिनकीर्तिरत्नसूरये च ॐनमः श्रीसंघ भट्टारकायेति श्रीमजिनकीर्तिरत्नसूरिशाखायां तत्परम्परायां च श्रीमजिन कृपाचंद्रसूरीश्वराणां प्रधानशिष्य-श्रीमदानंदमुनेः चरित्रलेशः यथा स्मृतिकथितः भद्रं भूयात् अनयोः गुरुशिष्ययोः चरितस्य विशेषविस्तारं For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २.६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यथावसरं चितयिष्यामः अतः प्रकृतमनुश्रियते इति कहाँपर क्या प्रकृत है, इहांपर यह प्रकृत है कि ग्रन्थकारकों अपने ग्रंथ लिखणेमें छादमस्तिक भावसें या बुद्धिमांद्यतादिकसें अथवा छापेका दोष या दृष्टि दोष वगेरा दोषोंकी संभावनाका मिछामि दुक्कडं देना चाहिये एसा शिष्टजन समाचरण है, यह यहां प्रकृत है और सहायकका सहायकपणाभी उपगारित्व भावसें स्मरण जरूर करणाचाहिये, इसलिये चरित्रकार इसीका अनुसरण करते हैं नमोस्तु श्रीश्रमणसंघभट्टारकाय नमोस्तु श्री चतुर्विधसंघायेति अहो सज्जनो मैनें जो यह समर्थमहान पुरुषका लेशमात्र यथामति गुणवर्णनरूपचरित्र आपलोकोंके समक्ष उपस्थित किया है, सो आपलोक सावधानहोकर उपयोग देकर पढ़ें, और श्रीगुरुभक्तिरूप लाभ हासिल करें और इस पुस्तकमें या इसकी प्रस्ताव - नामे जो मेने जादा कम जिनाज्ञाविरुद्ध शास्त्रविरुद्ध संप्रदाय विरुद्ध अर्थ लिखा होवे, उसका श्रीसंघसमक्ष मिछामिदुक्कडं होवो, और जो मेने इस पुस्तकमे श्रीगुरुगुणवर्णन रूप सदर्थ लिखा है, सो अवश्यहि ग्रहणकरणा, और छापादोष दृष्टिदोष वगेरा भया होवे - सो सुधारकर पढ़ें, और छादमस्तिक भावसें भूल वगेरा रहनेका संभव है, सो सज्जन विद्वान पुरुषोंको मेरेपर कृपाकर सुधारलेना, और कोइतरहकी गलती अर्थवगेराकी त्रुटीरहगई होवे तो पूरण कर समाधानकरणा और मिथ्या अर्थका त्रिकरणयोगसें मिछामिदुक्कडं है, यह सज्जन विद्वानोसें नम्र प्रार्थना है, और यह पुस्तक लिखणेकी छपाकी प्रेरणा तथा सहायता वगेरा शहर दक्षिण हैदरावाद निवासी रा० रा० माननीय रायवाहादुर दीवानबाहादुर राजाबाहादुर श्री For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७ लूणीया गोत्रावतंसक श्रीमान् सद्गृहस्थ सेठ श्रीस्थानमल्लजी तथा सहर जेतारण निवासी, श्रीगुरुदेवमहाराजके परम भक्त, सुश्रावक सेठ श्री छगनमलजी हीराचंदजीने वर्तमान भट्टारक आचार्य महाराजको आग्रह कियाथा, वह उनोंका मनोर्थ आजरोज सफल होनेपर आया है, इस लिये अत्यानंदका समय है, और जगत ईश्वरादि कर्तृत्वविषयिसप्रश्नोत्तर विशेष प्रस्तावना समग्रग्रंथपूर्ण होनेपर दीजावेगी, और ऊप रोक्त श्रीमानोंकी पूर्णआर्थिक सहायता से यह महद श्रीदादासाहेबका चरित्र सिद्ध हुवा है, और दक्षिण हेदराबादमे रहनेवाले अनेक देश शहर निवासी श्रीसंघकी द्रव्यसहायतासें बडे दादासाहेब युगप्रधान श्रीम जिनदत्तसूरीश्वरजीका चरित्र सिद्धहुवाहै श्रीरस्तु शुभं भवतु योगक्षेमं भवतु भद्रं भूयात् कल्याणमस्तु नमः श्रीवर्धमानाय श्रीमते च सुधर्मणे । सर्वानुयोगवृद्धेभ्यो वाण्यै सर्वविदस्तथा ॥ | १ || अज्ञानतिमिरांधानां ज्ञानाञ्जनशलाकया, नेत्रमुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥ २ ॥ श्री वर्धमानस्य जिनेश्वरस्य जयन्तु सद्वाक्य सुधाप्रवाहाः । येषां श्रुतिस्पर्शनजः प्रसत्तेः, भव्या भवेयुर्विमलात्मभाजः ॥ ३ ॥ श्री गौतम गणधरः प्रकटप्रभावः सल्लब्धिसि - द्धिनिधिरञ्जितवाक्प्रबंधः, विघ्नांधकारहरणे तरणिप्रकाशः, सहाय्यकृत् भवतु मे जिनवीरशिष्यः || ४ || दासानुदासा इव सर्वदेवा यदीयपादाञ्जतले लुठन्ति मरुस्थली कल्पतरुः स जीयात् युगप्रधानो जिनदत्तसूरिः ॥ ५ ॥ सिद्धान्तसिन्धुः जगदेकवन्धुर्युगप्रधान - प्रभुतां दधानः कल्याणकोटीः प्रकटीकरोतु, सूरीश्वरः श्रीजिनभद्रसूरिः || ६ || षट्त्रिंशद्गुणरत्ननीरनिलयः श्रीशंखवालान्वयः, प्रस्फु • For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८ ल्लामलनीरसंभवगणव्याकोशहंसोपमाः, क्षोणीनायकनम्रकम्रदलनाः दीपाख्यसाध्वंगजाः शर्म श्रेणिकरा जयन्तु जगति श्रीकीर्तिरनाह्वयाः ॥७॥ पुंडरीकगोयममुहा, गणहरगुणसंपन्न, प्रहऊठीने प्रणमतां, चवदेसे बावन्न ॥८॥ मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमप्रभुः, मंगलं स्थूलभद्राद्याः, जैनो धर्मोस्तु मंगलं ॥९॥ उपसर्गाः क्षयं यान्ति, छिद्यन्ते विघ्नवह्नयः, मनः प्रसन्नतामेति, पूज्यमाने जिनेश्वरे ॥ १० ॥ सर्वमंगलमांगल्यं, सर्वकल्याणकारणं, प्रधानं सर्वधर्माणां, जैन जयति शासनम् ॥११॥ For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .................................................. ..... . ......... ................... " श्रीमद् जैनाचार्य श्री श्री १००८ श्री जिन कुपाचंद्र सूरीश्वरजी महाराज के पट्ट शिष्य. उपाध्याय जयसागरजी गणि. HAR Re eminarape जन्म संवत १९४३. दीक्षा संवत १९५६. उपाध्यायपद १९७६. For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ चरित्रस्थविविधविषयानामनुक्रमो यथा पृष्ठसंख्या. अंक. विषयार्थ. १ मंगलाचरणम् ... २ भूमिका ३ तिर्यक् लोकप्रमाणम् ४ मनुष्यलोकादिस्वरूपम् ५ बावनबोलगर्भितश्रीरिषभदेवाधिकारः ६ रुचकपर्वत ५६ दिककुमारीनामानि ७ श्रीरिषभदेव जन्मोत्सवे ६४ इन्द्रनामानि ८ श्रीरिषभदेवनामस्थापनम् ... .... ९ इक्ष्वाकुवंशस्थापन विवाहसंतानोत्पत्तिः १० श्रीरिषभदेवशतपुत्रनामानि ... ... ११ राज्याभिषेकविनीतानगरी अधिकारः ... १२ पंचकर्मज्ञापन पुरुष ७२ कलानामानि ... १३ स्त्रीणां ६४ कलानामानि १८ लिपीनामानि १४ श्रीरिषभदेवदीक्षा प्रथमपारणाधिकारः ... १५ विद्याधरोत्पत्तिः ... १६ समवसरणस्वरूपम् ... १७ सांख्यदर्शनोत्पत्तिः १८. जैनपंडित ब्राह्मणोत्पत्तिः ... ... २०-२१ ... २३-२४ २७ ३२ For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३० अंक. विषयार्थ. १९ जिनोपवीताधिकारः २० आर्य अनार्य ४ वेदोत्पत्तिः भगवानकानिर्वाणपर्यंतअधिकार २१ श्रीअजितनाथजीअधिकारः २२ किंचित्सगर चक्रवर्त्ति अधिकारः ... ... ... *** ... ... ... ... २३ संभवनाथजी अधिकार: ४९ २४ श्रीअभिनंदनजी अधिकारः २५ श्रीसुमतिनाथजी अधिकार: २६ श्रीपद्मप्रभुजी अधिकार: २७ श्रीसुपार्श्वनाथजी अधिकार: ५१ ५३ ५४ ५६ ५८ *** २८ श्रीचंदाप्रभुजी अधिकारः २९ श्रीसुविधिनाथजी अधिकार: ३० श्रीशीतलनाथजी अधिकार: ३१ श्रीश्रेयांसनाथजी अधिकारः १ वासुदेवबलदेव प्रतिवासुदेव० ५९ ३२ श्रीवासुपूज्यजी अधिकारः २ वासुदेवबलदेव प्रतिवासुदेव ० ६२ ३३ श्रीविमलनाथजी अधिकारः ३ वासुदेवबलदेवप्रतिवासुदेव ० ६४ ३४ श्री अनन्तनाथजी अधिकारः ४ वासुदेवबलदेवप्रतिवासुदेव० ६६ ३५ श्रीधर्मनाथजी अधिकारः ५ वासुदेवबलदेवप्रतिवासुदेव ०- ६८ - ३-४ चक्री . - ३.६ श्रीशांतिनाथजी अधिकारः ३७ श्रीकुंथुनाथजी अधिकारः ३८ श्रीअरनाथजी अधिकारः ५ चक्री. ६ चक्री. ७ चक्री. १८ मां १९ केअंतरमे ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ... ६ वासुदेवबलदेव प्रतिवासुदेव० ८ माचक्री. For Private And Personal Use Only ... ... ... ... : :: ... ... ... पृष्ठ संख्या. ३५ ३६ ४३ ४४ ४६ ४८ ... ७० ७२ ७४ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar अंक. विषयार्थ. पृष्ठसंख्या. ३९ श्रीमल्लिनाथजी अधिकारः ७ वासुदेवबलदेव प्रतिवासुदेव० ७६ ४० श्रीमुनिसुव्रतजी अधिकारः ८ मावासुदेवबलदेव प्रतिवा० ९ माचक्री० ... ... ... ... ७८ ४१ श्रीनमिनाथजी अधिकारः १० माचक्री ११ माचक्री० ८० ४२ श्रीनेमिनाथजी अधिकारः ९ मावासुदेवबलदेवप्रतिवासु० ८२ ४३ श्रीपार्श्वनाथजी अधिकारः १२ माचक्री० २२ मा २३ ___ माके अंत २ में.... .... ४४ श्रीमहावीरजी अधिकारः ... ४५ द्वादशचक्रवर्ति अधिकारः ... ... ४६ द्वादशचक्रवर्तिसमानरिद्धि अधिकारः ... ९३ ४७ नववासुदेवबलदेव प्रतिवासुदेव अधिकारः ४८ अथैकादशरुद्रगतिविचारः... ४९ इग्यारमारुद्रसत्यकीकादृष्टान्तः ५० अथद्वितीय सर्गः... ५१ गणधरादि अधिकारः आचार्योंका संबन्धः ५२ श्रीसुधर्म जम्बू अधिकारः ... ... १२४ ५३ श्रीप्रभवसूरि अधिकारः . ५४ श्रीशय्यभवसूरि यशोभद्रसंभूतादि अधिकारः ... ५५ तृतीयः सर्गः श्री आर्यमहागिरिसैं श्रीनेमिचंद्रसूरि पर्यन्त अधिकारः ... ... ... १३२ ५६ श्रीसिद्धसेन दिबाकरकासंबन्धः ५७ अथ चतुर्थः सर्गः ५८ श्रीउद्योतनसूरि ८४ गच्छ स्थापना ... १०४ ११२ १२५ १३५ For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८६ १९० ३२ अंक. विषयार्थ. पृष्टसंख्या. ५९ चोरासी(८४)आशातना वर्धमानसूरि चारित्रउपसंपद १५४ ६० ८४ गछकेनाम ... ... ... ... १६६ ६१ वर्धमानसू० आबूप्रबंध ... ६२ वर्धमानसूरिजी जिनेश्वरसूरिजी प्रमुख पाटणमे जाते मार्गका विचार भामह सार्थसाथ ... ... ... १७२ ६३ पाटणपोहचै ... ... ... ६४ पंचासरेचैत्यमें सभादुर्लभराजसमक्ष ... १८४ ६५ चैत्यवासिसूराचार्यकापूर्वपक्षचैत्यमेरहणेविषयिलाभ ... ६६ चैत्यवासनिराकरणजिनेश्वरसूरिकाउत्तरपक्ष ६७ चैत्यवासी निरुत्तरभये ६८ खरतरविरुदतथाव्युत्पत्ति ६९ विमलमंत्रीप्रतिबोध आबूतीर्थस्थापन ७० जिनेश्वरसूरिआदि अधिकार ७१ जिनचंदसूरि अ० ... ७२ जिनअभयदेवसूरिथंभणापार्श्वनाथप्रगटकर्ता नवांगवृत्तिकर्ता २१५ ७३ टिप्पनी बहुविषयिअंतरगत ...। ... २१८ ७४ जिनवल्लभअधिकारअध्ययनअभयदेवसूरिपासचारित्रग्रहण आचा र्यपद विहार प्रतिबोधखर्ग गमन ७५ पंचमसर्गगणधणसार्ध शतक ... ... ... ३०६ ७६ युगप्रधानाधिकार ... ... ३४५ ७७ जिनदत्तसूरिकाजन्मदीक्षा अभ्याशवडीदीक्षा वाचकपद आचार्यपदविहार प्रतिबोधयुगप्रधानपद अंबादत्तअ० २४५ For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar अहम् । श्रीयुगप्रधानपदोपबृंहितसमस्तजगदोद्धरणसमर्थ श्रीमजिन दत्तसूरिचरित्रम् विच्छिरोमणिश्रीमदानंदमुनिभिः संकलितं पं० मुनिश्रीजयमुनिना संस्कृतं लोकभाषोपनिबद्धं च । श्रीमजिनदत्तसूरिचरित्रम् ॥ खस्तिश्रीजयकारकं जिनवरं कैवल्यलीलाश्रितं शुद्धज्ञानसुदानयानप्रकरैर्निस्तीर्णभव्यव्रजम् । प्रोल्लासाद्भुतप्रातिहार्यसहितं रागादिविच्छेदकं तीर्थेशं प्रथमं नमामि सुतरां श्रीआदिनाथाभिधम् ॥१॥ ॥शार्दूलविक्रीडितं वृत्तं ॥ श्रीशांतिः कुशलं ददातु भविनां शांतिं श्रिताः सर्वके ध्मातः शांतिजिनेन कर्मनिचयो नित्यं नमः शांतये । शांतेः शांतिसुखं गता च मरिका शांतेस्तथा शांतता शांतौ सर्वगुणाः सदा सुरतरुः श्रीशांतिनाथो जिनः ॥२॥ ॥द्रुतविलंबितं वृत्तं ॥ विहितसंवरभावजगजनं नरसुरेश्वरसेवितपत्कजं । प्रवरराजिमती हितकारकं नमत नेमिजिनं भवतारकम् ॥३॥ For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ द्रुतविलंबितं वृत्तं ॥ प्रवरनिर्मलधर्मविबोधकं भुवनदुः कृततापविशोधकम् । ज्वलदहेः परमेष्टसुखप्रदं श्रयत पार्श्वजिनं शिवकारकम् ॥ ४ ॥ || शिखरिणी वृत्तं ॥ सदेवेंद्रैः पूज्योह्यतिशयविभूत्या पुनरपि तपस्तीव्रं तप्तं क्षपितभवदाहः शमतया । बहूनां भव्यानां जनितजिनधर्मो भवहरः महावीरो देवो जयतु जितरागो जिनपतिः ॥ ५ ॥ ॥ पुनः शार्दूलविक्रीडितं वृत्तं ॥ सर्वाभीष्टवरप्रदानप्रथमः सर्वस्य सिद्धिस्ततः आख्येयस्य च संतिकामसुदुघा कल्पद्रुचिंतामणिः । ध्यायेत् गौतमनाममंत्रमनिशं स स्यान्महासिद्धिभाक् सर्वारिष्टनिवारको ददतु सः श्रीगौतमः केवलं ॥ ६ ॥ वंदिता सर्वदेवैः सा वाग्देवी वरदायिनी । यस्याः प्राप्तौ जनाः सर्वे ज्ञाततां पूज्यतां ययुः ॥ ७ ॥ ॥ पुनः शार्दूलविक्रीडितं वृत्तं ॥ अंबोद्भासियुगप्रधानपदवीविभ्राजमानः पुनः ज्योतिर्व्यतर देवनागसुसुरैः संसेवितः सन् सदा । आप्तोक्तिं स्मरता च जैनसुकुला लक्ष्मीकृताः श्रावकाः भूयाच्छ्रीजिनदत्तसूरिगणभृत् सर्वार्थकल्पद्रुमः ॥ ८ ॥ For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ ॥ आर्या ॥ सूरिश्रीजिनकुशलः क्षितितललब्धोदग्यशःप्रसरः । सेव्यः सैव गुरुभक्त्या भवंतु श्रीजित् किमन्यदेवेन ॥ ९॥ एते सर्वेपि देवेशा मंगलक्षेमकारकाः । भवंतु श्रीजितां नित्यं विमव्यूहप्रणाशकाः ॥ १० ॥ शौर्यादिसद्गुणगणावलिभूषितात्मा तेजोभरेण सवितेव विराजमानः । इंद्रो यथा परमविक्रमभूतिशाली जीया चिरं द्युतिपतिः कृपाचन्द्रसूरिः ॥ ११ ॥ पितामहस्य चाद्भूतं क्रियते लोकभापया । श्रीजिनदत्तः सत् चरितं तस्य सुंदरम् ॥ १२ ॥ इह हि सकलप्रामाणिकमौलिलौकिकप्रकृष्टाचारविशिष्टाः कचि - दभीष्टकाय्र्ये प्रवर्त्तमानाः समस्तसमीहित वितरणविहितसुरकारस्कराहंकार तिरस्कारस्वाभीष्टदेवतानमस्कारपुरस्कारमेव प्रवर्तते अतः प्रस्तुतचरित्रकारः समस्तयोगिनीचक्रदेवदेवतावात विहितशासनाः नानाप्रभावनाप्रभावित श्रीजिनशासनाः महर्द्धिक नागदेवश्रा वकसमाराधितश्री अंबिकालिखितश्रीजिनदत्तसूरियुगप्रधानेत्यक्षरवा चिनमार्जनसमुपार्जितयुगप्रधानपदसत्यताप्रधानाः सकलातिशायि - प्रगुणगुणगणमणिखनयः सकलशिष्टचूडामणयः प्रबोधितान्यगच्छीया तुच्छ भूरिसूरयः श्रीजिनदत्तसूरयः श्री जिनशासनेऽतुच्छोपकारकाः समस्तभव्यानां महानुप्रभावकाः संजाताः अतो For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तेषां चरित्रं गुणगणमनोहरं सम्यक् दर्शनादिहेतुभूतं वक्ष्ये समासेन सुगुरुक्रमायातं यथाश्रुतं यथामति पूर्वसूरिविनिर्मितचरितानुसारेण च शिष्टाचारसमाचरणार्थ "मंगलादियुक्तं शास्त्रं श्रोता श्रोतुं प्रवर्त्तते" इति न्यायात् फलादिकमभिधाय पुण्यपवित्रं चरित्रं पितामहानां प्रस्तूयते-- ॥ तत्रादौ भूमिका ॥ तिहां प्रथमचरित्रके आदिमें स्वाभाविक लोकभाषामें भूमिका लिखतें हैं॥ इह तिर्यक् लोक इत्यादि ॥ अहो भन्यो यह रत्नप्रभा पृथ्वी एक लाख अने ८० हजारयोजन जाडी और एक राजप्रमाणे लांबी और पोहोली है ।। १ टिप्पणी-राजकाप्रमाण सौधर्म देवलोकसें नांखाहूवा लोहका गोला ६ महिनोंमें जितने क्षेत्रकू उल्लंघे उतने क्षेत्रकू १ राजकहतें हैं। और इस रत्नप्रभा पृथ्वीके ऊपर १८ सो योजन उंचाइ मे १ राज लांबा और चोडा गोल आकारवाला कांइक विशेषाधिकत्रिगुणी परिधि जिस्की ऐसा यह तिरछा लोक है इस्के विषे गोलाकृतिवाला पृथ्वीमंडल है उस पृथवीमंडलमे सर्व धर्म कर्मोका निदानभूत और महापुरुषोंके चरणकमलोंकरके पवित्र और सर्व १ राजप्रमाणे पृथवीमें सारभूत और वलयाकृति ४५ लाख योजन लांबा पोहोला For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अने एक क्रोड ४२ लाख ३० हजार २०० उगणपचास योजनकी परिधि है और १७ सो २१ योजन ऊंचो और २२०० दस योजन मूलमें और चारसो २४ योजन शिखरके ऊपर विस्तार - वाला और जांबूनद लाल सुवर्णमय और ४ सिद्धायतन कूटों करके सहित और साक्षात् अढाइदीपकी पृथवीकी रक्षाके लिये जगति समान अर्थात् कोटके सदृश ऐसा मानुषोत्तर नाम वृत्ताकार पर्वत करके वेष्टित है और ५ प्रकारके चरजोतिषी देवोंकी मर्यादा करनेवाला और सर्व १३ सो ५७ पर्वतों करके सहित और २१ सो ४३ कूटों करके सहित और १६० विजय ५ मेरु २० गजदंतगिरि ८० वखारा पर्वत ६० अंतर नदीयों करके भरतादि ४५ क्षेत्रों करके जंबू आदि १० वृक्ष ३० महाद्रह सर्व ८० द्रह महानदी ४५० सर्व ७२ लाख ८० हजार नदियों करके सहित और धातकी खंड और आधेपुष्करावर्त्तदीपके मध्यभागमे दक्षण और उत्तर दिशामें दक्षणोत्तर लांबा सर्व ४ ईक्षुकार पर्वत लालसोने मय है इस कारणसें धातकीखंड और पुष्करावर्त्तदीपके २-२ खंड पूर्वपश्चिम विभागसे है और २० वन और २० वनमुख करके सहित मागधादि ५ सो १० तीर्थ और ६ सो ८० श्रेणियों और २० वृत्ताकार वैताढ्य और १७० दीर्घ वैताढ्य करके सहित दशसो कंचनगिरि और चित्रविचित्रयमक शमक २० पर्वतों करके सुशोभित और दोयसमुद्र और अढाइदीप ४ महापाताल - कलशा और ७८८४ लघुपातालकलशा - हेमवंत और शिखरी पर्वत संबंधि ८ दाढा के ऊपर ७-७ दीप है सर्व ५६ अंतर द्वीप, ३० For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकर्म भूमि, १५ कर्म भूमि करके युक्त और भी अनेक सास्वता पदार्थ कुंड जगति वनसंड दरवाजा परिधि अंतर वगैरे सहित और रात्रिदिनका जो विभाग उस करके सहित और तीर्थंकर चक्रवर्ती प्रतिवासुदेव वासुदेव बलदेव नारद रुद्र गणधर केवली चरमशरीरी १४ पूर्वधारी स्वस्वगुणों करके भावितात्मा युगप्रधान आचार्य उपाध्याय साधु आदिक अनेक पुरुषोंके होनेकी मर्यादा करनेवाला और सर्व मनुष्योंका जन्ममरणादि कालकी मर्यादा करनेवाला और १ राजप्रमाणे सर्व पृथ्वी रूपी स्त्रीके ललाटमें तिलक समान सर्वोत्तम समय नामका क्षेत्र है | इस समय क्षेत्रका ३ नाम है तथा हि मनुष्यक्षेत्र अढाइदीप समयक्षेत्र इस समय क्षेत्रमे ३० अकर्म भूमि ५६ अंतरदीप १५ कर्म भूमि यह १०१ क्षेत्र हैन क्षेत्रों अवस्थित अनवस्थित २ प्रकारका काल है उसमे ३० अकर्म भूमि ५६ अंतरदीप ५ महाविदेह इन ९१ क्षेत्रों में अवस्थित काल है हैमवत ऐरण्यवत हरिवर्ष रम्यक् देवकुरु उत्तरकुरु और अंतर दीप और महाविदेह नामक क्षेत्रों में अनुक्रमसें अवसर्पिणी संज्ञक - कालके प्रथम ४ आरोंके सदृश सदा अवस्थित नित्यकाल है ५६ अंतरदीपोंमे उत्तरते ३ आरेसदृशसदा अवस्थित नित्यकाल है ८०० धनुष देहमान एकांतर आहार ६४ पांशलि गुणयासी ७९ दिन अपत्य पालना करतें है और ५ भरत ५ ऐरावत यह १० क्षेत्रों में सदा अनवस्थित १०-१० कोडाकोड सागरका उत्सर्पणी अवसर्पिणी भेदसें १ प्रकारका काल है और उत्सर्पणी कालका ६ आरा अवसर्पणी कालका ६ आरा एवं १२ आरामयि For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २० कोडा कोड सागर प्रमाणे काल है उसकुं १ कालचक्र करके कहेतें हैं ऐसा कालचक्र अतीत कालमें अनंता हूवा और अनागत कालमें अनंता होगा यह प्रसंग कहा अब प्रकृत अधिकारका आश्रय करतें हैं और भरतादिक १० क्षेत्रों में दरेक उत्सर्पणी तथा अवसर्पणी कालमें व्यवहारनीति राजनीति धर्मनीति क्षत्रिय ब्राह्मण वैश्य शूद्र ४ वर्णोंकी तथा चतुर्विध संघकी उत्पत्ति और २४ तीर्थकर १२ चक्रवर्त्ती ९ वासुदेव ९ बलदेव ९ प्रतिहरि ११ रुद्र याने महादेव ९ नारद गणधर १४ पूर्वधारी मनपर्यवज्ञानी अवधिज्ञानी केवली चरमशरीरी सत्ता सत्तयों आचार्य उपाध्याय साधु युगप्रधानाचार्य संवेगपक्षी श्रावक वगैरे अनेक महापुरुष हूवा करतें हैं और उत्सर्पणी कालके ६ आरोंमे पुण्य प्रकृति दानादि धर्म शरीर संस्थान संघयण बल आयु आदिक सर्व शुभ भाव वर्द्धमान होवे हैं अवसर्पणी कालके ६ आरोंमे पुण्य प्रकृत्यादिक हीयमान सर्व शुभ भाव हुवा करतें हैं और उत्सर्पणी अवसर्पणी के दुषमदुषमादि और सुषमसुषमादि छ छ आरोंका स्वरूप और पूर्वोक्त पदार्थोंका विशेष वर्णन शास्त्रांतरसें जाणना इहां ग्रंथ गौरवके भय से नहिं लिखाहै अब वर्त्तमान इस अवसर्पणी कालमें सर्वोत्तम सनातन जैनधर्म की उपेत्ति जगदीश्वर श्रीऋषभादिक २४ तीर्थंकरोंसें है इसलिये श्रीऋषभादि महापुरुषोंका संक्षिप्तपणें स्वरूप इहां लिखतें है । १ टिप्पणी - भावार्थ - यह भाव है कि पांच महाविदेह क्षेत्रों में For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir || अब ५२ बोल गर्भितश्री ऋषभदेवजीका अधिकार लिख्यते ॥ इक्ष्वाकु भूमीके विषै, श्रीनाभिनामें, सातमा कुलकर हुवा जिसके मरुदेवी नामें पट्टराणी हुई, तिसकी कुखमें, सर्वार्थसिद्ध विमानथकी चवके, मिति आषाढ वदि ४ के दिन, भगवान उत्पन्न भए तब मरुदेवी मातायें, वृषभकों आदलेके, अग्निशिखा पर्यंत, १४ स्वप्ना प्रगटपणें मुखमें प्रवेश करता देखा सो इस प्रमाणे १४ स्वप्नोंका नाम लिखतें हैं, तंजाहा-गय-वसह-सिंह- अभिसेअदाम - ससि - दिणयरं - झयं परमसर - सागर - विमाण भवण - रयणुच्चय सिहिंच || वृषभ गज सिंह श्रीदेवता पुष्पमाला युग्म चंद्रमा सूरज इंद्रध्वज पूर्णकलश पद्मसरोवर क्षीरसमुद्र देवविमान भवन सुदर्शन विजय मंदर अचल विद्युन्मालि इन ५ मेरु आश्रित १६० विजय हैं इन क्षेत्रोंमे जैनधर्मादि भाव प्रायेंकरके अनादि अनंत है और भरतादिक १० क्षेत्रोंमे जैन धर्म पुण्यप्रभाव धर्मप्रणेता श्री तीर्थंकरादिक सर्व अनियत भाव सादि सांत होतें हैं और भरतादि १० क्षेत्रों में जो जो अनियत भाव नियत भाव है सो सर्व अनादि अनंत जाणना और इन सिवाय जो क्षेत्र हैं उनोंमे सर्व भाव प्रायैकरके अनादि अनंत भांगे हैं यह जगत् स्थितिस्वभाव अनादिसें है अनंत कालतक रहेगा एसा लोक स्वभाव है। और जीव पुद्गल पुण्य पापके कारणसें इस जगतमे विचित्रता देखणे में आवे है परंतु १४ रज्वात्मक इस लोकका कोइ कर्त्ता नहिं अनादि लोकानुभावसे हि वणा हूवा है यह निसंदेह है For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रत्नराशि अग्निशिखा, यह १४ स्वमा देखा, और गर्भके प्रभावसें उत्तम उत्तम जो जो डोहला, मरुदेवी माताकों उत्पन्नहुवा, सो इंद्र आयके पूर्ण किया पीछे सर्व दिशायें सुमिख्य समें, मिति चैत्रवदि ८ के दिन, उत्तराषाढा नक्षत्रके विषे, भगवानका जन्म हुवा उसी वखत, रुचक नामकादीप उसके मध्यभागे वलयाकारगोल ८४ हजार योजन ऊंचो और (१००००) दसहजार २२ योजन मूलमे, और (४०००) चार हजारने २४ योजन शिखरऊपर विस्तार है तद् यथाबहुसंख, विगप्पे, रुयगदीव, उच्चत्ति सहस्स चुलसीई, नर नग सम रुयगो पुण, वित्थरि सयठाण सहसंको २५९ तस्स सिहरंमि चउदिसि,बीयसहस्स इगिगु चउत्थि अष्ट, विदिसि चउ इय चत्ता, दिसि कुमरि कूड सहस्सुच्चा २६० अवतरण-रुचकद्वीपके संख्याका घणा विकल्प मेद है ८४ हजार योजन उंचो है' और मानुषोत्तर पर्वत सदृश रुचक पर्वत है, विस्तारमे सो अंकके स्थानमें, हजारका अंक जाणना, २५९, और रुचक द्वीप संख्या विकल्प मूल पाठ देते है, दोकोडी सहस्साई, छच्चेवसयाई इक्कवीसाइ, चउयालसयसहस्साइ, विखंभो कुंडलोदीवो, १, दसकोडी सहस्साई, चत्तारिसयाई पंचसीयाई' बावत्तरिचलक्खा,, विक्खंभोरुयगदीवस्स,, २, यह द्वीपपन्नतिकीनियुक्तिमांहें कुंडलद्वीप और रुचकद्वीपको विष्कंभ कह्यो है,, १, जंबुधायई पुक्खर, वारुणी खीर घय खोय नंदी सरा, संख अरुण रूणवाय कुंडल, संखरुयगभुयग कुस कुंचा, । For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११ ए संघयणीकी गाथाके अनुसारे ११ मो कुंडल द्वीप और १३ मो रुचकद्वीप, २, तिपडोयारातहारुणाईया,, इसप्रमाणसें एक नामका ३ नामहोणसें १० मो कुंडलद्वीप आवे है, और २१ मोरुचकद्वीप है, ३ विकल्प, जंबूदीवे लवणे, धायइ कालोय पुक्खरे वरुणे, खीर घय खोय नंदी, अरुणवरे कुंडले रुयगे, यह ४ विकल्प है,, पूर्वोक्त ४ संख्याके विकल्पोंकरके विराजमान रुचकपर्वत है,, उस रुचकपर्वतके शिखरकेविषे' पूर्वादिक ४ दिशाकेविषे, २ हजार योजन जाहांपर होवे है, वहां १-१ कूट है, और चोथा ४ हजारके विषे, पूर्वादि ४ दिशामें, ८-८ कूट है, यह कूट दिशाकुमारीका जाणना,, और ९ मुं सिद्ध कूट है,, तथा विदिशाके विषे जे ४ कूट है,, सो १ हजार योजन मूलमें विस्तार है,, और १ हजार योजन उंचा है,, शिखर ऊपर ५०० योजनका विस्तार है,, एसर्व ४० कूटके विषे रुचकवासिनी, दिसिकुमरीके तांदिशिके विषे जे कुमरीवसे है,, उणोंका नाम इस प्रमाणे है,, १७ नंदोत्तरा १८ नंदा १९ सुनंदा २० नंदवर्द्धनी २१ विजया २२ वैजयंती २३ जयंती २४ अपराजिता यह ८ पूर्व रुचकके विषेवसे है, २५ समाचारा २६ सुप्रदत्ता २७ सुप्रबुद्धा २८ यशोधरा २९ लक्ष्मीवती ३० शेषवती ३१ चित्रगुप्ता ३२ वसुंधरा यह ८ दक्षिण रुचकके विषेवसे है,, ३३ इलादेवी ३४ सुरादेवी ३५ पृथ्वी ३६ पद्मावती ३७ एकनाशा ३८ अनवमिका ३९ भद्रा ४० अशोका यह ८ पश्चिम रुचकके विषेवसे है, ४१ अलंबुसा ४२ मिश्रकेशी ४३ पुंडरीका ४४ वारुणी ४५ हासा ४६ सर्व प्रभा For Private And Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७ श्री ४८ ही यह ८ उत्तर रुचकके विषेवसे है,, ४९ चित्रा ५० चित्रनाशा ५१ तेजा ५२ सुदामिनी यह ४ विदिशाके रुचकमेवसे है,, ५३ रूपा ५४ रूपांतिका ५५ सुरूपा ५६ रूपवती यह ४ मध्यरुचकके विषेवसे है,, इयचत्ताकेतां, यह सर्व ४० दिशाकुमारी रुचक नामा पर्वतके ऊपर रहे है,, ओर पहिली १६ दिशा कुमारी मेरुके हेठे-ऊपर अधोलोक और उर्ध्वलोकमे रहे है, उणोकानाम यह है, १ भोगंकराः २ भोगवती ३ सुभोगा ४ भोगमालिनी ५ सुवत्सा ६ वत्समित्रा ७ पुष्पमाला ८ अनंदिता यह ८ अधोलोकवासीनी है, और मेरुपर्वतके पास गजदंता पर्वत है, उणोके नीचे भवनोंमे बसे है। तद् यथा अहोलोगवासिणी, दिसाकुमारी। अट्ठ एएसि, हिट्ठा चिट्ठति, भवणेसु।। . १२८ यह गाथा सुगम है, ९ मेघकरी १० मेघवती ११ मुमेघा १२ मेघमालिनी १३ सुवत्सा १४ वत्समित्रा १५ बलाका १६ वारिषेणा, यह ८ ऊर्ध्वलोकवासीनी है, मेरुपर्वतके ऊपर नंदन नामा वन है, उसमे ८ दिशाकुमारीका कूट है उणोंके ऊपर भवनोंमेवसे है, तद् यथा, नवरं भवण पासायंतरह दिसिकुमरिकुडावि, १२२, अवतरण-जिनभवन और प्रासादके ८ आंतरोंमें ८ दिशाकुमारीका कूट है, सौमनसवनसें नंदनवनमें इतना विशेष है, १२२ यह सर्व ५६ दिक्कुमारी देव्यां आयके, सूतिका जन्मोच्छव किया, पीछे उसीवखत रात्रिकों १ अच्युतेंद्र २ प्राण For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ર तेंद्र ३ सहस्रारेंद्र ४ शुक्रेंद्र ५ लांतकेंद्र ६ ब्रझेंद्र ७ माहेंद्र ८ सनत्कुमारेंद्र ९ ईशानेंद्र १० सौधर्मेंद्र ११ बलींद्र १२ चमरेंद्र १३ भूतानेंद्र १४ वेणुदालींद्र १५ हरिस्सहेंद्र १६ अग्निमाणवेंद्र १७ विसितेंद्र १८ जलप्रर्मेंद्र १९ मितवाहनेंद्र २० प्रभंजनेंद्र २१ महाघोपेंद्र २२ धरणेंद्र २३ वेणुदेवेंद्र २४ हरिकांतेद्र २५ अग्निशिखेंद्र २६ पूर्णेद्र २७ जलकांतेंद्र २८ अमितगतींद्र २९ बेलेंवेंद्र ३० घोपेंद्र ३१ चंद्रद्र ३२ सूर्येद्र ३३ कालेंद्र ३४ महाकालेंद्र ३५ सरूपेंद्र ३६ प्रतिरूपेंद्र ३७ पूर्णभद्र ३८ माणिभद्र ३९ मीमेंद्र ४० महाभीमेंद्र ४१ किंनरेंद्र ४२ किंपुरुषेंद्र ४३ सत्पुरुषेंद्र ४४ महापुरुषेंद्र ४५ अतिकायेंद्र ४६ महाकार्येद्र ४७ गीतरतींद्र ४८ गीतयशेंद्र ४९ सन्निहितेंद्र ५० सामानिकेंद्र ५१ धावेंद्र ५२ विधात्रेंद्र ५३ ऋषींद्र ५४ ऋषिपालेंद्र ५५ ईश्वरेंद्र ५६ महेश्वरेंद्र ५७ सुवत्सेंद्र ५८ विशालेंद्र ५९ हास्येंद्र ६० हास्यरतींद्र ६१ तेंद्र ६२ महाश्वेतेंद्र ६३ पतकेंद्र ६४ पतकपतींद्र इन ६४ इंद्रोंका आसन कंपायमान हुवा, तव अवधिज्ञानसें प्रथम भगवानका जन्म हुवा जाणके जन्मोत्सव करनेकों, मेरुपर्वत ऊपर आए, जिसमे पहिला सौधर्मेंद्र भगवानकी माताके पासे आयके, मंगलीक के अर्थ माताके पासे, भगवानके समान दूसरा प्रतिबिंब रखके, भगवाaai heroh ऊपर लेगया ५ रूपसें उहां वडे उच्छवसें स्नात्रकरायके अष्टद्रव्य, पूजाकरके, अगाडी ३२ बद्ध नाटक करके, भगवानकों, पीछा माताके पासें लायके स्थापन किया, क्रोडों सोनइयां की तथा और वस्त्र धान्य हिरण्यादिककी वर्षाकरके 9 For Private And Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar नामि राजाका घर भरदिया पीछे सर्व इंद्र आठमा नंदीश्वर द्वीप जायके अट्ठाहि उच्छव करके, अपनें २ स्थान गए । (फेर) नामि राजाने दश दिनपर्यंत जन्मके उच्छव किये (उस वखत) युगलिया लोक कुछभी जाणते नहीं थे (इसवास्ते) सोधर्म इन्द्रनें, बहुतसे देवता देव्योकों भगवानकेपास रखदिये (सो) सर्व व्यवहार वताते करते रहे ॥ (पीछे) ११ में दिन, कल्पवृक्षोंका दिया हुवा, नानाप्रकारका भोजन, सर्व युगलियाको जिमायके, नाभि राजायें, रिषभ कुमर नाम स्थापन किया । नाम स्थापनका ये हेतू है (कि) भगवानकी दोनूसाथलोंमें वृषभका लांछन था । (दूसरो) मरुदेवी माताने, चवदै स्वप्नाके प्रथम स्वप्नेंमें, वृषभ देखा था (इससेती) रिषभ कुमर नाम स्थापन किया ।। बाल अवस्थामें श्रीऋषभदेवकों जब भूख लगती थी (तब) अपने हाथका अंगूठा, मुखमे लेके चूसलेते थे । उस अंगुठेमें, इन्द्रनें अमृतसंचार कर दिया था। जब ऋषभदेवजी बडे हुए (तब ) देवता उनकों कल्पवृक्षोंके फलल्याकर देते थे। वे फल खाते थे। जब ऋषभदेव, कुछन्यून एक वर्षके हुए (तब) इन्द्र आया । खाली हाथसें स्वामिके पास न जाना। इस्सें इक्षुदंड हाथमें लेके आया (उसवखत) श्रीऋषभदेव कुमर, नाभि कुलकरकी गोदीमें बैठे थे। तब भगवानकी दृष्टि इक्षुदंडपर पडी । तब इन्द्रनें कहा (कि) हे भगवन् इक्षु भक्षण करोगे (तब) श्रीऋषभदेव कुमरनें हाथ पसार्या । तब इन्द्रने, ऋषभदेव कुमारके, इक्षुकी इच्छा उत्पन्न होणेसें, भगवान्का इक्ष्वाकु कुल स्थापन करा (यांसे इक्ष्वाकु For Private And Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वंशकी उत्पत्ति भई) और श्रीऋषभदेवजीके वंशवालोनें, काश वनस्पति विशेषका रस पीया (इसवास्ते) काश्यपगोत्र प्रसिद्ध हुवा ॥ श्रीऋषभदेवजीके, जिस जिस वयमें जो जो काम उचितथा, सो सर्व इन्द्रनें आयके करा (यह) अनादिकालसें, जो जो इन्द्र होते आये है उन सबका येही आचार है। कि प्रथम भगवान्के वयोचित सर्व काम करना ॥ (इस अवसरमें) एक लडकी, एक लडका, अर्थात् स्त्री और पुरुष रूप जोडा बालअवस्थामें, तालवृक्षके हेठे खेलते थे। उहांतालके फल गिरनेंसें लडका मरगया (तब) लडकीकुं नाभिकुलकरकू लायके सोंपी (तब) उसनें ऋषभदेवके विवाह योग्य जाणके, यतनसें अपणेपास रक्खी । तिसका नाम सुनंदा था (और) दूसरी ऋषभदेवकेसाथ जन्मी थी । उसका नाम सुमंगला था। इस दोनोंकेसाथ ऋषभदेव बाल्यावस्थामें खेलते हुए, यौवनवयमें प्राप्त हुए । (तब) इन्द्रने विवाहका प्रारंभ करा । आगे युगलीयांके समयमें विवाहविधि नहीं थी । (इसवास्ते ) यह विवाहमें, पुरुषके कृत्य तो सर्व इन्द्रनें करे (और) स्त्रीयोंकी तरफसे सर्व कृत्य इन्द्राणीने करे (तबसें) विवाहविधि सर्व जगत्मे प्रचलित भया। तव ऋषभदेव दोनों भार्योंकेसाथ संसारिक विषयसुख भोगवतां, छलाख पूर्ववर्ष व्यतीत भए (तब) सुमंगला राणीके, भरत (और) ब्राह्मी, यह युगल जन्मा । (तथा) सुनंदाके बाहुबली (और) सुंदरी यह युगल जन्मा । पीछेसें सुनंदाके तो और कोइ पुत्रपुत्री नहिं हुवे (परंतु) सुमंगला देवीके उगणपञ्चास (४९) जोडे पुत्रोंहीके हुवे । यह सब मिलकर सो (१००) पुत्र (और) दो पुत्रियों भई ॥ For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ अब सो पुत्रोंके नाम लिखते हैं। १ भरत । २ बाहुबली । ३ श्रीमस्तक । ४ श्रीपुत्रांगारक । ५ श्रीमल्लिदेव । ६ अंगज्योति । ७ मलयदेव । ८ भार्गवतार्थ । ९ बंगदेव । १० वसुदेव । ११ मगधनाथ । १२ मानवर्तिक । १३ मानयुक्ति । १४ वैदर्भदेव । १५ वनवासनाथ । १६ महीपक । १७ धर्मराष्ट्र । १८ मायकदेव । १९ आसक । २० दंडक । २१ कलिंग । २२ ईषकदेव । २३ पुरुषदेव । २४ अकल । २५ भोगदेव । २६ वीर्यभोग । २७ गणनाथ । २८ तीर्णनाथ । २९ अंबुदपति । ३० आयुवीये । ३१ नायक । ३२ काक्षिक । ३३ आनतक । ३४ सारिक । ३५ ग्रहपति । ३६ करदेव । ३७ कच्छनाथ । ३८ सुराष्ट्र । ३९ नर्मद । ४० सारस्वत । ४१ तापसदेव । ४२ कुरु । ४३ जंगल । ४४ पंचाल । ४५ शूरसेन । ४६ पुटदेव । ४७ कालिंगदेव । ४८ काशीकुमार । ४९ कौशल्य । ५० भद्रकाश । ५१ विकाशक । ५२ त्रिगर्तक । ५३ आवर्ष ५४ सालु । ५५ मत्स्यदेव । ५६ कुलियक । ५७ मुपकदेव । ५८ वाल्हीक । ५९ कांबोज । ६० मृडुनाथ । ६१ सांद्रक । ६२ आत्रेय । ६३ यवन । ६४ आभीर । ६५ वानदेव । ६६ वानस । ६७ कैकेय । ६८ सिंधु । ६९ सोवीर । ७० गंधार । ७१ काष्टदेव । ७२ तोषक । ७३ शौरक । ७४ भारद्वाज । ७५ शूरसेन । ७६ प्रस्थान । ७७ कर्णक । ७८ त्रिपुरनाथ । ७९ अवंतिनाथ । ८० चेदीपति । ८१ विष्कंभ । ८२ नैषध । ८३ दशार्णनाथ । ८४ कुसुमवर्ण । ८५ भूपालदेव । ८६ पालप्रभु । ८७ कुशल । ८८ पद्म । ८९ महापद्म । ९० विनिद्र। For Private And Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९१ । विकेश । ९२ वैदेह । ९३ कच्छपति । ९४ भद्रदेव । ९५ वज्रदेव । ९६ सांद्रभद्र । ९७ सेतज । ९८ वत्सनाथ । ९९ अंगदेव । १०० नरोत्तम (यह) श्रीऋषभदेवजीके १०० पुत्रोंका नाम कहा ॥ ॥अथ राज्याभिषेक, विनीता नगरी अधिकारः॥ (इस अवसरमें) जीवोंके कषाय प्रबल होजानेसें । पूर्वोक्त हकारादि तीनों दंडनीतिका, लोक भय नहिं करने लगे (इस अवसरमें) लोकोंने सर्वसें अधिक, ज्ञानादि गुणों करके संयुक्त, श्रीऋषभदेवकों जानके, युगललोक, श्रीक्रमदेवकों कहते हुए । (कि) अब सर्व लोक दंडका भय नहि करते हैं । (तब ) मति १॥ श्रुति २ । अरु । अवधि ३। यह ज्ञानकरके युक्त (ऐसे) आदिकुमर युगलियोकुं कहते हुए (कि) जो राजा होता है (सो) दंडकर्ता है । फेर उसकी आज्ञा कोई उल्लंघन नहिं कर सकता है। ऐसे वचन सुनकर, वे युगलिये बोले (कि) ऐसा राजा हमारेभी होना चाहिये । (तब ) आदिकुमर बोले । जो तुमारी इछा ऐसी है (तो) नाभि कुलकरसे याचना करो । (तब) तिनोंने नाभिकुलकरसें वीनती करके (तथा) आज्ञा लेके, आदिकुमरकुं राज्याभिषेक करणेके लिये,-गंगाका जल लेनेकुं गए (इस समें) सौधर्मइंद्रका आसन कंपमान हुवा । तब अवधि ज्ञानसें, राज्याभिषेकका अवसर जानके, बहुतसे देवता देवीयोंके संग सौधर्मेंद्र आके, श्रीआदिकुमरका राज्याभिषेक, संपूर्ण विधिसंयुक्त, महोत्सवके साथ करा । (जिसवखत) छत्र, मुकुट, कुंडलादिक, For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७ आभरण सहित, रत्नजडित सिंहासनपर बेठे हैं । उस्समय, वे युगल लोक, कमलके पत्तोंमें जल लेके आये । ( वहां ) वस्त्राभरण सहित सिंहासनपर बेठे देखके अंगूठेपर जलाभिषेक किया ( तब ) इंद्र विचारा ( कि ) यह युगल लोक बडे विनयवान है । ऐसा जानके वैश्रमण नामा देवकुं आज्ञादीवी ( कि ) आदिराजाके ( तथा ) इस विनीत पुरुषोंके, रहनेके योग्य, विनीता नामसें, १ नगरी स्थापित करो ( तब ) वैश्रमण देवनें, गढ, मढ, झोल, प्राकारादिक, संयुक्त, वर्णन योग्य, १२ योजन, ४८ कोसमें लंबी ९ योजन चवडी नगरी बसाई । जिसके मध्य भागमें २१ भूमिकाका मकान श्रीआदि राजाके रहने योग्य बनाया (और) सर्व भाई बेटांके योग्य, सात सात भूमिये मकान (और) दूसरों के योग्य, तीन २ भूमिये मकान बनाये । इसका विस्तार संबंध, सेतुंज महात्म्य जाण लेना (अब) आदि राजा, चतुरंगिणी सेनाकेवास्ते प्रथमोहो । हाथी, घोडे, गाय, शे, प्रमुख, उपयोगी जानवरोंकुं, वनसें मंगायके संग्रह करे (और) च्यार वंशकी स्थापना करी । उग्र १ । भोग २ । राजन्य ३ | क्षत्रिय ४ । जिसकुं कोटवालकी पदवी दीवी (सो) उग्र दंडके करनेसें, उग्रवंशी कहलाये १ ( तथा ) जिसकुं आदि राजानें, गुरुतुल्य वडे करके माने, तिससे वो भोगवंशी कहलाए २ ( तथा ) आदि राजाके, स्वजनसंबंधि मित्रादिकके, राजन्य वंश कहलाए ३ (और) प्रजागण के सर्व क्षत्री वंश कहलाए ४ ( अब युगलियोंके आहारकी विधि कहते हैं ) हीन कालके प्रभावसें, कल्पवृक्ष २ दत्तसूरि० For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फल देनेसें रह गए। तब लोक, और वृक्षोंके, कंद मूल पत्र फल फूल खाने लगे । केईक इक्षुका रस पीने लगे ( तथा ) सतरे जातिका कच्चा अन्न खाने लगे (परंतु ) कितनेक दिनोंतक कचा अन्न उनको जीर्ण न होनेसें, ऋषभदेवजीने उनकों कहा (कि) तुम हाथोंसे मसलके, तूंतडा दूर करके, खाओ ( फेर) कितनेक दिनों पीछे, वैसेभी पाचन न होने लगा । तब अनेक भांतसें कच्चा अन्न खानेकी विधि बताई । तोभी काल दोपसें अन्न पाचन न होने लगा ( इस अवसरमें ) जंगलोंमे चांसादिक घसनेसें अग्नी उत्पन्न हुवा । पहली कितनेक कालतक अग्नि विछेदथा ( क्युं कि) एकांत स्निग्ध कालमें (और ) एकांत रुक्ष कालमें, अग्नी किसी वस्तूसें उत्पन्न नहिं होसक्ती है ( कदाचित् ) कोई देवता विदेह क्षेत्रसें अग्नीकों लेभी आते (तोभी) इहां तत्काल वुझ जाता था ( इसवास्ते ) पहले अग्नीसें पकाके खानेका उपदेश नहिं दिया (पीछे) तिस अग्नीकों तृणादि दाह कर्ता देखके, अपूर्व रत्न जानके पकडने लगे । जब हाथ जले, तब भयसें आदि राजाळू आयके कहा (और) अपणा हाथ जला हुवा देखाया ( तब ) आदि राजानें अग्नी ले आनेका, और फल फूल पकायके खानेका विधि बताया । फेर आप हाथीपर बेठे हुवे वनमें आये । युगलियोंकेपास लीली मट्टी मंगायके, हस्तीपर बेठे हुवे सबके सामने एक हांडी बनायके दीवी (और) कहा कि, इसकुं अग्नीमें रखके पकायो । हांडी पकके तैयार भई ( तब ) उसमें धान्यका, जलका प्रमाण, रांध For Private And Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९ नेक सर्व विधि बताया। जिसके हाथसे मट्टी मंगाई । और हांडी पकवाई (जिससे ) कुंभकार कर्म प्रगट हुवा | इससेती कुंभकारकुं, प्रजापति (तथा) पर्याप्त कहते हैं ( फेर ) सनें सनं, सर्व आहार पका खानेका विधि प्रगट हो गया ( औरभी) संपूर्ण कर्म, कला मात्र, अपना पुत्रादिक प्रजा गणकुं बताई । आदि राजाके उपदेशसें, पांच मूल शिल्प ( अर्थात् ) कारीगर बने । कुंभकार १ | लोहकार २ | चित्रकार ३ | तंतुकार वस्त्र वणवाले ४ | नापित ५ । ( इस ) एकेक शिल्पका, अवांतर २० वीस भेद रहें हैं । ( इससे ) सब मिलके १०० भेद शिल्पके प्रसिद्ध हवे ( तथा ) कर्षण कर्म, खेती आदिक करणा । ( तथा ) वाणिज्य कर्म, व्यापारादिक करनेकी रीति, तिससे धन उपार्जन करणा । धनका ममत्व करना । धनकों शुभ क्षेत्रादिकमें लगाना ( इत्यादि) संपूर्ण जगत प्रसिद्ध कर्म बताये । ( प्रथम ) मट्टी के संचयोंमें, अहरण हथोडी प्रमुख बनाये ( पीछे ) उससे उपयोगी काम लायक सर्व वस्तु बनाई गई || ( और ) भरतादि प्रजा atarat बहत्तर कला सिखलाई ( तथा ) स्त्रियोंकों चोसठ कला सिखलाई ( इन सर्व कलाके नाममात्र लिखते हैं ) ॥ . ॥ पुरुषोंकी ७२ कलाका नाम ॥ १ लिखनेकी कला । २ पढनेकी कला । ३ गणितकला | ४ गीतकला | ५ नृत्य । ६ ताल बजाना । ७ पटह बजाना । ८ मृदंग बजाना । ९ वीणा बजाना । १० वंशपरीक्षा । ११ भेरीपरीक्षा । १२ गजशिक्षा । १३ तुरंगशिक्षा । १४ धातु For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २० र्वाद । १५ दृष्टिवाद । १६ मंत्रवाद । १७ बलिपलितविनाश । १८ रत्नपरीक्षा । १९ नारीपरीक्षा । २० नरपरीक्षा । २१ छंदबंधन । २२ तर्कजल्पन । २३ नीतिविचार । २४ तत्वविचार | २५ कविशक्ति । २६ ज्योतिष शास्त्रका ज्ञान । २७ वैद्यक । २८ पभाषा । २९ योगाभ्यास । ३० रसायणविधि । ३१ अंजनविधि । ३२ अठारह प्रकार की लिपि । ३३ स्वप्नलक्षण | ३४ इंद्रजालदर्शन । ३५ खेती करणी । ३६ वाणिज्य करणा । ३७ राजाकी सेवा । ३८ शकुन विचार । ३९ वायुस्थंभन । ४० अग्निस्भन । ४९ मेघवृष्टि । ४२ विलेपन विधि । ४३ मर्दनविधि । ४४ ऊर्द्ध्वगमन । ४५ घटबंधन | ४६ घटभ्रमण | ४७ पत्र छेदन | ४८ मर्मभेदन | ४९ फलाकर्षण । ५० जलाकर्षण । ५१ लोकाचार | ५२ लोकरंजन | ५३ अफल वृक्षोंकों सफल करणा । ५४ खड्गबंधन । ५५ छुरीबंधन । ५६ मुद्राविधि । ५७ लोहज्ञान । ५८ दाँतसमारण । ५९ काललक्षण । ६० चित्रकरण । ६१ बाहुयुद्ध | ६२ मुष्टियुद्ध | ६३ दंडयुद्ध | ६४ दृष्टियुद्ध | ६५ खड्गयुद्ध । ६६ वाग्युद्ध । ६७ गारुडविद्या । ६८ सर्पदमन । ६९ भूतदमन । ७० योग, सो द्रव्यानुयोग अक्षरानुयोग, व्याकर्ण, औषधानुयोग, ७१ वर्षज्ञान, ७२ नाममाला || ॥ स्त्रीयोंकी ६४ कलाका नाम ॥ १ नृत्यकला । २ औचित्यकला | ३ चित्रकला । ४ वादित्र ५ मंत्र | ६ तंत्र । ७ ज्ञान । ८ विज्ञान । ९ दंभ । १० जलस्थंभ | ११ गीतगान । १२ तालमान | १३ मेघवृष्टि | १४ फलाकुष्टि | For Private And Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५ आरामारोपण । १६ आकारगोपन । १७ धर्मविचार । १८ शकुनविचार । १९ क्रियाकल्पन । २० संस्कृतजल्पन । २१ प्रसादनीति । २२ धर्मनीति । २३ वाणिवृद्धि । २४ स्वर्णसिद्धि । २५ तैलसुरभिकरण । २६ लीलासंचरण । २७ गजतुरंगपरिक्षा । २८ स्त्रीपुरुषके लक्षण । २९ कामक्रिया । ३० अष्टादश लिपि परिच्छेद । ३१ तत्कालबुद्धि । ३२ वस्तुसिद्धि । ३३ वैद्यकक्रिया। ३४ सुवर्णरत्नभेद । ३५ घटभ्रम । ३६ सारपरिश्रम । ३७ अंजनयोग । ३८ चूर्णयोग । ३९ हस्तलाघव । ४० वचनपाटव । ४१ भोज्यविधि । ४२ वाणिज्यविधि । ४३ काव्यशक्ति । ४४ व्याकरण । ४५ शालिखंडन । ४६ मुखमंडन । ४७ कथाकथन । ४८ कुसुमगुंथन । ४९ वरवेष । ५० सकल भाषा विशेष । ५१ अभिधान परिज्ञान । ५२ आभरण पहरण । ५३ भृत्योपचार। ५४ गृहाचार । ५५ शाठ्यकरण । ५६ परनिराकरण । ५७ धान्यरंधन । ५८ केशबंधन । ५९ वीणादिनाद । ६० वितंडावाद । ६१ अंकविचार । ६२ लोकव्यवहार । ६३ अंत्याक्षरिका । ६४ प्रश्नप्रहेलिका ॥ यह स्त्रीकी ६४ कला कही ॥ अवकी सर्व संसारीक कला पूर्वोक्त कलायोंका प्रकारभूत है (इसवास्ते ) सर्व कला इनहीके अंतर्भाव है ( जैसें ) प्रथम लिपि कला के १८ भेद दक्षिण हाथसें ब्राह्मी पुत्रीको सिखाया । तिसके नाम कहते हैं ॥ १ हंस लिपि । २ भूत लिपि । ३ यक्ष लिपि । ४ राक्षसी लिपि । ५ यावनी लिपि । ६ तुरकी लिपि । ७ किरी लिपि । ८ द्रावडी लिपि । ९ सैंधवी लिपि । १० मालवी लिपि । For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२ ११ नडी लिपि । १२ नागरी लिपि । पारसी लिपि । १५ अनिमित्ती लिपि । मूलदेवी लिपि । १८ उड्डी लिपि || ( यह ) ब्राह्मी लिपि, देश विशेषके भेदसें, अनेक ( जैसेंकी ) १ लाटी । २ चौडी । ३ डाहली । ४ कानडी । ५ गौर्जरी । ६ सोरठी । ७ मरहठी । ८ कोंकणी । ९ खुरासाणी । १३ लाटी लिपि । १४ १६ चाणक्की लिपि । १७ अठारह प्रकारकी तरहकी हो गई । १० मागधी । ११ सिंहली । १२ हाडी । १३ कीरी । १४ हम्मीरी । १५ परतीरी । १६ मसी । १७ मालवी । १८ महायो | ( इत्यादि ) लिपि सिखाई ( तथा ) सुंदरी पुत्रीकों वाम हाथसें अंक विद्या सिखाई । ( और ) जो जगतमें प्रचलित कला है । जिनसे कार्य सिद्ध होते हैं । ( वे सर्व ) श्री ऋषभदेवने प्रव ताई है । तिसमें कितनीक कला, कई वार लुप्त हो जाती है । 1 फिर समय पाकर प्रगटभी हो जाती है ( परंतु ) नवीन कला, वा विद्या, कोइभी उत्पन्न नहिं होती है । जो कला व्यवहार, श्री ऋषभदेवजी ने चलाया है । उसका विस्तार, सर्व आवश्यक सूत्र से देख लेना || For Private And Personal Use Only श्री आदिराजायें, भरतकेसाथ ब्राह्मी जन्मी थी । तिसका विवाह तो, बाहुबलीकेसाथ किया ( और ) बाहुबलीकेसाथ, जो सुंदरी जन्मी थी । उसका विवाह भरतके साथ कर दिया । तबसें माता पिताकी दीवी हुई कन्याका विवाह प्रचलित हुवा | ( इससे ) पहले एक उदरके उत्पन्न हुबे, भाई बहिनके संबंध होता था ( वो ) दूर किया || ( तब ) लोकभी इसीतरे विवाह Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करने लगे (और ) विवाहका विधि, सर्व आदिराजाके विवाहसमें, इंद्र, इंद्राणियोने करा था। उसीमुजब करने लगे ॥ श्री आदिराजाने बहुत कालतक राज्य किया । संपूर्ण राज्यनीतीसें, प्रजाके अर्थ, सबतरेके सुख उत्पन्न किये। (इस हेतुसें ) श्रीऋपभदेव स्वामीकों सर्व जगस्थितिका कर्ता, जैनी लोक मानते हैं (दूसरे मतवाले ) जो ईश्वरकी करी सृष्टी मानतेहैं । ( वेभी) ईश्वर, आदीश्वर, जगदीश्वर, योगीश्वर, जगत्का कर्ता, ब्रह्मा आदि, विष्णु आदि, योगी आदि, भगवान् आदि अर्हत, आदि तीर्थकर, प्रथम बुद्ध, महादेव ( इत्यादि ) जो नाम ओर महिमा गाते हैं ( वे सर्व ) श्री ऋषभदेवजीकेही गुणानुवाद हैं (और ) कोई सृष्टीका की नहीं है ॥ सर्व जगत्का व्यवहार चलाकर शेषमें भरतपुत्रकुं, विनीता नगरीका राज्य दीया ॥ बाहुबली पुत्रकुं, तक्षशिला नगरीका राज्य दीया ॥ शेष ९८ पुत्रोंको उनोंके नामसें, जूदे २ देश वसायके राज्य दीये ( जबसें ) अंग, बंग, कलिंगादि देशोंके नाम प्रसिद्ध हुवे । ( और ) सर्व गोत्रियोंकुंभी, यथायोग्य आजीविकाके विभाग कर दिये ( इससमें ) नव लोकांतिक देवताने भगवानकुं दीक्षाका अवसर जनाया । भगवान आप अपणे ज्ञानसें दीक्षाका अवसर जानते हैं (तथापि ) लोकांतिक देवोंका यहहीज जीत व्यवहार है ( पीछे ) संवत्सरी दान देके, चैत्र वदि ८ के दिन, मच्छ, कच्छ, प्रमुख ४ हजार सामंत पुरु. पोकेसाथ दीक्षा ग्रहण करी । दीक्षाका महोत्सव सर्व, ६४ इंद्रोंने मिलके करा ( तब ) भगवानकुं चोथा मनपर्यव ज्ञान उत्पन्न For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४ श्रेयांसका ने अपन) भया । दीक्षा लिये वाद, १ वर्षतक शुद्ध आहार साधूके लेने योग्य नहिं मिला । जहां भगवान् जावै ( वहां ) हाथी, घोडे, आभूषण, कन्या, इत्यादिक बहुतसे भेट करे । (परंतु ) शुद्ध आहार देनेकी विधि कोइ नही जानें ( क्यूं कि ) आगे कोई मिक्षाचर देखा नही था ॥ और भगवान् उस्समय त्यागी थे (इसवास्ते) आहार विगर कोइभी पदार्थ ग्रहण करा नहिं । ( पीछे ) १ वरपके वाद, वैशाख सुदि ३ कुं, हथनापुर आये । ( तहां ) श्री ऋषभदेव स्वामीका पड़पौत्र, श्रेयांसकुमरने जातिस्मरण ज्ञानके बलसें, भगवानकुं इक्षुरसका पारणा कराया । उस वखतमें, ५ दिव्य देवताने प्रगट करे। साढा १२ कोड सोनइ. यांकी वरषा करी । श्रेयांसका जश तीन भवनमें फेला । तब लोकोंने आयके पूछा (कि ) तुमने ऋषभदेव स्वामीकुं भिक्षार्थी केसेंजाने । तव श्रेयांस कुमरनें आपणे ( अरु ) ऋषभदेव स्वामीकेसाथ, ८ भवोंका संबंध कह्या ( इससेती) भगवान्कुं साधु मुद्रामें देखके, मेरेकुं जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न भया । तिनसें ८ भवोंका संबंध, तथा भिक्षार्थीपणा जाना ॥ इसका विस्तार सर्व आवश्यक सूत्रसें जाण लेना ॥ जब भगवानकुं एक वर्षतक शुद्ध आहार न मिला ( तब ) मच्छ, कच्छ प्रमुख ४ हजार पुरुष, जो साथमें दीक्षा लीवी थी (सो) भूखसे पीडित हुवे थके, वनमे गंगाके दोनूं किनारे, तापशपणा धारके, कंद मूल फल फूल खाते हुवे रहने लगे (और) श्री ऋषभदेवस्वामीका ध्यान जप आदि, ब्रह्मादि शब्दोंसे करने लगे ( इहांसे ) तापशादिककी साधु, For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५ उत्पत्ति हुई ॥ (जब) श्रेयांस कुमरनें आहार दिया । उस दिनसें सब लोक साधूकू शुद्ध आहार देनेकी विधि जाननें लगे ॥ ॥अब विद्याधरोंकी उत्पत्ति कहते है ॥ श्री ऋषभदेवस्वामी दीक्षा लियांकेबाद, १ हजार वर्षतक, देशोंमे छमस्थपणे विचरते रहे । तिस अवस्थामें । कच्छ (और) महाकच्छके बेटे । नमि, और विनीने, आकर, भगवान्की बहुत सेवा भक्ति करी (तब ) धरणेंद्र संतुष्टमान होके, ४८ हजार पठित सिद्धविद्या उनकुं देकर, वेतादयगिरीकी, दक्षिण और उत्तर, यह दो श्रेणीका राज्य दीया । ( तब ) तिनके वंशी सब विद्याधर कहलाए (इनही ) विद्याधरोंके संतानमें रावण, कुंभकर्ण, बालि, सुग्रीव, हनूमानादि, सर्व विद्याधर भए हैं। (एकदा) छमस्थ अवस्था में भगवान् विहारकर्ते, तक्षशिला नगरी गए। वहां बाहिर, बागमें काउसग्ग करके खडे रहे । यह खबर उहांके राजा, बाहुबलजीकुं हुई । ( तब ) बाहुबलीनें मनमें विचार करा । कि प्रभातसमें बडे आडंबरके साथ, पिता श्री ऋषभदेवजीकुं वांदनेकुं जाउंगा ॥ जब प्रभातसमें, वडे आईबरसें वांदनेकुं गया (तो) वहां भगवानकुं न देखा । वनमालीसें सुना (कि ) भगवान् तो, सूर्य उगतेही विहार कर गए (तब ) बाहुबली बहुत उदास हुयके, जहां भगवान्काउसग्ग मुद्रा में उभे थे । उसजगे कामे अंगुली घालकें (बाबा आदम, बाबा आदम ) ऐसे ऊंचे स्वरसें पुकारके, उसी चरनूंके ठिकाने, रत्न मई For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६ धुंभ बनाके, धर्मचक्र तीर्थ स्थापितकरा । (यह ) धर्मचक्र तीर्थ विक्रम राजाके राज्यतक तो रहा ( पीछे ) म्लेच्छादिकके बहुत से प्रचारसें, धर्मचक्र तीर्थ, ऐसा नाम तो नष्ट भया ( और ) यवन लोकोंने उसका नाम, मक्का, ऐसा प्रसिद्ध करा (और) अवलसें तो यवनादिकभी, मद्यमांसादिक अभक्ष नहिं खाते थे । यवनोंके मतभी, नसादिक अभक्ष खाना नहि कहा है ( तथापि ) जो के खाते है । सो धर्मसें विरुद्ध है | और श्री ऋषभदेव स्वामी । जिन २ देशोंमे विचरे । वहांका लोकतो प्रायें सरलस्वभावी दयावंत हुवे (और) भगवान् जिनदेशोंमे न गए ( अरु ) जिनूंनें भगवान के दर्शन नहिं करे ( वो ) सर्व म्लेच्छ, अनार्य, निर्दयी, हो गए । अनेक अपनी कल्पनाके मत मानने लगे । उनका व्यवहार औरतरहका हो गया ॥ ( इस कारण से ) सर्व वरणोंका ( तथा ) सर्व मत मतांतरका ( तथा ) सर्व वैद्यक, ज्योतिष, मंत्र, तंत्रादिक, संपूर्ण कलाकौशल्यका मूल उत्पत्तिकारण, श्रीऋषभदेवखामी भए ॥ ( जब ) श्री ऋषभदेव स्वामीकुं चारित्र लियेवाद, १ हजार वर्ष व्यतीत भए ( तब ) विहार करके विनीता नगरीके पुरिमताल नामा वागमें आये ( जिसकुं ) इस्समय प्रयागजी कहते है ( उहां ) वड वृक्षके नीचे, तेलेकी तपस्यायुक्त, मिति फाल्गुन वदि ११ के दिन, प्रथम प्रहरमें, संपूर्ण लोकालोकप्रकाशक, केवलग्यान, केवलदर्शन, उत्पन्न हुवा (उसीवखत ) ६४ इंद्र । भुवनपति, व्यंतर, ज्योतिपी, वैमानिकके देवगण, सर्व आय के समवसरनकी रचना करी ॥ For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥अब समवसरनका किंचित स्वरूप लि०॥ प्रथम भुवनपति, वायुकुमारदेवता, १ योजन पृथ्वीका कचरादिक दूरकरके शुद्ध करे ( तदनंतर) भुवनपति मेघकुमार नामें देवता १ योजन पृथ्वीपर सुगंधि जलकी वर्षा करे (तदनंतर) व्यंतर देवता उसी पृथ्वीपर गोडे प्रमाण सुगंधि पुष्पोंकी वर्षा करे ( पीछे ) व्यंतरदेव पुष्पोंके ऊपर, वनस्पतिकुं बाधा रहित, १ योजनमें, रत्नोंकी पीठका बनावे । इस पीठकाके ऊपर, भुवनपति देवता, रूपेमई गढ, सुवर्णमई कांगरांकी रचना करे । तिसके च्यारंदिशे, ४ दरवाजा । छत्र, चामर, तोरण, ८ मंगलीक, धूपघटी (प्रमुख) वर्णनसहित करे (तिसके अंदर) ज्योतिषी ( देवता ) रत्नमई कांगरायुक्त, सुवर्णमई कोट, ४ दरवाजासहित करे । (तिसके अंदर ) वैमानिक देवता, मणि रत्नमई कांगरासहित, रत्नमई कोट ४ दरवाजासहित करे ॥ दरवाजाका वर्णन पूर्ववत् जाण लेना, ( अब ) इसकोटके मध्यमें, रत्नोंमई १ पीठका बनावें । तिसके ऊपर मध्यभागमें १ रत्नमई स्थटक, वृक्षका थांणा वनावै । तिसके ऊपर, छत्र चामरादि विभूति सहित अशोकवृक्षकी रचनाकरै जिस अशोकवृक्षके नीचे, रत्नजडित सुवर्णमई ४ दिशे ४ सिंहासन स्थापना करे । तिसऊपर, तीन छत्र (अरु) दोनुं तरफ चामर रहे । (और) इसी तरह वणावसहित भगवान्के बैठनेके लिये, स्वर्णरत्नमई मध्यकोटके बीचमें देवछंदेकी रचना करे। ऐसा वर्णन सहित समोसरणमें, भगवान् श्रीऋषभदेवस्वामी पूर्वके दरवाजैसे प्रवेशकरके, चैत्य वृक्षके चौत For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar रफ, प्रदक्षिणाभूत फिरते हुवे, नमस्तीर्थाय, ऐसा वचन बोलके पूर्वाभिमुख बैठे (शेष) तीन दिशाके सिंहासनपर, भगवान्के समान, प्रतिबिंब व्यंतर इंद्र, स्थापित करे ( परंतु) भगवानके अतिशयसें (और) देवानुभावसें चारे दिशासें आनेवाले लोकोंकू, साक्षात् ऋषभदेव स्वामी, सन्मुख बैठे, उपदेश देते मालुमहूवे (जब) चार मुखसें धर्मोपदेश देते देखके, लोकोंने ऋषभदेव स्वामीकुं, चतुर्मुख ब्रह्मा, ऐसे नामसें केनें लगे (धनंजयकोशमेंभी, ऋषभदेव खामीका नाम ब्रह्मा लिखा है) जबीसें भगवानका नाम, ब्रह्मा प्रसिद्ध हुवा ॥ (जब) श्री ऋषभदेव स्वामीने केवल ज्ञान उत्पन्न हुवा सुना (तब ) भरत चक्रवर्ति राजा परिवार सहित, वंदन नमस्कार करनेकुं, और धर्मोपदेश सुणनेकू, आते, रस्तेमें हाथीपर बैठी हुई, मरुदेवी माता, समवसरण, छत्र चामरादि, अपने पुत्रका अतिशय देखतेही शुद्ध भावसें केवल ज्ञान पायके, मोक्षकुं प्राप्त भई (तब) भरत राजा, हर्ष शोच सहित समवसरणमें आया । वहां भगवा. न्के मुखसें धर्मोपदेश सुनके, भरत राजाके ५०० पुत्र, और ७०० पोतूंने दीक्षा ग्रहण करी (तथा) ऋषभ देव स्वामीकी पुत्री, ब्राह्मी प्रमुख, अनेक स्त्रीयोंने दीक्षा ग्रहण करी (इनूंमे) भरत राजाके, वडे पुत्रका नाम, ऋषभसेन पुंडरीक था (वो) भगवानके प्रथम गणधर ऊवा (यह ) पुंडरीक गणधर, शत्रुजय पर्वतउपर अंतमें मोक्षगया (इससें) शत्रुजय तीर्थका नाम पुंडरीक गिरि प्रसिद्ध भया ( इसी मुजब ) शत्रुजय तीर्थके अनेक नाम हुये (बोहोतसे) For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९ स्त्री, पुरुषोंने, देशविरति श्रावक धर्म अंगीकार करा (इस तरह) साधु, साधवी, श्रावक, श्राविकारूप चतुर्विध संघ स्थापित करा । आगे कितनेकवरसोसें विछेद हुवा थका, इहांसें फिर, साधु श्रावक धर्म प्रवर्तन हुवा (इस समयमें) परिव्राजक सांख्य मत. वालूकी उत्पत्ति भई ॥ अव सांख्यमतका खरूप लिखते हैं। भरतजीके ५०० पुत्रोंने दीक्षा लीथी (उसमे) एकको नाम मरीची था (सो) साधुपना पालना महाकठिन देखकै, नवीन मन कल्पित वेष धारन करा (क्यूं कि) पीछा गृहवास करनेमें तो, अपनी हीनता जानके, आजीविका चलानेके लिये मत स्थापित कीया । इस रीतिसें अपना व्यवहार बनाया (कि) साधु तो, मनदंड, वचनदंड कायदंड, इन तीनों दंडोसे रहित है (और) में तो इन तीनों दंडो करके संयुक्त हुं। इसवास्ते मुजकों त्रिदंड रखना चा हिये (दूसरा ) साधू तो द्रव्य अरु भाव करके मुंडित है । सो लोच कर्ते है (अरु) में तो द्रव्य मुंडित हुं (इसवास्ते) मुझे उस्तरे पाछ नेसे मस्तक मुंडवाना चाहिये । शिखामी रखनी चाहियै (तीसरा) साधु तो पंचमहा व्रत पालते हैं (अरु) मेरे तो सदा स्थूल जीव की हिंसाका त्याग रहो ॥ (चौथा) साधु तो निःकंचन है ( अर्थात् ) परिग्रह रहित है । अरु मुझकों एक पवित्रिकादि रखनी चाहिये । (पांचमा) साधु तो शीलसें सुगंधित है । अरुमें ऐसा नहीं हुं (इसवास्ते मुझे चंदनादि सुंगधि लेनी ठीक है (छठा) साधु तो मोह रहित है ( अरु ) में मोह संयुक्त हुँ । इसवास्ते मुझे For Private And Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३० मोहाच्छादितकों छत्री रखनी चाहियै (सातमा) साधू जूते रहित है । मुजकों पगोंमे खडावु प्रमुख चाहियै ( आठमा ) साधू तो निर्मल है। इसवास्ते उनके शुक्लांबर है (अरु ) में तो क्रोध मान माया अरु लोभ, इन च्यारों कपायों करकें मेला हुँ ( इस वास्ते ) मुजे कषायला वस्त्र, ( अर्थात् ) गेरुसें रंगे हुवे भगमे वस्त्र रखने चाहिये (नवमा) साधु तो सचित्त जलके त्यागी है । ( इस वास्ते ) में छाणके सचित्त जल पीउंगा । स्नानभी करुंगा । (इस तरे) स्थूल मृपावादादिकसे निवृत्त हुवा । इस प्रकारसें मरीचिने स्वमतसें अपणी आजीविकाकेवास्ते लिंग बनाया । यही लिंग परिब्राजकोंका उत्पन्न भया । यह मरीचि इस भेपसें भगवान्केसाथ विचरता रहा ( तब ) लोक इसका साधुवोंसे विसदृश लिंग देखके पूछा (तब ) मरीचि, साधुका धर्म यथार्थ वतायके कहा (कि) ऐसा कठिन धर्म, मेरेसें पला नही ( तब ) मेंने यह लिंग धारण किया है । यह मरीचि समोसरणके बाहिर प्रदेशमें बैठा रहताथा ( उहां) जो कोई इसकेपास उपदेश सुनताथा, उसकुँ यथार्थ धर्मसें प्रतिबोध देके, भीतर भगवान्केपास भेजदेताथा (पीछे ) एक दासमें मरीचि रोगाग्रस्त हुवा । तब विचार कीया (कि ) में कुलिंगी हुँ । इसवास्ते साधु लोक तो मेरी वेयावच्च नहिं करते है (और) मुझे कराणीभी युक्त नही है । इससे अबके शरीर अच्छा होनेसे, मेरे लायक कोइ शिष्य करुंगा ( जब ) मरीचि अच्छा हुवा । पीछे थोडा दिनके वाद, एक कपिल नामे राजपुत्र, मरीच केपास धर्म सुणनेकू आया ( तब ) मरीचने यथार्थ साधु धर्मका For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खरूप वर्णन कीया। तब कपिल बोला (कि ) साधू धर्म उत्तम है ( तो) तुमने ऐसा भेष काहे• धारणकरा । तब मरीचि बोला (कि ) साधु धर्म मेरेसें पल नही सका । इससे मैंने यह लिंग स्वमतिकल्पित धारण कीया है । (इस सेती) तुम भगवान्के पास जायके दीक्षा ग्रहण करो । तब कपिल राजपुत्र समवसरणकेभीतर गया ( वहां ) श्री ऋषभ देव स्वामीकों, छत्र चामरादि सिंहासन युक्त राज्यलीला भोगवता देखके, पीछा मरीचिकेपास आयके केनेलगा (कि) श्री ऋषभदेव स्वामी तो राज्यलीला सुख भोगवते हैं । इसवास्ते उसका धर्म तो मुजकू रुचे नही । अब तेरेपास कुछ धर्म है, या नहीं। तब मरीचिने जाना (कि) यह भारि कर्मा जीवहै । मेराही शिष्य होने योग्य है । इस लोभसें मरीचिने कहा वहांभी धर्म है । और मेरेपासभी देशे धर्म है । ( तव ) कपिल मरीचकेपास दीक्षा लेके शिष्य हुवा (शरिषाः शरिषेण रच्यते इति वचनात् ) ॥ यह सांख्य मतके प्रवर्तक, कपिल मुनिकि उत्पत्ति कही । ( उस्समय ) मरीचिके तथा कपिलकेपास कोईभी उसके धर्मसंबंधी पुस्तक नही था॥नि केवल जो कुछ आचार मरीचिने वताया उस प्रकारे कपिल कर्ता रहा। (और) मरीचिने, शिष्यके लोभसें मेरे पासभी किंचित् धर्म है (ऐसे) उत्सूत्र भाषणेसें एक कोटाकोटि सागरोपमलग जन्म मरण करके, अंतमे २४मा तीर्थकर श्री महावीर स्वामी हुवा उस मरीचिके काल करे पीछे, कपिल मरीचिके वताया यथार्थ ज्ञानशून्य आचारमें चलता रहा। उस कपिलमुनीके आसुरी नामे शिष्य हुवा। और भी बहोतसे शिष्य हुए For Private And Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२ (जिनकुं) पुस्तकशून्य,आचारमात्र,ज्ञान वतलाया। शिष्यूंके ऊपर बहुतसा प्रेम रखता थका, कपिल मुनि, शेषमें काल करके, ५ मा ब्रह्म देवलोकमें देवता हुवा । उत्पत्तिके अनंतर, तत्काल अवधि झानसें देखा । कि मेने परभवमें क्या दान पुन्य करा है। तब पूर्व भव देखनेसें, अपणा आसुरी शिष्यफू ग्रंथज्ञानशून्य देखा । तब विचार कीया । की मेरा शिष्य कुछ जानता नही है (इसवास्ते) में इस कुं कुछ तत्वोपदेश करुं । ऐसा विचार करके, कपिल देव आकाशमें, पंचवर्णा मंडलमें रहकर, तत्वज्ञानका उपदेश कर्ता भया । अव्यक्तसें व्यक्त प्रगट होता है ( इत्यादि ) धर्मका स्वरूप आकासवानीसें सुनके, आसुरीने तिस अवसरमें, पष्टि तंत्र, प्रमुख अनेक ग्रंथ वनाये (फेर ) इसकी संप्रदायमें एक संख नामा आचार्य हुवा । ( तबसें) इस मतका सांख्यण साताप्त हुवा सांख्य परिव्राजक संन्यासियोंके लिंगका, आचारादिकका मूल, यह मरीचि हुवा । एक जैन मतके विगर सब मतोंकी जड, इसकू समजना चाहिये ॥ ॥ अब जैन पंडित ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति लि० ॥ (जिस दिन) श्री ऋषभदेव स्वामीकू केवल ज्ञान उत्पन्न हुवा । उसी वखत भरत राजाके, आयुधशालमें हजार देवा विष्टित चक्ररत्न उत्पन्न हुवा। दोनू तरफका वधाईदार साथमें आया। उन दोनुकू वधाई देके धर्मकू मोटा जानके, प्रथम केवल ज्ञानका उच्छव करके पीछे चक्ररत्नका उच्छव करा (औरभी) हजार हजार देवाधिष्ठित १३ रत्न उत्पन्न भया। इस १४ रनोंके For Private And Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३ संयोग, भरत क्षेत्र, छउं खंडमें, अपनी आज्ञा मनाई ( इस वास्ते ) इसका नाम, भरतखंड, ऐसा प्रसिद्ध हुवा || ( जब ) छखंड साधके, भरत पीछा विनीता नगरीमें आया । ( तथापि ) चक्ररत्न आयुधशालामें प्रवेश करे नहिं ( जब ) अपणे ९९ भाइयां कूं अपणी आज्ञा मनाणेके लिये दूत भेजा । ( तब ) बाहुबलजी विगर ९८ भाइयांने विचार किया ( कि ) राज्य तो हम पिता ऋभदेव स्वामी देगए हैं ( तो ) इस भरत की आज्ञा कैसें माने। चलो, अब पिता पुछें । जो पिता आज्ञा देवेगा सो करेगें । ऐसा विचारके भगवान् केपास गए ( तब ) ऋषभदेव स्वामीनें उनके मनका अभिप्राय जानके, ऐसा उपदेश करा । जिनसें ९८ भाइयोंनें दीक्षा ग्रहण करी । सब झगडे छोड दीये (और) बाहुबलजी दूतके मुख से सुनके, बहुतसे क्रोधमें आयके युद्धकी त्यारी करी ( तब ) भरतजीभी चढके आये | दोनूंके आपस में बडा युद्ध हुवा || भरत तो चक्रवर्त्ती था (और) बाहुबलजी बहोत बल पराक्रमका धरनेवाला था । इसवास्ते बाहुबली युद्धमें हारा नहिं । चक्ररत्ल, गोत्रपर चले नहिं । इसवास्ते भरतजी जीतसके नहीं ( शेषमें ) बाहुबलजी आपसें समझ दीक्षा ग्रहण करी । तब लोकोंमे भरतजीकी अपकीर्ति भई ( पीछे ) भरतजीभी अपणा सब भाईयोंकूं दीक्षालीवी सुनके, चित्तमें उदास होके, उनोंकूं राजी करणेकेलिये, भोजन करानेकों, पकवानोंके गाडे भरायके, भगवान् के, समोसरणमें आया (और) केनें लगा, कि अपने भाइयोंकूं भोजनकरायके, मेरा अपराधकुं ३ दत्तसूरि० For Private And Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माफ कराउंगा (तब) भगवान् श्री ऋषभदेवस्वामी कहने लगे (कि यह ) आहार, साधुवोंके लेने योग्य नहिं (तब) भरतजी मनमे उदास होके केनें लगे (कि) यह आहार किसकू देउं (तब) भगवाननें कहा, जो तेरेसें गुणोंमें अधिक होय, ऐसे वृद्धश्रावक साधर्मीयांकू भोजन करावे । तो तुजको पूर्ण लाभ होवे तब भरतजीनें बहुत गुणवान् श्रावकोंकू वो भोजनजिमाया (और) उन श्रावकोंकू ऐसा कह दीया (कि ) तुम सब जने मिलकर सदैव मेरे इहां भोजन कर लियां करौ । (औरभी ) जो खरच तुमारे चहीये (सो) मेरे भंडारसें लेलीयां करो ॥ (और) वाणिज्यादिक सर्व काम छोडके, स्वाध्याय करनेमें, पढानेमें, भगवान्को धरम प्रवर्तन करनेमें, सदाकाल सावधान रहो (और) मेरे महिलंकेपास रहते हुवे मेरेकूभि ऐसे वचन सुनाते रहो । (जितो भवान् बर्द्धते भयं । तसात् माहन माहन ) तब जो वृद्धश्रावक भरतजीके कहनेसें सब काम छोडके नि केवल धरमकार्य करणेमें उद्यमवंतभए ( तबसें ) जैनी पंडित, वृद्धश्रावकोंकी उत्पत्ति भई । श्री अनुयोगद्वारजी सूत्रभि, जैनी पंडित श्रावकोंका नाम, वुड्डसावया ऐसा लिखाहै, यह वृद्धश्रावक भरतजीके महिलोंकेपास बैठे हुवे (जितो भवान् ) इस पूर्वोक्त वचनळू सदाकाल उच्चारन कर्तेरहे । (और ) भरतजी तो सदा काल भोगविलासमें मग्न रहते थे ( तथापि ) वृद्धश्रावकोंका वचन सुनके, मनमें चितवन करने लगे । कि मुझकुं किसने जीताहै । तब सरन हुवा । कि मेरेकुं । क्रोध, मान, माया, लोभ, कषायादिकसें, मोहराजा जीतरयाहै For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( इससेती ) हूं संसारमें मग्न होयरह्यो हूं। मेरे भाइयादिक सर्व धन्य है । जिनोनें राज्य छोडके चारित्र ग्रहण कीया है । इत्यादिक धर्मकी वार्ता स्मरण करनेसें, दिलमें वैराग्य उत्पन्न होता था ( और ) वृद्ध श्रावक, वेरवेर, माहन माहन, पूर्वोक्त वचन कहनेसैं, लोक सर्व, उन वृद्धश्रावकांकू, माहन ऐसे नामसे कहने लगे ( तबसें ) यह जैनी ब्राह्मण उत्पन्न भए । प्राकृत भाषामें ब्राह्मणकुं माहन नामसें लिखा है। प्राकृत व्याकरणसें, ब्राह्मण शब्द, बंभण ( अरु ) माहन, इस दोय नामसे सिद्ध होता है। ऐसे श्रावक माहन भोजन करनेवाले, दिन २ बहुतवधे । तब रसोईदार भरतजीकुं कहा । कि इनोंमें श्रावककी, वा अन्य पुरुपकी, क्या मालम पडे । तब जितने श्रावक थे। उनकुं बुलायके सर्वकी परीक्षा करी । श्रावक जानके भरतजीनें उनोंके शरीरमें, कांकणी रत्नसें तीन २ रेखाका चिन्ह कीया ( इससे ) जिनोपवीत धारनकी रीति प्रशिद्ध भई ॥ ( पीछे ) भरतजीका बेटा सूर्ययशा हुवा । जिसके संतानवाले, भरतक्षेत्रमें, सूर्यवंशी कहे जाते हैं (अरु ) बाहुबलीका बडा पुत्र, चंद्रयशा था (तिसके) संतानवाले, चंद्रवंशी कहे जाते हैं । श्रीऋषभदेवजीके कुरुनामे पुत्रके संतानवाले सर्व कुरुवंशी कहे जाते हैं । (जिनमें ) कौरव, पांडव हुये हैं (जब ) भरतका बेटा. सूर्ययशा सिंहासनपर बेठा था। तब तिसकेपास कांकणी रत्न नहिं था ( क्यों कि ) कांकणीरत्न चक्रवर्ति शिवाय और किसीकेपास नहिं होता है। (इसवास्ते) सूर्ययशा राजानें, ब्राह्मण श्रावकांके गलेमें, सुवर्णमय जिनोपवीत For Private And Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करवा दीया । तथा भोजन प्रमुख सर्व भरतमहाराजकीतरे देते रहे (जब ) सूर्यजशाका बेटा, महा यश, गद्दीपर बेठा ( तब ) तिसने रूपेके जिनोपवीत बनवा दीया । आगे तिनके संतानोंने पंचरंगे रेशमी पट्टसूत्रमय जिनोपवीत बनाते रहे। इस पीछे सादे सूतके बनाये गये । यह जिनोपवीतकी उत्पत्ति कही। ॥ अब चार वेदोंकी उत्पत्ति लिखते हैं॥ जब भरतजीनें, ब्राह्मणोकू बहुतसा मान्या पूज्या (तब ) दूसरे भी लोक ब्राह्मणाकू दानादिक देने लगे (और ) धर्मकृत्य सर्व उनीकेपास सीखनें लगे । तथा कराने लगे (तब ) भरत चक्रवर्तिने, ऋषभदेवस्वामी के वचनानुसारे, तिन ब्राह्मणूंके, स्वाध्याय करनेकेवास्ते, श्री भगवान् ऋषभ देवस्वामीकी स्तवनागर्भित, (और) पूजा, प्रतिष्ठादि, श्रावक धर्मका, संपूर्ण स्वरूप गर्भित, ८ कर्म, ७ नय, ४ निक्षेपा, ९ तत्व, क्षेत्र प्रमाणादिक गर्भित, बहुत मंत्रयुक्त ४ वेद रचे (तिनके यह नाम ) १ संसार दर्शन वेद । २ संस्थापना परामर्शन वेद । ३ तत्वावबोधन वेद । ४ विद्या प्रबोध वेद । इन च्यारोंमें, सर्व नय वस्तूके कथन संयुक्त तिन ब्राह्मणांकों पढाये । भरत के ८ पाटतक तो, ब्राह्मणोंकी भक्ति भरतजीकी तरे करते रहे । (पीछे ) प्रजा भी ब्राह्मणांकों भोजन कराने लगी ( तबसें ) सर्व जगे ब्राह्मण पूजनीक समजे गये । इस पीछे (आठमा) तीर्थकर, श्री चंद्रप्रभ स्वामीके वखततक, सर्व ब्राह्मण जैनधर्मी श्रावक रहे ( अरु ) सुविधि भगवान्के पीछे, कितनाक काल व्यतीतभये, इस भरतखंडमें, For Private And Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३७ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन धर्म ( अर्थात् ) चतुर्विधसंघ, और सर्वशास्त्र विच्छेद हो गये । ( तब ) तिन ब्राह्मणा भासोंकों लोक पूछने लगे । ( कि ) धर्मका स्वरूप हमको बतलावो । तब तिनोंने जो मनमें माना । (और) अपणा जिसमें लाभ देखा सो धर्म बतलाया । अनेक तरहके ग्रंथ बनाते रहे ( जब दशमा ) श्री सीतलनाथ अरिहंत हुए । तिनोंने जब फेर जैनधर्म प्रगट करा ( तथापि ) कितनेक ब्राह्मणभासने न माना स्वकपोल कल्पित मतहीका कदाग्रह - ररका ( जबसें) अन्य मति ब्राह्मण भए (और) उलटे जिन धर्म साधुवां द्वेषी बन गए ( इसी तरे ) ८ भगवानके ७ अंतर कालमें जिनधर्म विच्छेद होता रहा ( इससे ) बहुत मिथ्या धर्म वढता गया || ( यदुक्तं आग मे ) सिरिभरहचकवट्टी । आय रियवेयाण विस्सुउप्पत्ती । माहण पढणत्थमिणं । कहियं सुहझाण विवहारं ॥ १ ॥ जिणतित्थे बुच्छिने । मिच्छत्ते माहणेहिं ते ठविया । अस्संजयाण पूआ । अप्पार्णकाहियातेहिं ॥ २ ॥ ( इत्यादि ) | ( फेर ) कितनेक काल पीछे, याज्ञवल्क्य, सुलसा, पिप्पलाद, अरु पर्वत, प्रमुख ब्राह्मणाभासोनें, धनके लोभसें, तिन वेदोंमें जीवहिंसा प्रमुख प्ररूपणा करके उलट पुलट कर डारे । जैन धर्मका नामभी वेदांमेंसे निकाल दीया | लकी अन्योक्ति करके ( दैत्पदस्युवेदबाह्य ) इत्यादिनामोंसे, साधुआंकी निंदा गर्भित, १ ऋग् । २ यजु । ३ साम । ४ अथर्वण, ये ४ नाम कल्पन कर दीये । ( यही वात ) बृहदारण्य उपनिषद भाष्य में लिखा है ( कि ) यज्ञोंका कहनेवाला सो For Private And Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८ यज्ञवल्क्य । तिसका पुत्र याज्ञवल्क्य । इस कहनेसेंमी यही प्रतीत होता है। जो यज्ञोंकी रीति, प्राय याज्ञवल्क्यसेंही चली हे ( तथा ) ब्राह्मण लोकांके शास्त्रमें भी लिखा है ( कि ) याज्ञवल्क्यनें पूर्वी ब्रह्मविद्या वमके, सूर्यपासे, नवीन ब्रह्मविद्या सीखके प्रचलित करी ( इस्से ) यही अनुमान निकलता है ( जो ) याज्ञवल्क्यनें, प्राचीन वेद छोडके नवीन वेद बनाये । ( इस्सें ) वर्त्तमान ४ वेद (और) जीवहिंसायुक्त यज्ञकी उत्पत्ति, प्रायः याज्ञवल्क्यादिकोंसें हुई संभव है ॥ ( तथा ) श्री तेसठ शलाका पुरुष चरित्र ग्रंथ में, आठमें पर्व के दूसरे सर्गमें, ऐसा लिखा है ( कि ) काशपुरी में, दो सन्यासणियां रहती थी, तिसमें एकका नाम सुलसा था ( अरु ) दूसरीका नाम सुभद्रा था, (यह ) दोनंही वेद अरु वेदांगोंकी जानकार थी । ( तिस ) दोनुं बहिनोंनें बहुतसे वादियोंको वादमें जीते । ( इस अवसर में ) याज्ञवल्क्य परिव्राजक, तिनके साथ वाद करनेकों आया, आपसमें ऐसी प्रतिज्ञा करी ( कि ) जो हार जावै । वो जीतनेवालेकी सेवा करें। ( तब ) याज्ञवल्क्यनें, सुलसाकों बादमें जीतके, अपनी सेवा करनेवाली बनाई || सुलसाभी रात दिन याज्ञवल्क्यकी सेवा करनें लगी। ( अरु ) दोनुं युवान थे, इससे कामातुर होके, आपसमें भोगविलास करनें लग गए । ( सच्च है) कि अनिकेपास, घी रहनेंसें पिघलैईगा ( तथा ) घी, घास फूस, मिलनेंसें, अग्नि वधैईगा ( निदान ) दोनुं काम क्रीडामें मग्न होकर, काशपुरीके निकट, कुटीमें वास For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३९ 1 करते थे ( तब ) याज्ञवल्क्य, सुलसाके पुत्र उत्पन्न भया ( तब ) लोकोंके उपहासके भयसें, उस लडकेकों, पींपलके वृक्ष नीचे छोडकर, दोनुं भागके कहा इं चले गए | ( यह वृत्तांत ) सुलसाकी बहन सुभद्रानें सुना । ( तब ) तिस बालककेपास आई ( जब ) बालककों देखा ( तो ) पींपलका फल स्वयमेव मुखमें पडा हुवा चबोल रहा हे ( तब ) तिसका नाम भी पिप्पलाद रक्खा । ( और ) तिसकों अपनें स्थानमें ले जाके यत्तसें पाला ( अरु ) वेदादि शास्त्र पढाए ( तब ) पिप्पलाद बडा बुद्धिमान् हुवा | बहुत वादियोंका अभिमान दूर किया ( पीछे ) तिस पिप्पलादकेसाथ सुलसा (और) याज्ञवल्क्य, यह दोनुं वाद करनेंकों आए ( तब ) तिस पिप्पलादनें दोनुंकों वादमें जीत लिया (और) सुभद्रा मासीके कहनेंसें जान गया ( कि ) यह दोनुं मेरा माता, पिता है | और मुझे जन्मतेकों निर्दयी होकर छोड़ गये थे ( इससे ) बहुत क्रोध में आया ( तब ) याज्ञवल्क्य ( अरु ) सुलसाके आगे । मातृमेध, पितृमेध यज्ञोंकों युक्तियोंसें स्थापन करके, मातृपितृमेधमें, सुलसा याज्ञवल्क्यकों मारके होम करा (यह ) पिप्पलाद, मीमांसक मतका मुख्य आचार्य हुआ । इसका वातली नामें शिष्य हुवा ( तबसें ) जीव हिंसा संयुक्त यज्ञ प्रचलित हुए ( इससे ) याज्ञवल्क्यके वेद बनानें में कुछभी संका नहीं ( क्यों क) वेद लिखा है ( याज्ञवल्केति होवाच ) अर्थात् याज्ञवल्क्य ऐसें कहता हुवा ( तथा ) वेदमें जो साखा है, वे वेदकर्त्ता मुनियोंकेही सब वंस हैं ( इसी तरे ) श्री आवश्यकजी मूल For Private And Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रमें लिखा है (कि) जीव हिंसा संयुक्त, जो वेद है (सो) सुलसा ( अरु ) याज्ञवल्क्यादिकोंने बनाये हैं (और ) कितनीक उपनिषदोंमें पिप्पलादकाभी नाम है ( तथा ) और मुनियोंकाभी कितनेक जगेमें नाम है । जमदग्नि, काश्यपतो वेदोंमें खुद नामसें लिखे हैं । फेर वेदोंकें नवीन होने में कुछ संका नहीं ॥ (इस पीछे ) महाकाल असुरके सहायसें, पर्वतनें, बहुत जीव हिंसा संयुक्त वेद प्रचलित किये हैं। उसका विशेषअधिकार आवश्यक सूत्र, तेसठ शलाका चरित्रादिकमें लिखा है। उहांसें देख लेना ( यह ) जैन ब्राह्मण, जैन वेद, ( तथा ) प्रसंगसें, अन्यमत वेदोत्पत्ति कही ॥ ( अब ) श्री ऋषभदेवस्वामीके परिवारकी संख्या कहते हैं । भगवान् श्री ऋषभदेव स्वामीके सर्व चोरासीहजार (८४०००) साधु हुए (जिसमें) पुंडरीकजी प्रमुख ८४ गणधर हुए ॥ ब्राह्मीजी प्रमुख तीनलाख (३०००००) साध्वी हुई ॥ बीसहजार छसो (२०६००) वेक्रिय लब्धिधारक हुए ॥ बारेहजार छसै पन्नास (१२६५०) वादी विरुद धारक हुए ॥ नवहजार (९०००) अवधिग्यानी हुए ॥ वीसहजार (२००००) केवल ग्यानी हुए बाराहजार साढासातसे (१२७५०) मनपर्यव ग्यानी हुए ॥ च्यारहजार साढासातसे (४७५०) चौदे पूर्वधारी हुए ॥ ३ लाख ५० हजार ( ३५००००) श्रावक हुए ॥ ५ लाख ५४ हजार ( ५५४०००) श्रावकण्यां (इत्यादि) बहुतसे जीवोंका उद्धार करके, अंतसमें कैलास पर्वतके ऊपर ६ उपवास तप करके संयुक्त, अनशन किया। पद्माशन मुद्रायें, आ For Private And Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar त्मगुणके ध्यानसें, सर्व कर्माकों खपायके, मिति माघ वदि १३ के दिन, १० हजार (१०००० ) पुरुषांके साथ, ८४ पूर्व लाख वरषको आऊषो पूरण करके, सिद्धिस्थानको प्राप्त भए ॥ ( जब) श्री ऋषभदेव स्वामीका कैलास ( तथा) दूसरा नाम अष्टापद पर्वत ऊपर, निर्वाण हुवा ( तब ) ६४ इंद्रादि सर्व देवता निर्वाण उच्छव करनेकों आए, तिन सर्व देवताओंमेंसु, अग्निकुमार देवतानें श्री ऋषभदेवकी चितामें अनि लगाई ( तबसेंही) यह श्रुति लोकमें प्रसिद्ध हुई है ( अग्नि मुखावै देवा ) अर्थात् , अग्नि कुमार देवता, सर्व देवताओंमें मुख्य है (और) अल्प बुद्धियोंनें तो इस श्रुतिका ऐसा अर्थ बना लिये हैं (कि) अमि जो है, सो तेतीस कोड देवताओंका मुख हे ॥ भगवानके निर्वाणका स्वरूप, सर्व आवश्यक सूत्र, ( तथा ) जंबुद्वीपपनत्तीसें जान लैना ( जब ) भगवानकी चितामेंसें, दाढां दांत वगैरे सर्व इंद्र, देवतादिक, अपनें २ देवलोकमें, पूजाके निमत्त लेजाने लगे ( तब ) वृद्ध श्रावक ब्राह्मण लोक मिलकर, बहुत विनय संयुक्त, देवताओंसें याचना करने लगे ( तब ) देवता लोक अहो याचका २, ऐसा बोलके देने लगे ( तबसें ) ब्राह्मणांकों याचक कहने लगे (और) ब्राह्मणोंनें, श्री ऋषभदेवकी चितामेंसें अग्नि लेकर, अपनें २ घरोंमें स्थापन करते हुए ( इससें ) ब्राह्मणांकों आहितामय कहने लगे। श्री ऋषभदेवकी चिता जले पीछे, दाढादिक तो सर्व इंद्रादिक ले गए ( बाकी) भसी अर्थात् राख रह गई, सो ब्राह्मणोंने थोडी थोडी सर्व लोकोंकों दीनी ( तब ) उस राखकों लेकै सर्वनें अपने For Private And Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२ मस्तकपर त्रिपुंडाकारसें लंगायी (तबसें) त्रिपुंड लगाना सरू हुवा । (और जब ) भरतजीनें कैलास पर्वतके ऊपर, सिंहनिषद्या नामें मंदिर बनाया ( उसमें ) श्री ऋषभदेवस्वामीकी (और) आगे होनेवाले २३ तीर्थंकरोंकी, सर्व चौवीश प्रतिमा, अपना २ वर्ण प्रमाणमुजब, चारेइं दिशामें संस्थापन करी (और) दंड रत्नसें पर्वतकों ऐसें छीला (कि) जिस ऊपर कोई पुरुष पांवासें न चढ सके । ( उसमें ) एकेक जोजन ऊंचा ८ पगथिया ररका (इससें) कैलास पर्वतका, दूसरा नाम अष्टापद हुवा ॥ और तबसेंही कैलास, महादेवका पर्वत कहलाया ॥ मोटा जो देवसो महादेव, श्री ऋषभदेवस्वामी, जिसका निर्वाण स्थान कैलास हुवा ॥ ( पीछे ) श्री भरत चक्रवर्ति केवलज्ञान पायके मोक्ष गए (तब ) श्री भरतजीके पाटे, सूर्ययशा राजा भया । तिसकी औलाद सूर्यवंशी कहलाए। सूर्ययशाके पाटे महायशा राजा गद्दीपर बैठा ( ऐसें ) अतिबल, महाबल, तेजवीर्य, दंडवीर्य ( इत्यादि ) अनुक्रमसें अपनें २ पिताकी गद्दीपर, बैठे ( परंतु) भरतजीसें आधा राज्य ( अर्थात् ) भरत क्षेत्रका तीन खंडके भीतर २ राज्य रहा अंतमें ( भरतजीकी तरै ) आठ पाटतक तो, आरीसा महलमें, केवलग्यान पाय, दिक्षा लेके मोक्ष गए (इस पीछे ) दूसरा तीर्थकर, श्री अजितनाथ स्वामीका पिता, जितशत्रु राजातक असंख्य पाट हुए । जिन सबका अधिकार सिद्धांतरगंडिकासें जाण लैना ॥ इति ५५ बोल गर्भित श्री ऋषभ देवखामा देवस्वामी ( तथा ) पहला चक्रवर्ति भरतजीका अधिकार कहा ॥ मालना ॥ इति ५ For Private And Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ अब दूसरा श्री अजितनाथस्वामी अधिकारः॥ अजोध्यानगरीमें, भरतजीकेपीछे, असंख्य राजा हो चुके (तब) इक्ष्वागवंशी जितशत्रु राजा भया । तिसके विजयानामे राणी। तिसकी क्रूखमे, विजय अनुत्तर विमानसें, वैशाखसुद १३ के दिन, भगवान अवतार लिया ॥ मातायें गजादि अग्निशिखापर्यंत, १४ खमा प्रगटपणे मुखमें प्रवेश करता देखा। गर्भ में ८ मास २५ दिन रहके । मिति माघ शुक्ल ८ के दिन, रोहिणी नक्षत्रे जन्म हुवा (तब ) जितशत्रु राजायें १० दिन पर्यंत जन्म उच्छव करके, अजितकुमर, नाम स्थापन किया । लांछन हस्ती । शरीरमान ४५० धनुष । कंचनसमानवर्ण, तीन ज्ञानयुक्त, महातेजस्वी । भोगावलीकर्म निर्जरार्थे, विवाहकरके, क्रमसें राज्यपदकों प्राप्त हुवे ( पीछे ) अवसर आये, लोकांतिक देवताके वचनसें, संवत्सरपर्यंत मोटो दान देके, माघ कृष्ण ९ के दिन, अयोध्या नगरीमें, छठतप करके, शालवृक्षके नीचे १ हजार (१०००) पुरुषोंकेसाथ दीक्षा ग्रहण करी । ( उसीवखत ) भगवानकों चोथा मनपर्यव ग्यान उत्पन्न भया । प्रथम छठका पारणा, परमानसें, ब्रह्मदत्त व्यवहारीके घरे हुवा ॥ १२ बरप छद्मस्थपणे विहार करके, अयोध्या नगरीगये ( तब ) वहां मिती पोषवदि ११ के दिन, लोकालोक प्रकाशक केवल ज्ञान उत्पन्न भया । ( तब ) देवगणका कीया हुवा, समवसरणमध्ये बैठके, १२ परषदाके सन्मुख, धर्मोपदेश करकें, चतुर्विधसंघकी स्थापना करी । भगवान्के सिंहसेन प्रमुख ९५ गणधर हुवे ॥ १ लाख (१०००००) सर्व For Private And Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar ४४ साधु मुनिराज भए । ३ लाख ३० हजार (३३००००) फल्गुश्री प्रमुख साधवी हुई ॥२० हजार च्यारसै (२०४००) वैक्रियलन्धि धारक हुवे ॥ ९ हजार च्यारसै (९४००) अवधि ज्ञानी भए । २२ हजार (२२०००) केवल ज्ञानी भए ॥ १२ हजार साढापांचसो (१२५५०) मनपर्याय ज्ञानी भए॥सैंतीससै बीश (३७२०) चवदे पूर्वधारी भए । १२ हजार च्यारसो (१२४००) वादी विरुद धरनेवाले भए । २ लाख ९८ हजार (२९८०००) व्रतधारी श्रावक भए ॥ ५ लाख ४५ हजार (५४५०००) व्रतधारक श्रावकण्यां भई ( इत्यादिक) बहुतसे जीवोंका उद्धार करके, अंतसमें समेत शिखरपर्वतऊपर १ हजार (१०००) साधुवोंके साथ, १ मासकी संलेखना करके, काउसग्ग मुद्रासें, सर्व कर्म खपायके, मिती चैत्रसुदि ५ पंचमीके दिन, ७२ पूर्वलाखवरणको आउषो पालकें सिद्धिस्थानकों प्राप्त भए ॥ शासनदेव महायक्ष । शासनदेवी अजितबला मानवगण । सर्पयोनि । वृपराशि । भगवान् सम्यक्त पाये वाद तीसरे भवमें मोक्षगए (इस समयमें) दूसरा चक्रवर्ति सगरनामें हुवा ॥ ॥ अब किंचित् सगर चक्रवर्तिका अधिकारः॥ श्री अजितनाथ स्वामीके, पिताका भाई, सुमित्र नामें युवराजा हुवा ॥ जिसके यशोमतीराणीयें । १४ स्वप्ना पूर्वक, सगरनामें पुत्रकों जन्मा ( जब ) भगवान्ने दीक्षा लीवी । (तब ) अपना भाई सगर युवराजाकों राजगद्दीपर स्थापन किया । पीछे नवनिधान (और ) चक्र वगेरे १४ रन प्रगट होनेसें, भरतक्षेत्रका छखंडसा For Private And Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४५ धर्के । दूसरा चक्रवर्त्ति हुवा । इनके जन्हुकुमार प्रमुख ६० हजार ( ६०००० ) पुत्रभए । वो सर्व समुदाई कर्मकेयोग, एकदा भरतचक्रवर्त्तिका कराया हुवा, सुवर्णमई अष्टापद पर्वतके ऊपर, रत्नमई, निज २ प्रमाणोपेत २४ भगवान्का मंदिर देखकें, पर्वतकी रक्षाके निमित्त, बहुत ऊंडी खाई खोदकें, गंगानदी के जलसे चउफेर भरदीनी । तब उस जमीनके अधिष्ठित, देवगणकों तकलीच होनेसें एकसाथ ६० हजार ( ६०००० ) पुत्रोंको भस्म कर दीया | इसकी मालुम होनेसें, सगरचक्रवर्त्तिकों बहुतसा दुःखभया (पीछे) सौधर्मेंद्र के मुखसें भवस्थितिका स्वरूप सुणकें दुःख दूर किया ( पीछे जब ) सगर पुत्रोंके लाया हुवा, गंगाकाजल बढता थका, अष्टापद पर्वतके चौफेर देशोंमे उपद्रव करने लगा ( तब ) जन्दुकुमारका पुत्र, भागीरथ, सगर चक्रवर्त्तिकी आज्ञा पायके, दंडरनसें जमीनकों खोदकें, गंगाजलका प्रवाहकुं, पूर्व समुद्र में मिला दिया (इसीसें ) गंगाका नाम लोकीकमें जान्हवी ( तथा ) भागीरथी कहनें लगे || और यह खारासमुद्र पिण, देवसहायसें, सगरका लाया हुवा सत्रुंजयकी रक्षाकेलिये भरतक्षेत्रमें मालुम हो रहा है ( और ) सगर चक्रवर्त्तिकी आज्ञासें वैताढ्य पर्वतसे आयके, लंकाके टापूमें, प्रथम घनवाहन राजा हुवा ( इस ) घनवाहन राजाके वंशमें, रावण, विभीषणादिक भए हैं ( सो ) राक्षसी विद्यासें राक्षस कहलाए ( इसीसें ) लंका के टापूका नाम राक्षसदीप हुवा (और) सिद्धगिरीके ऊपर, मंदिरोंका दूसरा उद्धार, सगरचक्रवर्त्तिनें करा ( अरु ) बडा दा For Private And Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६ नेसरी हुवा । अंतमें श्री अजितनाथ स्वामीकेपास दीक्षा लेके, शुद्ध चारित्रसें केवल ज्ञान पायके, मोक्षकों प्राप्त भया ।। श्री ऋषभदेव स्वामी निर्वाणसें, पंचासलाख कोड सागरोपम व्यतीत होनेसें, श्री अजितनाथ स्वामीका निर्वाण हुवा || इति ५५ बोलगर्भित दूसरा अजितनाथस्वामी ( तथा ) दूसरा सगर चक्रवर्तिका अधिकारः संपूर्णः ॥ ॥ अथ ३ श्री संभवनाथस्वामी अधिकारः ॥ सावत्थी नगरीमें, इक्ष्वाकवंशी, जितारी नामे राजा हुवा ( तिसके ) सेना नामे पटराणी, जिसकी कुखमें, ऊपरला ग्रैवेयक विमानसें आयके, मिति फाल्गुन शुक्ल ८ के दिन, भगवान् उत्पन्न भया ( पीछे ) सर्व दिशा सुभिक्षसमें । मिति मिगसर शुक्ल १४, मृगशिर नक्षत्रे, जन्म कल्याणक हुवा ( तब ) जितारी राजायें १० दिन पर्यंत उच्छव करके, संभव कुमर नाम स्थापन किया । अश्वका लंच्छन युक्त, कंचनवर्ण, शरीर प्रमाण चार ( ४०० ) धनुष हुवा । तीन ज्ञानयुक्त | महा तेजस्वी । १ हजार ८ आठ (१००८) लक्षणालंकृत । भोगावली कर्म निर्जरार्थे, विवाह करके, क्रमसें राज्यपद धारन किया । अवसर आये, लोकांतिक देवता के वचनसें, संवत्सर पर्यंत मोटो दान देके, मिति मिगसर शुद्ध १५ के दिन, सावत्थी नगरीमें छठ तप करके, प्रियालु वृक्षके नीचे, १ हजार ( १००० ) पुरुषोंके - साथ, दिक्षा ग्रहण करी ( उस बखत ) चोथा, मनपर्यवज्ञान, उत्पन्न भया । प्रथम छठका पारणा, परमान क्षीरसैं, सुरिंद्रदत्त For Private And Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७ व्यवहारीयाके घरे हुवा । १४ वर्ष । छद्मस्थपणे विहार करकें, फेर सावत्थी नगरी में चतुर्मास रहे । वहां छठ तप संयुक्त, मिति कार्त्तिक कृष्ण ५ के दिन, लोकालोक प्रकाशक, केवलज्ञान उत्पन्न भया ( तिस बखत ) चतुर्निकाय देवगणके किया हुवा समवसरणमें, १२ परषदाके सन्मुख धर्मोपदेश देके, चतुर्विधसंघकी स्थापना करी ( जिसमें ) २ लाख (२००००० ) सर्व साधु मुनि - राज भए (तिसमें ) चारु प्रमुख १०२ गणधर पद धारक भए । १९ हजार ८ सै ( १९८०० ) चैक्रिय लब्धि धारक भए । १२ हजार ( १२०००) वादीविरुद धारक भए ॥ ९ हजार छसै ( ९६०० ) अवधि ज्ञानी भए । १५ हजार ( १५००० ) केवल ज्ञानीभए । १२ हजार दोडसो ( १२१५० ) मन पर्यव ज्ञानी भए । २ हजार दोडसो ( २१५० ) चउदे पूर्वधारी भए । ३ लाख ३६ हजार (६३६०००) श्यामा प्रमुख सर्व साधवी हुई || ३ लाख ९३ हजार (३९३००० ) श्रावक हुए || ६ लाख ३६ हजार ( ६३६००० ) श्राविका भई ( इत्यादिक) बहुतसे जीवोंका उद्धार करके, अंतसमें समेत शिखर पर्वत के ऊपर, १ हजार ( १००० ) साधुवोंके साथ, १ मासका अणसण ग्रहण कीया || काउसरग मुद्रायें, आत्मगुणके ध्यानसें, सर्व कर्मकों खपायकें, मिति चैत्र शुद्ध ५ के दिन, ६० लाख पूर्वका आऊखा पूरण करके, सिद्धि स्थानकों प्राप्त भए । शासनदेव त्रिमुख यक्ष | शासन देवी दुरितारी । देवगण । सर्पयोनि । मिथुन राशि | अंतरकाल १० लाख कोटि सागरोपम । सम्यक्त पायेवाद, तीसरे भवमें मोक्ष गए । इति ५५ बोल गर्भित श्री संभवनाथ स्वामी अधिकारः ॥ For Private And Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ अथ ४ था अभिनंदन स्वामी अधिकारः ॥ अयोध्या नगरीमें, इक्ष्वाकवंशी, संवर नामें राजा हुवा । तिसके सिद्धार्था नामें पट्टराणी । जिसकी कूखमें, जयंत नामा अनुत्तर विमानसें आयके, मिति वैशाख शुद्ध ४ के दिन उत्पन्न भया ( पीछे ) सर्व दिशा सुभिक्षसमें, मिति माघ शुद २, पुनर्वसु नक्षत्रे, जन्मकल्याणक हुवा ( तब ) संवरराजायें दशदिनका जन्म उच्छव करके, अभिनंदनकुमर, नाम स्थापन किया । वानरके लंछन युक्त, कंचनवर्ण, शरीरप्रमाण ३५० धनुष हुवा । तीन ज्ञानयुक्त, महातेजस्वी, १ हजार ८ (१००८) लक्षणालंकृत, भोगावली कर्म निर्जरार्थे, विवाह करकें, क्रमसें राज्यपद धारण किया। अवसर आये लोकांतिक देवतांके वचनसें, संवत्सर पर्यंत मोटो दान देकें, मिति माघ शुक्ल १२ के दिन, अयोध्यानगरीमें, छठ तप करके, प्रियंगु वृक्षके नीचे, १ हजार (१०००) पुरुषोंकेसाथ दीक्षा ग्रहण करी । उसवखत, चोथो मनपर्यवज्ञान उत्पन्नभयो । प्रथम छठको पारणो, परमान क्षीरसें, इंद्रदत्त व्यवहारीके घरे हुवो । १८ वरष छद्मस्थपणे विहार करके (फेर) अयोध्यानगरीमें आए (वहां ) छठतप संयुक्त, मिति पोष शुक्ल १४ के दिन, लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान उत्पन्न भया । उसबखत चतुर्निकाय देवगणका किया हुवा समवसरणमें, १२ परिषदाके सन्मुख, धर्मोपदेश देकें, चतुर्विध संघकी स्थापना करी ॥ ३ लाख (३०००००) सर्व साधु मुनिराज भए (तिसमें ) वज्रनाभ प्रमुख ११६ गणधर भए ॥ १९ हजार (१९०००) वैक्रिय लब्धिधारक भए ॥ ९ हजार ८ से For Private And Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (९८००) अवधि ज्ञानीभए ॥ ११ हजार ६ सै पन्नास (११६५०) मनपर्यव ज्ञानीभए ॥ १४ हजार (१४०००) केवल ज्ञानी भए ।। १५ सै (१५००) चउदे पूर्वधारीभए ॥ ११ हजार (११०००) वादी विरुदधारक भए ॥ ६ लाख ३० हजार सोल (६३००१६) अजिताप्रमुख साधवी हुई ॥ २ लाख ८८ हजार (२८८०००) श्रावक हुए ॥ ४ लाख २७ हजार च्यारसै (४२७४००) श्राविका हुई ( इत्यादिक ) बहुतसे जीवोंका उद्धार करके, अंतसमें समेतशिखरजी पर्वतके ऊपर १ हजार (१०००) साधुवोंके साथ, १ माशका अणशण ग्रहण किया । काउसग्ग मुद्रायें सर्व कर्मकों खपायके, मिति वैशाख शुक्ल ८ के दिन, ५० लाख पूर्वका आउखा पूरण करके, सिद्धिस्थानकों प्राप्ति भए ॥ शासनदेव नायक यक्ष । शासनदेवी कालिका । देवगण । छागयोनि । मिथुनराशि, अंतरमान ९ लाख कोडि सागरोपम, सम्यक्तपायेवाद तीसरे भवमें मोक्षगए ॥ इति ५५ बोलगर्भित अभिनंदन खामीका अधिकारः ॥ अथ ५ मा श्री सुमतीनाथ स्वामी अधिकारः॥ अयोध्यानगरीमें, इक्ष्वागुवंशी, मेघनामें राजा हुवा । तिसके मंगलानामे पट्टराणी । जिसकी कूखमें, जयंत नामा अनुत्तरविमानसें आयके, मिति श्रावण शुक्ल २ के दिन, भगवान उत्पन्न हुवा गर्भस्थिति संपूर्ण होनेसे वैशाख शुदि ८ जन्म भया (जब ) दशदिनका उच्छव करके मेघराजायें, सुमतिकुमर नाम स्थापन किया ॥ क्रोंचपक्षीके लंछनयुक्त, कंचनवर्ण, शरीरप्रमाण ३०० धनुष हुवा । तीन ज्ञानयुक्त, महातेजस्वी, १००८ लक्षणालंकृत, ४ दत्तसूरि. For Private And Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भोगावली कर्मनिर्जरार्थे विवाहकरके क्रमसें राज्यपद धारण कीया । अवसर आये, लोकांतिक देवताके वचनसें संवत्सरपर्यंत मोटो दान देके, मिति वैशाख शुक्ल ९ के दिन अयोध्यानगरीमें, नित्य भक्त, शालवृक्षके नीचे, १००० पुरुषोंके साथ दिक्षा ग्रहण करी (उसबखत ) चोथो मनपर्यव ज्ञान उत्पन्न भयो । प्रथम पारणो परमान्नक्षीरसें, पद्मशेखरके घरे हुवो । २० वरष छद्मस्थपणें विहार करकें, फेर अयोध्यानगरीमें चातुर्माश रहें । वहां छठ तपसंयुक्त, मिति चैत्र शुक्ल ११ के दिन, लोकालोका प्रकाशक केवलज्ञान उत्पन्न भया । उसबखत चतुर्निकाय देवगणके किया हुवा, समवसरण में बैठके, १२ परिषदाके सन्मुख, धर्मोपदेश देके, चतुर्विधसंघकी स्थापना करी || भगवान् के सर्वसाधु तीन लाख वीस हजार (३२००००) हुए ( जिसमें ) चरम प्रमुख सो (१००) गणधरपदधारक भए । १८ हजार च्यारसे चालीस (१८४४०) वैक्रियलब्धि धारक भए । ११ हजार (११०००) अवधिज्ञानी भए । १० हजार साढाच्यारसे (१०४५० ) मन पर्यवज्ञानी हुए || १३ हजार (१३०००) केवल ज्ञानीभए || चोवीस २४०० चवदे पूर्वधारक भए । १० हजार च्यारसे (१०४००) चादीविरुद् धरनें वाले भए || ५ लाख ३० हजार (५३०००० ) काश्यपप्रमुख साधवी हुई ।। २ लाख ८१ हजार (२८१०००) श्रावक हुए ।। ५ लाख १६ हजार (५१६०००) श्राविका हुई || ( इत्यादिक) बहुत से जीवोंका उद्धार करके अंतसमें समेतशिखर पर्वतके ऊपर, १ हजार (१०००) साधुवोंके साथ १ माशका अण For Private And Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शण ग्रहण कीया ॥ काउसग्ग मुद्रायें, आत्मगुणके ध्यानसें, सर्व कर्मकों खपायके, मिति चैत्र शुक्ल ९ के दिन, ४० लाख पूर्वका आउखा पूरणकरके, सिद्धिस्थानकों प्राप्त भए ॥ शासनदेव तुंवरुयक्ष । शासनदेवी महाकाली । राक्षसगण । मूषक योनि । सिंहराशी । अंतरकाल ९० हजार कोड सागरोपम । सम्य तपाए वाद तीसरे भवमें मोक्षगए ॥ इति ५५ बोलगर्भित श्री सुमतीनाथ खामीका अधिकारः ॥ ॥ अथ ६ ठा श्री पद्मप्रभु अधिकारः ॥ कोसंबी नगरीमें, इक्ष्वागवंशी, श्रीधरनामें राजा (जिसके) सुसीमा पट्टराणी, तिसकी कूखमें, उपरिम |वेयक देवविमानसे चवके, मिति माघ कृष्ण ६ के दिन उत्पन्न हुवा । मातायें १४ स्वप्ना देखा ( पीछे ) सर्व दिशा सुभिक्ष समें, मिति कार्तिक कृष्ण १२ के दिन, चित्रा नक्षत्रे, जन्म कल्याणक हुवा ( तब) श्रीधर राजायें १० दिन पर्यंत उछव करके, सर्व गोत्रियों के सन्मुख, पद्मकुमर नाम स्थापनकिया ( नाम स्थापनका येहेतू हे ) माताने पद्म सज्यापर सोनेंका डोहला उत्पन्न हुवा था (और) भगवान्का पद्म कमलके समान रंग था ( इससे ) पद्मकुमर नाम हुवा। कमलका लंछन युक्त। रक्तवर्ण । शरीर प्रमाण २५० धनुष हुवा । तीन ज्ञानयुक्त । महातेजस्वी, १००८ लक्षणालंकृत, भोगावलि कर्म निर्जरार्थे, विवाह करके, क्रमसें राज्यपद धारण किया । अवसर आयेसें, लोकांतिक देवताके वचनसें, संवत्सरपर्यंत मोटो दानदेके, मिति कार्तिक कृष्ण १३ कों, कोशंबीनगरीमें, For Private And Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२ एक उपवास करके, छत्र वृक्षके नीचे, १००० पुरुषोंके साथ, दीक्षा ग्रहण करी ( उस वखत ) चोथो मनपर्यव ज्ञान उत्पन्न भयो । प्रथम पारणो, सोमदेव ब्राह्मणके घरे, परमान्न क्षीर सेती भयो । छ माश छद्मस्थ पणे विहार करके, फेर कोशंबी नगरी में आए ( वहां ) चोथभक्त संयुक्त चैत्र शुद्ध १५ के दिन, लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान उत्पन्न भया । उस वखत चतुर्निकाय देव गणका किया हुवा, समवसरणमें बेठकें, १२ परषदा के सन्मुख, धर्मोपदेश देके, चतुर्विध संघकी स्थापना करी || भगवान् के सर्व ३ लाख ३० हजार (३३००००) साधु हुए || ( जिसमें ) एकसो दो (१०२) प्रद्योतन प्रमुख गणधर भए । सोलेहजार एकसो आठ ( १६१०८) वैक्रिय लब्धि धारक हुए ॥। १० हजार (१००००) अवधि ज्ञानी भए || १० हजार ३ सै (१०३००) मन पर्यव ज्ञानी भए । १२ हजार (१२०००) केवल ज्ञानी भए । २३०० चउदे पूर्वधारी हुए ।। ९६०० वादी विरुद धरनेवाले हुए ॥ ४ लाख २० हजार (४०२०००) रति प्रमुख साधवी हुई ॥ २ लाख ७६ हजार (२७६०००) श्रावक हुए ।। ५ लाख ५ हजार (५०५००० ) श्राविका हुई | ( इत्यादिक ) बहुतसे जीवोंका उद्धार करके, अंतसमें समेत शिखरजी पर्वतके ऊपर, ३०८ साधुवों केसाथ, १ माशका अणशण ग्रहण किया । काउसग्ग मुद्रायें, आत्मगुणके ध्यानसें, सर्व कर्म कों खपायकें, मिति मिगसर वदि ११ के दिन, ३० लाख पूर्वका आउखा पूरण करके, सिद्धि स्थानको प्राप्ति भए । शासनदेव कुसुम यक्ष | शासन देवी शामा। राक्षसगण | For Private And Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महिष योनि । कन्या राशि । अंतर काल ९ हजार कोड सागरोपम । सम्यक्त पाएवाद तीसरे भवमें मोक्ष गए । ॥ इति ५५ बोल गर्भित ६ श्री पद्म प्रभुका अधिकारः ॥६॥ ॥ अथ ७ श्री सुपार्श्वनाथजी अधिकारः॥ वनारशी नगरीमें, इक्ष्वाकवंशी, प्रतिष्ट नामें राजा हुवा (तिशके ) पृथ्वी नामें पट्टराणी, जिसकी कूखमें, सप्तम ग्रेवेयक देव विमानसें आयके । मिति भाद्रवा वदी ८ के दिन, भगवान् उत्पन्न भया ( तब ) मातायें चवदै स्वप्न देखा । पीछे सर्व दिशा सुभिक्ष समें, मिति जेष्ट शुद २ के दिन विशाखा नक्षत्रे, जन्म कल्याणक हुवा । साथियेका लांछन युक्त । कंचन वर्ण, सरीर प्रमाण २ सै (२००) धनुष हुवा। तीन ज्ञानयुक्त । महा तेजस्वी। एक हजार आठ लक्षणालंकृत, भोगावली कर्म निर्जरार्थे, विवाह करके, क्रमसें राज्यपद धारण किया । अवसर आए लोकांतिक देवताकै वचनसें, संवत्सर पर्यंत मोटो दान देके, मिति जेष्ट सुदी १३ के दिन, वणारशी नगरीमें, छठ तप करकै, सरीश वृक्षकै नीचे, एक हजार पुरुषोंकैसाथ, दिक्षा ग्रहण करी ( उस वखत ) चोथो मनपर्यवज्ञान उपज्यो । प्रथम छठको पारणो, माहेंद्रदत्तकै घरे, परमानसें हुवो । नवमाश छद्मस्थपणे विहार करकै, फेर वनारशी नगरीमें आये । वहां छठ तप संयुक्त, फागुण वदी ६ के दिन, लोकालोक प्रकाशक, केवल ज्ञान उत्पन्न हुवा ( उस वखत) चतुर्निकाय देवगणका किया भया, समवसरणमें, बारह परखदाकै सन्मुख भगवान् धर्मोपदेश देके, चतुर्विध संघकी स्थापना करी ॥ For Private And Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४ भगवानकै (३०००००) तीन लाख सर्व साधू हुए (जिसमें ) विदर्भ प्रमुख ९५ गणधर भए ॥ १५ हजार तीनसै (१५३००) वैक्रीयलब्धि धारक भए ॥ ९ हजार (९०००) अवधि ज्ञानी हुए। ८ हजार दोढसो (८१५०) मनपर्यव ज्ञानी हुए ॥ ११ सै (११००) केवल ज्ञानी हुए २ हजार तीस (२०३०) चवदै पूर्वधारी हुए । ८ हजार ४ सै (८४००) वादी विरुद धारक हुए ॥ ४ लाख ३० हजार ८ (४३०००८) सोमा प्रमुख साधवी हुई ॥ २ लाख ५७ हजार (२५७०००) श्रावक हुए ॥ ४ लाख ९३ हजार (४९३०००) श्राविका हुई ( इत्यादिक) बहोतसे जीवोंका उद्धार करकै, अंतसमें, समेत शिखरजी पर्वतकै ऊपर, पांचसै ५०० साधुवोंकैसाथ, एक माशका अणसण ग्रहण कीया । काउसग्ग मुद्रायें, आत्मगुणके ध्यानसें, सर्व कर्म खपायकै, मिति फाल्गुण वदी ७ के दिन, वीस लाख पूर्वका आयुष्य पूर्ण करकै, सिद्धि स्थानकुं प्राप्त भए ॥ सासन देव मातंगजक्ष । सासन देवी सांता । राक्षस गण मृग योनी । तुल राशी। अंतर्काल ९ सो कोडी सागरोपम । सम्यक्त पायेवाद, तीसरै भवमें मोक्ष गए ॥ इति ५५ बोल गर्भित श्री सुपार्श्वनाथस्वामी अधिकार संपूर्ण ॥ ॥ अथ ८ श्री चंद्राप्रभू खामी अधिकारः॥ चंद्रपुरी नामा नगरीमें, इक्ष्वाकवंशी, महसेन नामें राजा (जिसक) लक्ष्मणा नामें पट्टराणी। जिसकी कूखमें, जयंतनामें विमानसें आयकै, मिति चैत्र कृष्ण ५ के दिन उत्पन्न भया । मातायें चवदै स्वप्न देखा पीछे सर्व दिशा सुभिक्ष समें, मिति पोष For Private And Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५५ वद १२ के दिन, अनुराधा नक्षत्रे जन्म कल्याणक हुवा ( तब ) महसेन राजायें, १० दिनकाउछव करके, चंद्रप्रभ कुमर नाम दिया । चंद्रमाके लांछनयुक्त, स्वेतवर्ण, शरीर प्रमाण १५० धनुष, तीन ज्ञानयुक्त, महा तेजस्वी, १००८ लक्षणालंकृत, भोगावली कर्म निर्जरार्थे, विवाह करके, क्रमसें राज्यपद धारण कीया । अवसर आये, लोकांतिक देवताके वचनसें, संवत्सर पर्यंत मोटो दान देके, मिति पोष वदी १३ के दिन, चंद्रपूरी नगरीमें, छठ तप करके, नागवृक्षके नीचे, १००० पुरुषोंकेसाथ दीक्षा ग्रहण करी ( उस वखत ) चोथो मनपर्यव ज्ञान उत्पन्न भयो । प्रथम छठको पारणो, सोमदत्तके घरे, परमान्न क्षीरसें हुवो || ३ माश छद्मस्थपणें विहार करके चंद्रपुरी नगरीमें आए ( वहां ) छठ तप संयुक्त, मिति फागुण यदि ४ के दिन, लोकालोक प्रकाशक, केवल ज्ञान उत्पन्न भया ( उस बखत ) चतुर्निकाय देवगणका किया हुवा, समवसरण में बैठकें, १२ परषदाके सन्मुख, धर्मोपदेश देके, चतुविघ संघकी स्थापना करी । भगवानके सर्व २ लाख ५० हजार (२५००००) साधु भए ( जिसमें ) ९३ दिन प्रमुख गणधर हुए || १४ हजार (१४००० ) वैक्रिय लब्धि धारक हुए ॥ ८ हजार (८००० ) अवधि ज्ञानी हुए ।। ८ हजार (८०००) मनपर्यव ज्ञानी हुए ।। १० हजार (१०००० ) केवल ज्ञानी हुए || २ हजार (२०००) चवदे पूर्वधारी हुए ।। ७ हजार ६ से (७६००) वादी विरुदधारक भए || ३ लाख ८ हजार (३०८०००) सुमना प्रमुख साधवी हुई || २ लाख ५० हजार (२५०००० ) श्रावक हुए || For Private And Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ लाख ७९ हजार (४७९०००) श्राविका हुई ( इत्यादिक) बहुतसे जीवोंका उद्धार करके, अंतसमें समेतशिखरजी पर्वतके ऊपर, १००० साधुवोंकेसाथ, १ माशका अणसण ग्रहण कीया । काउसग्ग मुद्रायें, आत्मगुणके ध्यानसें, सर्व कर्मकों खपायकै, मिति भाद्रवा वदि ७ के दिन, दश लाख पूर्वका आउखा पूरण करके, सिद्धिस्थानकों प्राप्त भए ॥ शासनदेव विजय यक्ष । सासनदेवी भृकुटी । देवगण । मृग योनि । वृश्चिक राशि । अंतरकाल ९० कोडी सागरोपम । सम्यक्त पाएवाद, तीसरे भवमें मोक्ष गए ॥ इति ८ मा श्री चंद्राप्रभु स्वामीका अधिकारः । ॥ अथ ९ मा श्री सुविधनाथ स्वामी अधिकारः ॥ काकंदी नगरीमें, इक्ष्वाकवंशी, सुग्रीवनामें राजा हुवा (तिसके) रामा नामें पट्टराणी । जिसकी कूखमें, नवमा आनत नामा देवलोक ऐसें चवके, मिति फागुण वदि ९ के दिन भगवान् उत्पन्न भया । तब मातायें १४ स्वप्ना देखा ( पीछे ) सर्व दिशा सुभिक्षसमें, मिति पोष वद १२, मूलनक्षत्रे जन्मकल्याणक हुवा ( तब ) सुग्रीव राजायें १० दिनपर्यंत जन्म महोच्छव करके, सर्व गोत्रियोंके सन्मुख, सुविधिकुमर नाम स्थापन किया । मगरमच्छका लंछनयुक्त, स्वेतवर्ण, शरीरप्रमाण १०० धनुष हुवा । तीन ज्ञानयुक्त, महातेजस्वी १००८ लक्षणालंकृत, भोगावली कर्म निर्जरार्थे विवाहकरके, क्रमसें राज्यपद धारण किया। अवसरआये। लोकांतिक देवताके वचनसें, संवत्सर पर्यंत मोटो दान देके, मिति पोस वदि For Private And Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३ के दिन, काकंदी नगरीमें, छठ तप करके, शालवृक्षके नीचे, १००० पुरुषोंके साथ, दीक्षा ग्रहण करी (उसवखत ) चोथो मनपर्यवज्ञान उत्पन्न भयो । प्रथम छठको पारणो, पुष्पदत्तकेघरे, परमानसें हुवो । ४ वरस छद्मस्थपणे विहार करके, फेर काकंदी नगरी आए ( वहां ) छठ तप संयुक्त, मिति कार्तिकशुद ३ केदिन, लोकालोक प्रकाशक केवलग्यान केवल दर्शन उत्पन्न हुवा (उसबखत ) चतुर्निकाय देवगणका किया हुवा समवसरणमें, १२ परखदाके सन्मुख, भगवान् धर्मोपदेश देके, चतुर्विध संघकी स्थापना करी । भगवान्के २ लाख (२०००००) सर्व साधु भए (जिसमें) वराह प्रमुख ८८ गणधर भए ॥ १३ हजार (१३०००) वैकियलब्धि धारक भए ।। ८ हजार ४ सै (८४००) अवधिज्ञानी भए ॥ ७ हजार ५ सै (७५००) मनपर्यव ज्ञानीभए ॥ ७ हजार ५ सै (७५००) केवल ज्ञानीभए ॥ पनरसै (१५००) चौदे पूर्वधारीभए । छ हजार (६०००) वादीविरुद धरनेवालेभए ।। २ लाख २० हजार (१२००००) वारुणीप्रमुख साधवी हुई ॥ २ लाख २९ हजार (२२९०००) श्रावक हुए ॥ ४ लाख ७१ हजार (४७१०००) श्राविका हुई ( इत्यादिक ) बहुतसे जीवोंका उद्धार करकें, कर्मशत्रुवोंसे छोडायकें, अंतसमें समेतशिखरजी पर्वतके ऊपर, १ हजार (१०००) साधुवोंके साथ, १ माशका अणशण ग्रहण किया । काउसग्ग मुद्रायें, आत्मगुणके ध्यानसें, सबकर्मोकों खपायके, मिति भाद्रवा शुद् ९ के दिन, २ लाख पूर्वका आउखा पूरण करके, सिद्धि स्थानको प्राप्ति भए ॥ शासनदेव अजितयक्ष । For Private And Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८ शासनदेवी सुतारिका | राजसगण । वानरयोनि । धनराशि | अंतरकाल ९ कोड सागरोपम । सम्यक्त पायेवाद, तीसरेभव में मोक्षगए । इति ५५ बोलगर्भित श्री सुविधिनाथस्वामी अधिकारः ॥ ९ ॥ ॥ अथ १० श्री शीतलनाथ स्वामी अधिकारः ॥ भद्दलपुर नगरीमें, इक्ष्वाकवंशी, दृढरथनामें राजा हुवा ( तिसके ) नंदा नामे पट्टराणी, जिसकी कुखमें, अच्युत नामें देवलोकसें aah मिति वैशाखवदि ६ के दिन उत्पन्न भया ( तब ) मातायें १४ स्वप्ना देखा ( पीछे ) सर्वदिशा सुभिक्षसमें, मिति माघवदि १२ कों, पूर्वाषाढा नक्षत्रे, जन्मकल्याणक हुवा ( तब ) ५६ दिश कुमरी, ६४ इंद्रोंके जन्ममहोच्छव कियेवाद, दृढरथ राजा, १० दिवशका महोच्छव करके, श्री शीतलकुमर नाम दिया | श्री वच्छका लंछनयुक्त, कंचनवर्ण, शरीरप्रमाण ९० धनुष हवा । ३ ज्ञानसहित, महातेजस्वी, १००८ लक्षणालंकृत, भोगावली कर्म निर्जरार्थे, विवाह करके, क्रमसें राज्यपदकों धारन किया । अवसर आये लोकांतिक देवताके बचनसें, संवत्सरपर्यंत मोटो दान देके, मिति माघवदि १२ के दिन, भद्दलपुर नगरमें, छठतप करके, प्रियंगु वृक्ष के नीचे १००० पुरुषोंकेसाथ दीक्षा ग्रहण करी ( उसबखत ) चोथो मनपर्यवज्ञान उत्पन्न भयो । प्रथम छठको पारणो, पुनर्वसु के घरे, परमान्नक्षीरशें हुआ । तीनमाश छद्मस्थपणें विहार करके, फेर भद्दलपुर नगर आए ( वहां ) छठ तप सहित मिति पोषवदि १४ के दिन, लोकालोकप्रकाशक, केवलज्ञान उत्पन्न भया । ( उसबखत ) चतुर्निकाय देवगणका किया हुवा, समवस For Private And Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५९ रणमें बेठके, १२ परखदाके सन्मुख, भगवान् धर्मोपदेशदेके, चतुर्विधसंघकी स्थापना करी ॥ भगवान्के १ लाख (१०००००) सर्व साधुभए (जिसमें ) नंद प्रमुख ८१ गणधर हुए ॥ १२ हजार (१२०००) वैक्रियलब्धि धारक भए ॥ ७ हजार २ सै (७२००) अवधि ज्ञानीभए ॥ ७ हजार ५ से (७५००) मनपर्यवज्ञानीभए । १४ से (१४००) चवदे पूर्वधारीभए ॥ ५ हजार ८ सै (५८००) वादी विरुदधारीभए ॥ १ लाख ४० हजार (१४००००) सुयशाप्रमुख साधवी हुई ॥ दोलाख तयासीहजार (२८३०००) श्रावकभए ॥ ४ लाख ५८ हजार (४५८०००) श्राविकामई (इत्यादिक) बहुतसे जीवोंका उद्धार करके, अंतसमें समेतशिखरजी परवतके ऊपर, १ हजार (१०००) साधुवोंके साथ, १ माशका अणसण ग्रहण किया। काउसग्ग मुद्रायें, आत्मगुण के ध्यानसें, सर्वकमोंको खपायके, मिति वैशाखबदि २ केदिन, १ लाख पूर्वको आयुपूरण करके, सिद्धिस्थानको प्राप्तभए ॥ शासनदेव ब्रह्मायक्ष । शासनदेवी अशोका । मानवगण । नकुलयोनि । धनराशि । अंतरकाल १ कोटि सागरोपम, सम्यक्त पाएवाद, तीसरे भवमें मोक्षगए (इनोंकी बखतमें ) हरिवंशकुलकी उत्पत्तिभई (जिसमें ) वसुराजादि हुवे है । इसका विस्तार संबंध जैनसिद्धांतोंसें जाणना ॥ इति ५५ बोलगर्भित श्री शीतलनाथ स्वामी अधिकारः ॥ ॥ अथ ११ मा श्री श्रेयांसनाथस्वामी अधिकारः॥ सिंहपुरी नगरीमें, इक्ष्वाकवंशी, विष्णु नामें राजा हुवा (तिसके ) विष्णु नामें पट्टराणी, जिसकी कूखमें, अच्युतनामा १२ मा For Private And Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देव लोकसें चवके, मिति ज्येष्ट बदि १४ के दिन, भगवान् उत्पन्न हुवा ( तब ) मातायें, गजादि अग्निशिखा पर्यंत, १४ स्वप्ना प्रगटपणे मुखमें प्रवेश को देखा (पीछे) सर्व दिशा सुभिक्षसमें, मिति फागुन वदि १२ कों, श्रवणनक्षत्रे, जन्म कल्याणक हुवा ( उसी बखत ) ५६ दिशकुमरी मिलके सूतिका महोच्छव किया ( और पीछे ) ६४ इंद्र, मेरु पर्वतपर भगवान्कों ले जायके जन्म महोच्छव किया (तिस पीछे ) विष्णु राजा १० दिवसपर्यंत मोटो जन्म महोच्छव करके, सर्व न्याती गोती प्रजा गणकों, मनसा भोजन करायके, सर्वके सन्मुख श्रेयांस कुमर नाम दिया ॥ नाम स्थापनका यह हेतु हे (कि) विष्णु राजाके महिलमें, देव अधिष्ठित १ सज्याथी । उस देवसय्यापर जो सूवे बेठे, तो अकस्मात् कोई उपद्रव हुवे बिगर रहै नही ( जब) भगवान् विष्णु माताके गभेमें आये ( तब ) माताकों उस देवसय्यापर, सोनेका डोहला उत्पन्न भया ( इस सेती) विष्णु माता जब देवसय्यापर सूती, तब देवता प्रसन्न होके माताकी सेवामें हाजर भया । कोइ तरहका उपद्रव नहिं हो सका (इसवास्ते ) पितायें श्रेयांसकुमर नाम दिया । गेंडेका लंछन युक्त, कंचन वर्ण, शरीर प्रमाण ८० धनुष हुवा। तीन ज्ञान सहित, महा तेजस्वी, १००८ लक्षणालंकृत, भोगावली कर्म निर्जराथै, विवाह करके, क्रमसें राज्यपद धारन किया। अवसर आये, लोकांतिक देवताके वचनसें । संवत्सर पर्यंत मोटो दान देके, मिति फाल्गुन वदि १३ के दिन, सिंहपुरी नगरीमें, छठ तप करके, तिंदुक वृक्षके नीचे, १००० पुरषोंकेसाथ For Private And Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधु हुए जार ॥ ६९ कर दीक्षा ग्रहण करी । उस बखत चोथो मनपर्यव ज्ञान उत्पन्न भयो । प्रथम छठको पारणो, नंदरायके घरे, परमान क्षीरसें हुवो ॥ दो वर्ष छमस्थपणे विहार करके (फेर) सिंहपुरी नगरीमें आए वहां छठ तप सहित, मिति माघ वदि ३० के दिन, लोकालोक प्रकाशक केवल ग्यान उत्पन्न भया ( उस बखत ) चतुर्निकाय देवगणका किया भया समवसरणमें, १२ परपदाके सन्मुख, भगवान् धर्मोपदेश देके, चतुर्विध संघकी स्थापना करी ॥ भगवान्के ८४ हजार (८४०००) सर्व साधु हुए (जिसमें ) कच्छप प्रमुख ७६ गणधर पद धारक भए ॥ ११ हजार (११०००) वेक्रियलब्धि धारक भए॥ ६ हजार (६०००) अवधिज्ञानी भए । ६ हजार (६०००) मनपर्यव ज्ञानी भए ॥ ६ हजार ५ सै (६५००) केवल ज्ञानी भए ॥ १३ सै (१३००) चौदै पूर्वधारी हुए ॥ ५ हजार (५०००) वादी विरुदधारक भए ॥ १० लाख ३ सै (१००३००) साधवीयों भई ।। २ लाख ७८ हजार (२७८०००) श्रावक भए ॥ ४ लाख ४८ हजार (४४८०००) श्राविका हुई ॥ इत्यादिक बहुतसे जीवोंका उद्धार करके, (अंतसमें ) समेत सिखरजी पर्वत ऊपर, १००० साधुवोंकेसाथ, एक मासका अणसण ग्रहण किया ॥ काउसग्ग मुद्रायें, आत्मगुणके ध्यानसे, सर्व कर्माकों खपायके, मिति श्रावण वदि ३ के दिन, ८४ लाख वरपका आयुष्य पूरण करके सिद्धि स्थानकों प्राप्त हुए ॥ शासनदेव यक्षराज। शासनदेवी मानवी । देवगण । वानर योनी। मकर राशि । अंतरमान ५४ सागरोपम । सम्यक्त पाये वाद तीसरे भवमें मोक्ष गए। .... इति ५५ बोल गर्भित श्री श्रेयांस जिन अधिकारः ॥ For Private And Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२ ( इनके बखत ) त्रिपृष्ट नामें पहला वासुदेव, अचल नामें बलदेव हुवा ( जिणोंनें ) अपना वैरी, अश्वग्रीव प्रति वासुदेवकों मारके, भरत क्षेत्रके तीन खंडका राज करा ॥ ( और ) इनोंके समयमें, वैताढ्य पर्वतसें, श्रीकंठ नामा विद्याधरके पुत्र पद्मोत्तर विद्याधरकी बेटीकों अपहरण करके, अपना बहनोई राक्षसवंशी, लंकाका राजा, कीर्त्तिधवलके शरण में गया ( तब ) कीर्त्तिधवलनें तीनसे जोजन प्रमाण, वानर द्वीप, उनके रहनेकों दिया । तिनके संतानोमेंसे चित्र विचित्र, विद्याधरोनें, विद्यासें बंदरका रूप बनाया, ( तब ) वानरद्वीप के रहनेसें, और वानरका रूप बनानेसें, वानरवंशी प्रसिद्ध हुये । तिनोंकी ओलादमें वाली, सुग्रीवादिक भए है ॥ ॥ अथ १२ मा श्री वासुपूज्यखामी अधिकारः ॥ चंपापुरीनामा नगरी में, इक्ष्वाकुवंशी, वसुपूज्यनामे राजा हुवा ( उसके ) जयाना में पट्टराणी, जिसकी कुंखमें, प्राणतनामा १० मा देवलोक चवके, मिती ज्येष्टसुदि ९ के दिन, भगवान् उत्पन्न हुये । तब मातायें, गजादि अग्निशिखापर्यंत १४ स्वप्ना प्रगटपणें मुखमें प्रवेश कर्ते देखे । पीछे सर्व दिशा सुभिक्षसमें, मिति फाल्गुनवदि १४, शतभिषानक्षत्रे, जन्मकल्याणक हुवा ( उसीबखत ) ५६ दिशाकुमारीयों मिलके सूतिकामहोच्छव कीया ( पीछे ) ६४ इंद्र मेरुपर्वतपर भगवानकों लेजायके जन्ममहोच्छव कीया ( तिस पीछे ) वसुपूज्य राजायें, १० दिनपर्यंत, मोटो जन्म महोच्छव करके, सर्व न्याती प्रजागणकुं मनसा भोजन करायके, For Private And Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar वासुपूज्य कुमरनाम स्थापन किया ( नाम स्थापनका यह हेतु है) वासवनाम इंद्र, जब भगवान् माताके गर्भमे आये, तब इंद्रने भगवान्की माताकों वारंवार पूज्या । इस्से वासुपूज्यनाम (अथवा) वसुकहिये रत्नवासव कहिये वैश्रमण, जब भगवान गर्भमें आये । तब वैश्रमण देवनै राजाके घरमें वारंवार रत्नांकी वर्षा करी, इत्यादि कारणोसें, वासुपूज्य नाम दिया । पाडेका लंछनयुक्त, लालवर्ण, शरीरप्रमाण ७० धनुष हुवा । तीन ज्ञानसहित, महातेजस्वी, १००८ लक्षणालंकृत, भोगावलीकर्म निर्जरार्थे विवाह किया। अवसर आये, लोकांतिक देवताके वचनसें, कुमारावस्था में संवत्सरपर्यंत मोटो दान देके, फाल्गुन सुदि १५ दिन चंपानगरीमें, छठतप करके, पाडलवृक्षके नीचे, ६०० पुरुषोंके साथ, दीक्षा ग्रहण करी । उसबखत चोथो मनपर्यवज्ञान उत्पन्न भयो । प्रथम छठको पारणो सुनंदके घरे, परमानक्षीरसे हुवो । १ वरस छद्मस्थपणे विहार करके, फेर चंपानगरीमें आये । वहां छठतप सहित, मिति माघसुदि २ के दिन, लोकालोक प्रकाशक, केवलज्ञान केवलदर्शन उत्पन्न हुँवा, तब चतुर्निकाय देवगणका कीया हुवा समोसरणमें, १२ पर्षदाके सन्मुख, भगवान् धर्मोपदेश देके, चतुर्विध संघकी स्थापना करी । भगवान्के ७२ हजार (७२०००) सर्व साधु हुये (जिसमें) सुभूम प्रमुख ६६ गणधर पदधारक हुये ॥ धारणी प्रमुख १ लाख (१०००००) साधवियों हुई ॥ १० हजार (१००००) वैक्रियलब्धि धारक हुये ॥ चोपनसो (५४००) अवधि ज्ञानीभये ॥ ६ हजार (६०००) केवल ज्ञानीभये ॥ पैंसठसो (६५००) मनपर्यव For Private And Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achan ज्ञानीभये ॥ १२ सो (१२००) चवदे पूर्वधारीभये ॥ सैंतालीससो (४७००) वादी विरुदधारीभये ॥ २ लाख १५ हजार (२१५०००) श्रावक हुये ॥ ४ लाख २६ हजार (४२६०००) श्राविका हुई ( इत्यादिक ) बहुतसे जीवोंका उद्धार करके, अंतसमें चंपानगरीमें, ६०० साधुवोंकेसाथ, १ मासका अनशन ग्रहण कीया । काउसग्ग मुद्रायें, आत्मगुणके ध्यानसें, सर्व कर्मकों खपायके, आषाढसुदि १४ के दिन, ७७ लाख (७७०००००) वर्षको आयुष्य पूरण करके। सिद्धि स्थानको प्राप्ति भये । शासनदेव कुमारयक्ष । शासनदेवी चंडा । राक्षसगण अश्वयोनी । कुंभराशि। अंतरमान ३० सागरोपम । सम्यक्तपायेवाद तीसरे भवमें मोक्ष गये । इनोके बखतमें दूसरा द्विपृष्टनामा वासुदेव (अरु) विजय नामें बलदेव हुवा । इनका वेरी, तारक नामें दूसरा प्रतिवासुदेव हुवा । इति ५५ बोलगर्भित श्री वासुपूज्यखामी अधिकारः ॥ १२ ॥ ॥अथ १३ मा विमलनाथस्वामी अधिकारः ।। कंपिलपुरी नगरीमें, इक्ष्वाकुवंशी, कृतवर्मनामें राजा हुवा (तिसके ) श्यामानामें पट्टराणी । जिसकी कूखमें, सहस्रारनामें ८ मा देवलोकसें चवके, मिति वैशाखसुदि १२ के दिन भगवान उत्पन्न हुये, तब मातायें गजादि अग्निशिखापर्यंत १४ स्वप्ना, प्रगटपणे मुखमें प्रवेशकर्ता देखा पीछे सर्वदिशा सुभिक्षसमें, मिति माघसुदि ३ के दिन, उत्तराभाद्रपद नक्षत्रे जन्मकल्याणक हुवा (उसीबखत) ५६ दिशा कुमारीयों मिलके, सतिका महोच्छव किया पीछे ६४ इंद्र मिलके, मेरु पर्वतपर, भगवानकों लेजायके, जन्म महोच्छव For Private And Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६५ कीया । तिस पीछे कृतवर्म राजायें, १० दिवस पर्यंत, मोटो जन्ममहोच्छव करके, सर्व न्याती गोती प्रजागणकुं मनसा भोजन करायके, विमल कुमर नाम स्थापन किया । ( नाम स्थापनका यह हेतु है) कि जब भगवान् माताके गर्भमें आये । तब माताकी बुद्धि, अरु शरीर, दोनुं निर्मल हो गये (इस्सें) विमल कुमर नाम स्थापन किया । वाराहका लंछनयुक्त, कंचनवर्ण, शरीर प्रमाण ६० धनुष हुवा । ३ ज्ञान सहित, महा तेजस्वी, १००८ लक्षणालंकृत, भोगावली कर्म निर्जरार्थे, विवाह करके, क्रमसें राज्यपद धारण किया । अवसर आये, लोकांतिक देवताके वचनसें, संवत्सर पर्यंत बडो दान देके, मिति माघ सुदि ४ के दिन, कंपिलपुर नामा नगरमें, छठ तप करके, जंबू वृक्षके नीचे, १००० पुरुषोंकेसाथ, दीक्षा ग्रहण करी । उस वखत चोथो मन पर्यव ज्ञान उत्पन्न भयो । प्रथम छठको पारणो, जय राजाके घरे, परमान क्षीरसें हुवो । दो मास छअस्थपणे विहार करके, कंपिलपुरी नगरीमें आये । छठ तप सहित, पोषसुदि ६ के दिन, लोकालोक प्रकाशक, केवल ज्ञान, केवल दर्शन उत्पन्न हुवा । ( तब ) चतुर्निकाय देवगणका किया हुवा, समोसरणमें, १२ परपदाके सन्मुख, भगवान् धर्मोपदेश देके, चतुर्विध संघकी स्थापना करी ॥ भगवान्के ६८ हजार (६८०००) सर्व साधु हुये (जिसमें) मंदर प्रमुख ५७ गणधर पद धारक हुये ॥ धरा प्रमुख १ लाख ८ सो (१००८००) सर्व साध्वी हुई ॥ ९ हजार (९०००) वैक्रिय लब्धि धारक भये ॥ छत्तीससो (३६००) वादी विरुद धारक हुये ॥ ५ दत्तसूरि. For Private And Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६ अडतालीससो (४८००) अवधिज्ञानी हुये ॥ पच्चावनसो (५५०० ) मनपर्यव ज्ञानी हुये || पच्चावनसो ( ५५००) केवल ज्ञानी हुये || (१९००) चवदे पूर्वधारी हुये ॥ २ लाख ८ हजार (२०८०००) श्रावक हुये || ४ लाख २४ हजार (४२४००० ) श्राविका हुई ( इत्यादिक) बहुतसे जीवोंका उद्धार करके, अंतसमें समेत शिखरजी पर्वत ऊपर, ६०० साधुवोंकेसाथ, ९ मासका अनशन ग्रहण किया काउसग्ग मुद्रायें, आत्म गुणके ध्यानसें, सर्व कर्मकों खपायके, मिति आषाढ वदि ७ के दिन, ६० लाख (६००००००) वर्षको आयुष्य पूरन करके सिद्धि स्थानकों प्राप्त भये । शासन देव षण्मुख यक्ष | शासन देवी विदिता । मानवगण छागयोनि । मीन राशि | अंतर्मान ९ सागरोपम, सम्यक्त पायेवाद तीसरे भव मोक्ष गये | इनके वारे तीसरा स्वयंभू वासुदेव, अभद्र नामा बलदेव तथा मेरक नामा प्रति वासुदेव हुवा || इति ५५ बोल गर्भित श्री विमल स्वामी अधिकारः ॥ १३ ॥ ॥ अथ १४ मा श्री अनंतनाथ खामी अधिकारः ॥ अयोध्या नगरीमें, इक्ष्वाकवंशी, सिंहसेन नामें राजा हुवा तिसके सुयशा नामें पट्टराणी । जिसकी कुखमें, प्राणत नामा, देवलोक चवके, मिति श्रावण वदि ७ के दिन, भगवान् उत्पन्न हुवा । तब मातायें गजादि अनि शिखापर्यंत, १४ स्वप्ना प्रगटपणें मुखमें प्रवेश कर्त्ता देखा ( पीछे ) सर्व दिशा सुभिक्षसमें, मिति वैशाख वदि १३ के दिन, रेवती नक्षत्रे, जन्म कल्याणक हुवा ( उसी वखत ) ५६ दिशा कुमारीयों मिलके, सूतिका महोच्छव For Private And Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar किया (पीछे) ६४ इंद्र मेरु पर्वतपर भगवान्कों ले जायके, जन्म महोच्छव कीया (तिस पीछे) सिंहसेन राजायें १० दिवसपर्यंत मोटो जन्म महोच्छव करके, सर्व न्याती गोती प्रजा. गणों मनसा भोजन करायके, सर्वके सन्मुख, अनंतनाथ नाम स्थापन कीया (नाम स्थापनका यह हेतु हे) कि भगवान् गर्भमें आये, तब रत्नजडित चित्रविचित्र मोटी दाममाला, खप्नमें मातायें देखी । तिस कारणसें, अनंतनाथ नाम स्थापन किया सींचाणका लंछनयुक्त, कंचनवर्ण, शरीर प्रमाण ५० धनुष हुवा । तीन ज्ञानसहित, महा तेजस्वी, १००८ लक्षणालंकृत, भोगावली कर्म निर्जरार्थे विवाह कीया, क्रमसें राज्यपद धारन कीया । अवसर आये, लोकांतिक देवताके वचनसें, संवत्सरपर्यंत मोटो दान देके, वैशाख वदि १४ के दिन, अयोध्या नगरीमें, छठ तप करके, अशोक वृक्षके नीचे, १००० पुरुषोंके साथ दीक्षा ग्रहण करी । उस वखत चोथो मनपर्यव ज्ञान उत्पन्न भयो । प्रथम छठको पारणो, विजय राजाके घरे परमान्न क्षीरसें हुवो ॥ ३ वर्ष छद्मस्थपणे विहार करके, अयोध्या नगरीमें आये । वहां छठ तप सहित, वैशाख वदि १४ के दिन, लोकालोक प्रकाशक केवल ज्ञान उत्पन्न हुवा । उस वखत चतुर्निकाय देवगणका कीया हुवा समोसरणमें १२ परपदाके सन्मुख, भगवान् धर्मोपदेश देके, चतुर्विध संघकी स्थापना करी । भगवान्के ६६००० सर्व साधु हुवे (जिसमें) जस प्रमुख ५० गणधर पद धारक भए । पद्मा प्रमुख ६२००० सर्व साध्वी हुई । ८००० For Private And Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८ वैक्रिय लब्धि धारक भए || ३२०० वादीविरुद धारक भए || ४३०० अवधिज्ञानी भए ५००० मनपर्यवज्ञानी भए । ५००० केवलज्ञानी भए । १००० चवदे पूर्वधारी भए । २०६००० श्रावक भए ॥ ४१४००० श्राविका भई ( इत्यादिक) बहुत से जीवोंका उद्धार करके अंतसमें समेतशिखरजी पर्वतपर, ७०० साधुव केसाथ १ मासका अनशन ग्रहण कीया । काउसग्गमुद्रायें, आत्मगुणके ध्यानसें, सर्वकर्माकूं खपायके, मिति चैत्रसुदि ५ के दिन, तीसलाख (३००००००) वर्षको आयुष्य पूरन करके, सिद्धिस्थानकों प्राप्त भए || शासनदेव पाताल यक्ष । शासनदेवी अंकुशा | देवगण | हस्तियोनि । मीनराशि | अंतर्मान ४ सागरोपम । सम्यक्तपायेवाद तीसरे भवमें मोक्ष गये | इनके वारे, चोथा पुरुषोत्तमनामा वासुदेव ( अरु) सुप्रभनामा बलदेव ( तथा ) मधुकैटभनामा प्रतिवासुदेव हुवा || इति ५५ बोलगभिंत श्री अनंतनाथस्वामी अधिकारः ॥ १४ ॥ ॥ अथ १५ मा श्री धर्मनाथस्वामी अधिकार: ॥ रत्नपुरीनामा नगरीमें, इक्ष्वाकुवंशी, भानुनामें राजा हुवा ( तिसके) सुव्रतानामें पट्टराणी । जिसकी कुखमें, विजयनामा अनुत्तर विमानसें चवके, मिति वैशाख सुदि ७ के दिन, भगवान् उत्पन्न हुवा । तब मातायें गजादि अग्निशिखापर्यंत १४ स्वप्ना प्रगटपणें मुखमें प्रवेशकर्त्ता देखा ( पीछे ) सर्व दिशा सुभिक्षसमें, मिति माघसुदि ३ के दिन, पुष्यनक्षत्रे, जन्मकल्याणक हुवा || उसीवखत ५६ दिशा कुमारीयों मिलके सूतिका For Private And Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महोच्छव कीया । (पीछे) मेरुपर्वतपर भगवानकों लेजायके जन्म महोच्छव कीया । तिस पीछे भानुराजायें, १० दिवसपर्यंत बडो जन्ममहोच्छव करके, सर्व न्याती गोती प्रजागणकों, मनसा भोजन करायके, सर्वके सन्मुख, श्री धर्मनाथ नाम स्थापन किया ॥ नाम स्थापनाका यह हेतु है । कि परमेश्वरके गर्भ में आनेसें, माता दानादिक धर्ममें तत्पर भई (इस्सें) धर्मकुमर नामस्थापन कीया । वज्रका लांछन युक्त, कंचनवर्ण, शरीरप्रमाण ४५ धनुष हुवा । तीन ज्ञानसहित, महातेजस्वी, १००८ लक्षणालंकृत, भोगावली कर्मनिर्जरार्थे विवाह करके, क्रमसें राज्यपद धारन कीया । अवसर आये लोकांतिक देवताके वचनसें, संवत्सरपर्यंत मोटो दान देके, मिति माघसुदि १३ दिन, रत्नपुरीनगरीमें, छठ तप करके, दधिपर्णनामा वृक्षके नीचे, १००० पुरुषांकेसाथ दीक्षा ग्रहण करी उसवखत चोथो मनपर्यवज्ञान उत्पन्न भयो । प्रथम छठको पारणो, धनसिंहके घरे, परमान्नक्षीरसे हुवो । दो वर्ष छद्मस्थपणे विहार करके, रत्नपुरी नगरीमें आये । छठतप सहित, पोष सुद १५ के दिन, लोकालोक प्रकाशक, केवल ज्ञान केवल दर्शन उत्पन्न हुवा (उसवखत) चतुर्निकाय देवगणका कीया हुवा समोसरणमें, १२ परपदाके सन्मुख, भगवान् धर्मोपदेश देके, चतुर्विध संघकी स्थापना करी । भगवान्के ६४००० सर्व साधु हुवे (जिसमें) अरिष्ट प्रमुख ४३ गणधर हुये ॥ आर्यशिवा प्रमुख ६२४०० सर्व साधवीयों हुई ॥ ७००० वैक्रिय लब्धि धारक हुवे ॥ २८०० For Private And Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७० चादी विरुद धारक हुवे ॥ ३६०० अवधि ज्ञानी हुवे ॥ ४५०० केवल ज्ञानी हुवे ॥ ९०० चवदे पूर्वधारी हुवे ॥ २०४००० श्रावक हुवा ॥ ४१३००० श्राविका हुई (इत्यादिक) बहुतसे जीवोंका उद्धार करके, अंतसमें, समेत शिखरजी पर्वतपर, १००८ साधुवोंकेसाथ, १ मासका अनशन ग्रहण कीया काउसग्ग मुद्राई, आत्मगुणके ध्यानसें, सर्व कर्मोकुं खपायके, मिति ज्येष्ट सुदि ५ के दिन, १० लाख वर्षको आयुष्य पूरन करके, सिद्धिस्थानकों प्राप्त भए ॥ शासनदेव किन्नर यक्ष । शासन देवी कंदो । देवगण । मंजार योनी । कर्कराशि । अंतरमान ३ सागरोपम । सम्यक्तपायेवाद तीसरे भवमें मोक्ष गये ॥ (इनोंकेबारे)५ मा पुरुष सिंहनामा वासुदेव (अरु) सुदर्शन नामा बलदेव (तथा) निशुंभ नामा प्रति वासुदेव हुवा ॥ ॥ इति ५५ बोल गर्भित श्री धर्मनाथाधिकारः ॥ १५ ॥ १५ मा श्री धर्मनाथ स्वामीके पीछे, अरु १६ मा श्री शांतिनाथ स्वामीके पहिले, तीसरा मघवा नामा चक्रवर्ति (और) चोथा सनत्कुमार नामा चक्रवर्ति हुवा ॥ ॥ अथ १६ मा शांतिनाथ स्वामी अधिकारः॥ हस्तनापुर नामा नगरमें, इक्ष्वाकुवंशी, विश्वसेन नामें राजा हुवा (तिसके) अचिरा नामें पट्टराणी, जिसकी कुंखमें, सर्वार्थसिद्ध नामा देवलोकसें चवके, मिति भाद्रवा वदि ७ के दिन, भगवान् उत्पन्न भए । तब मातायें, गजादि अग्निशिखापर्यंत, १४ स्वप्ना प्रगटपणे मुखमें प्रवेश कर्चा देखा (पीछे) सर्व दिशा For Private And Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुभिक्षसमें, ज्येष्ट वदि १३ के दिन, भरणी नक्षत्रे, जन्म कल्याणक हुवा ॥ उसी वखत ५६ दिशा कुमारीयों मिलके सूतिका महोच्छव कीया ( पीछे) ६४ इंद्र मेरु पर्वतपर, भगवानकों ले जायके, जन्म महोच्छव कीया (तिस पीछे) विश्वसेन राजायें १० दिवसपर्यंत, मोटो जन्म महोच्छव करके, सर्व न्याती गोती प्रजागणकों मनसा भोजन करायके, सर्वके सन्मुख शांतिकुमर नाम स्थापन कीया ॥ नाम स्थापनका यह हेतु है, गर्भमे भगवान्के उत्पन्न होनेसें, पूर्वे जो मरीआदिक रोगोपद्रव बहुतथा, वो शांति हो गया (इस कारणसें) शांति कुमर नाम दिया। हिरणका लांछनयुक्त, कंचनवर्ण, शरीरप्रमाण ४० धनुष हुवा। ३ ज्ञान सहित, महातेजस्वी, १००८ लक्षणालंकृत, भोगावलीकर्म निर्जरार्थे, चक्रवर्तिपद धारण करके, ६४ हजार खियांकों परण्या ( पीछे ) अवसर आये लोकांतिक देवताके वचनसें, मिति ज्येष्ठ वदि १४ के दिन, हस्तनापुर नगरमें, छठ तप करके नंदीवृक्षके नीचे, १००० पुरुषोंकेसाथ दीक्षा ग्रहण करी ( उस बखत) चोथो मनपर्यवज्ञान उत्पन्न हुवो । प्रथम छठको पारणो, सुमित्रके घरे परमानक्षीरसें हुवो । १ वर्ष छद्मस्थपणे विहार करके, फिर हस्तनापुर नगरमें आये । वहां छठ तप सहित, पोपसुदि ९ के दिन, लोकालोक प्रकाशक केवल ज्ञान केवल दर्शन उत्पन्न हुवा (उस वखत) चतुर्निकाय देवगण का कीया हुवा समोसरणमें, १२ परपदाके सन्मुख, भगवान् धर्मोपदेश देके चतुर्विध संघकी स्थापना करी । भगवान्के ६२ हजार सर्व साधु हुये For Private And Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२ ( जिसमें ) चक्रायुध प्रमुख ३६ गणधर पदधारक हुये ॥ सुचिप्रमुख ६१६०० साधवीयों हुई ।। ६००० वैक्रिय लब्धिवंत भए || २४०० वादी विरुद धारक भए || ३००० अवधि ज्ञानी भए || ४००० मनपर्यव ज्ञानी भए । ४३०० केवल ज्ञानी भए । ८०० चवदे पूर्वधारी हुये ॥ २ लाख ९० हजार श्रावक हुवा ॥ २ लाख ९३ हजार श्राविका हुई || ( इत्यादिक) बहुतसे जीवोंका उद्धार करके, अंतसमें समेत शिखरजी परबतपर, ९०० साधुवोंकेसाथ, १ मासका अणशन ग्रहण कीया । काउसग्ग मुद्राई आत्मगुणके ध्यानसें, सर्व कर्मोंकों खपायके, मिति ज्येष्ठ वदि १३ के दिन, १ लाख वर्षको आयुष्य पूरण करके, सिद्धिस्थानकों प्राप्त भए । शाशनदेव गरुड यक्ष । शासनदेवी निर्वाणी । मानव गण | हस्ति योनी । मेष राशि | अंतरमान अर्द्धपल्योपम । सम्यक्त पायेवाद १२ मे भवमें मोक्ष गए । इति ५५ बोल गर्भित ५ मा चक्रवर्त्त, १६ मा श्रीशांतिनाथ स्वामी अधिकारः ॥ १६ ॥ ॥ अथ १७ मा श्री कुंथुनाथ स्वामी अधिकारः ॥ गजपुर नामा नगर में, इक्ष्वाकुवंशी, सूरनामा राजा हुवा ( ति - सके ) श्री नामा पट्टराणी । जिसकी कुखमें, सर्वार्थसिद्ध नामा देवलोक चवके, मिति श्रावण वदि ९ के दिन भगवान् उत्पन्न भए । तब मातायें, गजादि अग्नि शिखापर्यंत, १४ स्वप्ना प्रगटपणें मुखमें प्रवेश कर्त्ता देखा (पीछे) सर्व दिशा सुभिक्षसमें, वैशाख वदि १४ के दिन, कृत्तिका नक्षत्रे, जन्म कल्याणक हुवा | उसी वखत ५६ दिशा कुमारीयों मिलके सूतिका महोच्छव कीया 2 For Private And Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (पीछे) ६४ इंद्र मेरुपर्वतपर भगवानकों ले जायके जन्म महोच्छव कीया (तिस पीछे) सूर राजायें १० दिवस पर्यंत, मोटो जन्म महोच्छव करके, सर्व न्याती गोती प्रजागणकों मनसा भोजन करायके, सर्वके सन्मुख, श्री कुंथु कुमर नाम स्थापन कीया ॥ नाम स्थापनका यह हेतु है कि भगवान् गर्भमें आया, तब माता रत्नमई कुंथुवोंकी राशि देखती भई । इससें, कुंथ कुमर नाम दिया ॥ बकराका लंछनयुक्त, कनकवर्ण, शरीर प्रमाण ३५ धनुष हुवा । ३ ज्ञानसहित, महा तेजस्वी, १००८ लक्षणालंकृत भोगावली कर्मनिर्जरार्थे, चक्रवर्ति पद धारण करके, ६४ हजार स्त्रियांकों परण्या (पीछे ) अवसर आये लोकांतिक देवताके वचनसें, मिति चैत्रवदि ५ के दिन, हस्तनापुर नगरमें, छठ तप करके, भील्लक वृक्षके नीचे १००० पुरुषोंकेसाथ दीक्षा ग्रहण करी ( उसवखत) चोथो मनपर्यव ज्ञान उत्पन्न भयो । प्रथम छठको पारणो, व्याघ्रसिंघके घरे, परमानक्षीरसें हुवो । १६ वर्ष छद्मस्थपणे विहार करके, फिर हस्तनापुर नगरमें आये । वहां छठ तप सहित, चैत्रसुदि ३ के दिन लोकालोक प्रकाशक केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ (उसवखत) चतुर्निकाय देवगणका कीया भया समोसरणमें १२ परपदाके सन्मुख भगवान् धर्मोपदेश देके चतुविध संघकी स्थापना करी ॥ भगवानके ६० हजार सर्व साधु हुये (जिसमें ) सांब प्रमुख ३५ गणधर पदधारक भये ॥ दामिनी प्रमुख ६०६०० साध्वी हुई ॥ ५१०० वैक्रियलब्धिवंत भए । २००० वादी विरुदपद धारक भए ॥ २५०० अवधि झानी For Private And Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७४ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भए ॥ ३३४० मनपर्यव ज्ञानी भए || ३२०० केवल ज्ञानी भए । ६७० चवदे पूर्वधारी भए ॥। १ लाख ७९ हजार श्रावक हुआ || ३ लाख ८१ हजार श्राविका हुई ( इत्यादिक) बहुतसे जीवोंका उद्धार करके, अंतसमें समेतशिखरजी पर्वतऊपर, १००० साधुवों केसाथ, १ मासका अनशन कीया । काउसग्ग मुद्राई, आत्मगुणके ध्यानसें, सर्वकर्मोकुं खपायके, मिति वैशाखबदि १ दिन, ९५ हजार वर्षको आयुष्य पूरण करके सिद्धिस्थानकों प्राप्ति भए । शासनदेव गंधर्व यक्ष । शासनदेवी बला । छागयोनी । वृष राशि | अंतरमान पावल्योपम । सम्यक्त पायेवाद तीसरेभवमें मोक्ष गये । इति ५५ बोलगर्भित ६ ठा चक्रवर्त्ति, १७ मा श्री कुंथुनाथ स्वामीका अधिकार संपूर्णम् ॥ ॥ अथ १८ मा श्री अरनाथस्वामी अधिकारः ॥ गजपुरनामा नगरमें, इक्ष्वाकुवंशी, सुदर्शननाम राजा हुवा (तिसके) देवीनामें पट्टराणी हुई । जिसकी कुखमें सर्वार्थसिद्ध नामा देवलोकसें चवके, मिति फागणसुदि २ के दिन भगवान् उत्पन्न भए । तब मातायें गजादि अग्निसिखापर्यंत १४ स्वप्ना प्रगटपणें मुखमें प्रवेशकर्त्ता देखा । पीछे सर्व दिशा सुभिक्षसमें, मिगसर सुद १० के दिन, रेवतीनक्षत्रे जन्मकल्याणक हुवा | उसी वखत ५६ दिशा कुमारीयों मिलके सूतिका महोच्छव कीया पीछे ६४ इंद्र मेरुपर्वतपर भगवानकों ले जायके जन्ममहोच्छव कीया । तिस पीछे सुदर्शनराजायें १० दिवसपर्यंत मोटो जन्ममहोच्छव करके, सर्व न्याती गोती प्रजागणकों मनसा For Private And Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भोजन करायके, सर्वके सन्मुख, श्री अरनाथ कुमर नाम स्थापन कीया । नाम स्थापनका यह हेतु है, कि भगवान जब गर्भमें स्थित हुवा, तब मातायें खममें, सर्व रत्नमई अरदेख्या ( इसकारणसें ) अरकुमर नाम दीया । नंद्यावर्तका लंछनयुक्त, कनकवर्ण, शरीरप्रमाण ३० धनुष हुवा । ३ ज्ञानसहित, महातेजस्वी, १००८ लक्षणालंकृत, भोगावली कर्म निर्जरार्थे, चक्रवर्ति पदधारण करके, ६४ हजार स्त्रियांकों परण्या (पीछे) अवसर आये लोकांतिक देवताके वचनसे, मिति मिगसरसुदि ११ के दिन, हस्तनापुर नगरमें, छठतप करके, आवाका वृक्षके नीचे, १००० पुरुषोंकेसाथ दीक्षा ग्रहण करी ( उसवखत) चोथो मनपर्यवज्ञान उत्पन्न भयो । प्रथम छठकोपारणो, अपराजितके घरे परमानक्षीरसें हुवो । तीनवर्ष छद्मस्थपणे विहार करके, फिर हस्तनापुरमें आये । वहां छठतप सहित, कार्तिकसुदि १२ के दिन, लोकालोक प्रकाशक केवल ज्ञान उत्पन्न हुवा (उस बखत) चतुर्निकाय देवगणका कीया हुवा समोसरणमें १२ परिषदाके सन्मुख, भगवान् धर्मोपदेश देके चतुर्विध संघकी स्थापना करी । भगवान्के ५० हजार सर्व साधुभये (जिसमें) कुंभ प्रमुख ३३ गणधर पदधारक भये । रक्षिता प्रमुख ६० हजार साध्वी हुई । ७३०० वैक्रिय लब्धिवंत भये ।। १६०० बादी विरुदपद धारकभये ॥ २६०० अवधि ज्ञानीभये ॥ २५५१ मनपर्यव ज्ञानीभये २८०० केवल ज्ञानीभये ॥ ६१० चवदे पूर्वधारीभये ॥ १ लाख ८४ हजार श्रावक हुये । ३ लाख For Private And Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२००० श्राविका हुई ( इत्यादिक ) बहुतसे जीवोंका उद्धार करके, अंतसमें समेत शिखर जी पर्वतपर, १००० साधुवोंकेसाथ, १ मासका अनशन कीया । काउसग्ग मुद्राइं, आत्मगुणके ध्यानसे, सर्व कर्माकों खपायके, मिति मिगसरसुदि १० के दिन, ८४००० वर्षको आयुष्यमान पूरो करके, सिद्धिस्थानको प्राप्ति भये । शासनदेव यक्षराज । शासनदेवी धारणी । देवगण । हस्तियोनी । मीनराशि । अंतरमान १ हजार कोडवर्ष । सम्यक्त पायेवाद तीसरे भवमें मोक्ष गये ॥ इहां १८ मा, तथा १९ मा, तीर्थकरके बीचमें, ६ ठा पुरुष पुंडरीक वासुदेव, तथा आनंदनामा बलदेव, बलिनामा प्रतिवासुदेव हुये इस पीछे ८ मा सुभूमनामें चक्रवर्ति हुवा । इस पीछे, दत्तनामा ७ मा वासुदेव, तथा नंदनामा बलदेव, और प्रह्लादनामा प्रतिवासुदेव भये ॥ इति ५५ बोलगर्भित ७ मा चक्रवर्ति, १८ मा श्री अरनाथ स्वामीका अधिकार संपूर्ण ॥ १८॥ ॥ अथ १९ मा श्री मल्लिनाथखामी अधिकारः॥ मिथिला नामा नगरीमें, इक्ष्वाकुवंशी, कुंभनामें राजा हुवा । तिसके प्रभावतीनामें पट्टराणी हुई । जिसकी कूखमें, जयंत विमानथी चवके, मिति फागुण सुदि ४ के दिन, भगवान् उत्पन्न भये । तब मातायें, गजादि अग्निशिखापर्यंत, १४ स्वप्ना प्रगटपणे मुखमें प्रवेशकर्ता हुवा देखा ( पीछे ) सर्व दिशा सुभिक्षसमें, मिगसर सुदि ११ के दिन, अश्विनीनक्षत्रे जन्म कल्याणक हुवा । उसीवखत ५६ दिशा कुमारीयों मिलके For Private And Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूतिका महोच्छव कीया । पीछे ६४ इंद्र, मेरुपर्वतपर भगवानकों लेजायके, जन्ममहोच्छव कीया (तिस पीछे ) कुंभराजायें १० दिवसपर्यंत मोटो जन्ममहोच्छव करके, सर्व न्याती गौती प्रजागणकों मनसा भोजन करायके, सर्वके सन्मुख श्री मल्लिकुमर नाम स्थापन कीया ( नाम स्थापनका यह हेतु हैं ) कि भगवान् जब गर्भमें आया तब भगवान्की माताको सुगंधवाले फूल मालाकी सय्याऊपर, सोनेंका दोहद उत्पन्न भया । सो देवतानें पूरण कीया (इस कारणसें) मल्लिकुमर नाम दीया । कलशका लंछनयुक्त, नीलवर्ण, शरीर प्रमाण २५ धनुष हुवा । ३ ज्ञानसहित, महातेजस्वी, १००८ लक्षणालंकृत, विवाह कियेविगर, कुमार अवस्था में रया (पीछे) अवसर आये लोकांतिक देवताके वचनसें, मिति मिगसरसुदि ११ के दिन, मथुरा नगरीमें, अट्ठमतप करके, अशोकवृक्षके नीचे, ३०० कुमरी ३०० पुरुषोंकेसाथ दीक्षा ग्रहण करी ( उस वखत) चोथो मनपर्यवज्ञान उत्पन्न भयो । प्रथम छठको पारणो, विश्वसेनकेघरे, परमानक्षीरसें हुवो । फिर उसीदिन मिथिलानगरीमें । छठतपसहित, मिगसर सुदि ११ के दिन लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान उत्पन्न हुवा ( उसवखत ) चतुर्निकाय देवगणका कीया हुवा समोसरणमें १२ परिषदाके सन्मुख भगवान धर्मोपदेश देकै चतुर्विध संघका स्थापना करा भगवानके ४० हजार सर्व साधु भये । (जिसमें ) अभिक्षक (किंसुक) प्रमुख २८ गणधर पदधारक हुवे ॥ बंधुमती प्रमुख ५५ हजार सर्व साध्वी हुई। For Private And Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९०० वेक्रियलब्धिवंत भये ॥ १४०० वादी विरुद धारक भये ॥ २२०० अवधिज्ञानी भये ॥ १७५० मनपर्यव ज्ञानी भये ।। २२०० केवलज्ञानी भये ॥ ६६८ चवदे पूर्वधारी हुये ॥ १ लाख ८३ हजार श्रावक भये ॥ ३७०००० श्राविका हुई, इत्यादिक बहुतसे जीवोंका उद्धार करके, अंतसमें समेतसिखरजी पर्वतऊपर, ५०० साधुवोंकेसाथ १ मासका अनशन कीया । काउसग्ग मुद्राइं, आत्मगुणके ध्यानसे, सर्वकर्माकों खपायके, मिति फागुणसुदि १२ के दिन, ५५ हजार वर्षको आयुष्यमान पूरो करके, सिद्धि स्थानको प्राप्ति भये । शासनदेव कुबेरयक्ष । शासनदेवी धरणप्रिया । देवगण । अश्वयोनि । मेषराशि । अंतरमान ५४००००० वर्ष, सम्यक्तपायेवाद तीसरे भवमें मोक्ष गया । ॥ इति १९ मा श्री मल्लिनाथस्वामी अधिकारः ॥ १९ ॥ ॥ अथ २० मा श्री मुनिसुव्रतखामी अधिकारः॥ राजगृही नामा नगरीमें, हरिवंशी, सुमित्र नामें राजा हुवा (तिसके) पद्मावती नामें पट्टराणी भई । जिसकी कूखमें, अपराजित नामा अनुत्तर विमानसें चवके, मिति श्रावण सुदि १५ के दिन, भगवान् उत्पन्न भया । तब मातायें गजादि अग्नि शिखापर्यंत, १४ स्वप्ना प्रगटपणे मुखमें प्रवेश कर्ता हुवा देखा, पीछे सर्व दिशा सुभिक्षसमें, ज्येष्ट वदि ८ के दिन, श्रवण नक्षत्रे, जन्म कल्याणक हुवा ( उस बखत ) ५६ दिशा कुमारीयों मिलके, सूतिका महोच्छव कीया (पीछे) ६४ इंद्र, मेरु पर्वतपर भगवान् को ले जायके, जन्म महोच्छव कीया । तिस For Private And Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पीछे, सुमित्र राजायें १० दिवसपर्यंत, वडो जन्म महोच्छव करके, सर्व न्याती गोती प्रजागणकों मनसा भोजन करायके, सर्वके, सन्मुख, मुनिसुव्रत कुमर नाम स्थापन कीया । (नाम स्थापनका यह हेतु है) कि भगवान् गर्भ में स्थित हुवा, तब माता मुनिकी तरे, भले व्रतवाली होती भई (इस हेतुसें ) मुनिसुव्रत नाम दीया । कच्छपके लंछनयुक्त । श्यामवर्ण, शरीर प्रमाण २० धनुष हुवा । ३ ज्ञान सहित, महा तेजस्वी, १००८ लक्षणालंकृत, भोगावली कर्म निर्जरार्थे, विवाह करके, क्रमसें राज्यपद धारण कीया । पीछे अवसर आये, लोकांतिक वचनसें, मिति फागुण शुदि १२ के दिन, राजगृही नगरीमें, छठ तप करके, चंपेका वृक्षके नीचे, १००० पुरुषोंकेसाथ, दीक्षा ग्रहण करी ( उस वखत ) चोथो मनपर्यव ज्ञान उत्पन्न भयो । प्रथम छठ को पारणो, ब्रह्मदत्तके घरे, परमान्न क्षीरसें हुवा । ११ मास छमस्थपणे विहार करके, फिर राजगृही नगरीमें आये । वहां छठ तप सहित, फागुण वदि १२ के दिन, लोकालोक प्रकाशक, केवल, ज्ञान उत्पन्न हुवा (उस वखत) चतुर्निकाय देवगणका कीया हुवा समोसरणमें, १२ परिषदाके सन्मुख, भगवान् धर्मोपदेश देके, चतुर्विध संघकी स्थापना करी । भगवानके ३० हजार सर्व साधु भये (जिसमें ) मल्लि प्रमुख १८ गणधर हुये पुष्पवती प्रमुख ५० हजार सर्व साध्वी भई ॥२००० चैक्रिय लब्धिवंत भये ॥ १२०० वादी विरुद धारक भये ॥ १८०० अवधि ज्ञानी भये ॥ १५०० मनपर्यव ज्ञानी भये ॥ १८०० केव For Private And Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लज्ञानी भये ।। ५०० चवदे पूर्वधारी भये ॥। १ लाख ७२ हजार श्रावक भये || ३ लाख ५० हजार श्राविका भई ( इत्यादिक) बहुतसे जीवोंका उद्धार करके, अंतसमें समेत शिखरजी पर्वतऊपर, १००० साधुवोंके साथ, १ मासका अनशन कीया ॥ काउसग्ग मुद्राई, आत्मगुणके ध्यानसें, सर्व कर्मोंकों खपायके, मिति ज्येष्ट वदि ९ के दिन, ३० हजार वर्षको आयुष्य मान पूरी करके, सिद्धि स्थानकों प्राप्ति भये । शासनदेव वरुण यक्ष | शासनदेवी नरदत्ता । देवगण । वानर योनि मकर राशि । अंतरमान ६ लाख वर्ष । सम्यक्त पायेवाद, तीसरे भव में मोक्षगये || इणोकेवारे रामचंद्र लक्ष्मण ८ मां वलदेव वासुदेव रावणप्रति वासुदेव हुवा || || इति५५ बोल गर्भित २० माश्री मुनि सुव्रतस्वामी अधिकार: २० || ॥ अथ २१ मा श्री नमिनाथस्वामी अधिकार: ॥ मथुरा नामा नगरीमें इक्ष्वाकुवंशी, विजय नामा राजा हुवा तिसके क्या नामें पट्टराणी भई । जिसकी कुखमें, प्राणत नामा देव लोकसें चवके, मिति आशोज सुदि १५ के दिन भगवान् उत्पन्न भया । ( तब ) मातायें गजादि अग्नि शिखापर्यंत १४ स्वप्ना प्रगटपणें मुखमें प्रवेश कर्त्ता हुवा देखा ( पीछे ) सर्व दिशा सुभिक्षसमें, मिति श्रावण वदि ८ के दिन, अश्विनी नक्षत्रे जन्मकल्याणक हुवा ( उसीबखत ) ५६ दिशा कुमारीयों मिलके, सूतिका महोच्छव कीया ( पीछे ) ६४ इंद्र मेरु पर्वतपर भगवा - नकों ले जायके जन्म महोच्छव कीया ( तिस पीछे ) विजय For Private And Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजायें १० दिवसपर्यंत मोटो जन्म महोच्छव करके, सर्व न्याती गोती प्रजा गणकों मनसा भोजन करायके, सर्वके सन्मुख, श्री नमीनाथकुमर नाम स्थापन कीया (नाम स्थापनका यह हेतु हे कि) भगवान् माताके गर्भ में आये, तब वैरी राजायोंनेभी नमस्कार करा (इस कारणसें) नमी कुमर नाम दीया । कमलका लंछनयुक्त । पीतवर्ण । शरीरका प्रमाण १५ धनुष हुवा । ३ ज्ञान सहित, महा तेजस्वी. १००८ लक्षणालंकृत, भोगावली कर्म निर्जराथें, विवाह करके, राज्यपद धारन किया । पीछे अवसर आये, लोकांतिक देवताके वचनसे, मिति आषाढ वदि ९ के दिन, मथुरा नगरीमें छठ तप करके, १ हजार पुरुषोंकेसाथ, बकुल वृक्षके नीचे, दीक्षा ग्रहण करी । उस वखत चोथो मन पर्यव ज्ञान उत्पन्न भयो । प्रथम छठको पारणो, दिन कुमारके घरे, परमान्न क्षीरसें हुवो । ६ भास छद्मस्थपणे विहार करके फिर मथुरा नगरीमें आये । वहां छठतप सहित, मिगसर सुदि ११ के दिन, लोकालोक प्रकाशक, केवल ज्ञान उत्पन्न हुवा (उसवखत) चतुर्निकायदेवगणका कीया हुवा समोसरणमें, १२ परिषदाके सन्मुख भगवान् धर्मोपदेश देके चतुर्विध संघकी स्थापना करी । भगवान्के २० हजार सर्व साधु भये (जिसमें ) शुभप्रमुख १७ गणधर हुये । अनिला प्रमुख ४१ हजार सर्व साध्वी गई ॥५००० वैक्रियलब्धिवंत अये ॥ १००० वादी विरुद्ध धारक भये ॥ १६०० अरधि ज्ञानी भये १२५० मनपर्यव ज्ञानी भये ॥ १६०० केवल ज्ञानीभये ॥ ४५० चवदे पूर्वधारीभये ॥ १ लाख ७० हजार श्रावक भये ॥ ३ लाख ६ दत्तसूरि० For Private And Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८२ ४८ हजार श्राविका हुई ( इत्यादिक) बहुतसे जीवोंका उद्धार करके, अंतसमें समेतशिखरजी पर्वतऊपर १००० साधुवोंके साथ १ मासका अनशनकीया । काउसम्म मुद्राई आत्मगुणके ध्यानसे, सर्व कमौकों खपायके, मिति वैशाखबदि १० के दिन, १० हजार वर्षको आयुष्यमान पूरी करके, सिद्धि स्थानकों प्राप्त भये । शासनदेव भृकुटीयक्ष शासनदेवी गंधारी । देवगण | अश्वयोनि । मेषराशि | अंतरमान ५००००० वर्ष, सम्यक्त पायेवाद तीसरेभवमें मोक्षगये | इनों के वारे हरिषेणनामा १० मा चक्रवर्त्ति हुवा || और २१ मा ( तथा ) २२ मा तीर्थंकर के अंतर में, १९ मा जयनामा चक्रवर्त्ति हुआ || इति २१ मा श्री नमिनाथस्वामी अधिकार संपूर्णम् ॥ ॥ अथ २२ मा श्री नेमिनाथस्वामी अधिकारः । सोरीपुरनामा नगरमें, हरिवंशी, समुद्रविजयनामें राजा हुवा तिसके शिवादेवी नामें पट्टराणी । जिसकी कूखमें, अपराजित - नामें देव लोकसें चवके, मिति कार्त्तिकवदि १२ के दिन, भगवान् उत्पन्न भया । तब मातायें गजादि अग्निशिखापर्यंत १४ स्वप्ना प्रगटपणें मुखमें प्रवेशकर्त्ता देखा । पीछे सर्व दिशा सुमिक्षसमें, मिति श्रावणसुदि, ५ के दिन, चित्रा नक्षत्रे, जन्मकल्याणक हुवा ( उसीवखत ) ५६ दिशा कुमारीयों मिलके सूतिका महोच्छव कीया ( पीछे ) ६४ इंद्र मेरुपर्वतपर भगवानकों लेजायके जन्ममहोच्छव कीया । तिस पीछे समुद्रविजय राजायें १० दिन पर्यंत मोंटो जन्ममहोच्छव करके सर्व न्याती गोती प्रजागणकों For Private And Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar मनसा भोजन कराके, सर्वके सन्मुख, श्री अरिष्टनेमि कुमर नाम स्थापन कीया (नाम स्थापनका यह हेतु है कि) भगवान् जब गर्भ में आया, तब मातानें अरिष्ट रत्नमय. बडा नेमी (चक्रधारा ) आकाशमें उत्पन्न स्वप्नमें देखा। तिस कारणसें अरिष्टनेमि नाम दिया । शंखके लंछनयुक्त, श्यामवर्ण, शरीरका प्रमाण १० धनुष हुवा । ३ ज्ञानसहित, महातेजस्वी, १००८ लक्षणालंकृत विवाह किये विगर कुमारअवस्थामें रहै (पीछे) काकेका बेटा श्रीकृष्ण, तथा बलभद्रनें बहुत हठ करके, मनविगर राजीमतीके साथ विवाह ठहराया । जब जान लेके भगवान् सुसराके घरे तोरणकेपास आये । उहां मारणके निमत्त बहुतसे जानवर वाडा पीजरामें भरे हुवे देखे । तब दया करके सर्व जीवां कों बंधमेंसें छोडाए । और आप पीछा घिरके दिक्षा लेनेकों तैयार भए, फेर लोकांतिक देवताके वचनसे, मिति श्रावणसुदि ६ के दिन, द्वारका नगरीके बाहिर गिरनारपर्वतपर, छठ तप करके, वेडसवक्षके नीचे, १००० पुरुषोंके साथ, दीक्षा ग्रहण करी ( उसवखत ) चोथो मनपर्यव ज्ञान उत्पन्न भयो । प्रथम छठको पारणो, वरदिन्नके घरे, परमान्नक्षीरसें हुवो । ५४ दिन छद्मस्थपणे विहार करके, फिर गिरनार पर्वतपर आये वहां अट्ठम तपसहित, आशोजवदि अमावसकेदिन, लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान उत्पन्नभया । उसवखत चतुर्निकाय देवगणका कीया भया समोसरणमें, १२ परिपदाके सन्मुख, भगवान धर्मोपदेश देके, चतुर्विध संघकी स्थापना करी । भगवानके १८ हजार सर्व साधुभये (जिसमें ) For Private And Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८४ वरदत्त प्रमुख १८ गणधर पदधारक हुये । यक्षणी प्रमुख ४० हजार सर्व साध्वी हुई ।। १५०० वैक्रियलब्धिवंत भये ॥ ८०० वादीविरुदपद धारक भये || १५०० अवधि ज्ञानी भये ॥। १००० मनपर्यव ज्ञानी भये || १५०० केवल ज्ञानी भये ॥ ४०० चवदे पूर्वधारी भये || १ लाख ६४ हजार श्रावक भये || ३ लाख ३६ हजार श्राविका भई ( इत्यादिक बहुतसे जीवोंका उद्धार करके अंतसमें गिरनारजी पर्वतपर, ५३६ साधुवोंकेसाथ १ मासका अनशन कीया । पद्मासन मुद्राई, आत्मगुणके ध्यानसें, सर्व कर्मां खपायके, मिति आषाढ सुदि ८ के दिन १ हजार वर्षको आयुयमान पूरण करके, सिद्धि स्थानकों प्राप्ति भये । शासनदेव गोमेध यक्ष । शासनदेवी अंबिका | राक्षस गण । महिष योनि । कन्या राशि | अंतरमान ८३ हजार ६ से ५० वर्ष, सम्यक्त पायेवाद नव भवमें मोक्ष गये | इनोंके वा रै, इनोंके चाचेका बेटा, श्रीकृष्ण नवमा वासुदेव, तथा बलभद्र बलदेव भया । और बाईशमा भगवान पीछे, तेवीसमा भगवान पहले इस अंतर १२ मा ब्रह्मदत्त ना चक्रवर्त्ति भया ॥ इति ॥ ॥ अथ २३ मा श्री पार्श्वनाथस्वामी अधिकारः ॥ वणारसी नामा नगरीमें, इक्ष्वाकुवंशी, अश्वसेन नामे राजा हुवा। जिसके वामा देवीनामें पट्टराणी, जिसकी कुखमें, प्राणतनामा देवलोक चवके, मिति चैत्र वदि ४ के दिन, भगवान् उत्पन्न भये । तब मातायें, गजादि अभिशिखा पर्यंत, १४ स्वप्ना प्रगटपणें मुखमें प्रवेश कर्त्ता देखा । पीछे सर्व दिशा सुभिक्षसमें, For Private And Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिति पोष वदि १० के दिन, विशाखा नक्षत्रे जन्म कल्याणक हुवा । उसी वखत ५६ दिशा कुमारीयों मिलके सूतिका महोच्छव कीया। पीछे ६४ इंद्र, मेरु पर्वतपर भगवानकों ले जायके, जन्म महोच्छव कीया । तिस पीछे अश्वसेन राजायें १० दिवसपर्यंत मोटो महोच्छव करके, सर्व न्याती गोती प्रजागणकों, मनसा भोजन करायके सर्वके सन्मुख श्री पार्श्व कुमर नाम स्थापन कीया। नाम स्थापनाका यह हेतु है, कि भगवान जब गर्भ में आया, तब मातायें अंधारी रात्रीको पासमें सर्प जाता हुवा देखा, इससे माता पितायें विचारा कि ए गर्भका प्रभाव है। इस कारणसें पार्श्वनाथ नाम दिया । सर्पका लंछनयुक्त, नीलवर्ण, शरीरका प्रमाण ९ हाथ हुवा । ३ ज्ञान सहित, महा तेजस्वी, १००८ लक्षणालंकृत, भोगावली कर्म निर्जरार्थे विवाह कीया । राज्यपद नहिं धारण करके, लोकांतिक देवताके वचनसें, मिति पोष वदि ११ के दिन, वणारसी नगरीमें, छठ तप करके, धातकी वृक्षके नीचे, ३०० पुरुषोंकेसाथ, दीक्षा ग्रहणकरी । उस वखत चोथो मनपर्यव ज्ञान उत्पन्न भयो । प्रथम छठको पारणो, धन्नाके घरे, परमान्न क्षीरसे हुवो। ८४ दिन छद्मस्थपणे विहार करके फिर वणारसी नगरीमें आये, वहां अट्ठम तपसहित, चैत्रवदि ४ के दिन, लोकालोक प्रकाशक केवल ज्ञान केवल दर्शन उत्पन्न भया । उस वखत, चतुर्निकाय देवगणका कीया हुवा, समोसरणमें, १२ परिषदाके सन्मुख, भगवान् धर्मोपदेश देके चतुर्विध संघकी स्थापना करी। भगवान्के १६ हजार सर्व साधु भये । जिसमें, आर्यदिन्न प्रमुख १० गणधर For Private And Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८६ पद धारक हुये । पुष्पचूडा प्रमुख ३८ हजार सर्व साध्वी भई ॥ ११०० वैक्रिय लब्धिवंत भये ॥ ६०० वादी विरुद पद धारक भये ।। १००० अवधि ज्ञानी भये || ७५० मनपर्यव ज्ञानी भये ॥ १००० केवल ज्ञानी भये || ३५० चवदे पूर्वधारी भये ॥ एक लाख ६४ हजार श्रावक भये || ३ लाख ३९ हजार, श्राविका भई ॥ इत्यादिक बहुत से जीवोंका उद्धार करके, अंतसमें समेत शिखरजी पर्वतऊपर, १ मासका अनशन कीया । काउसग्ग मुद्राई आत्मगुणके ध्यानसे, सर्व कर्माकों खपायके, मिति श्रावण सुदि ८ के दिन, ३३ साधुवों केसाथ, १०० वर्षका आयुष्य मान पूरण करके, सिद्धि स्थानकों प्राप्त भए । शासनदेव पार्श्व यक्ष, शासनदेवी पद्मावती, राक्षस गण, मृग योनी, तुल राशि, अंतरमान २५० वर्ष, सम्यक्त पायेवाद १० में भवे मोक्ष गया || इति २३ मा श्री पार्श्वनाथ स्वामीका ५५ बोल गर्भित अधिकार: ॥ ॥ अथ २४ मा श्री वर्द्धमानखामी अधिकारः ॥ ब्राह्मण कुंडग्रामनामा नगरमें, कोडालश गोत्रका धरणहार ऋषभदत्त नामें ब्राह्मण हुवा, जिसके देवानंदानामें भार्या भई, जिसकी कुखमें प्राणतनामा देवलोकसें चवके, मिति आशाढ सुद ६ के दिन उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रकेविषे भगवान् उत्पन्न भया । तब देवानंदा ब्राह्मणीयें चउदै स्वप्ना देखा ( पीछे ) सौधर्म इंद्र ब्राह्मणोंके कुल में पूर्वकर्मकेयोग भगवान् कों उत्पन्न हुवा देखके, आश्चर्यभूत संबंध हुवा जानके, अपना आग्याकारी हरणेगमेषी देवताकों भेजा, सो हरणेगमेषी देवता आयके देवमाया करके For Private And Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८७ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवानदाकी खसे भगवानकों करसंपुटमें ग्रहण करके, क्षत्रियकुंड ग्रामानगरके विषे, इक्ष्वाकुवंशी, सिद्धार्थनामें राजा, जिसके त्रिशला नामें पट्टराणी, जिसकी कुखमें मिति आशोजवद १३ के दिन अवतारण किया । और त्रिशला माताकी कुखसें पुत्रीकों अपहरण करके, देवानंदा ब्राह्मणीकी कूखमें संक्रामण किया । इसीतरे हरणेगमेषी देवता इंद्रकी आग्या करके अपने स्थानक गया (और) जिसबखत देवतानें देवानंदाकी कुखसें त्रिशला क्षत्रियाणीकी कुखमें संक्रामण किया, तब देवानंदायें तो अपना १४ स्वप्ना त्रिशला क्षत्रियाणीकेपास जाता हुवा देखा, और त्रिशला क्षत्रियाणीनें प्रगटपणें १४ स्वमा मुखमें प्रवेश होता देखा । पीछे सर्व दिशा सुभिक्षसमें, मिति चैत्र शुद्ध १३ के दिन, उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्रे, जन्म कल्याणक हुवा। उसी वखत, ५६ दिशा कुमारीयों मिलके सूतिकामहोच्छव कीया । पीछे ६४ इंद्र मेरु पर्वत पर भगवानकों ले जायके, जन्म महोच्छव कीया । तिस पीछे सिद्धार्थ राजायें १० दिवसपर्यंत मोटो महोच्छव करके, सर्व न्याती गोती प्रजागणकों मनसा भोजन करायके, सर्वके सन्मुख, श्री वर्द्धमान कुमर नाम स्थापन कीया । नाम स्थापनका यह हेतु हे, कि जब भगवान् गर्भमें आया, तब सिद्धार्थ राजा धनसें राज्यसें परिवारसें बहुत बघता रहा, इससे वर्द्धमान कुमर नामदिया । तथा इंद्रादिक देवतावोंनें मेरु पर्वत पर भगवानका जन्म महोच्छव करने के समय अनंत वली देखके, महावीर नाम स्थापन किया ॥ केशरी सिंह लंछन, पीतवर्ण, शरीरका प्रमाण ७ हाथ हुवा तीन For Private And Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८८ ज्ञान सहित, महा तेजस्वी, १००८ लक्षणालंकृत, भोगावली कर्म निर्जरार्थे, विवाह कीया । राज्यपद धारण न किया । अवसर आये, लोकांतिक देवताके वचनसे, मिति मिगशर वदि १० के दिन, क्षत्रीकुंड नामा नगरमें, छठ तप करके, साल वृक्षके नीचे, एकाकीपणे दीक्षा ग्रहण करी, उस वखत चोथो मनपर्यव ज्ञान उत्पन्न भयो । प्रथम छठको पारणो, बहुल ब्राह्मणके घरे, परमान्न क्षीरसें हुवो। १२ वर्ष छद्मस्थपणे विहार करके, ऋजुवालका नदीपर आये, वहां छठ तप सहित, वैशाख सुदि १० के दिन, लोकालोक प्रकाशक, केवल ज्ञान उत्पन्न भया । उस बखत चतुर्निकाय देवगणका कीया भया समोसरणमें, देशना दीया ११ के दिन पावापूरिवाहिर १२ परिषदाके सन्मुख, भगवान् धर्मोपदेश देके, चतुर्विध संघकी स्थापना करी । भगवान्के सर्व साधु १४ हजार भये। जिसमें इंद्रभूति प्रमुख ११ गणधर पद धारक भये ॥ चंदनवाला प्रमुख ३६००० सर्व साध्वी भई ॥ ७०० वैक्रिय लब्धिवंत भये ॥ ४०० वादी विरुद धारक भये ॥ १३०० अवधि ज्ञानी भये ॥ ५०० मनपर्यव ज्ञानी भये ॥ ७०० केवल ज्ञानी भये ।। ३०० चवदे पूर्वधारी भये ॥ १ लाख ५९ हजार श्रावक भये ॥ ३ लाख १८००० श्राविका भई ॥ इत्यादिक बहुतसे जीवोंका उद्धार करके, अंतसमें पावापुरी नगरीमें, छठ तपका अनशन कीया ॥ पद्माशन मुद्राई, आत्मगुणकेध्यानसें, सर्व कर्माकों खपायके, मिति कार्तिकवदि अमावशके दिन, एकाकी, For Private And Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achan ८९ ७२ वर्षका आयुष्यमान पूरण करके, सिद्धि स्थानको प्राप्त भये शासनदेव ब्रह्मशांति यक्ष । शासनदेवी सिद्धायिका । मानव गण । महिषयोनि । कन्या राशि । सम्यक्त पायेवाद २७ में भव मोक्ष गये श्री महावीरखामी मोक्ष गये पीछे, तीन वर्ष, साढी आठ महिना गए, चौथा आरा उतरा और पांचमा आरा सरू हुवा ॥ इति २४ श्री वर्द्धमान स्वामीका ५५ बोल गर्भित अधिकारः इसी तरै चोवीश भगवान्का नाम दृष्टांत कहा ॥ अब २४ भगवान्के, १२ चक्रवर्ति, ९ वासुदेव, ९ बलदेव, ९ प्रति वासुदेवादि बडे २ उत्तम पुरष मोक्षगामी राजादिक भए, जिन सर्वका नाम मात्र दृष्टांत इहां लिखतां हुं ॥ अथ १२ चक्रवर्ति अधिकारः॥ ॥ पहला श्री भरत चक्रवर्तिः ॥ विनीता नगरीमें प्रथम भगवान् श्री ऋषभदेव नामें राजा हुवा जिनोंके सुमंगला नामें राणी, जिसका पुत्र भरत नामें पहला चक्रवर्ति हुवा इनके ६४ हजार स्त्रीयों हुई, जिसमें मुख्य स्त्रीरत्न सुदामा नामें भई । जब चक्ररत्नादिक १४ रत्न उत्पन्न हुवा, तब इस भररा क्षेत्रके छ खंड में राज्य किया। अंतमें आरीसा महलमें, शुद्ध भावनासें केवलग्यान पायके चारित्र ग्रहण करके, ८४ पूर्व लाख वरषको आयुष्य पूरण करके मोक्षकों प्राप्त हुवा ॥ १ ॥ इति ॥ For Private And Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ दूसरा सगर चक्रवर्तिः ॥ अयोध्या नगरीमें, सुमित्र नामें राजा हुवा, जिसके जसवती नामें पट्टराणी, जिनके पुत्र सगर नामें दूसरा चक्रवर्ति हुवा । इनकै भद्रा नामें स्त्रीरत भई । जब चक्ररत्नादिक, १४ रत्न उत्पन्न हुए, तब भरत क्षेत्रके ६ खंडकों साधके राज्य किया। अंतमें चारित्र ग्रहण करकै ७२ पूर्व लाख वरषको आयुष्य पूरण करके, सिद्धि स्थानको प्राप्त हुवा ॥ तीसरा मघवा नामें चक्रवर्तिः॥ सावत्थी नगरीमें, समुद्रविजय नामें राजा, जिसके सुभद्रवती नामें पट्टराणी हुई, जिनके पुत्र मघवानामें तीसरा चक्रवर्ति हुवा । इनके सुभद्रानामें स्त्रीरत्न हुई । अंतमें शुभभावसें चारित्र लेके सर्व पांच लाख वरपको आयुष्य पूरण करके देवलोककों प्राप्त हुवा ।। इति ॥३॥ ॥ चोथा सनत्कुमारनामें चक्रवतिः॥ हथनापुरनामा नगरमें, अश्वसेननामें राजा, जिसके सहदेवीनामें पट्टराणी, जिनकेपुत्र सनत्कुमार नामें चोथा चक्रवर्ति हुवा । इनके जया नामें स्त्रीरत्न भई । ६ खंडका राज्य किया, अंतमें शुभभावसें चारित्र ग्रहण करके, तीन लाख वरपका आयुष्य पूर्ण करके देवलोककों प्राप्त हुवा ॥ इति ॥ ॥ अथ पांचमा, श्री शांतिनाथ चक्रवर्तिः ॥ हथनापुरनामा नगरमें, विश्वसेननामें राजा, जिसके अचिरानामें For Private And Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar पट्टराणी, जिनकपुत्र शोलमा भगवान् , पांचमां चक्रवर्ति श्री शांतिनाथ स्वामी हुवा, इनके विजयानामें स्त्रीरत्न भई, छ खंडका राज्य किया, अवसर आये चारित्र लेके केवल ग्यानपायके सर्व एक लाख वरपको आयुष्य पूरण करके सिद्धिस्थानकों प्राप्त हुवा ।। इति ॥५॥ ॥६ ठा, श्री कुंथुनाथचक्रवर्तिः॥ हथनापुरनामा नगरमें, सूरनामें राजा, जिसके श्रीनामें पट्टराणी जिनके पुत्र १७ मा भगवान् , छठा चक्रवर्ति श्री कुंथनाथस्वामी हुवा । इनके कन्हसीरीनामें स्त्रीरत्न हुई, छ खंडका राज्य किया । अवसर आये चारित्र लेके केवल ग्यान पायके, ८५ हजार वरपका आयुष्य पूरन करके मोक्षकों प्राप्त हुवा ॥ इति ॥ ६॥ ॥७ मा श्री अरनाथनामें चक्रवर्तिः ।। हथनापुरनामा नगरमें, सुदर्शननामें राजा, जिसके देवीनामें पट्टराणी, जिनकेपुत्र १८ मा भगवान् , ७ मा चक्रवर्ति श्री अरनाथस्वामी हुवा । इनके पदमश्रीनामें स्त्रीरत्न हुई। ६ खंडमें राज्य किया, अंतमें चारित्र लेके केवल ग्यान पायके ६० हजार वरपका आयुष्य पूरण करके मोक्षकों प्राप्त हुवा ॥ इति ॥७॥ ॥८ मा सुभूमनामें चक्रवर्तिः ॥ हथनापुरनामा नगरमें, कीर्तिवीर्यनामें राजा जिसके तारानामें पट्टराणी, जिनके पुत्र सुभूमनामें आठमा चक्रवर्ति हुवा । इनके सूरश्रीनामें स्त्रीरत्न हुई । छ खंडका राज्य किया। अंतमें ३० For Private And Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९२ हजार वरषका आयुष्य पूरण करके सातमी नरक पृथ्वीमें उत्पन्न हुवा ।। इति ॥८॥ ॥९मा पमनामें चक्रवतिः ॥ वणारसी नामें नगरीमें, पद्मोत्तर नामा राजा, जिसके ज्वाला नामें पट्टराणी, जिसके पुत्र महापद्म नामें नवमा चक्रवर्ति हुका । इनके वसुंधरा नामें स्त्रीरत्न भई । अंतमें १९ हजार वरषको आयुष्य पूरण करके मोक्षकों प्राप्त हुवा ॥ इति ॥९॥ ॥१० मा हरिषेण नामें चक्रवर्तिः ॥ कंपिलपुर नामा नगरमें, हरि नामें राजा, जिसके मेरा नामें पट्टराणी, जिनके पुत्र हरिषेण नामें दशमा चक्रवर्ति हुवा । इनके देवी नामें स्त्रीरत्न भई । अंतमें दश हजार वरषको आयुष्य पूरण करके सिद्धि स्थानकों प्राप्त हुवा ॥ इति ॥ १० ॥ ११ मा, जय नामें चक्रवर्तिः ॥ राजगृही नामें नगरीमें, विजय नामें राजा, जिसके विप्रा नामें पट्टराणी, जिसके पुत्र जय नामें इग्यारमा चक्रवर्ति हुवा । इनके वलच्छीनामें स्त्रीरत्न भई । अंतमें तीन हजार वरषको आयुष्य पूरण करके सिद्धि स्थानकों प्राप्त हुवा ॥ इति ॥ ११ ॥ १२ मा ब्रह्मदत्त नामें चक्रवर्तिः॥ कंपिलपुर नामा नगरमें, ब्रह्म नामें राजा, जिसके चूलणी नामें पट्टराणी, जिसके पुत्र ब्रह्मदत्त नामें बारमा चक्रवर्ति हुवा । इनके कुरमती नामें स्त्रीरत भई । अंतमें ७ से वरषको आयुष्य For Private And Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूरण करके सातमी नरक पृथ्वीमें नारकी पणें उत्पन्न हुवा ।। इति ॥ १२॥ ॥१२ चक्रवर्ति समानशुद्धी अधिकारः॥ ये १२ चक्रवर्ति काश्यपगोत्रमें हुये, इन सर्वका कंचनसमान शरीरकावर्ण हुवा । इस भरतक्षेत्रका ६ खंडमें राज्य किया। नवनिधान १४ रत्न, १६ हजार यक्ष, ३२ हजार मुगट बद्धराजा, ६४ हजार अंतेउरी, एकेक राणीसाथे दोदो वरांगना होय, तब एक लाख ५२ हजार वरांगना, ८४ लाख हाथी, ८४ लाख घोडा, ८४ लाख रथ, ९६ कोटि प्यादा । ३२ हजार नाटक, ३२ हजार बडादेश, ३२ हजार बेलाउल । १४ हजार जलपंथ । २१ हजार सनिवेस । १६ हजार राजधानी ५६ अंतरद्वीप । ९९ हजार द्रोणमुख । ९६ कोटि ग्राम । ४९ हजार उद्यान । १८ हजार श्रेणि प्रश्रेणी । ८० हजार पंडित । ७ कोडि कौटंबिक । १६ हजार आगर । ३२ कोडि कुल । १४ हजार महामंत्रवी, १४ हजार वुद्धिनिधान । १६ हजार म्लेच्छराज्य । २४ हजार कर्पट । २४ हजार संबाधन । १६ हजार रत्नाकर । २४ हजार खेडा सुन्य । १६ हजार द्वीप । ४८ हजार पाटण । ५० कोडि दीवडिया । ८४ लाख महानिसाण । १० कोडि धजापताका । ३६ कोडि अंगमर्दक । ३६ कोडि आमरण धारक । ३६ कोडि सूपकार । तीन लाख भोजन थानक । एक कोडि गोकुल । तीन कोडि हल । ३६० सुथार । ९९ कोडि माडंबिक ९९ कोडि दासीदास । ९९ लाख अंगरक्षक । ९९ कोडि भोई । ९९ कोडि For Private And Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कावडिया । ९९ कोडि मसूरिया । ९९ कोडि थइयायत । ९९ कोडि पटतारक । ९९ कोडि मीठाबोला, १ कोडि ८० हजार रासभ । १२ कोडि सुखासण । ६० कोंडि तंबोली, ५० कोडि पखालिया ॥ इत्यादि अनेक प्रकारकी शुद्धी सर्व चक्रवर्तिके समान होती है ॥ इति ॥ अथ नववासुदेव, बलदेवका दृष्टांत लि०॥ ॥१ तृपृष्ट वासुदेवः १ अचल बलदेवः॥ ११ मा भगवान् श्री श्रेयांसनाथ स्वामीके वारे, शोभनपुरनामा नगरमें, प्रजापतिनामें राजा हुवा, जिसके मृगावतीनामें पट्टराणी, जिसकी कूखसें सातमादेवलोकसें आयके, ७ स्वप्नासूचित तृपृष्टनामें पुत्र हुवा ॥ और दूसरी भद्रानामें राणी, जिसकी कूखसें ४ स्वप्ना सूचित अचलनामें पुत्र हुवा । ये क्रमसें वधता थका अपना वैरी अश्वग्रीव प्रतिवासुदेवकों युद्ध में मारके, पहला वासुदेव हुवा । चक्रवर्तिसें आधा अर्थात् इस भरतक्षेत्रका तीन खंडमें राज्य किया । नीलेवर्ण, देहमान ८० धनुषका हुवा, अंतमें ८४ लाख वरषका आयुष्य पूरण करके तृपृष्ट वासुदेव सातमी नरक पृथ्वीमें गया । और बलदेवका उझलवर्ण, शरीर प्रमाण ८० धनुष हुवा, अंतमें भाईका मरण देख वैराग्यसें चारित्र ग्रहण किया, क्रमसें केवलज्ञान पायके ८५ लाख वरपका आयुष्य पूरण करके मोक्ष गया ॥ इति ॥१॥ For Private And Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९५ ॥ द्विपृष्ट वासुदेवः २ विजय बलदेवः ॥ " १२ मा तीर्थकरके बारे, द्वारामतीनामा नगर में, वंभनामें राजा, जिसके ऊमानामें पट्टराणी, जिसकी कुखमें १० मा देवलोक आयके, ७ स्वप्ना सूचित, द्विपृष्टनामें पुत्र हुवा || और दूसरी सुभद्रानामें राणी, जिसकी कूखसे ४ स्वप्ना सूचित विजय नामें पुत्र हुवा। ये क्रमसें युवान अवस्थाकों प्राप्त हुवा, तब अपना वैरी तारकनामें प्रतिवासुदेवको मारके, दूसरा वासुदेव, बलदेव हुवा। तीन खंडमें राज्य किया, वासुदेवका नीला वर्ण, देहमान ७० धनुष हुवा । अंतमें ७२ लाख वरपका आयुष्य पूरण करके, छठी नरक पृथ्वी में गया । और विजयबलदेवका उझलवर्ण, शरीरप्रमाण ७० धनुष हुवा, अंतमें शुद्धभावसें चारित्र लेके केव लज्ञान पायके ७३ लाख वरषको आयुष्य पूरण करके मोक्षमें गया ॥ इति ॥ ॥ ३ स्वयंभुः वासुदेवः ३ भद्र बलदेवः ॥ १३ मा तीर्थकरके वारे, द्वारका नामा नगरीके विषे, रुद्र नामें राजा हुवा। जिसके पुहवी नामें पट्टराणी, जिसकी कुखसें, ६ ठा देवलोक आयके, ७ स्वप्ना सूचित स्वयंप्रभू नामें पुत्र हुवा | और सुप्रभा राणी ४ स्वप्ना सूचित भद्र नामका पुत्र भया । ये क्रमसें युवान अवस्थाकों प्राप्त भया, तब अपना वैरी मेरुक नामें प्रति वासुदेवको मारके, तीसरा वासुदेव बलदेव हुआ । इस भरत क्षेत्रके तीन खंडमें राज्य किया । वासुदेवका नीलावर्ण, देहमान ६० धनुष हुआ । अंतमें ६० लाख बरषका आयुष्य For Private And Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूरण करके, छठी नरक पृथ्वीमें गया । और भद्र रलदेवका उझल वर्ण, शरीरप्रमाण ६० धनुषभया, अंतमें चारित्र अंगीकार करके, केवल ग्यान पायके, सर्व ६५ लाख वरषको आयुष्य पूरण करके मोक्ष गया ॥ इति तीसरा वासुदेव, बलदेव दृष्टांतम् ।। ॥ अथ ४ मा पुरषोत्तम वासुदेवः, सुप्रभु बलदेवः॥ १४ मा तीर्थकरके वारे, वारवई लामा नगरीमें, एक सोम नामें राजा हुआ। जिसके सीता नामें पट्टराणी, उसकी कूखसें ८ मा देव लोकसें आया हुवा, ७ स्वप्ना सूचित, पुरषोत्तम नामें पुत्र हुआ। और दुसरी सुदर्शना नामें राणी, जिसकी कूखसें ४ स्वमा सूचित सुप्रभु नामें पुत्र हुआ । ये जव युवान अवस्थाकों प्राप्त भया, तब अपना वैरी, मधु नामें प्रति वासुदेवकों मारके, चोथा वासुदेव, बलदेव, इस भरत क्षेत्रमें हुआ। तीन खंडमें अखंड राज्य किया । वासुदेवका नीलावर्ण, और शरीर प्रमाण ५० धनुषका हुवा । और अंतमें ३० लाख वरषको आयुष्य पूरण करके छठी पृथ्वीमें गया । और बलदेवका उझलवर्ण शरीर प्रमाण ५० धनुष हुवा । अंतमें ५५ लाख वरषको आयुष्य पूरण करके मोक्ष गया ॥ इति चोथा वासुदेव, बलदेव, प्रति वासुदेव, दृष्टांतम् ॥ ॥ अथ ५ मा पुरषसिंह वासुदेवः, सुदर्शन बलदेवः ॥ - १५ मा तीर्थकरके वारे, अश्वपुरी नामा नगरीमें, शिव नामें राजा हुवा । जिसके अम्मा नामें पट्टराणी, उसकी क्रूखसें, चोथा देवलोकसें आया हुवा, ७ खमा सूचित, पुरषसिंह For Private And Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९७ नामें पुत्र हुवा । और दूसरी विजया नामें राणी, जिसकी कुखसे ४ स्वप्ना सूचित, सुदर्शन नामें पुत्र हुवा | ये जब युवान अवस्थाकों प्राप्त हुवा | तब अपना वैरी निसुंभ नामा प्रतिवासुदेवको मारके पांचमा वासुदेव, बलदेव इस भरत क्षेत्रमें भया । तीनखंडमें राज्यकिया इसमें वासुदेवका नीला वर्ण, शरीरप्रमाण ४५ धनुष हुवा, अंतमें १ लाख वरषका आयुष्य पूरण करके, छठी नरक पृथ्वीमें गया | और बलदेवका उज्वलवर्ण, शरीर प्रमाण ४५ धनुष हुवा । अंतमें एक लाख ७० हजार वर्षको आयुष्य पूरण करके मौक्ष गया | इति पांचमा वासुदेव, बलदेव, प्रति वासुदेव दृष्टांतम् ॥ अथ ६ पुरुषपुंडरीक वासु० आनंदबलदेवः ॥ अठारमा उगणीसमा तीर्थंकरके अंतरमें, चक्रपुरीनामा नगरीमें महाशिवनामें राजा, जिसके लक्ष्मीनामें पट्टराणी, उसकी कुखसे पांचमा देवलोकसें आया हुवा, सात स्वप्ना सूचित, पुरुष पुंडरीकनामें पुत्रहुवा | और दूसरी वैजयंतीनामें राणी, उसकी कुखसें, चार खम्मा सूचित आनंद नामें पुत्र हुवा । ये दोनुं जब युवा अवस्थाकों प्राप्त भये । तब अपना वैरी, बलीनामा छठा प्रतिवासुदेवको मारके छठा वासुदेव बलदेव हुये । तीन खंडमें राज्य किया । इसमें वासुदेवका नीलावर्ण, शरीरप्रमाण २९ धनुष हुवा । अंतमें ६५ हजार वरषका आयुष्य पूरण करके, छठी नरक पृथ्वी में गया और बलदेवका उज्वलवर्ण, शरीरप्रमाण २९ धनुष हुवा । अंतमें शुभभावसें चारित्र लेके, केवलम्यान ७ दत्त सूरि० For Private And Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achan सातमाका नीलावर्ण, सरके, पांचमी देखके, वैराग्यसार वरपका पायके, सर्व ८५ हजार वरषका आयुष्य पूरण करके सिद्धिगतिमें गया ॥ इति छठा वासुदेव बलदेव दृष्टांतम् ॥ अथ ७ मा दत्त वासुदेवः नंदन बलदेवः ॥ १८ मा तीर्थकरके वारे, वणारसीनामा नगरीमें, अग्निसिंहनामें राजा हुवा । जिसके सेसवतीनामें पट्टराणी, उसकी कूखसें, पहला देवलोकसें आया हुवा, सात स्वमा सूचित दत्तनामें पुत्र हुवा । और दूसरी जयंती नामें राणी जिसकी कूखसें चार खप्ना सूचित नंदननामें पुत्र हुआ, ये दोनुं जब युवान अवस्थाकों प्राप्त भये, तब अपना वैरी प्रह्लादनामा प्रतिवासुदेवकों चक्ररत्नसें मारके, सातमा वासुदेव बलदेव, हुये । तीन खंडमें राज्य किया । इसमें वासुदेवका नीलावर्ण, सरीर २६ धनुष हुआ। अंतमें ५६ हजार वरषका आयुष्य पूरण करके, पांचमी नरकपृथ्वीमें गया । औरनंदन बलदेव, अपना भाईका मरण देखके, वैराग्यसें चारित्र ग्रहण किया । क्रमसें केवल ग्यान पायके सर्व ६५ हजार वरपका आयुष्य पूरण करके मोक्ष गया इति सातमा वासुदेव बलदेव दृष्टांतम् ॥ ॥ ८ मा लक्षमणवासुदेवः, रामचंद्र बलदेवः॥ . २० मा तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत स्वामीकेवारे, अयोध्यानामा नगरीमें, दशरथनामें राजा हुवा, जिसके सुमित्रानामें पट्टराणी, उसकी कूखसें तीसरा देवलोकसें आया हुवा, सात स्वमा सूचित लक्षमणनामें पुत्र हुवा । और दूसरी अपराजिता नामें राणी जिसकी कूखसे चार स्वप्ना सूचित रामचंद्र नामें पुत्र हुवा । ये दोनुं जब For Private And Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir युवान अवस्थाकों प्राप्त भये । तब शीताको अपहरण करनेवाला, अपना वैरी, लंकाका राजा, रावण प्रतिवासुदेवकों मारके, आठमा वासुदेव बलदेव हुये । इस भरतक्षेत्रके ३ खंडमें राज्य किया, इसमें लक्षमण वासुदेवका नीलावर्ण, सरीर प्रमाण १६ धनुषका हुवा । अंतमें १२ हजार वरपका आयुष्य पूरण करके चोथी नरक पृथ्वीमें उत्पन्न भया । और रामचंद्र बलदेव, अपना भाईका मरण देखके, वैराग्यसें चारित्र ग्रहण किया । क्रमसें केवल ज्ञान पायके, सर्व १५ हजार वरषका आयुष्य पूरण करके, सिद्धगिरी पर्वत ऊपर मोक्ष गया । इसी रामचंद्रजीकों बहुतसे हिंदू लोक, अपना ईश्वरावतार मानते हैं ॥ और रावणकों दशमुखवाला राक्षस कहते हैं, तथा लोकीक रामायणमेंभी रावणके १० मुख लिखे हैं, सो ठीक नहीं हैं, क्योंकि मनुष्यके स्वाभाविकही दशमुख कदापि नहीं होसक्ते हैं, पद्मचरित्रादिकमें लिखा है, कि रावणके बडे बडेरोंकी परंपरासें, एक बडा नवमाणिकरत्नका हार चला आताथा, सो रावणनें वालावस्थासें अपने गलेमें पहनलिया था । और वे नौही माणक बहुत बडे थे। चार चार माणक दोनु स्कंध तरफ जडे हुये थे। एक बीचमेंथा, ऐसें नवमुख माणकमें नया दीखता था, और एक रावणका असली मुख था इसवास्ते दशमुखवाला रावण कहा जाता है। और रावणके समयसेंही हिमालयके पहाडमें बद्री नाथका तीर्थ उत्पन्न हुआ है । तिसकी उत्पत्ति जैन धर्मके शास्त्रोसें ऐसे जानी जाती है, कि यह असली पार्श्वनाथकी मूर्ति थी, तिसकाही नाम बद्रीनाथ रक्खागया है। इसका विशेष For Private And Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achan अधिकार देखना होय तो पद्मचरित्र ओर पार्श्वनाथचरित्रसें जाण लैना ॥ इति आठमा वासुदेव, बलदेव दृष्टांतम् ॥ ॥ अथ ९ मा कृष्ण वासुदेवः, बलभद्र, बलदेवः, २२ मा श्री नेमिनाथ भगवान्के वारे, शोरीपुर नामा नगरमें, समुद्रविजयजी नामें राजा, जिसका छोटा भाई वसुदेवजी हुवा, जिसके पूर्व नियाणेंके योगसे ७२ हजार स्त्रीयों हुई, जिसमें मुख्य देवकी नामें राणी, जिसकी कूखसें सातमा देवलोकसें आया हुवा सात स्वप्ना सूचित कृष्ण नामें पुत्र हुवा । और दूसरी रोहणी नामें राणी । जिसकी कूखसे चार खन्ना सूचित बलभद्र नामें पुत्र हुवा, इन दोनुंकों कंसके भयसें वसुदेवजीने अपना गोकुलमें, नंद गोवालियेके घरे, कितनेक वरष छिपे हुवे रक्खे । जब ये दोनुं युवानावस्थाको प्राप्त भये । तब प्रथम तो अपना भाइयोंकों मारनेवाला, कंसकों वैरी जानके मल्ल अखाडेमें आयके, कंसकों मारा, जब यादव लोक बहुतसे भयकों प्राप्त हुवे, कि कंसका सुसरा जरासिंध प्रति वासुदेव अभी सर्वमें मोटा राजा है, इससें कदाच यादवोंको क्षय नहिं कर देवै, इस भयसें शोरीपुर, तथा मथुरा नगरीसें, यादव सर्व निकल के पश्चिम समुद्रके किनारै जायके, उहां द्वारिका नगरी बसायके कितनेक वरष सुखसे रहा । पीछे जब जरासिंध अपनी सेना लेके युद्ध करनेकों आया। तब कृष्ण बलभद्र युद्ध में जरासिंधप्रतिवासुदेवकों मारके, नवमा वासुदेव, बलदेव हुवा । इसमें वासुदेवका श्यामवर्ण, सरीरप्रमाण १० धनुष हुवा । ये, श्रीनेमिनाथस्वामीका For Private And Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०१ बडा भक्त अविरति सम्यग् दृष्टि श्रावक हुवा । अंतमें सर्व एक हजार वरपका आयुष्य पूरण करके तीसरी नरक पृथ्वीमें उत्पन्न भया । और बलदेवका उज्जल वर्ण, सरीरप्रमाण १० धनुष हुवा । जब द्वारकानगरी, यादवोंका क्षय हुवा, और अपना भाई श्रीकष्णका कौसंबवनमें जराकुमरके हाथसें मरण हुवा देखके, वैराग्यसें संसारको असार जाणके, शुद्धभावसे चारित्र ग्रहण किया । क्रमसें सोवर्ष चारित्र पालके, सर्व १२०० वरषको आयुष्य पूरण करके, पांचमा ब्रह्मदेवलोकमें देवतापणे उत्पन्न भया । आवती चौवीसीमें बारमा, चौदमा तीर्थकरहोके दोनुं मोक्ष जावेंगे ॥ ये कृष्ण, बलभद्र, जगतमें बहुत प्रसिद्ध है । क्योंकि बहुतसे लोक श्रीकृष्ण वासुदेवकों साक्षात् ईश्वर तथा ईश्वरका अवतार, जग तका कर्ता मानते है । सो यह बात श्रीकृष्ण वासुदेवके जीते हुये न हुई, किंतु उनके मरे पीछे लोक कृष्ण वासुदेवकों ईश्वरावतार मानने लगे हैं ॥ तिसका हेतु श्री वेसठसलाका पुरष चरित्रमें ऐसें लिखा है । कि जब कृष्ण वासुदेवनें कौसंबवनमें शरीरछोडा, तब कालकरके तीसरी बालुकाप्रभा पृथ्वी (पातालमें ) गये, और बलभद्रजी एकसौ वर्ष जेन दिक्षा पालके पांचमा ब्रह्मदेवलोकमें देव हुये, उहां अवधि ज्ञानसें अपना भाई श्रीकृष्णकों पातालमें तीसरी पृथ्वीमें देखा । तव भाईके स्नेहसें वैक्रिय शरीर बनाकर श्रीकृष्णकेपास पोहचा और श्रीकृष्णसें आलिंगन करके कहा । कि में बलभद्र नामा तेरे पिछले जन्मका भाई हूं, में काल करके पांचमा For Private And Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०२ देवलोकमें देवता हुआ हुं, और तेरे स्नेहसें इहां तेरेपास मिलनेकों आया हुं, सोमें तेरे सुखवास्ते क्या काम करूं ॥ इतना कहकर जब बलभद्रजीनें आपने हाथों ऊपर कृष्णजीकों लिया, तब कृष्णका शरीर पारेकी तरे हाथसें क्षरके भूमि ऊपर गिर पडा, फेर मिलकर संपूर्ण शरीर पूर्ववत् हो गया । इसीतरे प्रथम आलिंगन करनेसें, फेर विरतांत कहनेंसें, और हाथोंपर उठानेसें जान लिया । कि यह मेरे पूर्व भवका अति वल्लभ बलभद्र भाई है तब श्रीकृष्णजीने संभ्रमसें उठके नमस्कार करा । बलभद्रजीनें कहा, हे भाई, जो श्रीनेमिनाथ स्वामीने कहा था । यह विषय सुख महा दुःखदाई है सो प्रत्यक्ष तुमकों प्राप्त हुआ । तुज कर्म नियंत्रितकों में स्वर्गमेंभी नहिं लेजा सक्ता हुं । परंतु तेरे स्नेहसें तेरेपास में रहा चाहता हुं तब कृष्णजीनें कहा, हे भ्राता तेरे रहनेंसेंभी मैनें करे हुये कर्मका फल तो मुझकों अवश्य भोगवनाही है। परंतु मुझकों इस दुःखसें वो दुःख बहुत अधिक है । जोमें द्वारिका, और सकल परिवारके दग्ध हो जानेसें, एकला कौशंबवनमें जरा कुमरके तीरसें मरा । और मेरे शत्रुवोकों सुख, तथा मेरे मित्रोंकों दुःख हुआ, जगत्में सर्व यदुवंशी बदनाम हुये, इसवास्ते हे भ्राता, तूं भरतखंडमें जाकर, चक्र, शारंग, शंख, गदाका धरनेवाला, और पीला वस्त्र, तथा गरुड ध्वजाका धरनेवाला, ऐसा मेरा रूप बनाकर विमानमें बैठाकर लोकोंको दिखलाव । तथा नीला वस्त्र हल मूशल शस्त्रका धरनेवाला ऐसा रूपसें तूं विमानमें बैठके अपना For Private And Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०३ सागीरूप सर्व जगे दिखलाकर लोकोंकों कहो, कि रामकृष्ण दोनुं हम अविनाशी पुरुष हैं । और स्वेच्छा बिहारी हैं । जब लोकोंकों यह सत्य प्रतीत हो जावेगा तब अपना सर्व अपयश दूर हो जावैगा । यह श्रीकृष्णजीका कहना सर्व श्री बलभद्रजीनें अंगीकार किया । और भरतखंडमें आकर कृष्ण, बलभद्र, दोनुंका रूप करके सर्व जगे विमानारूढ दिखलाया, और ऐसे कहने लगा, कि अहोलोको तुम कृष्ण, बलभद्र, अर्थात् हमारे दोनोकी सुंदर प्रतिमा बनाकर, ईश्वरकी बुद्धीसें बडे आदरसें पूजो, क्यों कि हमही जगत रचनेवाले, और स्थिति संहारके कर्त्ता हैं, और हम अपनी इच्छा स्वर्ग (वैकुंठसें ) चले आते है । और द्वारिका हम ही रचीथी, तथा हमनेंही उसका संहार करा है, क्यों कि जब हम, वैकुंठमें जानें की इच्छा करते हैं, तब अपना सर्व वंश द्वारिका सहित दग्ध करके चले जाते हैं । हमारे उपरांत और कोई अन्य कर्त्ता, हर्त्ता, नही है । ऐसा बलभद्रजीका कहना सुनके प्राये केड़ग्राम, नगरके लोक कृष्ण बलभद्रजीकीप्रतिमा सर्व जगे बनाकर पूजनें लगे, तब अपनी प्रतिमाकी भक्ति करनेवालोंकों बलभद्रजीनें बहुत धनादिक सुख देके आनंदित किए। इसवास्ते बहुतसे लोक हरिभक्त हो गए । जबसें भक्त हुये तबसें पुस्तकों में श्रीकृष्णजीको पूर्णब्रह्म परमात्मा ईश्वरादि नामोसें लिखाहे लोकिकमें श्रीकृष्ण होयेकों पांच हजार वरष कहते है, इससे क्या जानें जबसें बलभद्रजीनें कृष्णजी की पूजा करवाई, तबसें ही लोकोंनें For Private And Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृष्णकों ईश्वरावतार माना होय, और उस समयकों पांच हजार वरष हुआ होय, तो इस वातकों पांच हजार वरष हुआ होगा। ___ इसी तरे ६३ तेसठ शिलाका पुरुषोंका दृष्टांत इहां नाममात्र लिखा है । इन सर्वका विस्तारसे संबंध देखना होय, तो श्री हेमाचार्यजी महाराजकृत तेसठ शलाका पुरषोंका चरित्रादिकसे देख लेना ॥ ___ और जितने कालमें २४ भगवान हुए हैं, उतनें कालमें इग्यारै रुद्र हुए हैं, जिनका किंचित संबंध लिखता हूं ॥ ॥अथ ११ रुद्र नाम, गति विचार लि०॥ १ श्री ऋषभदेव स्वामीके वारे, महारुद्रपरणामका धरनेवाला मीमबल नामें पहला रुद्र हुआ, अंतमें मरके सातमी नरक पृथ्वीमें गया ।। इति ॥ २ श्री अजितनाथ स्वामीके वारे जितशत्रु नामें दूसरा रुद्र हुवा, सो अंतमें मरके सातमी नरक पृथ्वीमें गया । इति २॥ ९ श्री सुविधिनाथ स्वामीके वारे, रुद्रवल नामें तीसरा रुद्र हुआ। अंतमें मरके छठी नरक पृथ्वीमें गया ॥ इति ॥ १० मा श्रीशीतलनाथ स्वामीके वारे, विश्वानर नामें चोथा रुद्र हुआ। अंतमें छठी नरक पृथ्वीमें गया ॥ इति ॥ ११ मा श्री श्रेयांशनाथ स्वामीके वारे, सुप्रतिष्ठनामें पांचमा रुद्र हुआ। अंतमें मरके छठी नरक पृथ्वीमें गया ॥ इति ॥ १२ मा श्री वासुपुज्य स्वामीके वारे, अचल नामें छठा रुद्र हुआ । अंतमें मरके छठी पृथ्वीमें गया ॥ इति ॥१३ मा श्री विमलनाथ स्वामीके वारे, पुंडरीक नामें सातमा रुद्र हुआ। अंतमें मरके छठी नरक पृथ्वीमें For Private And Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०५ गया ॥ इति ॥ ७॥ १४ श्री अनंतनाथ स्वामीके वारे, अजितधर नामें आठमा रुद्र हुआ । अंतमें मरके पांचमी नरक पृथ्वीमें गया ॥ इति ॥ ८ ॥ १५ मा श्री धर्मनाथ स्वामीके वारे, अजितबल नामें नवमा रुद्र हुआ। अंतमें मरके चोथी नरक पृथ्वीमें गया ॥ इति ॥ १६ मा श्रीशांतिनाथ स्वामीके वारे, पेढाल नामें दशमा रुद्र हुआ। अंतमें मरके चोथी नरक पृथ्वीमें गया ॥ इति १० ॥ २४ मा भगवान् श्री महावीरस्वामीके वारे, सत्यकी नामें इग्यारमा रुद्र हुआ । अंतमें मरके तीसरी पृथ्वीमें गया ॥ ये इग्यारमा रुद्र लोकीकमें बहुत मान्यताको प्राप्त हुआ थका है, इससें इनका इहां किंचित विस्तारसें दृष्टांत लिखते हैं । ॥अथ ११ मा रुद्र सत्यकी दृष्टांत लि० ॥ विशाला नगरीके, चेटक राजाकी छठी पुत्री सुज्येष्टा नामा कुमारी कन्याने दिक्षा लीनीथी, अर्थात् जैन मतकी साध्वी हो गई थी, वो किसी अवसरमें उपाश्रयके अंदर सूर्यके सन्मुख आतापना लेती थी, इस अवसरमें पेढाल नामा परिव्राजक अर्थात् संन्यासी विद्यासिद्ध था, सो अपनी विद्या देनेकेवास्ते पात्रपुरषकों देखता था । और उसका विचार ऐसा था, कि यदि ब्रह्मचारणीका पुत्र होवे तो सुनाथ होवेगा । तब तिस संन्यासीने, रात्रीमें सुज्येष्टाको, नग्नपणे शीतकी आतापना लेतीकों देखा, तब धुंध विद्यासे अंधकारमें अचेत करके उसकी योनीमें अपने वीर्यका संचार करा, तिस अवसरमें सुज्येष्टाकों रुतु धर्म आगयाथा इसवास्ते गर्भ रह गया, तब साथकी साध्वीयोंमें गर्भकी चर्चा For Private And Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir होने लगी, पीछे अतिशय ज्ञानीने कहा कि, सुज्येष्टानें विषय भोग किसीसें नहीं करा, अरुतिस विद्याधरका सर्व वृत्तांत कहातब सर्वकी शंका दूर हो गई, पीछे जब सुज्येष्टाने पुत्र जन्मा, तब तिस लडकेकों श्रावकनें अपने घरमें लेजाके पाला, तिसका नाम सत्यकी रक्खा, एकदा समय सत्यकी, साध्वीयोंके साथ श्री महाबीर भगवान्के समवसरणमें गया, तिस अवसरमें एक कालसंदी. पक नामा विद्याधर श्री महावीर स्वामीकों वंदना करके पूछनें लगा, कि मुझकों किससें भय है, तब भगवंत श्री महावीर खामीनें कहा कि यह जो सत्यकी नामा लडका है, इससे तुझकों भय है । तब कालसंदीपक सत्यकीके पास गया, अवज्ञासें कहनें लगा, कि अरे तूं मुझकों मारैगा, ऐसें कहकर जोरावरीसें सत्य, कीकों अपनें पगोंमें गेरा, तब तिसके पिता पेढालने सत्यकीका पालन करा, और अपनी सर्व विद्यायों सत्यकीकों देदई, पीछे जब सत्यकी महारोहणी विद्याका साधन करने लगा, इस सत्यकीका यह सातमा भव रोहणी विद्या साधनमें लगरहा था, रोहणी विद्यानें इस सत्यकीके जीवकों पांच भवमें तो जीवसे मार गेरा, और छठे भवमें छे महिने शेष आयुके रहनेसें, सत्यकीके जीवनें विद्याकी इच्छा न करी, परंतु इस सातमें भवमें तो तिस रोहणी विद्याको साधनेका प्रारंभ करा तिसकी विधि लिखते हैं । अनाथ मृतक मनुष्यकों चितामें जलावे, और आले चमडेकों शरीर ऊपर लपेटके पगके वामें अंगुठेसें खडा होकर जहां लग वो चिताका काष्ट जले, तहां लग जाप करे, इस For Private And Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विधिसे सत्यकी विद्या साध रहा था । उहां कालसंदीपक विद्याधरभी आगया, और चितामें काष्ट प्रक्षेप करके सात दिन रात्रीतक अग्नि बुझनें न दीनी, तब सत्यकी इसीतरे सात दिन वामें अंगूठेसें खडा रहा, ऐसा सत्यकीका सत्य देखके रोहणी आप प्रगट होकर काल संदीपककों कहने लगी कि मत विघ्नकरक्यों कि में इस सत्यकीके सिद्ध होनेवाली हुं, इसवास्तेमें सिद्ध हो गई हुं, तब रोहणी देवीने सत्यकीकों कहा, कि में तेरे शरीरमें किधरसें प्रवेश करूं, सत्यकीनें कहा मेरे मस्तकमें होकर प्रवेश कर, तब रोहणीने मस्तकमें होकर प्रवेश करा तिस्से मस्तकमें खड्डा पडगया, तब देवीने तुष्ट मान होकर तिस मस्तककी जगों तीसरे नेत्रका आकार बना दिया, तब तो सत्यकी तीन नेत्रवाला प्रसिद्ध हुआ, पीछे सत्यकीने सोचा कि पेढालने मेरी माता राजाकी कुमारी बेटी साध्वीकों विगाडा हे । ऐसाशोचकर अपने पिता पेढालकों मार दिया, तब लोकोंने सत्यकीका नाम रुद्र (भयानक) रख दिया, क्यों कि जिसने अपना पिताकों मार दिया उससे और भयानक कौन है । पीछे सत्यकीने विचारा कि काल संदीपक मेरा वैरी कहां है, जब सुना कालसंदीपक अमुक जगा में है, तब सत्यकी तिसके पास पोहचा । फेर कालसंदीपक विद्याधर तहांसे भाग निकला, तोमी सत्यकी तिसके पीछे लगा, तब कालसंदीपक हेठे ऊपर भागता रहा, परंतु सत्यकीनें उसका पीछा न छोडा, फेर कालसंदीपकने सत्यकीके भुलानेवास्ते तीन नगर बनाये, तब सत्यकीने विद्यासें तीनों नगरभी जला दीये, For Private And Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०८ तब कालसंदीपक दोडके पाताल कलशमें चला गया, सत्यकीने तहां जाकर काल संदीपककों मार डाला, तिस पीछे सत्यकी विद्याधर चक्रवर्ति हुआ, तीन संध्यामें सर्व तीर्थंकरों कों वंदना करके नाटक करता हुआ, तब इंद्रनें सत्यकीका नाम महेश्वर दीया, तिस महेश्वरके दो शिष्य हुये, एक नंदीश्वर, दूसरा नांदिया, तिनमें नांदीया तो विद्यासें बैलका रूप बना लेता था, और तिस ऊपर महेश्वर चढके अनेक क्रीडा कूतूहल करता था, महेश्वर श्री महाबीर भगवंतका अविरति सम्यग् दृष्टि श्रावक था, परंतु वडा भारी कामीथा, और ब्राह्मणों केसाथ उसके बडा भारी वैर हो गया था, इससे विद्याके बलसें सैकडों ब्राह्मणोंकी कुमारी कन्यायोंकों विषय सेवन करके विगाडा, और लोक तथा राजा प्रमुखकी बहु वेटियोंसें काम क्रीडा करने लगा, परंतु उसकी विद्यायोंके भयसें उसे कोई कुछ कह सक्ता नहीं था, और जो कोई मनाभी करता था सो मारा जाता था, महेश्वरनें विद्यासें एक पुष्पक नामा विमान बनाया तिसमें बैठके जहां इच्छा होती तहां जाता था, ऐसें उसका काल व्यतीत होता था, एकदा प्रस्तावें महेश्वर उज्जयन नगरमें गया तहां चंडप्रद्योतनकी एक शिवानामा राणीकों छोडके, दूसरी सर्वराणीयोंके साथ विषयभोग करा, औरभी सर्व लोकोंके बहु बेटीयोंकों बिगाडना शरू करा तव चंडप्रद्योतन राजाकों बडी चिंता हुई, अरु विचारा कि कोई एसा उपाय करीयें कि जिस्से इस महेश्वरका विनाश ( मरणां ) हो जावै । परंतु तिसकी विद्याके आगे किसीका कोई उपाय नहीं चलता था, पीछे तिस उज्जइन For Private And Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achan नगरमें एक उमा नामें वेश्या बडी रूपवंत रहती थी, उसका यह कौल था कि जो कोई इतना धन मुझे देवे, सो मेरेसें भोग करे, जो कोई उसके कहेमुजब धन देता था सो उसके पास जाता था। एक दिन महेश्वर उस वेश्याके घर गया, तब तिस उमा वेश्याने महेश्वरके सन्मुख दो फूल करे, एक विकशा हुआ, दूसरा मिचा हुआ, तब महेश्वरनें विकशे फूलकी तर्फ हाथ पसारा, तब उमा वेश्याने मिचा हुआ कमल महेश्वरके हाथमें दीया, और कहा कि यह कमल तेरे योग्य है, तब महेश्वरनें कहा क्यों यह कमल मेरे योग्य है ॥ तब उमाने कहा, इस मिचे हुए कमल समान कुमारी कन्या है सो तुझकों भोग करनेवास्ते वल्लभ है । और में खिले हुए फूल समान हुं, तब महेश्वरनें कहा तूंभी मेरैकों बहुत वल्लभ है, ऐसा कहकर भोग भोगने लगा, और तिसकेही घरमें रहने लगा, तिस उमाने महेश्वरकों अपने वशमें कर लीया, उमाका कहना महेश्वर उल्लंघन नहीं करसकता था, ऐसें जब कितनाक काल व्यतीत हुआ, तब चंडप्रद्योतनने उमाकों बुलायके उसकों बहुत धन, और आदर सन्मान देकर कहा, कि तूं महेश्वरसें यह पूछे कि ऐसाभी कोई काल है कि जिसकालमें तुमारेपास कोइभी विद्या नहीं रहती ॥ तब उमाने महेश्वरकों पूर्वोक्त रीतिसें पूछा, तब महेश्वरनें कहा कि जब में मैथुन सेवता हुं तब मेरेपास कोइभी विद्या नहीं रहती अर्थात् कोई विद्या चलती नहीं तब उमानें चंडप्रद्योतन राजाकों सर्व कथनसुना दीया, तब राजाने उमासें कहा कि जब महेश्वर तेरेसें भोग करैगा, तब हम उसकों For Private And Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११० मारेंगे, जब उंमानें कहा कि मुझकों मत मारना, तब चंडप्रद्यो तननें कहा कि तुझकों नहीं मारेंगे || पीछे चंडप्रद्योतननें अपने सुभटोकों छाना, उमाके घरमें छिपा रक्खा जब महेश्वर उमाकेसाथ विषय सेवनमें मन होके दोनोंका शरीर परस्पर मिलके एक शरीरवत् हो गया, तब राजाके सुभटोनें दोनोंहीकों मार डाला और अपनें नगरका उपद्रव दूर करा, पीछे महेश्वरकी सर्व विद्यायोंनें उसके नंदीश्वर शिष्यकों अपना अधिष्ठाता बनाया, जब नंदीश्वरनें अपनें गुरुकों इस विटंबनासें मारा सुना, तब विद्यासें उज्जयन नगरके ऊपर शिला बनाई, और कहने लगा कि हे मेरे दासो, अब तुम कहां जाओगे, में सबकों मा रूंगा, क्योंकि में सर्व शक्तिमान ईश्वर हूं, किसीका मारामें मरता नहिं हुं में सदा अविनाशी हुं, यह सुनकर बहुतसे लोक डरे, सर्व लोक वीनती करके पगोंमें पडे, अरू कहने लगे, कि हमारा अपराध क्षमा करो, तब नंदीश्वरनें कहा कि, जो तुम उसी अवस्थामें अर्थात् उमाके भगमें महेश्वरका लिंग स्थापन करके पूजो तो में तुमकों जीता छोडुंगा, तब लोकोनें वैसाही बनाकर पूजा करी, पीछे नंदीश्वर इसी तरे प्राय केह गाम नगरोंमें लोकोंको डरा डराके मंदर बनवाये, तिनमें पूर्वोक्त आकारे भगमें लिंगस्थापन कराके पूजा कराई || यह श्रीमहावीर स्वामीका अविरति सम्यग् दृष्टी श्रावक, इग्यारमारुद्र सत्यकी महेश्वरका दृष्टांत कहा । इसीतरे ६३ शलाका उत्तम पुरुषोंका इहां संक्षेप मात्र अधिकार कहा, विशेष अधिकार देखना होयतो, आवश्यक, कल्पसूत्र, त्रेशठ For Private And Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शलाका पुरुष चरित्र, आदिकमें देखलेना, इतिश्री अंबिकामु खोद्भूत युगप्रधान पदेनोपहित श्रीजंगमयुगप्रधानजिनदत्तमरिचरिते, युगप्रवरागम श्रीजिनकीर्तिरतसरि शाखायां, युगप्रवर श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरे, रंतेवासी श्रीमदानंदमुनिसंकलिते लोकभाषोपनिबद्धे पं० जयमुनिसंस्कारिते भूमिकायां त्रिषष्ठि महापुरुष संक्षिप्त चरित्र वर्णनो नाम प्रथमः सर्गः । For Private And Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीः अथ द्वितीयः सर्गः ॥ तत्रादौ मंगलाचरणम् ॥ श्री तीर्थेशगणेशान् प्रणिपत्य सम्यग् इन्द्रभूति प्रमुखानाम्, गणाधिपानाञ्च चरित्रलेशं, खपरोपकृत्यै, विवृणोमि किंचित् ॥१॥ अथसम्प्रति एकादश श्रीवीरस्य गणाधिपाः, इन्द्रभूतिरग्निभूतिर्वा - युभूति गौतमाः ॥ २ ॥ व्यक्तः सुधर्मा मंडितमौर्यपुत्रावकम्पितः अचल भ्राता मेतार्यः प्रभासच पृथक्कुलाः || ३॥ अथ श्रीवीरनाथस्य, गणधरेष्वेकादशस्वपि, द्वयोर्द्वयोर्वाचनयोः, साम्यदास गणा नव ॥ ४ ॥ श्रीजम्ब्वादिसुरीणां, मोक्षमार्गविशुद्धये, चरित्रं कीर्तयिष्यामि, पवित्रं लोकभाषया ॥ ५ ॥ श्रीवैदेहं तीर्थपति, चन्दे विश्वगुणाकरं श्रीसुधर्म श्रीजम्बू, निष्ठितार्थ समृद्धये ||६|| केवल चरमो जम्बू, अथ श्रीप्रभवप्रभुः शय्यंभवो यशोभद्रः, संभूतिविजयस्ततः ||७|| भद्रबाहुः स्थूलभद्रः, श्रुतकेव लिनो हि षट्, महागिरिसुहस्त्याद्या, वज्रान्ता दश पूर्विणः ॥ ८ ॥ श्लोकार्थेनाग्रे प्रयोजनं भावि || सारं सारं श्रुतांगीं, कारंकारं गौरवे प्रणतिं च क्रमाचरित्रं सर्गे, द्वितीय के वच्मि श्रेयोर्थ ॥ ९॥ अब श्री चौवीशमा भगवान श्रीमहावीर स्वामीसें लेकर आज पर्यंत पट्टपरंपरा, मूलनूरियोंका, अन्याचार्यादिकोंका किंचित् वृत्तांत लिखता हुं ॥ For Private And Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीमहावीर स्वामीके सर्व शिष्य साधुवर्ग १४ हजार हुए जिसमे मुख्य बडे शिष्य गणधरलब्धिकेधारक ११ गणधर हुवे, तिन ११ गणधरोंका नाम यहहै, इन्द्रभूति १ अग्निभूति २ वायुभूति ३ व्यक्तस्वामी ४ सुधर्मास्वामी ५ मंडितपुत्र ६ मौर्यपुत्र ७ अकंपित ८ अचलभ्राता ९ मैतार्य १० प्रभास ११ यह ११ गणधर सर्वाक्षरोंके संजोगकुं जाणनेवाले थे, और सर्व साध्वी आर्या चंदना प्रमुख ३६ हजार हुई, और शंख पुष्कली आनंद कामदेवादि सर्वश्रावक १ लाख ५९ हजार हुवे और सुलसा रेवती चेलणा जयंती आदि सर्वश्राविका ३ लाख १८ हजार हुइ और श्रेणिक कोणिक उदायन उदायी चेटक चंडप्रद्योतन नवमल्लकी नवलेछकी दशार्णभद्र महेश्वरादि देशव्रतधर समक्त्वव्रतधर बडे बडे अनेक राजालोक श्रीमहावीर स्वामीके लाखोंही सेवक हुवे ॥ ऐसे श्रीमहावीर भगवंत विक्रम संवतसें ४७० वर्ष पहिले पावापुरी नगरीमें हस्तिपाल राजाकी पुराणी राज सभामें ७२ वर्षका आयु भोगवके कार्तिक वदि अमावश्याकी रात्रिके पीछले प्रहरमें पद्मासन किये हुए वेदनीयादि चार कर्मकी सर्व उपाधि छोडके निर्वाण हुए ( मोक्ष पहुंचे) तिस समयमें श्री गौतमस्वामी और श्रीसुधर्मास्वामी, यह दो बड़े शिष्य जीते थे, शेष नव वडे शिष्य तो श्री महावीरस्वामीके जीते हुये ही एक मासका अनशन करके केवल ज्ञान पायके मोक्षचलेगये थे, यह इग्यारहही बडे शिष्य जातिके तो ब्राह्मण थे, चार वेद, और छ वेदांगादि सर्व शास्त्रोंके जानकार थे, इन इग्यारह पंडितों के चौमालीससै (४४००) विद्यार्थी थे । ८ दत्तसूरि० For Private And Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इनोका संबंध जैसे है कि-जब भगवंत श्रीमहावीरस्वामीकोंकेवलज्ञान हुआ, तिस अवसरमें मध्यपापा नगरीमें, सोमल नामा ब्राह्मणने यज्ञ करनेका आरंभ करा था, और सर्व ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ विद्वान जानकर इन पूर्वोक्त गौतमादि इग्यारैही उपाध्यायोकों बुलाया था । तिस समय तिस यज्ञ पाडाके ईशान कूणमें महासेन नामा उद्यानमें, श्रीमहावीर भगवंतका समवसरण, रत्न सुवर्ण रौप्यमय क्रमसें तीन गढसंयुक्त देवोंने बनाया तिसके बीचमें बैठके भगवंत श्रीमहावीरखामी उपदेश करने लगे, तब आकाश मार्गके रस्ते सैंकडों विमानोमें बैठे हुये चार प्रकारके देवताओ भगवंत श्रीमहाबीरस्वामीके दर्शनकों और उपदेश सुननेकों आते थे, तब तिनों यज्ञ करनेवाले ब्राह्मणोने जाना कि, यह देव सर्व हमारे करे हुये यज्ञ की आहुतीयों लेने आये हैं, इतनेमें देवता तो यज्ञ पाडेकों छोडके भगवानके चरणों में जाकर हाजर हुये, तथा और लोकभी श्रीमहावीर भगवंतका दर्शन करके और उपदेश सुनके गौतमादि पंडितोंके आगे कहने लगे, कि-आज इस नगरके बाहिर सर्वज्ञ सर्वदर्शी भगवान आये हैं, नतो उसके रूपकी कोई तारीफ कर सक्ता है, अरु न कोई उसके उपदेशसें संशय रहता है, और लाखों देवता जिनोके चरणोंकी सेवा करते हैं, इससे हमारे बड़े भाग्योदय है, जो ऐसे सर्वज्ञ अरिहंत भगवंतका हमने दर्शन पाया, ऐसा जब गौतमजीने सुना कि, सर्वज्ञ आया, तब मनमें ईर्षाकी अग्नि भडकी, अरु ऐसें कहने लगाकि-मेरेसें अधिक और सर्वज्ञ कौन है ? में आज इसका सर्वज्ञपणा उडा देता हुँ ? For Private And Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११५ इत्यादि गर्व संयुक्त भगवान् श्रीमहाबीरस्वामीके पास पहुंचा, और भगवानकों चौतीस अतिशय संयुक्त देखा, तथा देवता, इंद्र, मनुष्योंसे परिवृत देखा, तब बोलने की शक्तिसें हीन हुआ, भगवंतके सन्मुख जाके खडा होगया, तब भगवंतने कहा किहे गौतम इंद्रभूति तूं आया, तब गौतमजीने मनमें विचारा कि, जो मेरा नामभी ये जानते हैं, तोभी मैं सर्व जगे प्रसिद्ध हूं मुझे कौन नहीं जानताहै इन्ने मेरा नाम लीया इस बातमें कुछ आश्चर्य और सर्वज्ञ इसको नहीं मानता हूं, किंतु मेरे मनमें जो संशय है तिसकों दूर कर देवे तोमें इसकों सर्वज्ञ मानें तब भगवंत ने कहा, हे गौतम । तेरे मनमें यह संशय हैः-जीव है कि नहीं? और यह संशय तेरेकों वेदोंकी परस्पर विरुद्ध श्रुतियोंसे हुवा है वो श्रुतियों यह है, सो कहते हैं । "विज्ञानघनएवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्यसंज्ञास्तीतीत्यादि" इस्से विरुद्ध यह श्रुति हैं-"सर्वैः अयमात्मा ज्ञानमय इत्यादि" इन श्रुतियोंका अर्थ जैसा तेरे मनमें भासन होता है, तैसाही प्रथम श्रुतिका अर्थ कहते हैं। नीलादि रूप होनेसें विज्ञानही चैतन्य है चैतन्य विशिष्ट जो नीलादि तिस्से जो धन सो विज्ञानघन, सो विज्ञानघन इन प्रत्यक्त परिविद्यमान रूप पृथ्वी, अप्प, तेज, वायु, आकाश, इन पांच भूतों से उत्पन्न होकर फेर तिनके साथही नाश होजाता है अर्थात् भूतों के नाश होनेसें उनके साथ विज्ञानघनकाभी नाश होजाता है, इस हेतुसे प्रेत्यसंज्ञा नही अर्थात मरके फेर परलोक में और For Private And Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar कोई नर नारक का जन्म नहीं होता, इस श्रुतिसें जीवकी नास्ती सिद्ध होती है, और दूसरी श्रुति कहती है कि यह आत्मा ज्ञान मय अर्थात् ज्ञान स्वरूप है इस्से आत्माकी सिद्धी होती है, अब ये दोनों श्रुतियों परस्पर विरोधी होनेसें प्रमाण नहीं हो शक्ती है और बहुत परस्पर आत्माके स्वरूपमें विरोधी मत है, कोई कहता है कि-"एतावानेव पुरुषो, यावानिद्रियगोचरः ॥ भद्रे वृकपदं पश्य, यद्वदंत्यवहुश्रुताः" ॥१॥ यहभी एक आगम कहता है तथा "न रूपं भिक्षवः पुद्गल" अर्थात् आत्मा अमूर्ति है, यहभी एक आगम कहता है, तथा "अकर्ता निर्गुणो भोक्ता आत्मा, अर्थः- अकर्ता सत्व, रज अरु तम, इन तीनों गुणोंसें सुख दुःखका भोगर्नेवाला आत्मा है, यहभी एक आगम कहता है, अब इनमेंसें किसकों सच्चा और किसकों झूठा मानें परस्पर विरोधी होनेसें, सर्व तो कुछ सच्चे होही नही शक्ते हैं तथा युक्ति प्रमाणसें भी मरके परलोक जानेवाला आत्मा सिद्ध नहीं होता है ऐसा हे गौतम तेरे मनमें संशय है, अब इसका उत्तर कहता हूं कि, तूं वेद पदोंका अर्थ नही जानता है इत्यादि कहके श्रीगौतमजीके संशयकों दूर करा, ये सर्व अधिकार मूलावश्यक और श्रीविशेषावश्यकसें जान लेना, मैनें ग्रन्थके भारी और गहन होजानेके सबबसें यहां नहीं लिखा क्योंकि सर्व इग्यारह गणधरोंके संशय दूर करनेका कथनके चार हजार श्लोक है, पीछे जब गौतमजीका संशय दूर होगया, तब गौतमजी पांचसो अपनें विद्यार्थियोंके साथ दीक्षा लेके श्रीमहावीर भगवंत का प्रथम शिष्य हुवा ॥ For Private And Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११७ इसीतरे इंद्रभूतिकों दीक्षित सुनके, दूसरा भाई अग्निभूति बडे अभिमान में भरकर चला और कहने लगाकि, मेरे भाईकों इंद्रजालीयेनें छलसें जीत के अपना शिष्यवनालीया, तो में अभी उस इंद्रजालीयेकों जीत के अपने भाईकों पीछा लाता हूं इस विचारसें भगवंत श्रीमहावीरजीकेपास पहुंचा, जब भगवानकों देखा, तब सर्व आइ वाइ भूल गया मुखसें बोलने की भी शक्ति न रही, और मनमें बडा अचंभा हुआ, क्योंकि ऐसा स्वरूप न उसने कभी सुना था और कभी देखा था, तब भगवाननें उसका नाम लीया, अभिभूतिनें विचारा कि यह मेरा नामभी जानते हैं, अथवा मैं प्रसिद्ध हूं मुझे कौन नहीं जानता है, परंतु मेरे मनका संशयदूर करे तो मैं इसकों सर्वज्ञ मानुं, तब भगवंतनें कहा हे अभिभूति तेरे मनमें यह संशय है कि कर्म है किंवा नहीं यह संशय तेरेकों विरुद्ध वेदपदों हुआ है क्योंकि तूं वेद पदोंका अर्थ नहीं जानता है, वे वेदपद यह है - " पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यं उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनाऽतिरोहति यजति यन्नेजति यद्दूरे यदुअंतिके यतरस्य यदुत सर्वस्यास्य बाह्यत इत्यादि" इस्सें विरुद्ध यह श्रुति है - "पुण्यः पुण्येनेत्यादि" और इनका अर्थ तेरे मन में ऐसा भासन होता है कि, पुरुष अर्थात् आत्मा, एव शब्द अवधारणके वास्ते है, सो अवधारण कर्म और प्रधानादिकों के व्यवच्छेद वास्ते है, "इदं सर्व" अर्थात् यह सर्व प्रत्यक्ष वर्त्तमान चेतन अचेतन वस्तु "ग्रिं" यह वाक्यालंकारमें है यद्भूतं अर्थात् जो पीछे हुआ है और आगेकों होगा, जो मुक्ति तथा संसार सो सर्व पुरुष For Private And Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११८ आत्मा ही है तथा उतशब्द अतिशब्द के अर्थमें है, और अपिशब्द समुच्चय अर्थमें है अमृतत्वस्य अमरणभावका अर्थात् मोक्षका ईसानः प्रभुः अर्थात् स्वामी (मालक) है, यदिति यचेति च शब्द के लोप होनेसें यदिति बना इसका अर्थ जो अन्न करकें वृद्धिकों प्राप्त होता है, “यदेजति" जो चलता है ऐसे पशुआदिक और जो नहीं चलता है ऐसे पर्वतादिक और जो दूर है मेरु आदिक " यत्अंतिके" उ शब्दअवधारणार्थमें है, जो समीप अर्थात नैंडे है सो सर्व पूर्वोक्त पदार्थ पुरुष अर्थात् ब्रह्मही है, इस श्रुतिसें कर्मका अभाव होता है अरु दूसरी श्रुतिसें तथा शास्त्रांतरोंसे कर्म सिद्ध होते है, तथा युक्तिसें कर्मसिद्ध होते नहीं क्योकि अमूर्त आत्माकों मूर्त्ति कर्म लगते नहीं, इसवास्ते मैं नही जानता कि कर्म है या नही यह संशय तेरे मन में है, ऐसा कह कर भगवाननें वेदश्रुतियोंका अर्थ बराबर करके तिसका पूर्वपक्ष खंडन करा, सो विस्तारसें मूलावश्यक तथा विशेषावश्यकसें जानलेना अग्निभूतिनेंभी गौतमवत् दीक्षा लीनी ॥ २ ॥ अग्निभूतिकी दीक्षा सुनके तीसरा वायुभूति आया, परंतु आगे दोनों भाईयों के दीक्षा लेलेनेंसे इसकों विद्याका अभिमान कुछभी न रहा, मनमें विचार करा कि मैं जाकर भगवानकों वंदना ( नमस्कार ) करूंगा ऐसा विचारके आया आकर भगवंतकों वंदना ( नमस्कार ) करा । तब भगवंतने कहा तेरे मनमें संशयतो है परंतु क्षोभसें तूं पूछ नही शक्ता है, संशय यह है कि जो जीव है सो देहही है और यह संशय तेरेकों विरुद्ध वेदपद श्रुतिसें हुआ है, For Private And Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir और तूं तिन वेदपदोंका अर्थ नहीं जानता है वे वेदपद ये है"विज्ञानघन इत्यादि" पहिले गणधरकी श्रुति जाननी, इस्सें देहसें जीव (आत्मा) सिद्ध नहीं होता है, और इस श्रुतिसें विरुद्ध यह श्रुति है, ( सत्येव लभ्यस्तपसा ह्येषब्रह्मचर्येण नित्यज्योतिर्मयो हि शुद्धोयं पश्यति धीरायतयः संयतात्मान, इत्यादि) इस श्रुतिसें देहसें भिन्न आत्मा सिद्ध होता है, इसवास्ते तुझकों संशय है, पीछे भगवान्नें यह सर्व दूर करा, तब तीसरा वायुभूतिनेंभी अपने पांच सौ विद्यार्थीयोंकेसाथ दीक्षा लीनी ॥३॥ वायुभूतिकी तरें शेष आठ गणधर क्रमसें आये, तिसमें चौथा व्यक्तजी आया, तिनके मनमें यह संशय था कि पांचभूत है कि नही ए संशय विरुद्ध श्रुतियोंसें हुआ, वे परस्पर विरुद्ध यह हैं"स्वप्नोपमं वै सकलमित्येव ब्रह्मविधरंजसाविज्ञेयइत्यादीनि" तथा इससे विरुद्ध यह श्रुति है "द्यावापृथिवी जनयन् देवइत्यादि" तथा पृथिवीदेवता, आपोदेवता, इत्यादीनि इनका अर्थ तेरे मनमें ऐसा भासन होता है-अर्थ, स्वप्न सरीखा वैनिपात अवधारणार्थे संपूर्णजगत है "एष ब्रह्मविधि" अर्थात् यह परमार्थ प्रकार है, अंजसा सीधेन्यायसें जानना योग्य है, यह श्रुति पंचभूतका अभाव कहती है, और श्रुतियों पांचभूतकी सत्ताकों कहती है इसवास्ते तेरेकों संशय है, तेरे मनमें यहभी है कि-युक्तिसे पांचभूत सिद्ध नहीं होते है, पीछे भगवाननें इसका पूर्वपक्ष खंडन करा वेद पदोंका यथार्थ अर्थ कहा, यह अधिकार उक्त ग्रंथोंसें For Private And Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२० जान लेनां ॥ यह सुनकर चौथा व्यक्तजीनें भी अपना पांचसै शिष्योंकेसाथ दीक्षा लीनी ॥४॥ तब पांचमां सुधर्मा नामा पंडित आया, इसकाभी उसीतरे सर्वाधिकार जानलेना यावत् तेरे मनमें यह संशय है कि मनुष्यादि सर्व जैसे इस भवमें है तैसेंही अगले जन्ममें होते है कि, मनुष्य कुछ और पशुआदिभी बन जाते है, यह संशय तेरेकों परस्पर विरुद्ध वेद श्रुतियोंसें हुआ है सो वेद श्रुतियों यह है-"पुरुषो वै पुरुषत्वमश्रुते पशवः पशुत्वं इत्यादीनि" यह श्रुति जैसा इस जन्ममें पुरुष स्त्री आदि है वे पर जन्ममेंभी ऐसेही होवेंगे, इस्से विरुद्ध यह श्रुति है "शृगालो वै एष जायते यः सपुरीपो दह्यत इत्यादि" इन सर्व श्रुतियोंका भगवानने अर्थ करके संशय दूर करा, तब अपनें पांचसे शिष्योंके साथ दीक्षा लीनी ॥५॥ तिस पीछे छठा मंडित पुत्र आया तिसके मनमें यह संशय था, कि बंध मोक्ष है, वा नहीं है यह संशयभी विरुद्ध श्रुतियोंसे हुवा है, सो श्रुतियों यह है “स एष विगुणोविभुर्न बध्यते, संसरति वा न मुच्यते मोचयति वा ।। एष बाह्यमभ्यंतरं वा वेदइत्यादीनि" इस श्रुतिका ऐसा अर्थ तेरे मनमें भासन होता है, “एषअधिकृतजीवः" अर्थात् यह जीव जिसका अधिकार है “विगुण" अर्थात् सत्यादि गुण रहित सर्वगत सर्व व्यापक पुण्य पाप करके इसकों बंध नहीं होता है, और संसारमें भ्रमण भी नहीं करता है, और कर्मोसें छूटताभी नहीं है, बंधके अभाव होनेसे दूसरोंको कर्मबंधसे छोडाताभी नहीं है, इस कइनेसें आत्मा अकर्ता है, सोई For Private And Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कहता है, यह पुरुष अपणी आत्मासें बाहिर महत् अहंकारादि और अभ्यंतर स्वरूप अपना जानता नही, क्योंकि जानना ज्ञानसें होता है, और ज्ञानजो है, सो प्रकृतिका धर्म है, और प्रकृति अचेतन है, बंध मोक्ष नही इस श्रुतिसें बंध मोक्षका अभाव सिद्ध होता है । अब इस्से विरुद्ध श्रुति यह है सो कहते हैं "नही वै शरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति अशरीरं वा वसंतं प्रियाप्रिये न स्पृशत इत्यादीनि" इसका अर्थ कहते है-सशरीरस्य, अर्थात् शरीर सहितकों सुख दुःखका अभाव कदापि नहीं होता है, तात्पर्य यह है कि संसारी जीव सुख दुःखसे रहित नहीं होता है, और अमूर्त आत्माको कारणके अभावसे सुखदुःखस्पर्शनहीं कर शक्ते हैं, इस श्रुतिसें बंधमोक्षसिद्धहोते है, तथा तेरे मनमें यहभी बात है कि युक्तिसेंभी बंधमोक्षसिद्धनहीं होते है इत्यादि संशय कहकर भगवान् तिसके पूर्वपक्षकों खंडन करके संशय दूर करा, तब मंडितपुत्र साढेतीनसौ विद्यार्थियोंके साथ दीक्षित भया ॥६॥ ॥७॥ तिसके पीछे सातमा मोर्यपुत्र आया, तिसके मनमें यह संशय था कि-देवता है किंवा नही है यह संशय परस्पर विरुद्ध श्रुतियोंसे हुआ वो श्रुतियो यह है “सएषयज्ञायुधीयजमानोंजसास्वर्गलोकं गच्छति इत्यादि" श्रुतियो स्वर्ग तथा देवताओंकी सिद्धि करतीयों है, इससे विरुद्ध श्रुति यह है-अपामसोमं अमृता अभूम् अगमामज्योतिर्विदामदेवान् ॥ किंनूनमसान्तृणवदरातिः किमुधूर्तिरमृतमर्त्यस्येत्यादीनि “तथा को जानाति मायोप For Private And Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Anh १२२ मान् गीर्वाणानि इयंवरुणकुबेरादीन इत्यादि"-इनका ऐसा अर्थ तेरे मनमें भासन होता है, कि-पाणीकों पीते हुये एतावता सोमलताकारस पीते हूये अमृत ( अमरण ) धर्मवाले हम हुये हैं ज्योति स्वर्ग और देवताकों हम नहीं जानते हैं तथा देवता हम हुये हैं, यहभी नहीं जानते देवता तृणेकी तरें हमारा क्या कर शक्ते है, यह श्रुति अभाव प्रतिपादन करती है, और यह भावकी प्रतिपादक है, "धूर्तिजराअमृत मर्त्यस्य" अमृतत्व प्राप्तपुरुषकों क्या कर सक्ती है । इन श्रुतियोंका यथार्थ अर्थ करकें, और तिसका पूर्वपक्ष खंडन करके भगवंतनें इनका संशय दूर करा, तब यहभी साढेतीनसो छात्रोंके साथ दीक्षित भया ॥ ७॥ ॥८॥ तिस पीछे आठमाअकंपित आया उसके मनमेंभी वेदकी परस्पर विरुद्ध श्रुतियोंके पदोंसें, नरकवासी है कि नहीं । यह संशय उत्पन्न हुआथा, वो परस्पर विरुद्ध श्रुतियों लिखते हैं"नारको वै एष जायते यः शूद्रान्नमश्नाति इत्यादि" इसका अर्थयह ब्राह्मण नारक होवेगा जो शूद्रका अन्न खाता है । इस श्रुतिसें नरक सिद्ध होता है, तथा "नह वै प्रेत्यनरके नारका संतीत्यादि" सुगमार्थः । इस श्रुतिसें नरकका अभाव सिद्ध होता है । इनका अर्थ करकें और पूर्वपक्ष खंडन करके भगवानने तिसका संशय दूर करा तब अकंपितनेंभी तीनसौ छात्रों के साथ दीक्षा लीनी ॥ ८॥ ॥९॥ तिस पीछे नवमा अचलभ्राता आया, तिसकोंभी परस्पर वेदकी विरुद्ध श्रुतियोंके पदोंसें, पुण्य पाप है कि नहीं । यह संशय था, सो वेद पद यह-"पुरुष एवेदंनि सर्व इत्यादि" दूसरे For Private And Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२३ , गणधरवत् इस्सें विरुद्धपद है- “ पुण्यं पुण्येन कर्मणा भवति, पापं पापेन कर्मणा भवति इत्यादि" इस्सें पुण्यपाप सिद्ध होते है, यह संशयभी भगवाननें दूर करा तब यहभी तीनसौ छात्रोंके साथ दीक्षित भया ॥ ९ ॥ ॥ १० ॥ तिस पीछे दशमा मेतार्य आया उसकों भी वेदकी परस्पर विरुद्ध श्रुतियों यह संशय हुवा था, कि परलोक है किंवा नही है वो श्रुतियों यह हैं - विज्ञानधन, इत्यादि प्रथम गणधरवत् अभाव कथन श्रुति जाननी" तथा "सर्वैः अयं आत्मा ज्ञानमय इत्यादि" परलोक भाव प्रतिपादक श्रुति जाननी । इनका तात्पर्य भगवाननें कहा, तब मेतार्यजीनें निःशंक होकें तीनसौ छात्रों के साथ दीक्षा लीनी ॥ १० ॥ ॥ ११ ॥ तिस पीछे इग्यारहमा प्रभास नामा उपाध्याय आया तिसके मनमेंभी वेद श्रुतियोंके परस्पर विरुद्ध होनेसें यह संशय था कि निर्वाण है कि नही है, वो श्रुतियों यह है - "जरामर्य वा एतत्सर्वं यदग्निहोत्रं" इस्सें विरुद्ध श्रुति यह है - "ह्मणी वेदितव्ये परमपरं च तत्र परं सत्यं ज्ञानमनंतंत्रह्मेति" इनका यह अर्थ तेरी बुद्धिमें भासन होता है कि अग्निहोत्र जो है सो जीव हिंसा संयुक्त है, और जरा मरणका कारण है, अरु वेद में अग्निहोत्र निरंतर करणां कहा है, तब ऐसा कौनसा काल है, कि जिसमें मोक्ष जानेका कर्म करीयें, इसवास्ते आत्माकों मोक्ष ( निर्वाण ) कदापि नहीं हो शक्ता है, अरु दूसरी श्रुति मोक्ष प्राप्तिभी कहती है, इसवास्ते संशय हुआ है, इसका जब भगवाननें उत्तर देके निशंक For Private And Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२४ करा तय तीनसौ छात्रोंके साथ दीक्षा लीनी ११ ॥ इसीतरे श्रीमहावीर भगवंतके वैशाख शुदि इग्यारसके दिन मध्यपापानगरीके महासेन वनमे (४४०० ) शिष्य हुये, तिस पीछे राजपुत्र, श्रेष्ठिपुत्रादि, तथा राजपुत्री, श्रेष्टिपुत्री, राजाकी राणीयों आदिकने दीक्षा लीनी । तथा जब भगवंत श्रीमहावीरजी पावापुरीमें मोक्ष गये, तिसीही रात्रिके प्रभातमें इंद्रभूति, अर्थात् गौतम गणधरकों केवल ज्ञान हुआ । तब इंद्रोंनें निर्वाण महोच्छव करके, ग्यानका उच्छव करा, और सुधर्मास्वामीजीकों श्रीमहावीर स्वामीजीका पट्टऊपर बैठाया। श्रीगौतमस्वामीजीको पट्ट इसवास्ते न हुवा कि, केवलज्ञानी पुरुष कोई पाट ऊपर नहीं बैठता है, क्योंकि केवली तो जो पूछे उसका उत्तर अपने ज्ञानसेंही देता है, परंतु ऐसा नहीं कहता है, कि मैं अमुक तीर्थकरके कहनेसे कहता हूं, इसवास्ते केवलज्ञानी पाट ऊपर नहीं बैठता है, जेकर बैठे तो तीर्थकरका शासन दूर हो जावे, यह कभी हो नहि शक्ता, जो अनादि रीतिको केवली भंग करे, इसवास्ते श्रीगौतमस्वामीजी केवलज्ञानी था, इस्सें पट्टऊपर नही बैठे, और श्रीसुधर्मास्वामी बैठे ॥ ___ श्री सुधर्मास्वामी पचास वर्ष तो गृहस्थावास ( घरमें ) रहे, और तीस वर्ष श्रीमहावीर भगवंतकी चरण सेवा करी, जब श्रीमहावीरस्वामी निर्वाण हुआ, तिस पीछे बारावर्ष तक छमस्थ रहे, और आठ वर्ष केवली रहे, क्योंकि श्रीमहावीरस्वामी मोक्षगयेके पीछे केवली होकर वारावर्ष श्रीगौतमस्वामीजी जीते रहे, और श्रीगौतमस्वामीजीके निर्वाण पीछे, श्रीसुधर्मास्वामीजीकों केवलज्ञान हुआ। केवली होकर For Private And Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar १२५ आठ वर्ष जीते रहे, श्रीसुधर्मास्वामीजीका सर्वायु एकसौ (१००) वर्षका था. सो श्रीमहावीरस्वामीजीके वीशवर्ष पीछे मोक्ष गये ॥१॥ श्रीसुधर्मास्वामीके पाट ऊपर, श्रीजंबूस्वामी बैठे । सो राजगृह नगरकावासी श्रीऋषभदत्त श्रेष्ठकी धारणी नामा स्त्रीनें जन्मेथे, निन्नानवे कोड सोनइये और आठ स्त्रीयोंकों छोडकर दीक्षा लेता भया, शोलेवर्ष गृहस्थ वासमें रहे, वीश वर्ष व्रतपर्याय, और चौमालीस वर्ष केवलपर्याय पालके श्रीमहावीरस्वामीके निर्वाणसै चौशठमें वर्ष पीछे मोक्ष गये ॥ ___ यह श्रीजंबूस्वामीके पीछे भरतक्षेत्रमें दश बातें विच्छेद होगई तिसका नाम लिखते हैं:-१ मनःपर्यवज्ञान, २ परमावधि ज्ञान, ३ पुलाकलब्धि ४ आहारकशरीर, ५ क्षपकश्रेणि, ६ उपशमश्रेणि, ७ जिनकल्षिमुनिकी रीति, ८ परिहार विशुद्धिचारित्र, तथा सूक्ष्मसंपराय, और यथाख्यात यह तीन तरेंके संयम, ९ केवलज्ञान, १० मोक्ष होना, यह दश वस्तु विच्छेद हो गई, श्रीमहावीर भगवंतके केवली हुये पीछे जब चौदहवर्ष बीतेथे, तब जमाली नामा प्रथम निन्हव हुआ और सोलावर्ष पीछे तिष्य गुप्त नामा दूसरा निन्हव हुवा । श्रीजम्बूस्वामीका आयु असी वर्षका था ॥२॥ ॥३॥ जम्बूस्वामीके पाट ऊपर, प्रभवस्वामी बैठे । तिनकी उत्पत्ति ऐसे है, विंध्याचल पर्वतके पास जयपुर नामा पत्तन था, तिसका विंध्य नामा राजा था, तिसके दो पुत्र थे, एक बड़ा प्रभव, दूसरा छोटा प्रभु, विंध्यराजाने किसी कारणसें छोटे पुत्र प्रभुकों राज तिलक दे दीया, तब वडा बेटा प्रभव गुस्से होकर For Private And Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२६ जयपुर पत्तनसें निकलकर, विंध्याचलकी विषम जगामें गाम वसाकर रहने लगा, और खात्रखनन, बंदिग्रहण रस्तेमें लूटनादि, अनेक तरेंकी चोरीयोंसें अपने परिवारकी आजीविका करता था, एक दिन पांचसौ चोरोंको लेकर राजगृह नगरमें जंबूजीके घरकों लूटनें आया, तहां जंबूस्वामीनें तिसको प्रतिबोध करा, तब तिसनें पांचसौ चोरोंके साथ दिक्षा श्रीजंबूस्वामीजीके साथ लीनी. इत्यादि जंबूस्वामीजीका और प्रभवस्वामीजीका अधिकारजम्बूचरित्र, तथा परिशिष्टपर्वादिग्रंथोंसें जानलेना. प्रभवस्वामी तीसवर्ष गृहस्थ पर्याय, चौमालीश वर्ष व्रतपर्याय, तथा एकादश वर्ष युगप्रधान पदवी, सर्व पंचाशी वर्षकी आयुपूरी करके श्रीमहावीरस्वामीसें पचहत्तर वर्ष पीछे स्वर्ग गया ॥ ४ श्रीप्रभवस्वामीके पाट ऊपर, श्रीशय्यंभव स्वामी बैठे, जिनोनें मनक साधुकेवास्ते दशवैकालिक सूत्र बनाया, तिनकी उत्पत्ति ऐसें है एकदा प्रस्तावें प्रभवस्वामीनें रात्रिमें विचार करा कि मैरे पाट ऊपर कौन बैठेगा, पीछे ज्ञान बलसें अपणे सर्वसंघमें पाट योग्य कोई न देखा, तब परदर्शनीयोंको ज्ञान बलसें देखने लगा, तब राजगृह नगरमें शय्यंभवभट्टकों यज्ञकरते हुयेकों अपने पाट योग्य देखा, पीछे प्रभवस्वामी विहारकरकें, सपरिवारसें राजगृह नगरमें आये, उहां दो साधुओंकों आदेश दीया कि तुम यज्ञपाडेमें जाकर भिक्षाके वास्ते धर्म लाभ कहो, और यज्ञ करने वालोंकों ऐसे कहो-"अहोकष्टमहोकष्टं तत्वं विज्ञायते नहि" तब तिन साधुओंनें पूर्वोक्त गुरुका कहना सर्व For Private And Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar १२७ कीया । जब ब्राह्मणोंने "अहोकष्ट" इत्यादि सुना, और तिस यज्ञ वाडेमें शय्यंभव ब्राह्मणने यज्ञ दीक्षा लीनी थी, तिसने यज्ञ बाडेके दरवाजेमें खडेथके, अहोकष्टं इत्यादि मुनियोंका कहना सुनके विचार करने लगा, कि ऐसा उपशम प्रधान साधु होते हैं, इसवास्ते यह असत्य (झूठ ) नहीं बोलते हैं, इस्से मनमें संशय होगया, तब उपाध्यायकों पूछा कि तत्व क्या है, तब उपाध्याय ने कहा कि चार वेदमें जो कथन करा है सो तत्व है, क्योंकि वेदोंके शिवाय और कोई तत्त्व नहीं है, तब शय्यंभवनें कहा कि तू दक्षिणाके लोभसें मुझकों तत्व नहीं बतलाया है, क्योंकि राग द्वेष रहित, निर्मम, निःपरिग्रह, शांत, दांत, महांत मुनियों का कहनां झूठा नहीं होता है, और तूं मेरा गुरु नहीं तैनें तो जन्मसें इस जगत्कों ठगनाही सीखा है, इस वास्ते तूं शिक्षाके योग्य है, इसवास्ते यातो मुझे तत्व कह दे, नहीं तो तलवारसें तेरा शिर छेद करूंगा, ऐसें कहके जब मियानसें तलवार काढी, तब उपाध्यायनें प्राणांत कष्ट देखकें कहा हमारे वेदोंमेंभी ऐसें लिखा है और हमारी आम्नायभी यही है, जब हमारा कोई शिर छेद किया चाहे तब तत्व कहनां नहीं तो नहीं कहनां तिस वास्तेमें तुमकों तत्व कह देता हूं कि इस यज्ञ स्थंभ के हेठे अहंतकी प्रतिमा स्थापन करी है, और नीचेही तिसकों प्रच्छन्न होकर पूजते हैं, तिसके प्रभावसे यज्ञके सर्व विघ्न दूर हो जाते हैं, जेकर यज्ञस्थंभके नीचे अहंतकी प्रतिमा न राखें तो महातपा सिद्धपुत्र, और नारद, ये दोनों यज्ञकों विध्वंस कर देते For Private And Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२८ हैं, पीछे उपाध्यायने यज्ञस्थंभ उखाडके अर्हतकी प्रतिमा दिखाई और कहा कि यह प्रतिमा जिस देवकी है, तिस अर्हतका कहा हुआ धर्म जीवदया रूप तत्व है, और यह जो वेद प्रतिपाद्य यज्ञ हैं वे सर्व हिंसात्मक रूप होनेसें विडंबना रूप है, परन्तु क्याकरें जेकर हम ऐसें न करें तो हमारी आजीविका नहीं चलती है, अब तूं तत्व जानले और मुझको छोड दे, अरु तूं परमार्हत होजा, क्योंकि मैंनें अपने पेटके वास्ते तुझको बहुत दिन बहकाया है, तब शय्यं भवने नमस्कार करके कहा तूं यथार्थ तत्व के कहने से सच्चा उपाध्याय है, ऐसा कह कर शय्यं भवने तुष्टमान होकर यज्ञकी सामग्री जो सुवर्णपात्रादि थे, वे सर्व उपाध्यायकों दे दीये, और प्रभवस्वामीके पास जाकर तत्व का स्वरूप पूछकर दीक्षा लेलीनी, शेष इनका वृत्तांत परिशिष्टपर्वादि ग्रंथसे जान लेना शय्यंभवस्वामी अठाईस वर्ष गृहस्थावास में रहे, इग्यारह वर्ष सामान्य साधु व्रतमें रहे, और तेवीस वर्ष युगप्रधानाचार्य पदवी रहे, इसीतरें सर्वायु वाशठ वर्ष भोगवके श्रीमहावीर भगवंत अठानवें वर्ष पीछे स्वर्ग गये || ५ श्रीशय्यं भवस्वामीके पाट ऊपर यशोभद्र स्वामी बैठे, सो बावीश वर्ष गृहस्थावास में रहे, और चौदहवर्ष व्रतपर्याय में रहे, अरु पचास वर्ष तक युगप्रधान पदवी में रहे, इसीतरें सर्वायु छासी वर्ष का भोगके श्रीमहावीरस्वामीसें ( १४८ ) वर्ष पीछे स्वर्ग में गये | ६ श्रीयशोभद्रस्वामी के पाट ऊपर, श्री संभूतविजय स्वामी बैठे, For Private And Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२९ सो बैतालीस वर्ष तक गृहस्थ रहे, और चालीश वर्ष व्रत पर्याय में रहे, तथा आठ वर्ष युगप्रधान पदवीमें रहे, सर्वायु नवे वर्ष भोगके स्वर्गमें गये, ॥ श्रीसंभूतविजयस्वाभीके पाट ऊपर, श्री भद्रबाहुखामी बैठे सो भद्रबाहुखामीने, १ आवश्यक नियुक्ति, २ दशवकालिक नियुक्ति, ३ उत्तराध्ययन नियुक्ति, ४ आचारांगकी नियुक्ति, ५ सूत्रकृदंग नियुक्ति, ६ सूर्यप्रज्ञप्ति नियुक्ति, ७ ऋषिभाषित नियुक्ति, ८ कल्प नियुक्ति, ९ व्यवहार नियुक्ति, १० दशा नियुक्ति, ये दशनियुक्तियो, और १ कल्प, २ व्यवहार, ३ दशाश्रुतस्कंध, यह नवमे पूर्वसें उद्धार करके बनाये, और एक बहुत बडा भद्रबाहु नामें संहिता ज्योतिष शास्त्र बनाया, उपसर्गहर स्तोत्र बनाया, जैनमतीयों ऊपर बहुत उपकार करा । इनहीं भद्रबाहुस्वामीजीका सगाभाई वराहमेहर हुआ, वो पहिले तो जैनमतका साधु हुवा था, फेर साधुपणा छोडके वराही संहिता बनाई और जो वराहमिहर विक्रमादित्यकी सभा का पंडित था, वो दूसरा वराहमिहर था, संहिता कारक वो नहीं हुआ, इसका सम्पूर्ण वृत्तांत परिशिष्टपर्वसें जानलेना, श्रीभद्रबाहुस्वामी गृहस्थावासमें पेंतालीश वर्ष रहे, सत्तरे वर्ष व्रतपर्याय, अरु चौदह वर्ष युगप्रधान, सर्व मिलकर छहत्तर वर्ष का आयु भोगके श्रीमहावीरस्वामीसें एकसौसित्तर (१७०) वर्ष पीछे स्वर्ग गए ॥ भद्रबाहु स्वामीके पाट ऊपर श्रीस्थूलभद्रस्वामी बैठे इनका बहुत वृत्तांत है सो परिशिष्टपर्वग्रन्थसें जान लेना, १ श्री ९ दत्तसूरि० For Private And Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रभवस्वामी, २ श्री सय्यंभवस्वामी, ३ श्री यशोभद्रस्वामी, ४ श्री संभूतविजयजी, ५ श्री भद्रबाहुस्वामी, ६ श्रीस्थूलभद्रस्वामी, यह छहों आचार्य चौदह पूर्वकेवेत्ता थे, श्रीस्थूलभद्रवामी तीस वर्ष गृहस्थावासमें रहे, चौवीस वर्ष व्रत पर्याय, अरु पैतालीस वर्ष युगप्रधान पदवी, सर्वायु निनानवें वर्षका भोगके श्रीमहावीरखामीके पीछे (२१५ ) वर्षे स्वर्ग गये, श्रीमहावीरस्वामीसें दोसौ चौदह वर्ष पीछे आषाढाचार्यके शिष्य तीसरे निन्हव हूये ॥ श्रीस्थूलभद्रस्वामी के बखत में नवनंदों का एकसौ पंचावन (१५५) वर्षका राज्य उछेद करके चाणिक्य ब्राह्मणनें चंद्रगुप्त राजाकों राजसिंहासनऊपर बैठाया, और चंद्रगुप्तके संतानोनें एकसौ आठ वर्षतक राज्य कीया चंद्रगुप्त मोरपालका बेटा था, इसवास्ते चंद्रगुप्तका मौर्यवंश कहते हैं, यह चंद्रगुप्त जैनमत का धारक श्रावकराजा था, यह चंद्रगुप्त, तथा नवनंदका वृत्तांत देखना होवे, तदा परिशिष्ट पर्व, उत्तराध्ययनवृत्ति तथा आवश्यक वृत्तिसें देख लेनां ॥ श्री स्थूलभद्रस्वामीके पीछे ऊपरले चार पूर्व, प्रथम संहनन, प्रथम संस्थान व्यवछेद हो गये, तथा श्रीमहावीरस्वामीसें दोसौ वीस ( २२० ) वर्ष पीछे अश्वमित्र नामा चौथा क्षणिकवादि निन्हव हुआ, और श्रीस्थूलभद्रजी के समय में बारा वर्षका दुर्भिक्ष (काल) पडा, उस समयमें चंद्रगुप्तका राज था, तथा श्री महावीरस्वामीके पीछे ( २२८ ) वर्ष व्यतीत हुए तब गंग नामा पांचमां निन्हव हुआ ॥ For Private And Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३१ इति श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनकीर्तिरत्नसूरिशाखायां क्रमात्तत्परंपरायां वरीवृतति श्रीमजिनकृपाचन्द्रसूरयस्तेषामंतेवासी ज्येष्ठः समभवत् , विद्वच्छिरोमणिः श्रीमदानंदमुनिः तत् संगृहीते तस्यानुजेन उपाध्यायजयसागरेण संस्कारिते श्रीजंगमयुगप्रधानश्रीमजिनदत्तसूरीश्वरचरिते श्रीवीरप्रभोर्गणधरश्रुतकेवलि नाम संक्षिप्तचरिः ववर्णनो नाम द्वितीयसर्गः समाप्तः ॥ For Private And Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३२ अथ तृतीयसर्गः ॥ तत्रादौ मंगलाचरणम् ॥ शिवरतो वरतोषवशान्ततो । मघवताऽघवतामति दूरगः । अमबनो मदनोदनकोविदः । शममलं मम लंभयताजिनः ॥ १॥ अविकलं विकलंकधियां सुखं । विदधतं दधतं जगदीशिता । अकलहं कलहंसगतिं श्रये । जिनवरं नवरंगतरंगितः ॥२॥ वेल्लत्कल्याणवल्ली-विपिनघनमुचः स्वर्गगंगातरंग, च्छायादायादरोचिः-पटलधवलिताखंड-दिअंडलस्य । नम्रामालिमौलिप्रसृतपरिमलोद्गारमंदारमालाभ्यच्येश्चंद्रप्रभस्य प्रभवतु भवतां भूतये पादपद्मः ॥३॥ दिनेशवद्ध्यानवरप्रतापैरनंतकालप्रचितं समंतात् । योऽशोषयत्कमविपाकपंकं, देवो मुदे वोऽस्तु स वर्द्धमानः ॥ ४॥ ऐंद्रश्रीकरपीडनविधिसिद्धं ध्वस्तकर्मशलभभरं । कल्याणसिद्धिकरणं जैनं ज्योतिजयतु नित्यं ॥५॥ श्रीपार्श्वनाथं फलवर्द्धिकाख्यं, गुरुं तथा श्रीजिनदत्तसूरिं । वाग्देवतायाश्चरणौ च नत्वा समाश्रये चारु तृतीयसर्ग ॥ ६॥ अब श्री आर्यमहागिरि सरिजीसें श्रीवज्रस्वामीजीप यंत पट्टानुगतदशपूर्वधरोंका तथा नवपूर्वधर आचार्योका तथा श्रीनेमिचन्द्रसरिजी पर्यंत मुख्यतासें पट्टधर आचार्योंका किंचित् खरूप शुद्ध धर्माभिलाषी जीवोकुं लिखके दिखाताहूं २ ॥ तद्यथा-महागिरिं सुहस्ति च । सुस्थितसुप्रतिबद्धको । इन्द्रदिन्न दिन्नसूरीच । वन्दे सिंहगिरीश्वरं ॥१॥ श्री वज्र वज्रसेनं च । चंद्र समंत भद्रकं । देवं प्रद्योतनं वन्दे । मानदेवं नमाम्यहम् ॥२॥ For Private And Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३३ मानतुंगं वीरसूरिं । जयदेवदेवानंदकौ । विक्रम नरसिंहं च समुद्रविजयं तथा ॥३॥ मानदेवं विबुधप्रभं । जयानन्दं रविप्रभं । यशोभद्रं विमलचन्द्रं । देवचन्द्र नेमिचन्द्रौ च ॥४॥ ॥९॥ श्रीस्थूलभद्रजीके पाट ऊपर श्रीआर्यमहागिरिजी बैठे, आर्यमहागिरिजीके शिष्य, १ बहुल २ बलिस्सह हुआ, और बलिस्सह सूरिजीका शिष्य श्रीउमास्वातिसरिजी हुवे जिनोंने तत्वार्थ सूत्रादि शास्त्र रचे हैं और श्रीउमास्वातिसूरिजीका शीष्य श्रीश्यामाचार्यजी श्रीप्रज्ञापनासूत्र (पन्नवणासूत्रके) कर्ता हुवे, यह कालिकाचार्य श्रीमहावीरस्वामीसें तीनसो छिहत्तर वर्ष पीछे स्वर्ग गया, और आर्य महागिरिजी तीस वर्ष गृहवासमें रहे, चालीस वर्ष व्रतपर्याय, और तीसवर्ष युगप्रधानपदवी, सर्वायु सो वर्षका पालके स्वर्ग गया २॥ ॥१०॥ श्री आर्यमहागिरिजीके पाट ऊपर श्रीआर्यसुहस्तिसरि बैठे जिनोंने एक भिख्यारीकों दीक्षादीनी, वो कालकरके चंद्रगुप्तराजाका पुत्र बिंदुसारराजा और बिंदुसारका पुत्र अशोकश्री राजा और अशोकश्रीका पुत्र कुणाल, तिस कुणालका पुत्र संप्रति राजा हुआ, तिस संप्रतिराजाने जैनधर्मकी बहुत वृद्धि करी, क्योंकि कल्पसूत्रके प्रथम उद्देसेमें श्री महावीरस्वामिके समयमें अबकी निसपत बहुत थोडे देशोमें जैनधर्म लिखा है, मारवाड, गुजरात, दक्षिण, पंजाब, वगैरे देशोमें जो जैनधर्म है, सो संप्रति राजाहीसें फैला है, यद्यपि इस कालमें जैनी राजाके न होनेसें जैनधर्म सर्व जगें नहिं, परंतु संप्र For Private And Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३४ तिराजाके समयमें बहुत उन्नतिपर था, क्योंकि संप्रतिराजाका राज्य मध्यखंड और गंगापार और सिंधुपारके सर्व देशोंमे था, संप्रतिराजाने अपने नौकरोंको जैनके साधुओंका वेष बनाकर अ. पने सेवक राजाओंका जो शक, यवन, फारसादि, देशोंथे, तिन देशोंमें भेजे, तिनोंने तिन राजाओंकों जैनके साधुओंका आहारविहार आचारादि सर्व बताया और समझाया पीछेसें साधुओंका विहार तिन देशोंमें कराकर लोकोंको जैन धर्मी करा, और संप्रतिराजाने (९९०००) निनानवें हजार जीर्णयाने जीरण जिनमंदिरोंका उद्धार कराया, अर्थात् पुराना टूटा फूटांकों नवा बनाया, और छत्तीस हजार (३६०००) नवीन जिनमंदिर बनवाये, और सोने, चांदी, पीतल, पाषाण, प्रमुखकी सवाकोड प्रतिमा बनवाई, तिसके बनवाये मंदिर नाडोल गिरनार शत्रुजय रतलाम प्रमुख अनेक स्थानोंमें खडे हमने अपनी आंखोसें देखे हैं । और संप्रतिराजाकी बनवाई जिन प्रतिमा तो हमनें सेंकडो देखी हैं, इस संप्रतिराजाका परिशिष्ट पर्वादि ग्रंथोंसें समग्र अधिकार जाण लेना २ श्रीआर्यसुहस्ती सूरि आचार्यने उज्जयनकी रहनेवाली भद्रासेठा. नीका पुत्र अवंतीसुकुमालकों दीक्षा दीनी, और जहां उस अवंती सुकुमालने काल करा था, तिस जगे तिस अवंतीसुकुमालके महाकाल नाम पुत्रने जिनमंदिर बनवाया, और तिस मंदिरमें अपने पिताके नामसे अवंतीपार्श्वनाथकी मूर्ति स्थापनकरी, कालांतरमें ब्राह्मणोनें अपना जोर पाकर तिस मंदिरमें मूर्तिकों नीचे दावकर ऊपर महादेवका लिंग स्थापन करके महाकाल (महादेवका ) मंदिर For Private And Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar १३५ प्रसिद्धकर दीया, पीछे जब राजा विक्रम उजयनमें हुआ, तिस अवसरमें कुमुदचंद्र, अर्थात् सिद्धसेनदिवाकर नामा जैनाचार्यने कल्याणमंदिर स्तोत्र बनाया, तब शिवका लिंग फटकर बीचमेंसै पूर्वोक्त श्रीपावेनाथकी मूर्ति फिर प्रगट हुइ ॥ __ इनका संबंध ऐसा है कि, विद्याधर गच्छमें, जब स्कंदिलाचार्यका शिष्य वृद्धवादि आचार्य थे, तिस अवसरमें, उज्जयनका राजा विक्रमादित्य था, तिसका मंत्री कात्यायन गोत्री देवऋषिनामा ब्राह्मण, तिसकी दैवसिका नाम स्त्री, तिनका पुत्र मुकुंद सो, विद्याके अभिमानसें सारे जगतके लोकोंकों तृणवत् (घासफुसशमान) समजताथा, और ऐसा जानता था कि मेरे समान बुद्धिमान् कोइभी नहीं, और जो मुझकों वादमैं जीतलेवे, तो मैं उसकाही शिष्य बनजाऊं, पीछे तिसने वृद्धवादीकी बहुत कीर्ति सुनी उनके सन्मुख जाने वास्ते सुखासन ऊपर बैठकें भृगुकच्छ (भरंच) कीतरफ चला जाता था, तिस अवसरमें वृद्धवादीभी रस्तेमें सन्मुख आता हुआ मिला, तब आपसमें दोनोंका आलाप संलाप हूआ पीछे मुकुंदजीने कहा कि, मेरे साथ तुम वाद करो, तब वृद्धवादीने कहा कि वादतो करूं, परंतु इस जंगलमें जीते हारेका कहनेवाला कोई साक्षी नहीं, तब मुकुंदजीने कहा कि, यह जो गौ चरानेवाले गोप हैं, येही मेरे तुमारे साक्षी रहे, ये जिसको कहदेंगे हारा सो हारा, तब वृद्धवादीनें कहा बहुत अच्छा येही साक्षी रहे, अब तुम बोलो, तब मुकुंदजीने बहुत संस्कृत भाषा बोली और चुप करी, तब गोपोंने कहा यह तो For Private And Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३६ कुछमी नहीं जानता केवल उंचा बोलके हमारे कानोंको पीडा देता है, तब गोप कहने लगे, हे वृद्ध तुम बोल ? पीछे वृद्धवादी अवसर देखके कच्छा बांधकर तिन गोपोंकी भाषामें कहने लगे, और थोडे थोडे कूदनेंभी लगे, जो छंद उच्चारा सो कहते हैं "नविमारिये नविचोरियें, परदारागमण निवारिये ॥ थोडाथोडादाइयें, सग्गि मटामटजाइयें ॥१॥ फेरभी बोले, और नाचने लगे॥ छंद। कालो कंबल नीचोवट्ट, छाछे भरिओ दीवड थट्ट ॥ एवड पडीओ नीले झाड, अवरकिसोछे सग्ग निलाड ॥ २॥ यह सुनकर गोप बहुत खुशी हुये और कहने लगे कि वृद्धवादी सर्वज्ञ है इसनें कैसा मीठा कानोंकों सुखदायी हमारे योग्य उपदेश कहा और मुकुंद तो कुछ नहीं जानता, तब मुकुंदजीने वृद्धवादीकों कहा कि हे भगवन् ! तुम मुझकों दीक्षा देकें अपना शिष्य बनावो, क्योंकि मेरी प्रतिज्ञाथी, के जो गोप मुझे हारा कहेंगे, तो में हारा और तुमारा शिष्य बनूंगा, यह सुनकर वृद्धवादीने कहा, कि भृगुपुरमें राजसभाके बीच तेरा मेरा वाद होवेगा, परंतु यह गोपोंकी सभामें वादही क्या है, तब मुकुंदने कहा, मैं अवसर नहीं जानता आप अवसरके ज्ञाता हो इसवास्ते मैं हारा पीछे वृद्धवादीने राजसभामें उसको पराजय करा, तब मुकुंदने दीक्षा लीनी, गुरुने उनका नाम कुमुदचंद्रजी दीया, पीछे जब आचार्य पदवी दीनी, तब फिर सिद्धसेन दिवाकर नाम रक्खा, पीछे वृद्धवादी तो और कहींकों विहार कर गये, और सिद्धसेन दिवाकरकों सर्वज्ञ पुत्र ऐसा विरुद दीया ऐसा विरुद बोलते हुए अवंती नगरीके For Private And Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३७ चौकमें लाये, तिस अवसरमें राजा विक्रमादित्य हाथी ऊपर चढा सन्मुख मिला तब राजाने सर्वज्ञ पुत्र ऐसा बिरुद सुनके तिनकी परीक्षा वास्ते, हाथी उपर बैठेहीनें मनसे नमस्कार करा तब आचार्यनें धर्मलाभ कहा, राजाने पूछा कि विनाही वंदना करे, आप मेरेको धर्मलाभ क्यों कर कहा, क्या यह धर्मलाभ बहुत सस्ता है, तब आचार्यने कहा यह धर्मलाभ क्रोडचिंतामणिरत्नोंसेंभी अधिक है जो कोई हमकों वंदना करता है उसको हम धर्मलाभ कहते हैं और ऐसेंभी नहीं जो तुमने हमकों वंदना नहीं करी तुमने भी अपने मनसें वंदना करी, तो मनही सर्व कार्यमें प्रधान है, इस वास्ते हमने धर्म लाभ कहा है, और तुमने मेरी परीक्षा वास्तेही मनमें नमस्कार करा है, तब विक्रमराजा तुष्टमान होकर, हाथीसें नीचे उतरकर सर्वसंघकी समक्ष वंदना करी, और एक क्रौड अशर्फी दीनी, परंतु आचार्यनें अशर्फीयों नही लीनी, क्योंकि वे त्यागी थे, और राजाभी पीछा नहीं लेता, तब आचा. र्यकी आज्ञासे संघपुरुषोने जीर्णोद्धारमें लगादीनी, राजाके दफतरमें तो ऐसा लिखा है ॥ श्लोक ॥ धर्मलाभ इति प्रोक्ते, दुरादुच्छूितपाणये ॥ सूरये सिद्धसेनाय, ददौ कोटिं धराधिपः ॥१॥ श्री विक्रमराजाके आगें सिद्धसेन दिवाकरनें ऐसेंभी कहा था कि ॥ गाथा ॥ पुण्णे वाससहस्से । सयंमि वरिसाण नवनवइगए ॥ होई कुमारनरिंदो, तुहविक्कमराय सारित्थो ॥१॥ अन्यदा सिद्धसेन चित्रकूटमें गये, तहां बहुत पुराने जिनमंदिरमें एक बड़ा मोटा स्थंभ देखा, तब किसीकों पूछा कि यह स्थंभ किसतरांका है, For Private And Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३८ यह सुनकर किसीने कहा कि यह स्थंभ औषध द्रव्यमय जलादि करकें अभेद्य वज्रवत् है, इस स्थंभमें पूर्वाचार्योनें बहुत रहस्य विडाके पुस्तक स्थापन करे है, परंतु किसीसें यह स्थंभ खुलता नहीं यह सुनकर सिद्धसेन आचार्य- तिस स्थंभकों सूंघा तिसकी गंधसें तिसकी प्रतिपक्षी औषधीयोंका रस, लगाया तिस्से वो स्थंभ कम लकी तरें खुल गया तव तिसमें पुस्तक देखा, तिसमें सुं एक पुस्तक लेकर वांचा, तिसके प्रथम पत्रमें दो विद्या लिखी पाई, एक सरसों विद्या, और दूसरी सुवर्णविद्या, तिसमें सरसों विद्या उसकों कहते है कि, जो काम पडे तब मंत्रवादी जितने सरसोंके दाने जपके जलाशयमें गेरे, उतनेही अश्वार बैतालीश प्रकार के आयुधों सहित बाहिर निकलके मैदानमें खडे हो जाते हैं तिनोंसें शत्रुकी सेना भंग हो जाती है, पीछे जब वो कार्य पूरा हो जाता है तब अश्वार अदृश्य हो जाते हैं और दूसरी हेमविद्यासें विनामेहनतके जितना चाहे, उतना सुवर्ण हो जाता है तब ये, दो विद्या सिद्धसेननें लेलीनी, पीछे जब आगे वांचने लगा, तर स्थंब मिल गया सर्व पुस्तक बीचमें रह गये, और आकाशमें देववाणी हुई, कि तूं इन पुस्तकोंके वाचने योग्य नहीं आगे मत वांचना, वांचेगा तो तत्काल मर जायगा, तब सिद्धसेनने डरके विचार करा कि दो विद्या मिली दोही सही, पीछे चित्रोडसें विहार करके पूर्वदेशमें कुमारपुरमें गये, तहां देवपाल राजा था तिसको प्रतिबोधके पक्का जैन धर्मी करा, तहां वो राजा सिद्धांत श्रवण करता है, जब ऐसें कितनाक काल व्यतीत हुआ, तब एकदा समय राजा छाना For Private And Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar १३९ आया, और आंसुसें नेत्र भरकर कहने लगा कि हे भगवन हम बडे पापी हैं क्यों कि आपकी ऐसी उत्तम गोष्टिका रस नहीं पी. सक्ते हैं कारण कि हम बड़े संकटमें पडे है, तब आचार्यने कहा तुमकों क्या संकट हुआ, राजा कहने लगा कि बहुत मेरे वैरी राजे एकठे होकर मेरा राज्य छीना चाहते हैं तब फेर आचार्यने कहा, कि हे राजन् तूं आकुल व्याकुल मत हो, जब मैं तेरा साहायकहों तो फेर तुझे क्या चिंता है यह बात सुनकर राजा बहुत राजी हुआ, पीछे आचार्य राजाको पूर्वोक्त दोनों विद्यायोंसें समर्थ कर दीया, तिन विद्यायोंसें परदल भंग हो गया तिनका डेरा डंडा सर्व राजाने लूट लीया, तब राजा आचार्यका अत्यंत भक्त हो गया, उस्से आचार्य सुखोंमें पडके शिथिलाचारी होगया, यह स्वरूप वृद्धवादीजीने सुना, पीछे दया करके तिनका उद्धार करने वास्ते तहां आये दरवाजे आगे खडे होकर कहला भेजा कि एक बूढा वादी आया है, तब सिद्धसेननें बुलाकर अपने आगे बैठाया वृद्धवादीसर्व अपना शरीर वस्त्रसें ढांककर बोले:-"अण फुल्लियफुल्ल मतोडहिं मारोवामोडिहिं मणुकुसुमेहिं ॥ अचिनिरंजणं जिण, हिंडहिकाइवणेणवणु ॥ १॥" इस गाथाकों सुनकर सिद्धसेनने विचारभी करा परंतु अर्थ न पाया तब विचार करा कि क्या यह मेरे गुरु वृद्धवादी है जिनके कहेका मैं अर्थ नही जानता हूं पीछे जब वार वार देखने लगा तब जाना कि यह मेरा गुरु है पीछे नमस्कार करके क्षमापन मांगा, और पूर्वोक्त श्लोकका अर्थ पूछा तब वृद्धवादी कहने लगे "अणफुल्लियेत्यादि" For Private And Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४० अणफुल्लियफुल्ल प्राकृतके अनंत होनेसे अप्राप्त फूल फलोंकों मत तोड, भावार्थ यह है कि योग जो है, सो कल्पवृक्ष है, किसतरे कि जिस योग रूप वृक्षमें तप नियम तो मूल है, और ध्यान रूप बड़ा स्कंध है, तथा समतापणां कविपणां वक्तापणां, यश, प्रताप, मारण, उच्चाटन, स्तंभन, वशीकरणादि सिद्धियों कि जो सामर्थ्य सो फूल है, अरु केवलज्ञान फल है, इससे अभी तो योगकल्पवृक्षके फूलही लगे हैं सो केवल ज्ञानरूप फल करके आगे फलेंगे, इसबास्ते तिन अप्राप्त फल पुष्पोंकों क्यों तोडता है अर्थात् मत तोड ऐसा भावार्थ है, तथा "मारोवा मोडिहिं" जहां पांच महाव्रत आरोपा है तिनकों मत मरोड "मणुकुसुमेत्यादि" मनरूप फूले करी निरंजनं जिनं पूजय (निरंजन जिनकों पूज) “वनात् वनंकिंहिँडसें" राजसेबादि बुरे नीरस फल क्यों करता है इति पद्यार्थ, तब सिद्धसेन सूरिने गुरु शिक्षाकों अपने शिर ऊपर धरके और राजाकों पूछके वृद्धवादी गुरुके साथ विहार करा, और निविड चारित्र धारण करा, अनेक आचार्योसें पूर्वोका ज्ञान सीखा, एकदा सिद्धसेनजीने सर्वसंघकों एकठो करके कहा कि तुम कहोतो सर्वागमोंकों में संस्कृत भाषामें कर देउं, तव श्रीसंघने कहा क्या तीर्थकर गणधर संस्कृत नही जानते थे, जो तिनहोनें अर्द्धमागधी भाषामें आगम करे ऐसी बात कहनेसें तुमको पारांचिक नाम प्रायश्चित्त लागा हम तुमसें क्या कहें तुम आपही जानते हो, तब सिद्धसेनने गुरुका वचन प्रमाण करके कहा कि, मैं मौन करके बारावर्षका पारांचिक नाम प्रायश्चित्त लेके गुप्त मुख वत्रिका, रजो For Private And Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Anh हरणादि लिंग करके और अवधृत रूप धारके फिरुंगा, ऐसे कह कर गच्छकों छोडके नगरादिकोंमें पर्यटन करने लगे, बारा वर्षके पर्यंतमें उज्जयन नगरीमें महाकालके मंदिरमें शेफालिकाके फूलों करके वस्त्ररंगे पहने हुए सिद्धसेनजी जाके बैठा, तब पूजारी प्रमुख लोकोंने कहा तुम महादेवकों नमस्कार क्यों नहीं करता सिद्धसेन तो बोलतेही नहीं हैं ऐसें लोकोंकी परंपरासें सुनकर विक्रमादी त्यनेभी तहां आकर कहा "क्षीरलिलिक्षो भिक्षो किमिति त्वया देवो न वंद्यते" तब सिद्धसेननें कहा मेरे नमस्कारसें तुमारे देवका लिंग फट जायगा फेर तुमकों महादुःख होवेगा, मैं इस वास्ते नमस्कार नही करता हूं तब राजानें कहा लिंग तो फट जानेदो परंतु तुम नमस्कार करो पीछे सिद्धसेनजी पद्मासन बैठके कहने लगा, तथाहि ॥ श्लोक इंद्रवज्रा वृत्त ॥ स्वयंभुवं भूतसहस्रनेत्र, मनेकमेकाक्षरभावलिंगं ॥ अव्यक्तमव्याहतविश्वलोक, मनादिमध्यांतमपुण्यपापं ॥१॥ इत्यादि प्रथमही श्लोक पढनेसें लिंगमेंसें धुंआ निकला. तवलोक कहने लगे शिवजीका तीसरा नेत्र खुला है, अब इस भिक्षुकों अभिनेत्रसें भस्मकरेगा, तब तो विजलीके तेजकी तरें तडतडाट करता प्रथम अग्नि निकला, पीछे श्रीपार्श्वनाथजीका बिंब प्रगट हुआ, तब वादी सिद्धसेननें कल्याणमंदिर नवीन स्तवन करके क्षमापन मांगा तव राजा विक्रमादित्य कहने लगा कि हे भगवन् यह क्या अदृश्यपूर्व देखने में आया यह कौनसा नवीन देव है और यह प्रगट क्यों कर हुआ, तब सिद्धसेनजीने कहा, अवंतीसुकुमालका पुत्र महाकालने पिताके नामसें तबलोक कहादि प्रथमही विश्वलोक, महाननेत्र, For Private And Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४२ अवंती पार्श्वनाथका मंदिर और मूर्ति बनाय स्थापन करी थी, तिसकी कितनेक वर्ष लोकोनें पूजा करी, अवसर पाकर ब्राह्मणोंने जिनप्रतिमाकों जमीनमें दाटके ऊपर यह शिवलिंग स्थापनकरा इत्यादि सर्व वृत्तांत कहा, और हे राजन् इस मेरी स्तुतिसें शासन देवताने शिवलिंग फाडके वीचमेंसें यह प्रतिमा प्रगट कर दीनी, अब तूं सत्यासत्यका निर्णय कर ले, तब विक्रमादित्यने एकसौ गाम मंदिरके खरच वास्ते दीये और देवके समक्ष गुरुमुखसे बाराव्रत ग्रहण करे, और सिद्धसेनकी बहुत महिमा करी अपने स्थानमें गया और वांदीद्र (सिद्धसेनदिवाकरकों) गुरुने जिनधर्मकी प्रभावनासें तुष्टमान होकर संघमें लीया, अरु पूर्ववत् आचार्य बनाया ॥ एकदा प्रस्तावे सिद्धसेन दिवाकर विहार करते हुये मालवेके देशमें जो ओंकारनामें नगर है, तहां गये तिस नगरके भक्त श्रावकोने आचार्यकों विनती करी, जैसें हे भगवन् इसी नगरके समीप एक गाम था, तिसमें सुंदर नामा राजपुत्र ग्रामणी था, तिसकी दो स्त्रीयां थी, एक स्त्रीके प्रथम पुत्री जन्मी वो स्त्री मनमें खीजी तिस अवसरमें उसकी सौकभी प्रसूत होनेवाली थी, तब तिस बेटीवालीने विचारा कि इसके पुत्र न होवे तो ठीक है, क्यों कि नही तों यह पतिकों वल्लभ हो जावेगी, तब दाईसें मिलके उस्से पैदा हुआ पुत्रको बाहिर गिरा दीया, और तत्कालका मरा हुआ लडका उसके आगे रख दीया, पीछे जो लडका वाहिर गेरा गया था, उसको कुलदेवीने गौकारूप करके पाला जब आठ For Private And Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४३ वर्षका हुआ तब इस ओंकार नगरके शिवभवनके अधिकारी भरटने देखा और अपना चेला बना लीया, एकदा प्रस्तावे कान्यकुब्ज देशका आंखोंसें आंधा राजाने दिग् विजय कार्यसें तहां पडाव करा तव रात्रिमें उस छोटे चेलेकों शिवभक्त व्यंतर देवतानें कहा कि शेषभोग राजाकों देना उसकी आंख अच्छी हो जावेगी तैसेंही करा तिस्से राजाकी आंख अच्छी होगई तब राजाने सो गाम मंदिरके खरच वास्ते दीये और यह बड़ा ऊंचा जो शिव का मंदिर है सोभी उसीने बनवाया, और हम इस नगरमें रहते हैं परंतु मिथ्या दृष्टियोंके बलवान् होनेसें हम जिनमंदिर बनाने नही पाते हैं इस वास्ते आपसे बीनती करते है, कि इस मंदिरसें अधिक हमारा मंदिर यहां बने तो ठीक है, और आप सर्वतरेंसें समर्थ हो तिनका वचन सुनकर वादींद्रने अवंतीमें आकर चार श्लोक हाथमें लेकर विक्रमादित्यके द्वार पास आये, दरवाजे दारके मुखसें राजाकों कहाया “दिदृक्षुर्भिक्षुरायात । स्तिष्ठति द्वारवारितः । हस्तन्यस्तचतुःश्लोकः । उतागच्छतु गच्छतु ॥१॥" तिस श्लोककों सुनकर विक्रमादित्यनें बदलेका श्लोक लिखकर भेजा "दत्तानिदशलक्षाणि, शासनानिचतुर्दश ॥ हस्तन्यस्तचतुःश्लोकः ॥ उतागच्छतु गच्छतु ॥ २॥" तिस श्लोकको सुनकर आचार्यनें कहा भेजा कि, भिक्षु तुमकों मिला चाहता है, परंतु धन नहीं लेता, तब राजाने सन्मुख बुलवाये और पिछानके कहने लगा, कि गुरुजी बहुत दिनों मैं दर्शन दीया, तब आचार्य कहने लगे धर्मकार्यके कारणेसें बहुत दिन हुये चिरसें आना हुआ, For Private And Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar १४४ अब चार श्लोक तुम सुनो ॥ "अपूर्वेयं धनुर्विद्या, भवता शिक्षिता कुतः॥ मार्गणौधः समभ्येति, गुणो याति दिगंतरे ॥१॥ सरस्वती स्थिता वक्रे, लक्ष्मीः करसरोरुहे ।। कीर्तिः किं कुपिता राजन् येन देशांतरे गता ॥२॥ कीर्तिस्ते जातजाव्येव, चतुरंभोधिमजनात् । आतपाय धरानाथ, गता मार्तडमंडलं ॥३॥ सर्वदासर्वदोसीति, मिथ्या संस्तूयसे जनैः ॥ नारयो लेभिरे पृष्ठं न वक्षः परयोषितः ॥४॥" तव यह चारों श्लोक सुनके राजा बहुत खुश हुआ, और आचार्यकों कहने लगा, जो मेरा राज्यमें सार है, सो मांगो तो देदेउं, तब आचार्यनें कहा मुझेतो कुछभी नहीं चाहता, परंतु ओंकार नगरमें चतुर्द्वार जैनमंदिर शिवमंदिरसे उंचा बनाओ, और प्रतिष्ठाभी कराओ, तब राजानें वैसेंही करा तब जिनमत प्रभावना देखकें संघ तुष्टमान हुआ, इत्यादि प्रकारसें जैनधर्मकी प्रभावना करते हुए दक्षिणदेशमें प्रतिष्ठानपुरमें जाकर अनशन करके देवलोक गये, तब तहांसें संघने एक भट्टकों सिद्धसेनकी गच्छपास खबर करनेकों भेजा तिस भट्टने सूरियोंकी सभामें आधाश्लोक पढा और वार वार पढताही रहा, वो आधाश्लोक यह है:-स्फुरंति वादिखद्योताः सांप्रतं दक्षिणापथे ॥ जब वार बार यह अझै श्लोक सुना तब सिद्धसेनकी बहिन साधवीने सिद्ध सारस्वत मंत्रसें अद्धे श्लोक पूरा करा । नूनमस्तंगतो वादी सिद्धसेनो दिवाकरः ॥१॥ पीछे भट्टनें सर्व वृत्तांत सुनाया, तब संघकों बडा शोक हुआ ॥ इति सिद्धसेन दिवाकरका प्रसंगसे संबंध कथन करा ॥ यह श्रीआर्य सुहस्ति आचार्य तीस वर्ष गृहस्थावासमें रहे, और अईसना तब सिद्ध दक्षिणापथे ॥श्लोक यह हालाक पढा For Private And Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४५ चौवीसवर्ष व्रत पर्याय तथा छयालीश वर्ष युगप्रधान पदवी सर्व मिलकर एकसौ वर्षकी आयु भोग श्रीमहावीरस्वामीसें दोसौ एकानवे (२९१) वर्ष पीछे स्वर्ग गये, ॥ ११ ॥ ॥ १२ ॥ श्रीआर्य सुहस्तिसूरिके पाटऊपर, श्रीसुस्थित सूरि हुवा तिनोनें क्रोडोंवार सूरिमंत्रका जापकरा, इसवास्ते गच्छका कोटिक, ऐसा दूसरा नाम श्रीसंघनें रक्खा, क्योंकि श्री सुधर्मास्वामीसें लेकर दशपाटतक तो अणगार निग्रंथगच्छ नाम थापीछे दूसरा कोटिक गच्छनाम हुवा ॥ ॥१३॥ श्री सुस्थितरिके पाट ऊपर श्री इंद्रदिन्नमरि हुआ, इस अवसरमें श्री महावीरस्वामीसें चारसौ त्रेपन (४५३) वर्ष पीछे गईमिल्लरा जाके उच्छेद करणेवाला, दूसरा कालिकाचार्य हुआ, इसकी कथा कल्प सूत्रमें प्रसिद्ध है, और श्रीमहाबीरखामीसें (४५३) वर्ष पीछे भृगुकच्छ ( भडोंचमें) श्रीआर्य खपुटाचार्य विद्याचक्रवर्ती हुआ, इनका प्रबंध श्रीप्रबंधचिंतामणिग्रंथ, तथा हारिभद्री आवश्यककी टीकासें जान लेना, और (४६०) वर्ष पीछे आर्यमंगु, वृद्धवादी, पादलिप्त तथा कल्याण मंदिरका कर्ता ऊपर जिसका प्रबंध लिख आये सो सिद्धसेन दिवाकर हुआ, जिनोंने विक्रमादित्यकों जैनधर्मी करा सो विक्रमादित्य श्री महावीरस्वामीसें (४७०) वर्ष पीछे हुआ, सो (४७० ) वर्ष ऐसे हुए है-जिस रात्रिमें श्रीमहावीरस्वामीजी निर्वाण हुए, उस दिन अवंति नगरीमें पालक नामा राजाकों राज्याभिषेक हुआ, यह पालक चंद्रप्रद्योतनका पोता था १० दत्तसूरि० For Private And Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४६ तिसका राज्य (६०) वर्ष रहा, तिसके पीछे श्रेणिकका बेटा कोणिक और कोणिकका बेटा उदायी जब विना पुत्रके मरा, तब तिसकी गद्दी उपर नंद नामा नाइ बैठा, तिसकी गद्दीमें सर्व नंदनामा नव राजा हुए, तिनका राज्य (१५५) वर्षे तक रहा, नवमें नंदकी गद्दी ऊपर मौर्यवंशी चंद्रगुप्त राजा हुआ, तिसका बेटा बिंदुसार, तिसका बेटा अशोक, तिसका बेटा कुणाल तिसका बेटा संप्रति महाराजादि हुए, इन मौर्यवंशीयोंका सर्व राज (१०८) वर्ष तक रहा, यह पूर्वोक्त सर्व राजा प्रायें जैनमतवाले थे, तिनके पीछे तीस वर्ष तक पुष्पमित्र राजाका राज्य रहा, तिस पीछे बलमित्र भानुमित्र, यह दोनों राजाका राज्य (६०) वर्ष तक रहा, तिस पीछे नभवाहन राजाका राज्य (४०) वर्षतक रहा, तिस पीछे तेरा वर्ष गई मिल्लका राज्य रहा, और चार वर्ष साखीराजावोंका राज्य रहा, पीछे विक्रमादित्यने साखीरा जावोंकों जीतके अपना राज्य जमाया, यह सर्व (४७०) वर्ष हुए। ॥ १४ ॥ श्री इंद्रदिन्न सूरिके पाट ऊपर श्रीदिन्नमरि हुये ॥ ॥१५॥ श्रीदिन मूरिके पाट ऊपर, श्री सिंहगिरी सूरि हुये ॥ ॥१६॥ श्रीसिंहगिरिजीके पाट ऊपर श्री वज्रस्वामी हुये, जिनको बाल्यावस्थासें जातिसरणज्ञान था, और आकाशगामनी विद्याभी थी, जिनोंने दूसरे बारा वर्षी कालमें संघकी रक्षा करी, तथा जिनोने दक्षिणपंथमें बौद्धोंके राज्यमें श्रीजिनेंद्रपूजा वास्ते फूल लाके दीये, बौद्धराजाकों जैनमती करा, यह आचार्य For Private And Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४७ पिछला दशपूर्वका पाठक हुआ, जिनोसें हमारी वज्र शाखा उत्पन्न हुई, इनका प्रबंध आवश्यक वृत्तिसें जान लेना, सो वज्रखामी श्रीमहावीरस्वामीसे पीछे चार सौ छनवे और विक्रमादित्यके संवत छबीसमें जन्मे, और आठ वर्ष घरमें रहे, चौमालीस वर्ष सामान्य साधुव्रतमें रहे, और छत्तीस वर्षे युगप्रधान पदवी में रहे, सर्वायु अट्ठाशी वर्षकी भोगी, तथा इन आचार्यके समयमें जावड शाह सेठने श्री शत्रुजय तीर्थका विक्रम संवत् (१०८) में तेरहमा बडा उद्धार करा, तिसकी श्रीवज्रस्वामीनें प्रतिष्ठा करी, यह श्रीवज्रस्वामी श्रीमहावीरस्वामीसें (५८४) वर्ष पीछे स्वर्ग गये, इन श्री वज्रस्वामीके समयमें दशमा पूर्व, और चौथा संहनन, और संस्थान, विच्छेद होगये, यहां श्री सुहस्ती सूरि लेके श्रीवज्रस्वामी तक अपर पट्टावलियोंमें १ श्रीगुणसुंदरसूरि, २ श्रीकालिकाचार्य, ३ श्रीस्कंधलाचार्य, ४ श्रीरेवतीमित्र,सरि, ५ श्रीधर्मसूरि, ६ श्रीभद्रगुप्ताचार्य, ७ श्रीगुप्ताचार्य, यह सात क्रमसें युगप्रधान आचार्य हुये, तथा श्रीमहाबीरखामीसें पांचसौ तेतीस (५३३) वर्ष पीछे श्रीआर्यरक्षितसूरिने सर्व शास्त्रोंके अनुयोग पृथग् कर दीये ये प्रबंध आवश्यक वृत्तीसें जान लेना, तथा श्रीमहावीरस्वामीसें (५४८) में वर्षे त्रैराशिकके जीतनेवाले श्रीगुप्तसूरि हुये, तिनका प्रबंध उत्तराध्ययनकी वृत्ति, तथा श्रीविशेषावश्यकसें जान लेना, जिसने त्रैराशिक मत निकाला तिसका नाम रोहगुप्त था, वो श्रीगुप्तसरिका चेला था, जिसका उल्लूक गोत्र था जब रोहगुप्त गुरुके आगे हारा, और मत कदाग्रह न छोडा तब अंतरंजिका For Private And Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४८ नगरीके बलश्रीराजाने अपने राज्यसें बाहिर निकाल दीया, तब तिस रोहगुप्तनें कणाद नामा शिष्य करा, उस्को १ द्रव्य, २ गुण, ३ कर्म, ४ सामान्य, ५ विशेष, ६ समवाय, इन षट् पदार्थोंक। खरूप बतलाया, तब तिस कणादनें वैशेषिक सूत्र बनाये तहांसे वैशेषिक मत चला ॥ १७ श्रीवज्र स्वामीके पाट ऊपर श्रीवज्रसेन सूरि बैठे, वे दुर्मिक्षमें श्रीवज्रस्वामीके वचनसें सोपारक पत्तनमें गये, तहां जिनदत्तके घरमें ईश्वरी नामा तिसकी भार्याने लाख रूपकके खरचनेसें एक हांडी अनकी रांधी, जिसमें विष (जहर ) डालने लगी, क्योंकि उनोंने विचारा था कि अन्न तो मिलता नहीं तिसवास्ते जहर खाके सर्व धरके आदमी मरजायेंगे तिस अवसरमें श्रीवज्रसेनसूरि तहां आये, वो उनकों कहने लगे कि तुम जहर मत खाओ कलकों सुगाल हो जावेगा तैसेंही हुआ तब तिन शेठके चार पुत्रोने दीक्षा लीनी तिनके नाम लिखते हैं:-१ नागेंद्र, २ चंद्र, ३ निवृति, ४ विद्याधर, तिन चारोंसें स्वस्व नामके चार कुल बने यह वज्रसेनसूरि नववर्ष तक गृहस्थावासमें रहे और (११६) वर्ष समान साधुव्रतमें रहे, तथा तीन वर्षे युग प्रधान पदवीमें रहे सर्वायु (१२८) वर्षकी भोगके श्री महावीरस्वामीसे (६२०) वर्ष पीछे स्वर्ग गये, तथा श्री वनस्वामी और वज्रसेन सरिके बीचमें, आर्य रक्षित सूरि तथा श्रीदुर्बलिकापुष्यसूरि, यह दोनों युग प्रधान हुये, श्रीमहावीरस्वामीसें (५८४) वर्ष पीछे गोष्टा माहिल सा. For Private And Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४९ तमां निन्हव हुवा, तथा श्रीमहावीरस्वामीसें (६०९)वर्ष पीछे श्रीकष्णमूरिका शिष्य शिवभूति नामें था, तिसनें दिगंबर मत प्रवृत्त करा, सो अधिकार विशेषावश्यकादिकोंसें जान लेना ॥ - १८ श्रीवज्रसेन सूरिके पाट ऊपर श्रीचंद्रसरि बैठा, तिनके नामसें गच्छका तीसरा नाम चंद्रगच्छ हुआ । १९ श्रीचंद्रसरिके पाट ऊपर श्री सामंतभद्रसरि हुये, सो पूर्व गत श्रुतके जानकार थे ॥ २० श्रीसामंतभद्रसूरिके पाट ऊपर, श्रीदेव सूरि हुये, तथा श्रीमहावीरस्वामीसें (५९६ ) वर्ष पीछे कोरंट नगरमें तथा सत्यपुरमें नाहडमंत्रीने मंदिर बनवाया, प्रतिमाकी प्रतिष्ठा जजक सूरिने करी, प्रतिमा श्रीमहावीरस्वामीकी स्थापन करी जिसकों "जयउ वीरसचउरिमंडण कहते हैं । ____२१ श्रीवृद्धदेवसूरिके पाट ऊपर श्रीप्रद्योतनसूरि हुये ॥ २२ श्री प्रद्योतन सूरिके पाट ऊपर, श्रीमानदेवसरि हुये, इनके सूरिपद स्थापनावसरमें दोंनों स्कंधोंपर सरस्वती और लक्ष्मी साक्षात् देख के यह चारित्रसें भ्रष्ट हो जावेगा ऐसा विचार करके खिन्न चित्त गुरुकों जानकें गुरुके आगे ऐसा नियम करा किभक्तिवाले घरकी भिक्षा और दूध, दही, घृत, मीठा, तेल, अरु सर्व पकानका त्याग कीया, तब तिनके तपके प्रभावसें नाडोल पुर (जो पालीके पास है ) तिसमें १ पद्मा, २ जया, ३ विजया, ४ अपराजिता, ए चार नामकी चार देवी सेवा करती देखी, For Private And Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५० कोइ मूर्ख कहने लगा कि ए आचार्य स्त्रीयोंका संग क्यों करता है तब तिन देवीयोंने तिसकों सिक्षा दीनी, तथा तिसके समयमें तिक्षिला नगरीमें बहुत श्रावक थे तिनमें मरीका उपद्रव हुआ तिसकी शांतिकेवास्ते श्री मानदेव मूरिने नाडोल नगरीसें शांतिस्तोत्र बनाकर भेजा ॥ २३ श्री मानदेवसरिके पाट ऊपर श्री मानतुंगसूरि हुये, जिनोंने भक्तामर स्तवन करके, बाण अरु मयूर पंडितोंकी विद्या करकें चमत्कृत हुआ जो वृद्ध भोजराजा तिनको प्रतिबोधा, और भयहर स्तवन करकें नागराजाकों वश करा, तथा भत्तिभरेत्यादि स्तवन जिनोंनें करे है॥ २४ श्रीमानतुंगसूरिके पाट ऊपर श्री वीरसरि बैठे सो वीरसूरिने श्री महावीरस्वामीसे (७७० ) वर्षमें तथा विक्रम संवतके तीनसौ वर्ष पीछे नागपुरमें श्रीनमिअहंतकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करी, यदुक्तं ॥ आर्या ॥ "नागपुरे नमिभवन, प्रतिष्ठयामहितपाणिसौभाग्यः ॥ अभवद्वीराचार्य, स्विमिः शतैः साधिकः राज्ञः ॥ १॥" .. २५ श्री वीरमूरिके पाट ऊपर श्री जयदेवसरि बैठे, ॥ २६ श्रीजयदेवमूरिके पाट ऊपर श्री देवानंदसूरि बैठे, इस अवसरमें श्रीमहाबीरस्वामीसें (८४५) वर्षे पीछे बल्लभी नगरी भंग हुइ, तथा (८८२ ) वर्ष पीछे चैत्येस्थिति, तथा (८८६) वर्ष पीछे ब्रह्मद्वीपिका शाखा हुई। २७ श्रीदेवानंदमूरिके पाट ऊपर श्री विक्रममूरि बैठे ॥ For Private And Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५१ २८ श्रीविक्रमसरिके पाट ऊपर श्री नरसिंहमूरि बैठे, यतः ॥ "नरसिंहमूरिरासी, दतोऽखिलग्रंथपारगोयेन ॥ यक्षोनरसिंहपुरे, मांसरतिस्त्याजिता स्खगिरा ॥१॥" । २९ श्रीनरसिंहमूरिके पाट ऊपर श्रीसमुद्रसूरि हुए ॥ श्लोकः ।। वसंततिलकावृत्तम् ॥ "खोमीणराज कुलजोऽपि समुद्रमरि, गच्छं शशास किल यः प्रवणः प्रमाणी ॥ जित्वा तदा क्षपणकान् स्ववशं वितेने नागहृदेभुजगनाथनमस्थतीर्थम् ॥ १॥" __३० श्रीसमुद्रमूरिके पाट ऊपर श्रीमानदेवसरि हुए ॥ श्लोकः।। बसंततिलकावृत्तम् ॥ "विद्यासमुद्रहरिभद्रमुनींद्रमित्रं, मूरिर्बभूव पुनरेवहि मानदेवः ॥ मांद्यात्प्रयातमपियोनघसरिमंत्रं ले बिकासुखगिरा तपसोज्जयते ॥१॥" श्रीमहावीरस्वामीसें एक हजार वर्ष पीछे सत्यमित्र आचार्यके साथ पूर्वोका व्यवच्छेद हुआ, यहां १ श्री नागहस्ति, २ रेवतीमित्र, ३ ब्रह्मद्वीप, ४ नागार्जुन, ५ भूतदिन्न, ६ श्री कालकसरि, ये छै युगप्रधान यथाक्रमसें श्रीवज्रसेनसूरि और सत्यमित्रके बीचमें हुए, इन पूर्वोक्त छै युगप्रधानोंमेंसें शक्राभिवंदित श्रीकालिकाचार्य श्रीमहावीरस्वामीसें (९९३) वर्ष पीछे पंचमीसें चौथकी संवत्सरी करी, तथा श्री महाबीरात् (९८०) वर्ष पीछे एक पूर्व विद्या धारक युगप्रधान श्री देवर्द्धिगणिः क्षमाश्रमण हुए जिणोंने शाशन देवके सहायसें सर्व साधुवोकों इकट्ठा करके सर्व सिद्धांत पुस्तकोंमें लिखाया इससे यह बडे प्रवचन प्रभावीक हुए, तथा श्री महाबीरात् (१०५५) वर्ष पीछे, और विक्रमादित्यसें For Private And Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५२ (५८५) वर्ष पीछे, याकिनी साधवीका धर्मपुत्र श्रीहरिभद्रसूरि स्वर्गवास हुए, ये आवश्यकजी मूलसूत्रादिककी बडी टीकाका, तथा चवदसोचमालीस ( १४४४ ) प्रकरणों का कर्त्ता हुए तथा इम्यारेसोपनर (१११५ ) वर्ष पीछे श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण युगप्रधान हुआ || ३१ श्रीमान देवसूरिके पाटऊपर श्रीविबुधप्रभसूरि हुआ || ३२ श्रीविबुधप्रभसूरके पाट ऊपर श्रीजयानंदसूरि हूआ || ३३ श्रीजयानंदसूरके पाट ऊपर श्रीरविप्रभसूरि हुआ सो श्रीमहावीरस्वामिसें पीछे इग्यारेसे सित्तर ( ११७० ) वर्ष औ) विक्रम संवत् सातसो ( ७०० ) वर्ष पीछे नाडोल नगर में श्री - नेमिनाथस्वामिके प्रासादकी प्रतिष्ठा करी तथा श्रीवीरात् इग्यारसो ने (११९० ) वर्ष पीछे श्रीऊमास्वातिनामक युगप्रधान हुआ । ३४ श्रीरविप्रभसूरके पाट ऊपर श्रीयशोभद्रसूरि अपरनाम श्रीयशोदेवसूरि बैठे, यहां श्रीमहावीरस्वामिसें बारसोबहुत्तर (१२७२ ) वर्ष पीछे, और विक्रम संवत्सें आठसें दो ( ८०२ ) के सालमें अणहलपुर पट्टण वनराज नामक राजानें बसाया, वनराज जैनी राजा था, तथा श्रीवीरात् बारसेसित्तर (१२७० ) और विक्रमसंवत् आठसो ( ८०० ) के सालमें भादवासुदि ३ के दिन बप्पभट्ट आचार्यका जन्म हुआ जिसनें गवालियरके आम नामा राजाकों जैनी बनाया, इनका विशेष चरित्र प्रबंध चिंता - मणि ग्रंथसें जाणलेना ॥ For Private And Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar १५३ ३५ श्रीयशोभद्रसूरिपट्टे, श्रीविमलचन्द्रसूरि हुआ । ३६ श्रीविमलचंद्रमूरिपट्टे श्रीदेवचन्द्रसूरि अपरनाम लघुदेवसरि हूवा ये उपधान वाच्य ग्रंथका कर्ता और तिसकाल आश्रय सिथलाचार मार्गको त्याग करके शुद्धमार्ग धारन करनेवाले वे, हू इससें सुविहित पक्ष प्रसिद्ध हूवा ॥ ३७ श्रीलघुदेवमूरि पट्टे, श्रीनेमिचन्द्र सूरि हुवे ॥ इति श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनकीर्तिरत्नमरिशाखायां क्रमात, श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरीश्वरस्य प्रधानशिष्येण श्रीमदानंदमुनिना संकलिते उ० जयसागरेण संस्कारितेच, श्रीमजिनदत्तमूरीवरचरिते श्री आचार्यमहागिर्यादि श्रीनेमिचन्द्रसरिपर्यवसानं पट्टानुगताचार्यसंक्षिप्तचरित्र वर्णनो नाम तृती यसर्गः समाप्तः For Private And Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ चतुर्थसर्गः। नमः श्रीवर्द्धमानाय, श्रीमते च सुधर्मणे, सर्वाऽनुयोगवृद्धेभ्यो, वाण्यै सर्वविदस्तथा॥१॥ अज्ञानतिमिरांधानां, ज्ञानांजनशलाकया, नेत्रमुन्मीलितं येन, तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥२॥ सूरिमुद्योतनं वन्दे, वर्द्धमानं जिनेश्वरं, जिनचंद्रप्रभुं भक्त्याऽभयदेवमहं स्तुवे॥३॥ ३८ श्रीनेमिचंद्रसरिजीके पट्टपर, श्रीमान् उद्योतनमूरिजी हुवे, इणोंसें ८४ गच्छकी स्थापना हुइ, इहांपर ८४ गच्छोंका किंचितस्वरूप लिखते है, वाचनाचार्य श्रीमान् पूर्णदेवगणि प्रमुखका वृद्धसंप्रदाय यह है कि श्रीमान् उद्योतनसरिजी महाराजकुं शुद्ध क्रियापात्र बडे प्रतापिक विद्वान् जाणके और ८३ साधुवोंका शिष्य आयके महाराजकेपास पढने लगे, और तिस अवसरमें एक अंभोहरनामा देशमें जिनचंद्रनामें आचार्य शिथलाचारी चैत्यवासी ८४ चैत्योंका मालिकथा, उसके व्याकरण तर्क छंद अलंकार प्रमुखमें अत्यंत विचक्षण, शरदऋतुका चंद्रमाके प्रकाश स. मान उज्वल यशवाला, और अत्यंत निर्मल मनवाला, वर्द्धमान नामें प्रधान शिष्य था, उसके प्रवचन सारोद्धारादि आगम वाचतां जिनचैत्यकी ८४ आशातना आइ, वे आशातना यह है For Private And Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५५ इदानीं, दसआसायणत्ति, सप्तत्रिंशत्तमं द्वारमाह ॥ अब दशआशातनाका सैतीसमा ( ३७ ) द्वार कहतें हैं | तत्र मूलम् यथा - तंबोल १ पाण २ भोयण, ३ पाणह ४, त्थी - भोग ५ सुयण ६ निट्ठिवणं, ७ मुत्तु ८ चारं ९ जूयं १०, वझेजिणमंदिर संतो ॥ ३७ ॥ व्याख्या - तांबूल १ पानीपीणा २ भोजन ३ उपानत ४ ( जूती ) स्त्रीभोग ५ ( मैथुन ) स्वपन निद्रा करना ६ निष्ठीवन थूक ७ मूत्र, लघुनीत ८ पुरीषं, वडनीत ९ द्यूतमदिरादिवर्जयेत्, जुआमदिरादियत्ल से बर्जे १० विवेकी पुरुष जिनमंदिर के अंदर श्रीतीर्थंकर भगवानकी आशातनाका हेतु होणेसे यह १० मोटी आशातनाका सुश्रावकों कुं विशेषकरके त्याग करना उचित है, अन्यथा अनंत भवभ्रमण करना होगा यह निस्संदेह है, इति ३७ सप्तत्रिंशत्तमद्वारः || आसाणा उचुलसी, इति अष्टात्रिंशत्तमं द्वारमाह, खेलंकेलिमित्यादि शार्दूलवृत्त चतुष्टयमिदं यथा विदितं व्याख्यायते ॥ अब चौरासी आशातनाका अडतीसमा द्वार कहतें हैं | तत्र मूलम् यथा - खेलं १ केलि २ कलिं ३ कला ४ कुललयं ५ तंबोल ६ मुग्गालयं, ७ गाली ८ कंगुलिया ९ सरीरधुवणं १० कैसे ११ नहे १२ लोहियं, १३, भत्तोसं १४ तय १५ पित्त १६ वंत १७ दसणे १८ विस्सामणं १९ दामणं, २०, दंत २१ च्छी २२ नह २३ गंड २४ नासिय २५ सिरो २६ सोच २७ छवीणं मलं, २८ ॥ ४३८ || १ || मंतं २९ मीलण ३० लेख्कयं ३१ विभजणं ३२ भंडार ३३ दुट्ठासणं, ३४, छाणी ३५ कप्पड For Private And Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५६ ३६ दालि ३७ पप्पड ३८ वडी ३९ विस्सारणं नासणं, ४०, अकंदं ४१ विकहं ४२ सरिच्छुघडणं ४३ तेरिच्छसंहावणं, ४४, अग्गीसेवण ४५ रंधणं ४६ परिख्कणं ४७ निस्सीहियाभंजणं, ४८॥ ४३९ ॥२॥ छत्तो ४९ वाणह ५० सत्थ ५१ चामर ५२ मणोणेगत्त, ५३ मभंगणं, ५४ सचित्ताणमचाय ५५ चायमजिए ५६ दिट्ठीइनो अंजली, ५७ साडेगुत्तरसंग भंग ५८ मउडं ५९ मउलि ६० सिरोसेहरं, ६१ हुड्डा ६२ जिडहग्गेड्डियाइरमणं ६३ जोहार ६४ भंडकियं, ६५ ४४० ॥३॥ रेकारं ६६ धरणं ६७ रणं ६८ विवरणं वालाण ६९ पल्हठियं, ७०, पाउ ७१ पायपसारणं ७२ पुडपुडी ७३ पंकं ७४ रओ ७५ मेहुणं, ७६ जूया ७७ जेमण ७८ गुझ ७९ विज ८० वणिजं ८१ सेझं ८२ जलं ८३ मझणं, ८४, एवमाईय मवञ्जकजमुजुओवजेजिर्णिदालए, ४४१॥ ॥४॥ व्याख्या तत्र जिनभवने एतच्च कुर्वन् आशातनां करोति इति फलितार्थः आयं लाभं ज्ञानादीनां निःशेषकल्याणसंपन्नतावितानाविकलबीजानांशातयति विनाशयति इति आ. शातना शब्दार्थः तत्र खेलं मुखश्लेष्माणं जिनमंदिरे त्यजति, १ तथा केलिं क्रीडां २ करोति, तथा कलिं वाकलहं विधत्ते, ३ तथा कलां धनुर्वेदादिकां तत्र शिक्षते, ४ तथा कुललयं गंडूषं विधत्ते, ५ तथा तांबूलं तत्र चर्वयति, ६ तथा तांबूलसंबंधिनमुद्गालमाविलं तत्र मुंचति, ७ तथा गालीनकारमकारचकारजकारादिकास्तत्र ददाति, ८ तथा कंगुलिकां लघ्वी महतीं For Private And Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५७ च नीतिं विधत्ते, ९ तथा शरीरस्य धावनं प्रक्षालनं कुरुते, १० तथा केशान् मस्तकादिभ्यस्तत्रोत्तारयति, ११ तथा नखान हस्तपादसंबंधिनः किरति, १२ तथा लोहियं शरीरान्निर्गतं तत्र विसृजति, १३ तथा भक्तोषं सुखादिकां तत्र खादति, १४ तथा तयत्वचं व्रणादिसंबंधिनीं पातयति, १५ तथा पित्तं धातुविशेपमौषधादिना तत्र पातयति, १६ तथा वांतं वमनं करोति, १७ तथा दसणे दंतान् क्षिपति, १८ तत्संस्कारं वा कुरुते तथा विश्रामणामंगसंवाहनं कारयति १९ तथा दामनं बंधनमजादितिरश्चां विधत्ते, २० तथा दंताक्षिनखगंडनासिका शिरःश्रोत्रच्छवीनां संबंधिनं मलं जिनगृहे त्यजति तत्र छविः शरीरं, शेषाश्च तदवयवाः २८ ॥ ४३८ ॥ इति प्रथमवृत्तार्थः ॥ तथा मंत्रं भूतादिनिग्रहलक्षणं राजादिकार्यपर्यालोचनं वा कुरुते, २९ तथा मीलनं कापिस्वकीय विवाहादिकृत्ये निर्णयाय वृद्धपुरुषाणां त. त्रोपवेशनं, ३० तथा लेख्यकं व्यवहारादि संबधि तत्र कुरुते, ३१ तथा विभजनं विभागं दायादादीनां तत्र विधत्ते, ३२ तथा भांडागारं निजद्रव्यादेविधत्ते, ३३ तथा दुष्टासनं पादोपरिपादस्थापनादिकमनौचित्योपवेशनं कुरुते, ३४ तथा छाणी गोमयपिंडः ३५ कर्पटं वस्त्रं, ३६ दालिमुद्गादिद्विदलरूपा, ३७ पर्पटवटिके ३८-३९ प्रसिद्धे, ततः एतेषां विस्तारणं च उत्तायनकृते विस्तारणं, तथा नाशनं नृपदायादादिभयेन चैत्यस्य गर्भगृहादिषु अंतर्धानं, ४० तथा आक्रंदं रुदनं कुरुते, ४१ विकथाकरणं ४२ तथा शराणां वंशानामिक्षणां च घटनं, ४३ For Private And Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५८ सरछे, तु पाठे शराणां अस्त्राणां च धनुःशरादीनां घटनं, तथा तिरश्चामश्वगवादीनां संस्थापनं, ४४ तथा अग्निसेवनं शीतादौ सति, ४५ तथा रंधनं पचनमन्नादीनां, ४६ तथा परीक्षणं द्रम्मादीनां, ४७ तथा नैषधिकी भंजनमवश्यमेव हि चैत्यादौ प्रविशद्भिः सामाचारीचतुरैनैषेधिकीकरणीया, ततस्तस्या अकरणं भंजनमाशातना ४८ ॥ ४३९ ॥ इति द्वितीयवृत्तार्थः ।। तथा छत्रस्य ४९।५० तथा उपानहस्तथा शस्त्राणां खड्गादीनां ५१ तथा चामरयोश्च ५२ देवगृहात् बहिरमोचनं, मध्येवा धारणं तथा मनसोऽनेकांततानकायं नानाविकल्पकल्पनमित्यर्थः, ५३ तथाभ्यंजनं तैलादिना ५४ तथा सञ्चित्तानां पुष्पतांबूलपत्रादीनामत्यागो बहिरमोचनं, ५५ तथा त्यागः परिहरणं, अजिए, इति अजीवानां हारमुद्रिकादीनां, बहिस्तनमोचने हि अहो मिक्षाचराणामयं धर्मः इत्यवर्णवादो दुष्टलोकैर्विधीयते, ५६ तथा सर्वज्ञप्रतिमानां दृष्टौ दृग्गोचरतायां नो नैवांजलिकरणमंजलिविरचनं, ५७ तथा एकशाटकेन एकोपरितनवस्त्रेण उत्तरासंगभंग उत्तरासंगस्याकरणं, ५८ तथा मुकुटं किरीटं मस्तके धरति, ५९ तथा मौलिं शिरोवेष्टन विशेषरूपां करोति, ६० तथा शिरःशेखरं कुसुमादिमयं धत्ते, ६१ तथा हुड्डांपारापतनालिकेरादिसंबंधिनी विधत्ते, ६२ तथा जिंडहत्ति, कंदुकगेड्डिका तत् क्षेपणी वक्रयष्टिका ताभ्यां, आदिशब्दात् गोलिका कपर्दिकामिश्च रमणं क्रीडनं, ६३ तथा ज्योत्कारकरणं पित्रादीना, ६४ तथा भांडानां विटानां क्रिया कक्षा वादनादिका, ६५॥ ४४० ॥ इति तृतीयवृत्तार्थः॥ दीनामजीवानां हारमावर्णवादो दुष्टलावलिकरणमजाला For Private And Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५९ तथारेकारं तिरस्कारप्रकाशकं रेरे रुद्रदत्तेत्यादि वक्ति, ६६ तथा धरणकं रोधनमपकारिणामधमर्णादीनां च ६७ तथा रणं संग्रामकरणं ६८ तथा विवरणं बालानां केशानां विजटीकरणं, ६९ तथा पर्यस्तिकाकरणं, ७० तथा पादुका काष्ठादिमयं चरणरक्षणोपकरणं ७१ तथा पादयोः प्रसारणं स्वैरं निराकुलतायां, ७२ तथा पुटपुटिकादापनं, ७३ तथा पंकं कर्दमं करोति, निजदेहावयवप्रक्षालनादिना, ७४ तथा रजो धुलिःतां तत्र पादविलग्नां ताडयति ७५ तथा मैथुनं मैथुनस्य कर्म, ७६ तथा यूकामस्तकादिभ्यः क्षिपति वीक्षयति वा ७७ तथा जेमनं भोजनं, ७८ तथा गुह्यं लिंग तस्सा संघृत्तस्य करणं, ७९ जुझमिति तु पाठे युद्धं दृग्युद्धबाहुयुद्धादि, तथा विझत्ति, वैद्यकं, ८० तथा वाणिज्यं क्रयविक्रयत्वलक्षणं, ८१ तथा शय्यां कृत्वा तत्र स्वपिति, ८२ तथा जलं तत् स्नानाद्यर्थ तत्र मुंचति पिबति वा, ८३ तथा मज्जनं स्नानं तत्र करोति, ८४ एवमा. दिकमवा सदोषं कार्य उत्सुकः प्रांजलचेता उद्यतो वर्जयेत् जिनेंद्रालये जिनमंदिरे ॥ एवमादिकमित्यनेनेदमाह ॥ न केवलं एतावत्य एवाशातनाः, किंत्वन्यदपि यदनुचितं हसनवल्गनादिकं जिनालये तदप्याशातनास्वरूपं ज्ञेयं ॥ नन्वेवं, तंबोलपाण इत्यादि, गाथया मेव आशातनादशकस्य प्रतिपादितत्वात् , शेषाशातनानां च एतत् दशकोपलक्षितत्वेनैव ज्ञास्यमानत्वात्, अयुक्तं इदं द्वारांतरम् , इति चेन्न, सामान्याभिधानेऽपि बाला दिबोधनार्थ विमिन्नं विशेषामिधानं क्रियत एव, यथा ब्राह्मणाः समागताः वशिष्ठोऽपि समागतः For Private And Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इति न्यायात् सर्वमनवा, ॥ नन्वेता आशातना जिनालये क्रिय माणा गृहिणां कंचनदोषमावहंति, उत एवं एवं न करणीयाः, तत्र ब्रूमः समाधानम्, न केवलं गृहिणां सर्वसावधकरणोधतानाभवभ्रमणादिकदोषमावहंति, किंतु निरवद्याचाररतानां मुनीना मपि दोषमावहंति, इत्याह, ॥ आसायणाउ भवभमण कारणाइइ विभाविउं, जइणो मलिणत्ति न जिण मंदिरंमि, निवसंति इइ समए ॥ ४२ ॥ ५॥ एता आशातनाः परिस्फुरत् विविधदुःखपरंपराप्रभवभवभ्रमणकारणमिति विभाव्य परिभाव्य यतयोऽस्ना नकारित्वेन मलमलिनदेहत्वात् , न जिनमंदिरे निवसंति, इति समयः सिद्धांतः, आह च व्यवहारभाष्यकारोपि ॥ दुब्भिगंधमलस्सावि, तणुरप्पेसण्हाणिया ॥ दुहावायवहावाइ, तेणचिहति न चेहए ॥ ४३ ॥ ६ ॥ व्याख्या एषा तनुः नापितापि दुरभिगंधमलप्रस्वेद स्राविणी, तथाद्विधा वायुपथः उर्द्धाधोवायुनिर्गमश्च, यद्वा द्विधा मुखेन अपानेन च वायुवहो वापि वातवहनं च तेन कारणेन न तिष्ठति यतयश्चैत्ये जिनमंदिरे, ॥ यद्येवं व्रतिभिश्चैत्येषु, आशातनाभीरुभिः कदाचिदपि न गंतव्यं, तत्राह सेनूणं भंते संजयाणं विरया विरयाणं जिणहरे गच्छेजा, गोयमा, दिनेदिने गछेजा, जइप्पमायं पड्डुच्च नगच्छेजा, तो छई वा दुवालसं वा पायच्छित्तं लभेजा ॥ इति महाकल्पे ॥ अथ जिनचैत्ये मुनीनामवस्थितिप्रमाणं विभणिषुराह ॥ तिनि वा कट्ठइ जाव, थुइओ तिसलोइया । तावच्च अणुनायं, कारणेण परेणओ ॥ ४४ ॥७॥ व्याख्या तिस्रः स्तुतयः कायोत्सगोनंतरं या दीयंते ता यावत्कर्षति भणति इत्यर्थः, का द्विधा मुखेन, तथाद्विधा यातनुः नापितापणचिहति न For Private And Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किविशिष्टाः, तबाह, त्रिश्लोकिकास्त्रयः श्लोकाः छंदोविशेषरूपा अधिका न यासु ताः, तथा सिद्धाणं बुद्धाणं, इत्येकः श्लोकः, जो देवाणवि, इति द्वितीयः, एको वि नमुक्कारो, इति तृतीयः, अग्रेतनगाथाद्वयं, स्तुतिश्चतुर्थी गीतार्थाचरणेनैव क्रियते, गीतार्थाचरणं तु मूलगणधरभणितमिव सर्व विधेयमेव सर्वैरपि मुमुक्षुभिरिति, तावकालमेव तत्र जिनमंदिरेऽनुज्ञातमवस्थानं यतीनां, कारणेन पुनधर्मश्रवणाद्यर्थमुपस्थितभविकजनोपकारादिना परतोऽपि चैत्यवंदनाया अग्रतोऽपि यतीनामवस्थानमनुज्ञातं, शेषकाले तु साधूनां जिनाशातनादिभयात् नानुज्ञातमवस्थानं तीर्थकरगणधारिभिः, ततो व्रतिभिरप्येवमाशातनाः परिहीयंते, गृहस्थैस्तु सुतरां परिहरणीया । इति, इयं च तीर्थकृतामाज्ञा, आज्ञाभंगश्च महतेनर्थाय संपद्यते, यदाहुः, 'आणाइचिय चरणं, आणाइतको आणाइसंजमो, तहदाणमाणाई, आणारहियो धम्मो पलासपुलुवनायद्यो' ॥१॥ और भाषाके स्थानमें प्राचीन सुकविकृत ८४ आशातना खरूपप्रतिपादकभाषापद्यबंधस्तवनहि रखनेमें आता है । अथ ८४ आशातनास्तवन ॥ विलसेरिद्धिनी देशी ॥ जय जय जिणपास जगत्र धणी, सो भाताहरी संसार सुणी, आयो हुँ पिणधर आसधणी, करिवा सेवा तुम चरण तणी ॥ १ ॥ धन धन जे न पडे जंजाले, उपयोग सुं पैसे जिन आले, आशातना चउरासी टाले, सावता सुखतेहि ज संभाले ॥२॥ जे नाखे श्लेखम जिनहरमे, कलह करे गाली जयरमे, धनूषादि कला सीखण दूके, कुरलो तंबोल भखे थूके ११ दत्तसूरि० For Private And Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥३॥ सुरे वायवडी लघुनीत तणी, संज्ञा कुंगुलिया दोषसुणी, नख केस समारण रुधिर क्रिया, चांदीनी नांखे चांबडिया ॥४॥ दांतणनें वमन पीये कावो, खावे धांणी फुली खावो, सुवे वेसामण विसरावे, अज गज पशुनें दामण दावे ॥५॥ सिरनासा कान दसन आखे, नख गालवपुषना मल नांखे, मिलणो लेखो करे मंत्रणो, विहचण अपणो करि धन धरणो, ॥ ६॥ वेसे पग ऊपरि पग चढियां, थापे छाणा छडे ढूंढणीयां, सूकवे कप्पड वप्पड वडियां, नासीय छिये नृप भय पडियां ॥७॥ शोके रोवे विकथाज कहे, इहां संख्या बेंतालीस लहै, हथियार घडेनें पशुबांधे, तापे नाणों परखे रांधे ॥८॥ भांजी निसही जिनगृह पैसे, धरे छत्रनें मंडपमें बेसे, पहिरे वस्त्र अनें पनही, चामर वीझै मनठाम नहीं ॥९॥ तनु तेल सचित्त फल फूल लीये, भूषण तजि आप कुरूप थीये, दरसणथी सिर अंजली न धरे, इग साडे उत्तरा संग न करे ॥ १० ॥ छोगो सिरपेच मोड जोडे, दडिये रमनें बैसे होडै, सयणां सुं जुहार करे मुजरो, करे भंड चेष्टा कहे वचन बुरो ॥११॥ धरे धरणो झगडे उल्लंठी, सिर गुंथे बांधे पालंटि, पसारे पग पहरे चाखडियां, पगझटक दिरावे दुरवडीयां ॥ १२ ॥ करदमलहे मैथुनमंडे, जूआं बलि अठतिहां छंडे, उघाडे गुझ्यकरे वायदा, काढे व्यापार तणाकायदां ॥ १३ ॥ जिनहर परनालनो नीरधरे, अंघोले पीवाठाम भरे, दूषण जिन भवनमें एदाख्या, देववंदन भाष्यमें जे भाष्या ॥ १४ ॥ सुज्ञानी श्रावक सगति छतां, आसातन टाले वारसतां, परमाद वसे कोई थाये, आलोयां For Private And Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६३ पाप सहू जाये ॥ १५ ॥ तंबोलनें भोजन पान जूआ, मल मूत्र सयन स्त्रीभोग हुआ, भूषण पनही ए जघन्यदसे, वरज्या जिन मंदिरमां हि वसे ॥ १६ ॥ द्रव्यतनें भावतदोय पूजा, एहनाहिज भेद का दूजा, सेवा प्रभुनी मन सुद्ध करे, वंछित सुखलीलाते हवरे || १७ || कलश ॥ इम भव्यप्राणी भावआणी विवेकी शुभवातना, जिनबिंबअरचे परिवरजे चोरासी आसातना, ते गोत्रतीर्थंकर उपार्जेनमें जेहनें केवली, उवज्झाय श्री धर्मसींह वंदे जैन शासन ते बली ॥ १८ ॥ इति श्री चौरासी आसातना स्तवनं संपूर्णम् इण आशातनाओंका अछीतरे विचार करणेसें, उस पुण्यात्मा के मनमे, यह भावना उत्पन्न हूइ, के जो यह आशातनाकों किसी प्रकार टाली जावे, तब हि संसारवनसें निस्तारा होवे, अन्यथा अगाध इस संसारसमुद्रके बीचमे पडे हुवे मेरेकुं अनंतिवार जन्म जरा मरण दरिद्र दौरभाग्य रोग शोकादि संतापका भाजनहि होना होगा, और अपणे दोषसें इस अपणे आत्माकुं अनन्त भव भ्रमण और दुर्गतिका भागी अपणे आपहि करणा होगा, और यह कहा है कि आसायण मिछत्तं, आसायणवज्जणाय सम्मत्तं, आसायण निमित्तं, कुछ दीहंच संसारं १ आसातनास मिध्यात्व होता है आशातना वर्जनैसै सम्यक्त होता है आशातनासे भव भ्रमण होता है जो मेरा शुभ अध्यवसाय है इसलिये वर्द्धमाननामा मुनिनें अपणे गुरुकुं निवेदन किया बाद उस चैत्यवासी जिनचंद्र नामक गुरुनें अपणे मनमे विचारा कि अहो इसका यह आशय है सो अछा नहिं है इसवास्ते इसकुं आचार्यपद मे बैठायके मंदिर For Private And Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६४ आराम वगेरे प्रतिबंध करके वशमे करूं तो मेरे कल्याण है एसा विचारके उस गुरुने वैसाहि किया तथापि उस पुण्यात्माका चैत्यवासस्थितिमे मन नहिं लगा, यह संगत है और कहा है किदुर्गंध और कादेवाला मरेहुवे कालेवरों करके सहित सेंकडो बगलों की पंक्तिसहित और बगलोंका कुंटुंब करके सहित उत्तम जातिवाले पक्षियोंके आगमनसें रहित एसे कुत्सित सरोवरमें क्या हंस पगमात्र रख सक्ता हैं अर्थात् नहिं रख सक्ता है, इसलिये उस पुण्यवान् जीव• चैत्यवाससे विमुख जाणकर वर्द्धमान मुनिळू सर्व अपणा अधिकार देकर इसतरे बोला कि हे वत्स यह सर्व देवमंदिर मठ आरामवाडी वगेरे तेरे आधीन है तुं अपनी इच्छा करके विलस तेरे सर्वोत्कृष्ट माननीय है सो हमकू छोडणा नहीं इत्यादिक अनेक कोमल वचन कहेने पूर्वक नीवारण करणेसे किया है वांछितार्थका दृढनिश्चय मनमें जिसने एसा वह वर्द्धमान मुनिः कमल जलकादेसे अलग रहेता है इस न्यायकरके जैसे तैसें कोई पण सुविहित गुरुकू अंगीकार करके मेरेकुं अपणा हित करणा है एसा दृढसंकल्प करके अपणा आचार्यकी आज्ञा लेकर कितनेक यतियोंसें परवरा हुवा दिल्ली वादलीप्रमुख स्थानोंमे आया तिस समे श्री उद्योतनसूरिजी नामके सुविहित आचार्य महाराज याने उनके पुण्यसे प्रेरित होकर आवे उसमाफक प्रथमहि विहारक्रमसें आये हुवे थे, तिसके अनंतर शुद्ध मार्गके तत्त्वका आकर श्री उद्योतन सूरिजी महाराजके चरणकमलोंमे श्रीवर्द्धमान सूरिजीने श्रेष्ठ निर्णयपूर्वक स्वपरहित बढानेवाली उपसंपत् विधिपूर्वक अंगीकार For Private And Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६५ करी तब श्रीगुरुमहाराज योग उपधान बहायके सर्वसिद्धांत पढाए, अनुक्रमसें योग्य जाणके आचार्यपद दीया तिसके अनंतर श्रीवर्धमानसूरिजीको यह विचारणा उत्पन्न हुई जो यह सूरिमंत्र हैं इसका अधिष्ठायक कोन है यह जाननेवास्ते तीन उपवास कीये उतने तीसरे उपवासमें धरणेंद्र आया उस धरणेंद्रने कहाकि इस सूरिमंत्रका अधिष्ठायक में हूं सर्व मूरिमंत्रके पदोंका अलगअलग फल कहा तिसके वाद विशेष प्रभावसहित वह मूरिमंत्र फुरणे लगा अर्थात् अपना प्रभाव विशेषकर देखानेवाला हूवा शुद्ध होनेसें ॥ तिस सरिमंत्रके सरणसे विशेष तेजप्रताप परिवारसहित श्रीवर्द्धमानसूरिजी हूवे वाद गच्छलाभादि जाणके उत्तराखंडके विषे विहार करनेंको आज्ञा दीवी, तब श्रीवर्द्धमानसूरि श्रीउद्योतनसूरिजीकी आज्ञा पायके उत्तराखंडमें विहार करने लगे, और श्रीउद्योतनसू रिजीमहाराज ८३ तयांसी साधुवोंका शिष्यादिकके साथ विहार करता थका मालवदेशका संघके साथ श्रीसिद्धगिरितीर्थकी यात्रा करनेको आये ॥ सिद्धाचल ऊपर श्रीऋषभादि सर्व चैत्यगत बिंबोंको वंदन करके पिछाडी पाजसें उतरके सिद्धवड नीचे रात्रिको रहे, तब उहां आधी रात्रिके समय गाडेका आकार ऐसा रोहिणी नक्षत्रमें बृहस्पतिका प्रवेश देखके गुरुमहाराज कहनें लगे, कि यह समय ऐसा उत्तम है जिसके मस्तकपर हाथ रखकै सो बडा प्रतापीकहोवै, तब ८३ तयांशी शिष्य बोले कि हमारे मस्तकपर वास चूर्ण करो, हम सब आपसें पढे हैं, इससे आपकेहीशिष्य हैं तब आचार्यजीनें कहा कि वासचूर्ण लावो, तब शिष्य उतावलसें For Private And Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६६ सूके छाणेका चूर्ण करके गुरुमहाराजको दिया, तब गुरुमहाराजने तिस चूर्णको मंत्र तयांशी ८३ शिष्योंके मस्तकपर करके आचार्यपद दिया, और अपना अल्प आऊखा जाणके उसी सिद्धवड नीचे अणसण करके देवलोक गये, और तयांसी ८३शिष्य आचार्यपदकों पायके जूदे जूदे देशोंमें साधुवोंके साथ विचरने लगे, इसीतरे १ निजशिष्य, और तयांसी ओर साधुवोंका शिष्य आचार्यपदको प्राप्त हूवा इससे इहांसें चौरासीगच्छ प्रसिद्ध हूवा उणोंका नाम मात्र इहांपर लिखतें है यह ८४ चौरासी आचार्य बडे प्रतापीक हवे ॥ ३८॥ अथ ८४ गच्छ नामानिलि०१प्रथमबृहत्खरतर गच्छ २ ओसवाल गच्छ श्रीरत्नप्रभसूरि ३ जीरावल गच्छ ४ वडगच्छ ५ गंगेसरा गच्छ ६ झंझेरंडि गच्छ ७ आनपूरा गच्छ ८ भरुखचा गच्छ ९ उढविया गच्छ १० गुदाउवा गच्छ ११ डेकाउवा गच्छ १२ भीममाली गच्छ १३ मुहडासिया गच्छ १४ दासरूवा गच्छ १५ पाल गच्छ १६ घोषवाला गच्छ १७ मगओडा गच्छ १८ ब्रह्माणिया गच्छ १९ जालोरा गच्छ २० वोकडिया गच्छ २१ मूझाहडा गच्छ २२ चीतोडा गच्छ २३ साचोरा गच्छ २४ कुवडिया गच्छ २५ सिद्धांतिया गच्छ २६ मसेणिया गच्छ २७ नागेंद्र गच्छ २८ मलधारी गच्छ २९ भावराजिया गच्छ ३० पल्लिवाल गच्छ ३१ कोरडवाल गच्छ ३२ मागदिक गच्छ ३३ धर्मघोष गच्छ ३४ नागोरी गच्छ ३५ उच्छितवाल गच्छ ३६ नाणावाल गच्छ ३७ संडेरवाल गच्छ ३८ मंडारा गच्छ ३९ For Private And Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६७ सूराणा गच्छ ४० खंभातिया गच्छ ४१ वडोदिया गच्छ ४२ सोपारिया गच्छ ४३ मांडलिया गच्छ ४४ कोछीपूरा गच्छ ४५ जांगलीया गच्छ ४६ छापरवाल गच्छ ४७ वोरसडा गच्छ ४८ दोवंदणीक गच्छ ४९ चित्रवाल गच्छ ५० वाइड गच्छ ५१ वेगडा गच्छ ५२ विजुट्ठरा गच्छ ५३ कुतवपुरा गच्छ ५४ काबेलीया गच्छ ५५ रुदेलीया गच्छ ५६ महकरा गच्छ ५७ कन्हरसीया गच्छ ५८ पुनतल गच्छ ५९ रेवइया गच्छ ६० धुंधुवा गच्छ ६१ थंभणा गच्छ ६२ पंचवन्हही गच्छ ६३ पालणपुर गच्छ ६४ गंधार गच्छ ६५ गुवेलीया गच्छ ६६ श्रीराजगच्छ ६७ नगरकोरीया गच्छ ६८ सिंहसारीया गच्छ ६९ भटनेरा गच्छ ७० जीनहरा गच्छ ७१ भीमसेनीया गच्छ ७२ जगाईन गच्छ ७३ तागडीया गच्छ ७४ कंवोना गच्छ ७५ संसेवित गच्छ ७६ वाघेरा गच्छ ७७ वहेडा गच्छ ७८ सीधपुरा गच्छ ७९ घोघरा गच्छ ८० नेमीया गच्छ ८१ सजनीया गच्छ ८२ वरडेवाल गच्छ ८३ मुरडवाडा गच्छ ८४ नामोला गच्छ ॥३९॥ श्रीउद्योतनसूरिजीके पट्ट पर, श्रीवर्द्धमानसूरिः हूवे, यह आचार्यपदकों प्राप्त होके, ६ महिनातक आंबिलकी तपस्या करी तब श्रीनागराज धरणेंद्र हाजरहूवा वंदन नमस्कार करके कहेनें लगा, कि मेरेलायक कार्य होयसो कहो, तब महाराजनें श्रीसीमंधरस्वामिकेपास भेजके मूरिमंत्र सुद्धकरवाया, ॥ उक्तंचैतदर्थसंवादी श्री आधुप्रबंधे । इसी अर्थ कुं कहनेवाला श्रीआबुप्रबंध है, सो इसतरेहै' अब किसी एक दिनके अवसरमें श्रीवर्धमानसरिजी आचार्य, वनवासीगच्छके श्रीउद्योतनसरिजी महाराजके पद For Private And Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६८ प्रभाकर गामानुगाम अप्रतिबंध विहार करके विचरते हुवे श्रीआबुगिरि शिखर की तलहटीमे, कासद्हनामकगाममें आये, तिसके अनंतर श्रीविमलदंडनायकपोरवाडवंशकामंडन देशभागकुं अवगाहन करता हूवा याने साधता हूवा वो मि वहांपर आया, आबुगिरि शिखर पर चढा, सर्व दिशाओंमे पर्वतकुं मनोहर शोभासहित देखके बहुत खुशी हूवा, मनने विचारणे लगा कि, इहांपर देरासर करावें, उतने अचलेश्वर गुफावासी योगी जंगम तापस संन्यासी ब्राह्मण प्रमुख मिलके विमलसाहदंडनायक के पासमे आय के इसतरे कहने लगे, हे विमलमंत्रिन् तुमारा इहांपर तीर्थ नहिं है यह हमारा कुलपरंपराकरके तीर्थ वर्तेहैं, इसवास्ते इहांपर तुमकुं हम जिनप्रासाद करणे देवें नहिं तब विमलसाह मंत्री पूर्वोक्त वचन सुणके उदासीन हवा, आबुगिरिशिखरकी तलहटीमें कासद्रहगाममें आया, जिसगाममें सर्वसंपदादायकश्रीवर्द्धमान सरिजी समवसरे है, उसी गाममें श्रीगुरुमहाराजकुं विधिपूर्वक वंदना नमस्कार करके इसतरेसे विनयसहित वीनती करी, हेभगवन् इस पर्वतपर हमारा तीर्थ जिन प्रतिमारूप वर्ते है अथवा नहिं, तब श्रीगुरुमहाराजनें कहा हे वत्स देवता आराधन करणेसै सर्व जानने में आवे, अन्यथा छमस्थकेसें जाणे, तब विमलसाह मंत्रीने प्रार्थना करी, किंबहुना सुज्ञेषु, तब श्रीवर्द्धमान सूरिजीने छमासी तप करा तब श्रीधरणेंद्र नागराज आया, श्रीगुरुमहाराजनें कहा हे धरणेंद्र मूरिमंत्रकी अधिष्ठायक ६४ देवियां है, उणोंके अंदरसें एक For Private And Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६९ देवताभी नहिं आई, और उणदेवताओंने कुछभि नहिं कहा उसका क्या कारण है तब धरणेंद्र नागराजने कहा हे भगवन् तुमारे सूरिमंत्रका एक अक्षर कम है याने गिरता है तिस अशुद्धता के कार सें देवता नहिं आवे में आपके तपके बलसे आया हूं, तब श्रीगुरुमहाराजने कहा हे महाभाग पहिले सूरिमंत्र शुद्धकर पीछे दूसरा कार्य करूंगा ऐसा सुनकर धरणेंद्रनें कहा हे भगवन् सूरिमंत्रके अक्षरकी अशुद्धिकी शुद्धि करणेकुं तीर्थंकरविना किसीकीमि शक्ति नहिं है, तत्र सूरिजीनें सूरिमंत्रका गोला यानें डब्बा दिया तब धरणेंद्रनें महाविदेहक्षेत्र मे श्रीसीमंधरस्वामिकुं वह गोला दिया श्रीसीमंधरस्वामिनें तिस सूरिमंत्रकुं शुद्धकरके धरणेंद्रकुं दिया तब वह सूरिमंत्रका गोला श्रीवर्द्धमानसूरिजी कुं पीछा धरणेंद्रनें दिया, तब तीनवार तिस सूरिमंत्रका स्मरण करणे करके सर्व अधिष्ठायक देव प्रत्यक्ष हवे तब श्रीगुरुमहाराजने पूछा कि हमकुं विमलदंडनायक पूछे है, आबुगिरि शिखर पर जिनप्रतिमारूप तीर्थ है अथवा नहिं तब अधिष्ठायक देवोंने कहा आदेवीके पास डावे तरफ श्री अर्बुदआदिनाथ स्वामीकी प्रतिमा हैं और जहां अखंड अक्षतका स्वस्तिक उसपर चारलडी पुष्पोंकी माला देखणे मे आवे वहाँपर खोदणा एसा देवताका वचन सुके श्रीगुरुमहाराजने विमलश्रावकके आगे सर्व हाल कहा तिस विमलसाहनें उसी प्रमाणे कीया प्रतिमा निकली तब विमल - श्रावक सर्व पापंडियोंकुं बुलाये देखी जिनप्रतिमा कालामुख हूवा तब विमलसानें देरासर कराणा शरु किया, पाखंडियोंने विमल For Private And Personal Use Only - Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७० साहकुं कहा कि यह जमीन हमारी है इसलिये हमारी भूमिकी किमत हमकुं देवो तब विमलसाहनें भूमिपर मोहोंरां विछायके जमीन लिवी प्रासाद कराया यानें देरासर कराया श्रीवर्द्धमान सूरिजी तिस प्रतिमा देरासरकी प्रतिष्ठा करी वादसांतिस्नात्र पूजा वगैरे सर्व धर्मकार्य किया उसके बाद अनागतमें धीरे धीरे सर्व मिथ्यात्वी लोक उस विमलसाह मंत्री के आधीन हूवे तब विमलसाहने ५२ देहरीसहित सोनेका कलस धजासहित तिस देरासरकुं सोभित कीया तिस देरासर में अढारे कोड तेमन लाख प्रमाणे धन लगा वह देरासर अखंडपणे अवीभि विद्यमान है सो सर्व लोक देखतें है और दर्शन तथा पूजन करते हैं यह श्रीवर्द्धमान सूरिजीका उपगार है || और यह श्रीवर्द्धमानसूरिजी श्रीमदुद्योतनसूरिजी के प्रथम सुशिष्य थे और श्रीजिनेश्वरसूरिजी श्री बुद्धिसागरसूरिजी के यह गुरुमहाराज होते थे और विमलसाहमंत्रीका विशेष अधिकारचरित्र तथा राससें जाणना यह प्रसंगसें संबंध कहा पीछे उहांसें विहार करके सरसापत्तनपधारे, तिस अवसरमें सोमनामा एक ब्राह्मणके शिवदाश बुद्धिदाश, नाम दोय पुत्रथे, और सरखतीनाम एक पुत्री थी, यह तीनों सोमेश्वर महादेवका बहुत ध्यान किया इससे सोमेश्वर महादेवका अधिष्ठाता आयके हाजर हुवा, कहा वर मांगो तब तीनों बोले हमकुं वैकुंठ देवो, तब देव कहनें लगा कि अभी मुझकों वैकुंठ नहिं मिला है तो तुमकों कहांसे देवं, परंतु जो तुमकों वैकुंठकी इच्छा होय तो इहांपर श्रीवर्द्धमानसू, रिजीमहाराज For Private And Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७१ आये हैं उणोंके पास जावो, तुमकों बैकुंठ जाणेंका मार्ग बतावेगा, एसा कहकर देवता अदृश्य होगया, तब तीनोंजणों स्नानकर के उपासरे आके श्रीगुरुमहाराजसें वैकुंठका मार्ग पूछा, तब उस खत एक भाईके मस्तकपर चोटि छोटि मछली खान करते रहगइथी सो देखायके विनय दयामूल जिनधर्मका उपदेश दिया, तब तिनोंजणें प्रतिबोध पायके दीक्षा लीवी तब श्रीगुरुमहाराज योगादिक बहायके सर्व सिद्धांत पढायके शिवदाशका श्रीजिनेश्वरसूरि बुद्धिदाशका बुद्धिसागर ऐसा नाम करा, एकदा श्री जिनेश्वरसूरिजीनें कहा कि हे स्वामिन जो आपकी आज्ञा होय तो गुजरातदेशमें जावें, उहां जाणेंसें बहुत लाभ होगा तब श्रीवर्द्धमानसूरिजी बोले कि गुजरातमें अभी हीनाचारी चैत्यवासीयोंका बहोत प्रचार वध गया है इससे वे लोक अनेक प्रकारसें उपद्रव करेंगें, तब श्रीजिनेश्वरसूरिजी बोले कि जूंबांके भयसें क्या वस्त्र डाल देना उचित है इससे आप प्रसन्न चित्रों आज्ञा देवो, तब गुरुमहाराज श्रीबुद्धिसागरजीकों आचार्यपद देके गुर्जरदेशमें विहार करने की आज्ञा दिनी तब श्रीजिनेश्वरसूरिजी श्रीबुद्धिसागरसूरिजी दोनों गुजरातदेशमें विचरणें लगे और कल्याणवती साधवीकों महत्तरापद देकर साधवीयोंके साथ विहार करने की आज्ञादी || अब कोई एक दिन के अवसर में श्रीमान् पंडितजिनेश्वरसूरिजी स्वपरसिद्धांतपारंगामी होके गुर्जरदेश और अणहिलपाटणसहेर में विशेष लाभादिकजाणके विनयपूर्वक श्रीगुरुमहाराजसें इस प्रकारसे बोले कि हे भगवन् For Private And Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७२ जो कोइ वि दूसरे देशमें जायके सत्यमार्गका प्रकाश नहिं करें तो जाणे हुवे जैनधर्मका क्या विशेष फल है ? और सुणतें हैं कि बहुतवडागुजरातदेश है परंतु वह देश चैत्यवासी आचार्यों करके भराहूवाहै इसवास्ते जो वहां पर जाणाहोवेतो बहुतकल्याणकारी है तिसके बाद श्रीवर्द्धमानमरिजीने कहा कि यह तुमाराकहणा बहुत अच्छा है परंतु अच्छा शकुन निमित्त वगेरे देखके कार्य करणा अच्छा है वादशुभशकुन निमित्तादिक देखा और अच्छाशकुन निमित्त वगेरे हूवा उसके बाद भामहसार्थवाहके बृहत सथवाडे साथ श्रीवर्द्धमानमरिजी महराज श्रीजिनेश्वरसूरिजी श्रीबु. द्धिसागरसूरिजी आदि १८ साधुवोंके सहित गुजरातदेश अणहिलपुर प्रति चले अनुक्रमकरके एकपल्ली में आये वहां स्थंडिलगये हुवे पंडित श्रीजिनेश्वरमरिजीसहित श्रीवर्द्धमानसूरिजी कुं सोमध्वजनामका जटाधारी मिला उसके साथ ज्ञानगोष्टि हुइ उसके बाद सर्वोत्कृष्टगुण देखके श्रीआचार्य महाराजनें प्रश्नोत्तर कहे यथा का दौर्गत्यविनाशिनी हरिविरिंच्युग्रप्रवाची च को, वर्णः को व्यपनीयते च पथिकैरत्यादरेण श्रमः, चंद्रः पृच्छति मंदिरेषु मरुतां शोभाविधायी च को, दाक्षिण्येन नयेन विश्वविदितः को भूरि विभ्राजते ॥१॥ व्याख्या-दरिद्राताका नाश करनेवाली कौण है, विष्णु और ब्रह्माका उत्कृष्ट प्रकारसें कहेणेवाला कोण अक्षर है, मुसाफर घणे आदर पूर्वक कोणसा परिश्रम दूर करते हैं, सोमध्वज नामक ब्रह्मचारी पूछे है कि देवताओंके मंदिरां पर शोभा करनेवाली कौण है, For Private And Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७३ दाक्षिण्यता और नीति करके जगतमें प्रसिद्ध एसा कोण पुरुष बहुत शोभता है, ॥१॥ इहां पर यह उत्तर है, १ सा-लक्ष्मी २ ओम् ३ अध्वज ४ ध्वज ५ सोमध्वज-चंद्रप्रभु १ महादेव २ जटाधर ३ यह ३ नाम निकलते है सा १ ओम् २ अध्वज ३ ध्वज ४ सोमध्वज ५ इन ५ उत्तरके अंदरसैं ७ नाम निकलतें हैं सो क्रमसें जाणलेना ।। इस प्रकारसे अपणे नामका प्रश्नोत्तर सुणके यह सोमध्वज ब्रह्मचारी बहुत खुशी हुवा और इसका श्वेताम्बर दर्शन उपर बहुमान हूवा और प्रासुक अन्नदान वि दीया और वो ब्राह्मण लोकोंके सन्मुख आचार्यश्रीकी गुणकी स्तुति वगेरे कहणे पूर्वक भक्तिसतकार करणे लगा उसके बाद उसी भामह साह सार्थ वाहके सथवाडेके साथ चले और क्रमसे अणहिलपत्तनमे पोहोचे और चारतरफकोटवाली मांडवीमें उतरें परंतु तिस मांडवीमें मकान है नहिं केवल मांडवीके अंदर चोतरेपर उतरे इस नगरमे सुविहित साधुका भक्त कोईभी श्रावक नहिं है जिसकेपास मकान वगेरेकी याचना करे जितने वहां रहे हूवे मुनियोंके सूर्यका ताप नजीकमे आया तब पंडित जिनेश्वरसूरिजीने इसतरे कहा हे भगवन् ऐसे बेठनेसे कोइ वि काम होगा नहिं इसवास्ते कुछ उद्यम किया जावे तो अच्छा है तब श्रीवर्द्धमानसूरिजी गुरुमहाराज बोले हे सुशिष्य तुम कहो क्या करें पंडित श्रीजिनेश्वरमरिजीने कहा कि जो आपश्री आज्ञाकरोतो यह सामने उंचा घर है इसमे जावं तब श्रीवर्द्धमानसूरिजीनें कहा जावो वाद सद्गुरुके चरणकमलोंमे वंदना नमस्कार करके उस उंचे धवले घरमें गये वो मकान श्रीदु For Private And Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७४ राजासंबंधि प्रोहितका था तिसके अंदर पधारे तिस अवस रमें पुरोहित अपणे घरके अंदर बेठा था और अपणे सरीरमें तैलका मर्दन करताथा उतने पण्डित श्रीजिनेश्वरसूरिजीनें उस पुरोहितके आगे बैठके आशीर्वाद कहा यथा सर्गस्थितिक्षयकृतो, विशेषवृष संस्थिताः । श्रिये वः संतु विप्रेंद्र ब्रह्मश्रीधर संकराः ॥ १ ॥ व्याख्या - रचना करणा स्थिर रखना विनाशकरना येहि हंसशेषनागवृषभपर रहे वे ब्रह्मा विष्णु महादेव हे श्रेष्ठवित्र तुमारे कल्याण ओर लक्ष्मी के लिये होवो || १ | यह आशीर्वाद सुणके मनमें बहुत खुशी हो वह राजाका पुरोहित विचारणे लगा कि यह कोइ चतुर साधु है, इस अवसर में मंदिरके अंदर ऐकांतमें रहि हुइ वैदिकशाला में ॐ ऋषभं पवित्रं पुरुहूत मध्वरं यज्ञं महेशं इत्यादि वेदपदका परावर्तन दूसरि तरेसें करते हुवे छोकरोंके मुखसें सुके पण्डित श्रीजिनेश्वरसूरिजीने कहा इसतरे वेदपदोंका उच्चारण नहिं करणा पुरोहितनें कहा तो किसतरे उच्चारण करणा चाहिये मुनिनें कहा इस प्रकारसें उच्चारण करणा उचित है ॐ ऋषभं पवित्र पुरुहूत मध्वरं यज्ञं महेशं इत्यादिसंपूर्ण कहा तब यह सुणके आश्चर्यसहित मनवाला वो राजाका पुरोहित कोमलवाणीसें पूछनें लगा कि कोइभि मनुष्य भणेसिवाय वेदपाठकों शुद्ध अथवा अशुद्ध जाण सके नहिं तो वेद भणनें के अनधिकारी एसे आप शूद्र जातिवालोंको इस वेदपाठका घोखणा अशुद्ध है एसा कैसे जाणा तब पण्डित श्रीजिनेश्वरसूरिजी बोले के हे महाभाग्यशेखर For Private And Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७५ हे श्रेष्ठपुरोहित जिसीतरे तुम कहेतेहो उसीतरे शूद्र जातिकों वेदपाठका अधिकार नहिं है परंतु हम शूद्र नहिं है किंतु ४ वेदोंके अध्ययन करणेवाले ब्राह्मण हैं और ब्राह्मणका लक्षण यह है || तपसा तापसो ज्ञेयः, ब्रह्मचर्येण ब्राह्मणः । पापं परिहरंचैव, परिव्राजोऽभिधीयते ॥ १ ॥ व्याख्या - तप करके तापस होवे, ब्रह्मचर्य करके ब्राह्मण होवे, पापका परिहार करता हूवा परिव्राजक कहा जावे ॥ १ ॥ इसतरे पूर्वऋषियोंका कहा हवा ब्रह्मचर्य पालनेके लक्षणसें और अर्थसें हम ब्राह्मणही हैं तब आनंदसहित पुरोहित बोला कि हे यतियो आपलोक कौणसे देशसें इहांपर आयें हैं तब पfuse श्रीजिनेश्वरसूरिजीने कहा हे पुरोहित ? नगरीयोंमे तिलकसमान दिल्लीनामकी नगरीसें हम आयें हैं तत्र पुरोहितनें कहा चक्रादि लक्षणसहित आप श्रीके जैसे मुनिराजरूपी हंसोंके चरण न्यास करके इस नगर में कौनसा वो धन्यवादयुक्त पृथ्वीतल है जो कि आपश्रीनें अलंकृत किया है अर्थात् आपश्री इहां कौनसे स्थानमें उतरे हैं पंडित श्रीजिनेश्वरसूरिजीनें कहा विशाल आतपवाली शालामें हम उतरें हैं पुरोहित बोला कि ऐसी शालामें कैसे उतरे हो पंडित श्रीजिनेश्वरसूरिजीनें कहा पुरोहित मिश्र १ दूसरे सर्वस्थान विरोधियों करके रोकणेसें, पुरोहित बीला शांत प्रकृतिवाले ओर किसीकाभि अपराध नहिं करणे - बाले ऐसे आपश्रीभि कोइ शत्रु हैं, पंडित श्रीजिनेश्वरसूरिजीने कहा हे विप्रवर्य ? For Private And Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७६ - मुनेरपि वनस्थस्य, खानि कर्माणि कुर्वतः। उत्पद्यन्ते त्रयः पक्षाः, मित्रोदासीनशत्रवः ॥१॥ व्याख्या-चनमें रहे हुवे और अपणे धर्मकार्य करनेवाले ऐसे मुनियोंकेभी मित्र उदासीन शत्रु यह तीन पक्ष उत्पन्न होते है ॥१॥ पुरोहित कहने लगा यह घणी खेदकी बात है जो कि चंदन सदृश सीतल ऐसे आप जैसौकाभि पापीलोकों अहित करते है इस प्रमाणे पुरोहित थोडी वखत सोचके और कहने लगा कि, वह कौनसें दुर्विनीत हैं, उनुकुं मैं जाणना चाहताहं पंडित श्रीजिनेश्वरमरिजीने कहा हे महात्माजी उणोंके कल्याण होवो, उ. णोंकी वार्ता करणे कर हमारे क्या प्रयोजन है इसतरे सुणके पुरोहित अपणे मनमें विचारणे लगा कि ॥ त एते सुकृतात्मानः, परदोषपराङ्मुखाः, परोपतापनिर्मुक्ताः, कीर्त्यते यत्र साधवः ॥१॥ व्याख्या-जो परदोषसे विमुख है और परको संताप देणेसें विरक्त है वेंहि पुण्यात्मा और साधु होतें है ॥१॥ तो यह महात्मा किसवासते अपणे प्रतिपक्षियोंका नाम कहै और मेरेमि दुरात्माओंका नाम सुनना अकल्याणकारी है इसलिये नाम नहीं लेना अच्छा है दूसरा पूछ इसतरे विचारके प्रगटपणे पुरोहितने पूछा कि आपश्री इतनेहि हो या दूसरे भी कोई मुनियों हैं पंडित श्रीजिनेश्वरगणि, वोले कि जिनके हम शिष्य हैं वे अपणी बुद्धिसें बृहस्पतिकुं जीतनेवाले सब जीवके रक्षक और हमारे गुरु तथा सर्व परिग्रह स्त्री धन धान्य खजन स्नेह संबंध For Private And Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७७ त्याग करणेवाले और श्रेष्ठ है नाम जिणोंका ऐसें श्रीवर्द्धमान सूरीश्वरजी हैं सो हमारे गुरु महाराज हैं वहभि पधारे हैं, पुरोहित-बोला आपश्री सर्व मिलके कितने हो ऐसा विस्मयपूर्वक पूछणेसें पंडित जिनेश्वरगणिः बोले कि १८ पाप स्थानकसे रहित हम १८ साधु हैं पुरोहित अपणे मनमें विचारे है अहो त्यक्तदाराः सदाचारा मुक्तभोगा जितेन्द्रियाः। गुरवो यतयो नित्यं, सर्वजीवाऽभयप्रदाः॥१॥ व्याख्या-स्त्रीका त्याग करनेवाले श्रेष्ठ आचारवाले भोगरहित इंद्रियोंकुं जीतणेवाले और नित्य सर्वजीवोंकुं अभयदेनेवाले जो यति हैं सो गुरु हैं इसतरे दमाध्यायमे कहा है वेसाहि यह आत्मा सद्गुरु हैं इणोंकुं अपणे घरमेहि लाके, पापरहित इणोंके चरणकी पवित्र धूलिसे मैरे घरका आंगण पवित्र करूं ओर प्रगट पुण्यराशिरूप इणोंका निरंतर दर्शन करनेसे मैरा जन्म सफल होगा इसतरे विचारके और बोला कि हे महासात्विकमुनिवर्यो च्यार शालावाले विस्तीर्ण मेरे घरमे एक दरवाजेसें प्रवेश कर एक शालामे पडदा कर आप सर्वमुनिसुखपूर्वकरहो ओर भिक्षाके अवसरमें मेरा आदभी आपश्रीके साथमे होणेसें ब्राह्मणोंके घरोंमे सुखसें भिक्षा मिलेगी और आपको मिक्षामेभि कुछ हरकत होगी नहीं उसके बाद पंडित जिनेश्वरगणिजीने कहा कि तुमारे जैसे उचित अवसर जाणणेमे मनोहर चित्तवाले दूसरे कोण हैं इसतरे कहते हुवे बोले कि प्रेक्षन्ते स्म न च स्नेहं, न पात्रं न दशान्तरं । सदा लोकहितासक्ता, रत्नदीपा इवोत्तमाः॥१॥ १२ दत्तसूरि० For Private And Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७८ व्याख्या - जैसें रत्नका दीपक तेल बत्ती पात्र कि अपेक्षा विनाहि प्रकाश करता है तैसें हि उत्तम मनुष्य निरंतर लोकोंके हितमे तत्पर होते है इसतरे कहते हूवे श्रीजिनेश्वरगणिजी अपणे गुरु पास गये और सर्ववृत्तान्तकहा, वृन्तान्तसुणके श्रीगुरुमहाराजनेंभि शुभायति विचारके कहा कि इसीतरे करणा उचित अवसर है ऐसा कहे वहां पर रहे. अपणी धार्मिक क्रियाकरणेमें तत्पर ऐसे मुनियोंकी वार्ता नगरमें फेलीके शुद्धवसती रहेणेवाले मुनियों इहांपर आये हैं, पुनः साध्वाभास साधु नहिं पण साधुके नामसें ओलखाणेवाले ऐसे चैत्यवासी मुनियोंने सुणाके शुद्धवसती वासी इहांपर मुनि आये हैं ऐसा सुणनेके अनंतर हि एकट्ठे होकर सर्व उण चैत्यवासी मुनियोंने विचार करणा सरु किया कि अहो जो शुद्धवसतीवासी मुनि इहांपर आये हैं सो अच्छा नहिं है कारणके यह मुनि तो सुविहित हैं और निरंतर आगममें कहेमुजब क्रिया करणेवाले हैं और चैत्यवासका निषेधकरणेवाले हैं और अपणे लोक स्वच्छंदाचारि हैं सिद्धांतसे विरुद्ध चारगतिरूपसंसारमे गिरानेवाले देवद्रव्यके लेनेवाले हैं निरंतरएक ठिकाणे रहेनेवाले हैं कामकुं उन्मत्त करणेवाले तांबूलकं निरंतरखानेवाले हैं चित्रसहितविचित्र प्रकारका हिंडोला खाट पलंग गादी तकिया गालमसूरिया इत्यादि शृंगारकी चेष्टाओं प्रगटकरणेकरके नटविटकीतरे महा विलासकरणेवाले हैं इत्यादि कहणेपूर्वक यह मुनि अपणे आत्माकं वृत्तिकरके लोकों में सर्वोत्कृष्टधर्मिपणे देखावेंगे और अपणेहूं For Private And Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७९ सर्वठिकाणे 'अनाचारी हैं, ऐसा कहके ओलखावेंगे इसलिये जबतक यह व्याधि कोमल है तबतकहि इसका विनाशकरणा चाहिये इसतरे चैत्यवासियोंने अपणे अनाचारकी शंकासे बहुत विचार करके एक उपाय सोधाके अपणे इहां राज अधिकारियोंके पुत्रोंकू भणाते हैं इसकारणसें अधिकारीलोक आपणे कहे प्रमाणे करेगे उसकेवाद राजअधिकारियोंका मनरंजन करके उण राजअधिकारीयोंके मुखसें विदेशी मुनियोंपर असत् दोषारोपण करके इणमुनियोंका विनाशकरें जैसा विचारके उस पूर्वोक्त कारणसें चैत्यवासियोंने अपणे विद्यार्थी राजाधिकारियोंके पुत्रोंकू बुलाये और उणोंको खजूर दाख वरफ वगेरे पदार्थ देके लोभित किये और उण विद्यार्थियोंकुं चैत्यवासियोंने कहा कि तुम लोकोंमें असे कहोकी परदेशसें कोई श्वेताम्बर साधुके वेषमें श्रीदुर्लभ राजाके राज्यका छिद्र देखणेवाले चरपुरुष इहांपर आये हैं बाद विद्यार्थी बालकोंने वेसाहि किया उसके अनंतर वह वार्ता जलके अंदर तैलके बिंदुकीतरह सर्वनगरमें फेली और राजसभामें भि आई, अनंतर श्रीदुर्लभराजानेभि कहाकि अहो जो इसतरेके क्षुद्र और कपटी श्वेताम्बर मुनिके वेषसे आये हैं तो उनुकों रहेणेवास्ते मकानकिसने दीयाहै वहां राजसभामें रहे हुवे किसी पुरुषने कहा के हेदेव ! आपके हि पुरोहितने उणोंकों अपणे घरमे रखें हैं उसके बाद दुर्लभ राजाने कहा कि पुरोहित कुं बुलावो तब पुरोहित कुं बुलाया और पुरोहित कुं कहाकि हे पुरोहित श्वेताम्बर मुनियोंके रूपकों धारणेवाले जो परदेशी For Private And Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चर पुरुष इहांपर आये हैं उणोंकों रहेणे वास्ते मकान क्या तुमने दीया है ऐसा राजाका वचन सुनके पुरोहितनें कहा कि किसने यह दूषण उत्पन्न किया है जो वे मुनि लोक परदेशी चर पुरुष हैं तो किंबहुना बहुतकहणेसें क्या प्रयोजन है, जो वे श्वेताम्बर मुनियोंपर यहदूषणसत्य है तो उणोंके तरफसे में जमानत में एकलाख द्रव्यकी किंमतवाली पटी याने वस्त्र देताहुं ऐसा राजसभामे सर्वलोकोंके सामने कहके अपणे पासका १ लाख किमत वाला वस्त्र राजसभामे सर्व लोकोंके सन्मुख डाला परंतु किसिकी हिंमत न हुइके उस वस्त्र कुं लेवे और जो मैरे घरमें रहे हुवे मुनियोंमें दूषणका गंधभि होवे तो दोषारोपणकरणेवाले या कहेणेवाले इस पटीकुं उठावो ऐसा कहकर पुरोहित चुपका हूवा उसके बाद वहां राजसभामें बहुतचैत्यवासियोंके भक्त मंत्री श्रेष्ठि प्रमुख प्रधान पुरुष बैठेथे परंतु किसीने भि उस पटीकुं उठाही नहिं उसकेवाद राजाके आगे पुरोहितने कहाके हेदेव न विनापरवान, रमते दुर्जनो जनः, श्वेव सर्वरसान् भुक्त्वा विनाऽमेध्यं न तृप्यति॥१॥ महतां यदेव मूर्धनि तदेव नीचाश्रयाय मन्यन्ते ॥ लिंगं प्रणमंति बुधाः, काकः पुनरासनी कुरुते ॥२॥ व्याख्या-जेसे कुत्ता सर्व रसका भोजनकरकेमि विष्ठा विना. धाये नहिं इसीतरह दुर्जन मनुष्यभी निंदा किये विना संतोष पावे नहिं ॥१॥ मोटा पुरुषोंके जो वस्तु मस्तक उपर धारण लायक होती है उसकुं नीच पुरुष अपणा नीच आश्रय माने है जैसे For Private And Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८१ पंडित पुरुष लिंगकुं नमस्कार करते हैं और काग उसकुं आसन बनाकर ऊपर बैठता है || २ || इस वास्ते हे राजन् मैरे घरमें जो कोई मुनि रहे हैं वे मूर्तिमान धर्मके पिंड सरीखे हैं और क्षमा दम सरलता कोमलता तप शील सत्य शौच निष्परिग्रहपणा वगैरे गुणोंरूपी रत्नका करंडीया सरीखे कोई जीवकुंभी संताप देवे नहिं तो फिर इसलोक परलोकमें विरुद्ध अकार्य वे मुनि किसतरह करेंगे, वास्ते उणोंमे दूषण लेशमात्र भी नहिं है, परंतु यह दुष्टत कोई पापी पुरुषों का किया हुवा है, वाद राजाके चित्तमें यह कथन रुचा और कहाके हे पुरोहित तुम जिसतरह कहे है उस तरह सर्व संभव है वाद राजा और पुरोहितका विचार सुणके सर्व सूराचार्य वगैरेंने विचार किया जो इण परदेशी मुनियोकुं वादमें जीत निकाल देवै तब ठीक होवैगा ऐसा विचारके अनंतर सूराचार्य वगेरेंने पुरोहितकुं बुलायके कहा हे पुरोहित तुमारे घरमें रहेनेवाले मुनियोंके साथ हम वादविषयि विचार करना चाहते हैं तब पुरोहितने कहा श्वेताम्बरवसतिवासी मुनियोकुं पूछके तुमकुं में कहुंगा बाद पुरोहित अपणे घरजाके श्रीवर्द्धमानसूरिजी पंडित श्रीजिनेश्वरगणि भगवानको कहाकि आप श्रीके प्रतिपक्षी श्रीपूज्यों के साथ विचार वाद विषयी करणा चाहतें हैं तब पुरोहितकुं प्रत्युत्तर में कहा कि हे पुरोहित क्या अयुक्त है जो प्रतिपक्षियोंकी इच्छा है तो हम भी इसीहि प्रयोजन वास्ते यहां पर आयें हैं परंतु हे पुरोहित सूराचार्य प्रमुखकुं कहेणा- जो आपलोक सुविहित मुनियोंके साथ वाद करना चाहते हो तो श्रीदुर्लभ For Private And Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८२ राजाके सन्मुख जिस स्थानमें आपलोक कहेंगें वहां पर वाद विषयी विचार करणेकुं तयार हैं सुविहित मुनियो शोभन धर्ममार्ग प्रगट करणेवास्तेहि विशेष कष्टयुक्त ग्राम नगरादिकोंमें विहार करते हैं सर्वत्र देश परदेशमें विचरतें हैं और श्रेष्ठ धर्ममार्ग प्रगट करणेका मुख्य कार्य है इसलिये परिश्रम करते हैं सो राजाके सामने आपलोकोंके साथ वै सुविहितमुनियों वादविषयीविचार करणेमें अत्यंत उत्कंठा सहित हैं इसवास्ते आपलोकोकुं विलंब करणा नहीं शूराचार्यप्रमुखोंके सन्मुख पूर्वोक्त प्रमाणे पुरोहितके कहेणेके अनंतर हि अपणे पंडितपणेका गर्वकरके उण सर्व शूराचार्य प्रमुख चैत्यवासी मुनियोंने आपणे मनमे विचारा कि सर्व राजाधिकारी लोक जबतक हमारे वसमें हैं तबतक उण परदेशी मुनियोंसें हमकुं क्या भय है अर्थात् किसितरेका भय नहि है - एसा विचारके चैत्यवासी आचार्योंने पीछा प्रत्युत्तरमें पुरोहितकुं कहाकि हे पुरोहित राजाके सन्मुख सुविहित मुनियोंके साथ वाद विषयि हमारा विचार होवो अर्थात् सद्धर्म विषयिवाद हमलोक करेंगें उसके अनंतर पुरोहितने चैत्यवासी शूराचार्य प्रमुखके वचन अंगीकार किये और शूराचार्य प्रमुख प्रतिपक्षियोंने कहाकि अमुक दिनमें पंचासरा संज्ञक वडे देहरासरमें सद्धर्म विषयी वाद विचार होगा एसा निश्चयकरके सर्वलोकोंके आगे कहा और पुरोहितनेभि एकांतमे राजाकुं कहा हे राजन् इहांके रहेनेवाले मुनियो परदेशसें आये हुवे सुविहित मुनियोंके साथ सद्धर्मविषयि वादविचार करणा चाहते हैं वह सद्धर्मविषयि For Private And Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८३ वाद विचार न्यायवादी राजाके सन्मुख किया हूवा शोभे है इस कारणसे युक्त अयुक्त विचारमे चतुर ऐसे आपको प्रसन्न होकर उस सद्धर्म विषयि वाद विचार अवसरमे सभापति पणे होणा होगा यह पुरोहितका वचन सुणके श्रीदुर्लभ राजानें कहा कि इसमे क्या अयुक्त है अर्थात् यह कहणा तो अच्छा है, यह तो हमारा कर्त्तव्यही है इसलिये कुछभी अनिष्ट नहीं है और सद्धर्मविषयीवादविचार अवश्य होणा हि चाहिये सद्धर्मविषयि वादविचारमे सभापति होणा और सद्धर्मका निर्णय कराके उसका अच्छीतरह संरक्षण करणा और कराणा यह हमारा मुख्य कर्त्तव्य और धर्म है वास्ते इस सद्धर्मविषयिवादविचारमे समदृष्टिपूर्वक सभापतिपणे हाजर होवुगा इसतरे श्रीदुर्लभराजाने पुरोहितका वचन अंगीकारकरा तब उस पंचासर संज्ञक वडे देहरासरम-सिंहासन गादी गोलआसणवगेरेकि विछायत भई बाद चैत्यवासी सूराचार्य वगेरे नानादेशोद्भव उज्वल श्लक्ष्ण चाकुचिक्य वस्त्र पहरे हूवे रजोहरणसहित केसोंमे तैल लगाया है ऐसे लंबमान मुहपत्ति सहित तैलसै ओपित डंडयुक्त तांबूल खाते हुवै लाल मुख जिणुका पालखियोंमे बैठे ऐसे भंडारी मंत्री सेठ प्रमुख धनवान श्रावक भक्तिसे साथमें हैं जिणोंके सधवश्राविका अपणाआपणा आचार्योंका गुणगातिभई भक्तिसहितधवलमंगल गीत ध्वनिसे रंजित किया है सबलोकोंकों जिणोने, भट्ट विरुद बोलते हैं लोक नमस्कार करते हैं मार्गमे जिणोंको, पंडितपणेका अभिमानसहित हाथमें वादपुस्तिका धारणकियाहै ऐसे बडे आडंबर सहित For Private And Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८४ श्रीसूराचार्य प्रमुख (८४) चोरासी आचार्यो सूर्योदयमेंहि आयके अपणे अपणे आसनों पर बेठे, और राजाके प्रधानपुरुषोंने श्री दुर्लभमहाराजाकोंभि बुलाये तत्र श्रीदुर्लभराजाभि बहुत पुत्र और सेवकादिकके परिवार सहित आयके वहां सभा में बैठे उसके बाद पुरोहितकुं राजाने कहा हे पुरोहित ! मान्यवर देशान्तरसें आयें सुविहित आचार्यकों जलदि बोलावो अनंतर पुरोहित शीघ्र जाकर श्रीवर्द्धमानरिजीकों वीनति करी हे भगवन् ! पंचासरसंज्ञक चैत्यमें सर्वचैत्यवासी आचार्य परिवारसहित आयके बैठें हैं श्रीदुर्लभमहाराजाभि आये हैं और श्रीदुर्लभराजाने सर्व आचायकुं नमस्कार करके और ताम्बूल देके सत्कार किया है और ra आपके आगमन की राह देखतें हैं यह वृतांत पुरोहितके मुखसें सुणके पूज्यपाद श्रीवर्द्धमान सूरिजी श्रीसुधर्मस्वामि श्रीजंबुखामिप्रमुखचवदपूर्वधारियोंकुं युग प्रधानोकुं दूसरे सर्वसुविहित आचार्योकुं हृदय कमलके वीचमे विचारके अर्थात् स्मरण करके, पंडितजिनेश्वरगणि प्रमुख कितनेक गीतार्थ श्रेष्ठ साधुवकों साथ लेके चले पंचासरसंज्ञक चैत्यके सन्मुख, कन्या गाय शंख भेरी दही फल पुष्पमाला वगेरे सन्मुख आते हुवे मंगलरूप अनुकूल श्रेष्ठ सकुन देखनेसें संभावित हे सिद्ध प्रयोजनजिनके ऐसे श्रीवर्धमानसूरिजी वगेरह वहां सभा में पोहोचे और पंडित श्रीजिनेश्वरगणिजीका विछाया कंबल पर और श्रीदुर्लभ राजानें देखाया जो योग्य स्थान वहां बैठे. बाद पंडित श्रीजिनेश्वरगणिजीभि श्रीगुरुमहाराजकी आज्ञासें For Private And Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८५ श्रीगुरुमहाराजकुं नमस्कार करके श्रीगुरुमहाराजकेचरणकमलोंके पासही बैठे गुर्वाज्ञा पालनेके लिये, इसअवसरमें राजा ताम्बूल देनेके वास्ते प्रवर्तमान हुवा तब सर्व सभासमक्ष श्रीवर्धमान सूरिजी बोले हे महाराज ! जैन सिद्धांतमें मुनियोंको ताम्बूल भक्षण स्नान करणा पुष्पमाला पहेरना सुगंध पदार्थलगाना नख केश दांतका संस्कार करना मना किया है. बाद-संजमे सुद्धि अप्पाणं० लहुभूय विहारिणं० ॥ १० ॥ दशवैकालिक सूत्रके तीसरे अध्ययनसें ५२ अनाचीर्ण सुनाये तब राजा बोला ताम्बूल खानेमें क्या दोष है आचार्य ने कहा कामराग बढानेवाला ताम्बूल है यह जगत् प्रसिद्ध है कहाभी है श्लोक - ताम्बूलं कटु तिक्तमुष्णमधुरं क्षारं कषायान्वितं । वातनं कफनाशनं कृमिहरं दौगंध्यनिर्नाशनम् । वक्रस्याभरणं विशुद्धिकरणं कामानिसंदीपनं । ताम्बूलस्य सखे! त्रयोदश गुणाः स्वर्गेऽपि ते दुर्लभाः ॥ १ ॥ अर्थ || हे मित्र ! तांबूलके १३ गुण है कडवा १ तीखा २ मधुर ३ उष्ण ४ क्षार ५ और कषाय रससहित ६ वायु ७ कफका नाशक ८ कृमिमिटानेवाला ९ दुर्गधनाशक १० मुखका आभरण ११ शुद्धिकारक १२ कामानिका दीपक १३ इसलिये ब्रह्मचारियोंकुं तांबूल खाणा रागबुद्धिका हेतु होणेसै सम्यक् नही है स्मृतिमेभि कहा है ॥ ब्रह्मचारियतीनां च विधवानां च योषिताम् । तांबुलभक्षणं विप्र ! गोमांसान्न विशिष्यते ॥ १ ॥ स्नानमुद्वर्त्त - नाभ्यंगं, नखकेशादिसंस्क्रियाम् । धूपं माल्यं च गंधं च त्यजति ब्रह्मचारिणः || २ || अर्थ हे ब्राह्मण ! ब्रह्मचारी ९ यति २ विध - ; For Private And Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir र होणेमे हमारामाबाद श्रीवर्द्धमान हुवा और आपका १८६ वास्त्री ३ इणोंकुं तांबूल खाणा गौमांसवत् है ॥१॥ स्नान १ पीठी २ तैलकामईन ३ नखकेशादिकका संस्कार ४ धूप ५ माला ६ सुगंध ७ इत्यादि ब्रह्मचारि छोडते हैं ॥२ ऐसा वचन आचार्यका सुनके विचक्षण लोकोंके हृदयमें हर्षउत्पन्न हुवा और श्रीवर्द्धमानसूरिजीपर बहुमान भया वाद श्रीवर्द्धमानसूरि बोले आचार्योंके साथ विचार होणेमे हमारा शिष्य सूरिजिनेश्वर जो उत्तर प्रत्युत्तर देवेगा वो हमारे प्रमाण है तब सब सभासदोंने कहा ऐसा होवो तदनंतर चौराशी आचार्योंमें प्रधान चैत्यवासी सूराचार्य बोले अहो राजा मंत्रि प्रमुख सर्वलोको जो हम कहते हैं सो सुनो तब मंत्रिवगेरे चैत्यावासियोंके पक्षपाति कहने लगे आप कहिये हमलोक सावधान होके सुनते हैं बाद दुर्लभ राजा उस वक्तमें सब चैत्यवासी आचार्य साध्वाभास चकचकायमान समारा हुवा मस्तकमें केश जिणुके ताम्बूल रससे रंगा भया होठ ऐसे उद्भट वेषवाले सुगंध पुष्पोंकी माला जिणोने पहरी ऐसे धूपित शुभ्र रेशमी वस्त्रपहरे हैं, ऐसोंको देखके विचार किया अहो विलास सहित चेष्टावाले यह लोक विटप्राय अपणे कल्पसे च्युत हैं और देखो ये विदेशि महानुभाव उत्तम स्वभाववाले नीचे आसनपर बैठे भये लोच कियाहुवा मस्तकमें जिणुने मलीन वस्त्र पहरे हैं, जिणोंके दर्शनमात्रसैहि मालूम होता है शांततायुक्त तपनिष्ठमूर्ति निश्चय जो कोई गुणयुक्त शरीरी तीन जगतमें पूजनीय महाशीलवतपात्र कहे जाते हैं, वै येही महाव्रती हैं ऐसा राजा विचारते है उतने सूराचार्यने पूर्वपक्षकहा जैसे 'अहो वसतिनिवासी श्रमणो ! For Private And Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८७ सावधान होके सुनों इसवक्तके मुनियोंकुं जिनभवनमे रहना ही योग्य है जिनगृहमे रहणेसे निरपवाद ब्रह्मव्रतका संभव है यतियोंके ब्रह्मचर्य ही प्रधान है और व्रतोंके सदृश अपवाद इसमें नही है, सिद्धांत ब्रह्मव्रतको सर्वव्रतोंमे निरपवाद कहा है 'न वि किंचि अणुन्नायं, पडिसिद्धं वा वि जिणवरिंदेहिं' अर्थ || तीर्थंकरदेवने कुछ आज्ञा नही दीया है वैसा मनाभि नही किया है मैथुनकुं छोडके उपाश्रयमें रहणेसे स्त्रीयोंका, मनोहरशब्दसुणने वगेरेसै ब्रह्मसर्वथा नही पाशके मानसिक विकारादि संभवसे स्त्रीजनका मधुरशब्दसुणना रूपदेखना कोकिलादिकका मधुरबोलना इत्यादि कारणोंसे भुक्तभोगि यतियोंकु पूर्वानुभूत संभोग स्मरणमें आवे अभुक्त भोगियोंकु कुतूहल प्रगट होवे और साधुवों का किया भया निरंतर कानोंको अमृत सरीखा स्वाध्याय ध्वनि सुणके कितनेक साधुवोंका शरीरका लावन्यदेखके प्रोषितपतिवाली वनितावोंकी रमणेका इच्छा वगेरे प्रगट होवे इसतरह परस्पर निरंतररूपका देखना गीत श्रवणादिकसै दुर्जयमन्मथके जोरसै चारित्रनाशादि अनेक दोषोंकि पुष्टि होती है कहा है || गाथा || थीवजिअं वियाणह, इत्थीणं जत्थठाण स्वाणि । सद्दाय न सुचंती तापियतेसिं न पिच्छंति ॥ १ ॥ बंभवयस्सअगुत्ती, लज्जानासोय पीइबुढीअ । साहु तवोधणनासो, निवारणा तित्थपरिहाणी ॥ २ ॥ अर्थ ॥ साधुवोंकों स्त्रीयोंका वेठणा रूपदेखणा शब्दका For Private And Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८८ सुणना यह नही करणा स्त्रीयोंभी साधुवोंकों हरवक्त नही देखे स्त्री रहित स्थानमे रहणा जाणो ॥१॥ स्त्रीसाथरहणेसे ब्रह्मव्रतकी अगुप्ति लजाका नाश प्रीतिकी वृद्धि साधुके तपरूप धनका नाश धर्मसे दूर होणा तीर्थकी हानि इत्यादि दोष होते है ॥२॥ इसलिये वसति वास यतिकुं युक्त नहीं है लोकमेभी कहते हैं “शृणु हृदयरहस्यं यत्प्रशस्यं मुनीनां, न खलु योषित्सन्निधिः संविधेयः॥ हरति हि हरिणाक्षीक्षिप्तमक्षिक्षुरप । प्रहतशमतनुत्रं चित्तमप्युन्नतानाम्" ॥१॥ मुनियोंके हृदयका रहस्स प्रशंसनीय सुनो स्वीकी सोबत नही करणी स्त्रीयोंका डालाहुवा नेत्ररूपशस्त्रोंसे शमतनुत्राणरूप चित्त वृद्धमुनियोंका हरति हे १ जिन मंदिरमे रहणेसै सदा स्त्रीयोंका संभव नहि होता हैं कदाचित् चैत्यवंदनके लिये क्षणमात्र आणे जाणे वालीयोंके साथ वैसाप्रसंग नहीं प्राप्त होता है इसलिये प्राणातिपातादिकके जैसा अनेक दोष दुष्ट होनेसे परघरमे रहना ठीकनही होनेसे मंदिरमे रहनाहि इसवक्तके मुनिजनोकुं संगत है, वहहि कहते है, इस वक्तके मुनियोंकुं जिनमंदिरमें निवासबिनाउद्यानमे रहना या परघरमें निवास करना यह दो विकल्पमें द्वितीय विकल्प तो दासी पुत्रवत् नहीवनता है कारण परघरमें स्त्री संसर्ग हरवक्त रहता है प्रथम उद्यानपक्ष तो सपक्ष सदृश हमारे पक्षकुं नहीहठाता है स्त्रीपरिचयादि और आधाकर्मादि दोष For Private And Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८९ समुहसे भक्षितहोणेसे दिखाते है उद्यानमे रहते भये यतीयों नवीन आंबेकीमंजरीकेस्वादसैं पंचमस्वरउच्चारण करते कोइल का शब्दसुणनेसैं और मालती वगेरे पुष्पोंका सुगंध लेणेसैं समाधियुक्तचित्तवालोकाभि चित्तविक्षेपहोता है कोइलका बोलना सुगंधग्रहणादि मदनोद्दीपन विभावसैं भारतादिशास्त्रोंमें कहा है, और क्रीडा करणेकुं आये कामीजनोंके आणेसे स्त्रीपरिचयादिकमें क्या कहणा है अथवा निरंतरनवीन नवीन शास्त्राभ्यास करणेवाले मुनियोंकों स्त्रीपरिचयादि दोष न होवे तथापि लोकोंके संचार विना उद्यानमे रहते मुनियोंका चोर वगेरेस वस्त्रादिलेणेका संभव है शरीरओरसंयमविराधनाका प्रसंगहोवै, 'वादि कहते है युगंधराचार्य ओरवज्रस्वामी वगेरह उद्यानमे समवसरे है ऐसा आगमप्रमाण है, इसपर पूर्वपक्षी कहता है यहकथनसत्यहै परंतु अनापात असंलोकगुप्त एक द्वार उद्यान विषय है ऐसा इसवक्त प्राय राजा चोर वगेरेसे वाधित होणेसे मिलना दुर्लभ है सो केसे इस समयके मुनिजनोको कल्पे इसलिये इस अवसरमें जिनमंदिरमें हि साधुवोंकुं निवास ठीक मालुमहोता है कारण जिनमंदिरमें आधाकर्मादिदोषनहीहोता है प्रयोग देते है इदानींतन मुनियोंके रहने योग्य जिनमंदिर है, आधाकर्मादिदोषरहितहोणेसे, निर्दोष आहारवत् , इहां असिद्ध हेतु नही है जिनप्रतिमाके लिये बनाया मंदिरमें आधाकर्मादि दोषका अवकास नहीं है यतिकेवास्ते मकान वणावेतो आधाकर्मी होवेहे और सुनो मुनि जिनमंदिरमें नहीं रहे तब इसवक्त जिनमंदिरोकी हानी होवे कारण पहले For Private And Personal Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९० कालानुभावसे श्रीमंत लोकसावधानहोके देवतत्वगुरुतत्वकुं मानणेवाले श्रावक उत्कृष्टआदरसे चैत्योंकी संभालकरतेथे सांप्रततो दुषमकालका दोषसे निरंतर कुटुंबकी प्रबलचिंतासंताप से पीडितचित्त होनेसे इदरउदर चलते हुवे प्रायै निखश्रावकोंकों अपणेघरभीवक्त पर आना मुस्किल होता है जिनमंदिरआना तो कहांसे होवे उसका संभालना यहतो कैसेवने और श्रीमंत तो विषय सुखमे लीनभयें राजसेवादिकृत्य में तत्पर रहते जिनमंदिर कादर्शनमि नही करते है संभालकरना कैसे वनशके, जिनमंदिर की संभाल न होनेसे जिन चैत्यका नाशहोवे तीर्थविछेदका संभवहोवे और यति मंदिरमें रहते होवेंतो बहुतकालतक जिनघरवना रहे तीर्थव्यवच्छेद न होवे तीर्थरखणेकेवास्ते किंचित् अपवादभी सेवना आगममें कहा है जो जेणगुणेण हिओ, जेणविणा वा न सिझए जंतु जो जिस गुणसे अधिक होवे जिसविना जो सिद्धकार्य न होवे तब अपवाद सेवे इत्यादि सूक्ष्म दृष्टिसे विचारणेसै विद्वानोंके चिचमे इस कालमें मुनियोकुं मंदिरमें रहनाठीकमालुम होता है यह सूराचार्य ने कहा. पूर्वपक्ष समस्त हृदयमें धारके उत्कटवादीपंडितरूपहाथीयों में मृगेंद्रसदृश श्रीजिनेश्वरसूरि बोले अहो सभासदो ! निरंतर सर्वत्र निर्मलहृदयसे युक्तायुक्तविचार विषय बुद्धि पूर्वक कार्यकरणेवालेलोको ! मात्सर्यछोडके मध्यस्थता धारके सावधान होके सुनो. पूर्वपक्षिने जिनभवनमे रहना इसवक्तके मुनियोंकुं उचित है निरपवादब्रह्मचर्यव्रतका संभव For Private And Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Acharya १९१ होणेसे इत्यादिक कहके बंभवयस्स अगुत्ती इहां तक यतियोकुं परघरमे रहणेसे दोषकहा सो अव विकल्पपूर्वक विचारते हैं ॥ सुनो ॥ जो यहपरगृहवसतिदूषणकहा तुमने वो क्या सर्वदा है या इसवक्तहीहै प्रथमपक्ष सर्वदा तव उद्यानादिकमे रहते यतिजनोकुं चौरादिउपद्रवका कैसे प्रतिकारहोय इसपर ऐसा न कहना उससमयमें काल सुखकारीथा सो चौरादिउपसर्ग नहीहोताथा इस्सै उद्यानमेनिवाससुनतेहै, परघरमे रहना नहीहै इति । उत्तरकहते है उसवक्तभि तस्करादि उपद्रव अनेकधा सुणनेसैं और उसकालमेंमि मुनियोंकुं परगृहका आश्रय आगममे कहाहै सो कहते हैं । ___ नयराइएसु घिप्पइ, वसही पुवामुहं ठवियवसहं इत्यादि ३ वृषभ कल्पनासे स्थापित नगरादिकमें यतियोंकों वसतिकी गवेषणा करणा नगर वगेरे विना ऐसी वसति नही संभवे और उद्यानमे रहनाही उसवक्त मान्यथा तब ठिकाने ठिकाने नगर गाममें रहणेका पाठ नहि बने इसलिये प्रथमवि उपाश्रय परघरमे रहना यतियोंकाथा सो पहला पक्ष नहि वना, अब दूसरा पक्ष अंगीकारकरोगे तो हम पूछते है किस कारणसे साधुवोकुं परघरमे रहना नहि कल्पे जो स्त्री संसक्तादिकसे न कल्पे ऐसा कहोगे तो यह तो पहलेभि वनाथा उसवक्तभि स्त्रीरहित वसतिमिलनेसे या नहिं मिलनेसे कथित यतना सिवाय और समाधिनहीं है वैसा इसवक्तभि आश्रय करलेणा न्याय सदृशहै कहा है यतना करणेवाले ख्यादिसंसक्तस्थानमैं इसवक्तभि ब्रह्मचर्य अगुप्ति For Private And Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Acha १९२ वगैरे दोष नहि लगते है, उसकारणसे पूर्वपक्षिने कहा इदानी जिनगृहवास ही साधुवोंके संगत मालुम होता है इत्यादि, यत्यर्थक्रियमाणउपाश्रयमें आधाकर्मादि दोष होता है इहां तक सोवि अधिकतर दोष कवलित होणेसे चोरादि त्रास पिशाचादिभयकल्पनाकरे सो कहते है, परघरमें ( उपाश्रय ) कदाचित् अधाकर्म अंगनासंसर्ग वगेरे दोष देखनेसे उपाश्रयका त्यागकरके जिनमंदिरमेरहते सीलवान साधुवोंके जिनमंदिरमे शृंगारवती स्त्रीयोंके आनेसे गीतध्वनी करणेसे वैस्यादिकका नाटकहोनेसे वनिताकारूपादिदेखनेसे मन्मथका उद्दीपन होता है इसलिये यह उपस्थित भया । यत्रोभयोः समो दोषः, परिहारश्च तादृशः। नैकपर्यनुयोज्यः स्यात्, तादृशार्थविचारणे ॥१॥ जहां दोनुमें सदृश दोषहोता है, समाधानभि वैसाहि होता है वैसा अर्थ विचारणमें एक उत्तर न होता है ॥१॥ हमारे पक्षमें स्त्रीसंसक्तपरघरमें कभि रहते उक्त दोष यतना करणेसे नहि होता और तुमारे पक्षमें तो जिनमंदिरमें रहणा सर्वथा वर्जित होनेसे कहां भि यतना नहि कहणेसे उक्तदोषकी पुष्टी कोण मनाकर सके, ऐसा नहि कहना गृहस्थोंका घर सांकडाहोवे यतना करणेसेवि कथितदोषसे मुक्त होना मुस्किल है, प्रमाण युक्त घरमें यतिका आश्रयकहा है उहां उक्त दोष नहि होता है गृहस्थ संपूर्णघरसमर्पणकरे तथापि यति मितअवग्रहमेंहि रहे ऐसा सूत्रमे कहा है, प्रमाण युक्त परघरके लाभमे तो संकीर्णमे भि यतनासैं रहते दोष नहि है, कहा है For Private And Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९३ निच्छयओपमाणजुत्ता खुड्डुलिआए वसंति जयणाए इत्यादि प्रमाणयुक्त छोटे उपाश्रयमेंभी जयणासे मुनि निश्चयसै रहै और भी सुनो, जिनमंदिरमें रहनेका समर्थन आत्माको बहुतअनर्थकारिहोनेसे योग नहीं सिद्धांतमें चैत्यमें रहना अत्यंतआशातनाका कारणहोनेसे मुनियोंकुं मनाकियाहै आशातना थोडीभी भवभ्रमणवृद्धिकाकारणहोणेसे अपथ्यसेवनवत् होतीहै ऐसा आगम है दुभिगंधमल० १ जइविन अहाकम्मं० २ आसायणमिच्छत्तं० ३, इत्यादि साधुका शरीर मेलसहितहोवे इसलिये मंदिरमेंरहणेस आशातनाहोवे यद्यपि चैत्य आधाकर्मी न होवे तथापि रहणेका निषेधहै, कारण आशातना करणेसे मिथ्याल होता है, इसवास्ते कथंचित् आधाकर्मी उपाश्रयमें निवासभि सिद्धांतमे कहा है, जिनघरनिवासतो अत्यंत निषेध होनेसे नहि करणा उचितहै, इसकारणसे उपाश्रयमें रहणा प्राप्तहुवा वैसा प्रयोग है-यतियोंकुं परघरमें निवास करणा निःसंगता प्रगट होणेसे संयमशुद्धिहेतुखात् शुद्धआहारग्रहणवत् ऐसा, यद्यपि पूर्वपक्षिने चैत्यमें रहे सिवाय रक्षा होवे नहि तथा तीर्थविच्छेद होवे इत्यादि कहके चैत्यमें रहना स्थापा वोमि विचार नहिं सहसक्ता है, केवल लोकों ठगना प्राय है, यतः तीर्थ अव्यवच्छेद किसकुंकहते है क्या यतियोकुं मंदिरमें रहणेसे भगवानका मंदिर प्रतिमा वनेरहै १ अथवा शिष्यप्रशिष्यादिपरंपराका विच्छेद न होना सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकीप्रवृत्तिरहना कहते है २ प्रथम पक्ष नहि बनता है चैत्यवासविनाभि तीर्थकरोंके विंबादिककी अनुवृत्ति देखणेसे जैसे पूर्वदेशमे जिनप्रतिमाकुं कुलदेव १३ दत्तसूरि० For Private And Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९४ ताकी बुद्धिसे पूजते है अन्यतीर्थीयोंके ग्रहणकरणेसै जिनप्रतिमावनी है तीर्थ विच्छेद नहीं होता है तब व्यर्थ चैत्यवासमें रहणेसैं क्या प्रयोजन है इसवास्ते तीर्थअव्यवच्छेदकार्यसे मोक्षादि फलसिद्धी नहीहै क्यों कि मिथ्यादृष्टिपरिग्रहीत जिनबिंबोंकुं मोक्षमागैका अंग नहीं कहा है मिच्छदिहि परिग्गहिआ ओ पडिमा ओ भावगामोन हुंति मिथ्यादृष्टिपरिगृहीत जिनप्रतिमा भावशुद्धिका कारण न होने इति ॥ अब दूसरा विकल्प कहते है वोहि तीर्थअव्यवच्छेद अंगीकारकरो मोक्षमार्गहोनेसे चैत्यवास अंगीकारसै क्या प्रयोजन है सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी अनुवृत्तिविना जिनघर बिंबके सद्भावसेभि तीर्थोच्छेदहोता है, इसी कारणसे तीर्थंकरोंके कितनेक आंतरोंमे रत्नत्रयी न रहणेसे कहांभी जिनप्रतिमाके संमवमेंभी तीर्थविच्छेदकहा है, स्वयं कल्पिततीर्थअव्यवच्छित्ति आगममें विसंवादि होनेसे व्यर्थही है, और सुनो जिनगृहादि अनुवृत्ति तीर्थअव्यवच्छित्ति होवे तोमि यतियोंका चैत्यमें रहना और जिनगृहादि अनुवृत्ति इनदोनुंका श्यामसमैत्रतनयत्वसदृश प्र. योज्यप्रयोजकमाव नहि वनताहै सो देखातेहै श्यामदेवदत्तहैं मैत्रतनय होनेसै इहां श्यामत्वमैं मैत्रतनयस प्रयोजक नहीं है, किंतु साकादिआहारपरिणतिलक्षणउपाधि श्यामत्वमें है परंतु यतियोंका चैत्यमें रहणाप्रयुक्तअनुवृत्ति नहि है कारण जिन घरमें रहतेमि साताशील होनेसे जीर्णचैत्यकी जीर्णोद्धारकी चिंता न करणेसै चैत्यअनुवृत्ति नहि रहै, किंतु चैत्यचिंताप्रयुक्त For Private And Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९५ चैत्यअनुवृत्ति श्रावकभि करते है, तो चैत्यकी अनुवृत्ति कैसे नहोवै, निखओर श्रीमंतश्रावक इसवक्त मंदिरकी देखरेख करते है यद्यपि दुःषमकालके माहात्म्यसै कितनेक प्रमादि होवे तोभी और सुश्रद्धालु श्रावक चैत्यकी संभाल करे है, देखते है इस वक्त कितनेक पुन्यवान् श्रावक अपणा कुटंबका भार समर्थ पुत्रपर रखके जिनमंदिरकी संभालहि निरंतरकरते है इसकारणसै श्रावक कृत संभाल चैत्य अनुवृत्ति सिद्ध है, इस वक्तके तुमारे जैसे आचार्य चैत्यके उपदेशसे अनेक आरंभ करते हुवे व्यर्थहि क्युं तकलीफ करते हैं, ओर तीर्थ अव्यवच्छेदका कारण अपवाद सेवनकर चैत्यवासका स्थापनकीया सोमि सिद्धांतका नहि जाणना तुमारा प्रगट करे है, इसका और अर्थ होनेसे, जो कोइयति ज्ञानादिगुणसे अधिक होवे जिसविना संघादिक केवडे कार्य नहि सिद्धहोतेहोवे तब वो गुणाधिक मुनि स्वगुणमें वीर्य फोरै यह अर्थ कहनेवाला जो जेण० इस गाथाका उत्तरार्ध है ॥ सो तेणतम्मिक सव्वत्थामं न हावेइ इति अर्थ वो ज्ञानादि गुणाधिक संघादि कार्य में सर्वशक्ति बल न घटावे इस्सै तुमारि इष्टसिद्धि न होवै इसप्रकार से सर्व वादिने कही युक्ति निराकरण से यतियोंका जिनभवनमें निवासका निषेध सिद्ध होनेसे अपने पक्ष मे समाधान कहते है, जिनगृहनिवास - नियोंकुं अयोग्य हे देवद्रव्यउपभोगादिवाला होनेसें जिनप्रतिमाके आगे चढाया हुवा नैवेद्यवत् | यह देवद्रव्यउपभोगादिमत्वहेतु For Private And Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्सपरीभोलाइहां नहीं मान्यता कर असिद्धनही है, जिनगृहमें रहते देवद्रव्यका उपभोग होता है सोने बैठने भोजनवगेरे करणेसै अनेक भवमें भयंकरफलअवश्य होता है ॥ १ ॥ विरुद्ध हेतुभी नहि है मुनियोग्यता कर व्याप्यत्वमें विरुद्ध हेतु होता है ऐसा इहां नहीं है ॥ देवस्सपरीभोगो, अणंत जम्मेसु दारुणविवागो। जं देवभोगभूमी, वुड्डी न हु बट्टइ चरित्ते ॥१॥ देवद्रव्यका परिभोग अनंतभवमे दारुण विपाकवाला होता है, जो देवभोगभूमी (जिनमंदिरकी भूमी) में रहै उसके चारित्रकी वृद्धि नहि होवै अर्थात् चारित्री न हो ऐसा सिद्धांतमें कहा है देव भूमीमें रहते यतिके चारित्रके अभावसै भयंकर फल कहा है ॥२॥ सत्प्रतिपक्षभी नही है आगमोक्तत्वात् यह वादीके प्रतिबल अनुमानको पहलेहि खंडन किया है ॥ ३ ॥ बाधित विषयभी हेतु नहि है प्रत्यक्षादिकसै अपहृत विषय न होनेसै "प्रत्यक्षसै हि इसवक्त जिनगृहमे रहना देखणेमें चैत्यवासके धर्मी मुनिअयोग्यता साध्यधर्महेतुविषयको बाधित होनेकर विषयापहारसै कैसे हेतुबाधितविषय नहि है ? ऐसा नहि कहना" इसवक्तमे मुन्याभासोका जिनगृहमे रहना देखणेसभि चैत्यवासको मुनि अयोग्यता बाधितपणा नहि है इसकारणसै हेतुकुं विषयापहारके अभावसै बाधित विषयता नही है ॥ ४ ॥ इसलियै चैत्य मुनियोंके उपभोग योग्य है आधाकर्मादि दोषरहित होनेसै असा तुमारा हेतु उक्तन्यायसै मुनियोंको चैत्योपभोगभोग्यता देवद्रव्य उपभोगादि दोषों करके आगममे बाधित होनेसै कालात्ययापदिष्ट For Private And Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar १९७ हेतु नहि है ॥५॥ पांच हेत्वाभास रहित होनेसे देवद्रव्य उपभोगादिमत्वहेतु शुद्ध है इसलियै भगवान्का गुण गाना स्त्रीयोंका मंदिरमे नाचना, शंख पटह मेरी मृदंगादि वादिन वादन, मालती वगेरह पूष्पोंका सुगंध जिन भवनमाला पूजा मंडप रचनादि भक्तिसै चैत्यनिवासमें देवद्रव्यका उपभोग होता है, लोकमेभी कहते है ॥ यदीच्छेन्नरकं गंतुं, सपुत्रपशुबांधवः । देवेष्वधिकृति कुर्याद्गोषु च ब्राह्मणेषु च ॥१॥ नरकाय मतिस्ते चेत्पौरोहित्यं समाचर । वर्ष यावत्किमन्येन, माठपत्यं दिनत्रयम् ॥२॥ अर्थ जो पुत्रपशुबांधवसहित नरक जाणेकी इच्छा करे सो देवगृहमें निवासकरे, गोशालामें और ब्राह्मणोंके घरोंमें ॥१॥ नरक जाणेकी बुद्धि होवे तो पुरोहितपणा एकवरसतककरो, जादा कहणेसै क्या तीन दिन मठपतिपणा करो ॥२॥ इत्यादि लौकिक लोकोत्तरनिंदनीय होनेसै मठपतिपणेसै दीर्घसंसारकार्य आशातनासै कंपमानसाधु जिनधर्ममे पूर्णबुद्धिश्रद्धावालेमि जिनगृहमे नहि रहतेहै लिखाहै (सामीवासावासे उवागए) इत्यादि आवश्यक चूादि शास्त्रोंमे बहुत पाठ देखणेसै साक्षातीर्थकर गणधरोंसे सेवित (संविग्गं सण्णिभई ) इत्यादि तीर्थकरादिकोंने अनेक प्रकारसै कहा तथा. धन्या अमी महात्मानो, निःसंगा मुनिपुंगवाः । .. अपि कापि वकं नास्ति, येषां तृणकुटीरके ॥१॥ For Private And Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९८ अर्थ यह महात्मा धन्य है संगरहितश्रेष्ठ मुनि है जिके तृणकी कुटीया वगेरे परभी खत्व नही है ॥ १ ॥ इत्यादि वचन समूहसै लोक प्रशस्य धन कनक पुत्र स्त्री वजन परिजन त्यागरूप, अपरिग्रहताका मुख्यास्पदभूत, सिझातर उपाश्रयका देनेवाला aat उपाश्रयका मालिक जो होवै वो सिझातर होता है, इत्यादि बहुत तरेका सिद्धांत अक्षर देखनेसे भया है तात्विक बोध ऐसै पंडितजनबहुमत उपाश्रयमेंहि सत्यअनगारनाम धारवाले साधु अवस्थान कहते है, अपवादस्थानसैभी जिनगृहमे रहणा नहि कहते है इतने कहणेसै जिनमंदिरमे नहि रहणा सिद्ध हुवा, तब सूराचार्यकुं निरुत्तरकरके ऊर्ध्वभुजा करके श्रीजिनेश्वरसूरि बोले सो कहते है श्लोक ॥ एवं सिद्धांतवाक्यैर्बहुविधघटनाहेतुदृष्टांतयुक्तरुक्तैरस्माभिरेतैरवितथसुयथोद्भासनोष्णांशुकल्पैः । कुग्राहग्रस्तचेताः परगृहवसतिं द्वेष्टि योऽसौ निकृष्टो, दुर्भाषी बद्धवैरः कथमपि न सतां स्यान्मतो नष्टकर्णः ॥ १ ॥ भावार्थ, सिद्धांत अक्षरोंसे बहुत प्रकारका वचन हेतु दृष्टांत सहित हमने सत्य शोभन यथोद्भासन सूर्यकल्प वचन कहै सो कुत्सित आग्रहमे ग्रस्तचित्त यह वादी परघरवसतिका निषेध करता है और दुर्भापी बद्धवैर द्वेष करे सो सज्जनोंके कैसे मान्य हो ॥ १ ॥ इति ऐसा सभाके लोकोंको आनंदित करके राजादिकको प्रतीतिके लिये औरभी जिनेश्वरसूरि बोले हे महाराज ! आपके लोकमें क्या 'पूर्वपुरुषप्रदर्शित नीति प्रवर्त्ते है, अथवा For Private And Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आधुनिक पुरुष प्रवर्तित नीति प्रवर्ते है, राजा बोले हमारे सब दैशमेभि हमारा पूर्वज बनराजचावडाकी नीति प्रवर्ते है और नहि, तब जिनेश्वरसूरि बोले हेमहाराज! हमारे सिद्धांतमें श्रीतीर्थकर और गणधर और चवदे पूर्वधारि वगेरेने जो मार्ग देखाया वो प्रमाण करते है और नहि, राजा बोले इसी तरहहि पूर्वपुरुष व्यवस्थापितहि मार्ग सर्वत्र प्रमाण होता है, जिनेश्वरसरिने कहा हेमहाराज ! हम दूर देशसै आयेहै सिद्धांतपुस्तक साथमें नहि लायेहै इसलिये इणोंके मठोंसे पुस्तक मंगवावै सो आपको प्रतीतिके लिये सन्मार्गनिश्चयके अक्षर देखावै, तब राजा बोले बहुत युक्त कहते है अहो श्वेतांबराचार्यों ! जैन पुस्तक मेरे पुरुषकुं साथमे लेजाके लावो, तव पुस्तकलाये जो पहले हाथमे आया सो खोला, वो श्रीदेवगुरुके प्रसादसै चउदे पूर्व धारिका रचाभया दशवकालिक निकला उहां पहले यह श्लोक निकला यथा अन्नट्ठपगडंलयणं, भएन सयणासणं, उच्चारभूमिसंपन्नं, इथिपसु विवजियं ॥१॥ इत्यादि राजा बोले वांचो. जिनेश्वरसूरि बोले चैत्यवासी वांचे तव राजाने चैत्यवासीयोंसे कहा आपवांचौ. चैत्यवासीयोंने यह पाठ वांचते छोड दीया जिनेश्वरमरि बोले हे महाराज ! अन्यत्र रात्रिमें चौरि होवे है राजसभामें दिनकों चोरि होति है, राजा बोले आप वांचो जिनेश्वरथरि बोले पुरोहित वांचै तव राजाकी आज्ञासै पुरोहितने (अन्नटुंपगडंलयणं) इत्यादि पाठ वांचा अर्थ॥ गृहस्थने अपणेवास्ते अर्थात् साधुसे अन्यार्थ किया घर सय्या For Private And Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०० संथारा आसण उच्चार प्रश्रवण भूमी सहित स्त्री पशु वर्जित ऐसे उपाश्रय में साधु रहै जिनमंदिरमें नहि रहै यह वचन श्रीदुर्लभ राजाके मनमे बहुत रोचक हुवै, राजा बोले अहो ये जो कहते है सो सर्व सत्य है तब सब अधिकारियोंने जाना अपने गुरु सर्वथा निरुत्तर होगये है, वाद दिवान वगेरे बोले महाराज ! चैत्यवासी हमारे गुरु है आप मानते है न्यायवादी राजा यावत् न बोले उतने जिनेश्वरसूरि बोले हे महाराज ? कोइ मंत्रिका गुरु हैं कोइ भंडारिका गुरु है कोइ माडविकका गुरु है सबके स्वामी आप है हमारा इहां कोण भक्त है, राजा बोले में आपका भक्तहुँ, मैंने आपकुं गुरु कियै, वाद और राजा बोले सर्व गुरुवों के सात सात गद्दी और हमारे गुरु नीचे बैठे यह कैसा, जिनेश्वरसूरि बोले हे महाराज ! हमकुं गद्दीपर बैठना नहि कल्पै राजा बोले क्युंन कल्पै आचार्य बोले महाराज ! गद्दीपर बैठणेसै असंयम होवै है भवति नियतमत्रा संयम इत्यादि श्लोकार्थका व्याख्यान किया, राजा बोले आप कहां रहते है? आचार्य बोले, महाराज विरोधियोंने स्थान रोका है सो कहांसे स्थान मिले, राजा बोले हे अमात्य बजारमे बहुत बडा अपुत्रियेका घर हे वो इशुंकुं रहणेकों देवो, वाद राजा बोले भोजन कैसे होता है तब पुरोहित बोला हे देव इण महापुरुषोंके लिये क्या कहैं लभ्यते लभ्यते साधुः, साधुश्चैव न लभ्यते । अलब्धे तपसो वृद्धि, लब्धे देहस्य धारणा ॥ १ ॥ अर्थ आहार मिलेतो ठीक नहि मिलेतोभी अच्छा कारण नहि For Private And Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०१ मिलेतो तपकी वृद्धि होवै मिलेतो देहका रक्षण होवै ॥ १ ॥ इसलिये कभी आधा भोजन मिले कदाचित् उपवासभी होता है तब राजा आनंद और विषाद सहित बोले आप कितने साधु हैं पुरोहित बोला हे देव ! सर्व अष्टादश (१८) साधु है राजा बोले एक हाथीका भोजन पिंडसे तृप्त होवेंगें जिनेश्वरसूरि बोले हे महाराज ! पिंड मुनियोंकों नहि कल्पे, यह प्रथमहि कहा है सिद्धांत पठनपूर्वक आपके आगे, तब राजा 'अहो अत्यंत निस्पृही है ऐसा जाणके, प्रीतियुक्त बोले मेरा पुरुष आगे चलेगा सुलभ भिक्षा होगी जादा कहनेसै क्या, इसप्रकार से वाद करके चैत्यवासियोंको जीतके राजा मंत्रवी सेठ सार्थवाह वगेरे नगरके प्रधान पुरुष सहित भट्टजनवसतिमार्गप्रसाधन यशके काव्य कहते हुवै पाया खरतरविरुद जिणुनें ऐसे श्रीवर्द्धमानसूरिसहित जिनेश्वरसूरि वसतिमे प्रवेश कीया ऐसे गुर्जरदेशमे प्रथम चैत्यवासीयोंका पक्ष निराकरण करके भगवत् प्रोक्त वसतिमार्ग प्रवर्त्तन प्रथम जिनेश्वरसूरिने कीया ॥ खरतर विरुदका अर्थ लिखते है ॥ अथ खरतरशब्दस्य व्युत्पत्तिर्लिख्यते ॥ ॥। १ अतिशयेन खरा अनर्मछद्मधर्मव्यवहारपटवो ये ते खरतराः || २ 'अतिशयेन खरा सत्यप्रतिज्ञा ये ते खरतराः ' ॥ ३ खः सूर्यः तद्वत् राजन्ते निःप्रतिमप्रतिभा प्राग्भारप्रभाभिः प्रतिवादिविद्वज्जनसंसदि ये ते खराः, अत एव तरन्ति भवाब्धिमिति तराः, खराश्च ते तराश्च खरतरा: For Private And Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रो रक्षणं तचरान्त वास यतियः २०२ ॥४ खानि इंद्रियाणि, रः कामः तौ त्रस्पति वशं नयन्ति ये ते खरताः साधुजनास्तेषां मध्ये राजन्ते शोभन्ते ये ते खरतराः, ॥५खः सुखं, भावसमाधिलक्षणं कचिड, इति डप्रत्ययः तस्य रो रक्षणं तत्चरन्ति कुर्वन्ति ये धातूनामनेकार्थत्वादिति खरतराः - ॥ ६ खादीनां ये जनास्तेषां रो भयं तत् विध्वंसयति, यः सः खरतः, ताय विधौ रोध्वनि सिद्ध शुद्ध प्रसिद्ध विशुद्ध सिद्धान्तवचननिर्वचनलक्षणो येषां ते खरतराः - ॥ ७ यद्वा खं संविद् तत्र रतास्तत् पराः खरताः मुनिजनास्तान् राति (अर्थात् ) सम्यग् ज्ञानादि ददति ये ते खरतराः ॥८ खः खड्गः तद्वत् खरास्तीक्ष्णाः कुमतिमतिविदारणे ये ते खराः तानं तस्कराणां जिनमतप्रद्वेषिसकुवादिजनलक्षणानां, रा इव वज्रा इव ये ते तराः, खराश्च ते तराश्च खरतराः ॥९ खं स्वर्ग राति (अर्थात् ) भक्तजनानां ददति ये ते खराः ॥ अतिशयेन खरा ये ते खरतराः इत्यादि हारयासो कमलाभया, जीत्या खरतर जाणिया । तिनकाले श्रीसंघमे, गच्छदोय वखाणिया ॥१॥ इसीतरे सुविहित पक्षधारक श्रीजिनेश्वरसूरिजी वीरनिर्वाणात् १५५०, विक्रमसंवत् १०८० में खरतर विरुद्धको प्राप्त भए, तबसें, कोटिकगच्छ, चंद्रकुल, वयरीशाखा, खरतर विरुद, इस नामसें, स्थविरसाधु, नवा साधुवोंकों कहने लगे, इहांसें मूलकोटिक गच्छका नाम, खरतर गच्छ प्रसिद्ध हुआ दूसरे दिन विरोधियोंने विचार कीया कि प्रथम उपाय तो व्यर्थ हुवा, अब For Private And Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar २०३ और दूसरा कोई उपाय इणोंको निकालनेका करणा चाहिये, एसा कहके, मनमे शोचा कि यह राजा अपनी मुख्य राणीको बहुतहि मानताहे, इसलिये जो वह राणी कहेगी वैसाहि राजा करेगा, तिस राणीके द्वाराहि इणोंको निकालना चाहिये, यह अपणा आशय उन चैत्यवासी मुनियोंने राजाधिकारि अपणे भक्त श्रावकोंकुं कहा, वादमें वे राजाधिकारी श्रावक आम्रफल केलफल दाख वगेरे फलोंका भाजन प्रधान वस्त्र दागिना वगेरे बहुत पदार्थोंका भेटणा लेके राणीके पास गये और मुख्य राणीके आगे जिनप्रतिमाकी तरे सन्मुख बलीकी रचना करी और मुख्य राणी प्रसन्न होके जितने उणोंका प्रयोजन करणेमे तत्पर भइ, उसीअवसरमे राजाकुं राणीके पासमे कोइ कामकी जरूरत पड़ी, वादमे दिल्लीसंबंधी आदेशकारी पुरुषको राजाने तिस मुख्य राणीकेपास भेजा और कहाकि यह अमुक कार्य राणीसे कहो, तब आदेशकारी पुरुष बोलाकी हे देव अभि जायके कहेता हूं ऐसा कहके शीघ्र गया, राजासंबंधी प्रयोजन राणीकू कहा बहुत अधिकारियोंको और अनेक प्रकारका चढावा देखके तिस राजपुरुषने विचाराकि जो दूसरे देशसें आये हुवे आचार्य उणोंको निकालनेका उपाय यह होवे है, परंतु मेरेकुंभि स्वदेशसें आये हूवे आचार्यके पक्षकी पुष्टि राजाके सन्मुख कहेना, ऐसा विचारके राजाके पासमे गया, राजासंबंधी प्रयोजन कहा, परंतु हे देव वहां राणीकेपास बडा कौतुक मेने देखा, राजाने कहा कैसा ? भद्रिकपुरुष बोला हे देव! राणी आज तीर्थकरकी प्रतिमा सदृश For Private And Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir • २०४ पूजनीक हुइ है, जैसा तीर्थंकरके आगे बलिकी रचना करते हैं उस माफक राणीके आगे भी कितनेक पुरुषोंने बलिकी रचना करी है, राजाने विचारा कि जो मेने न्यायवादी सुविहित मुनियोंकू गुरुपणे अंगीकार करें हैं, उणोका पीच्छा अभीतक पापी नहिं छोडतें है, बादमे राजाने कहा उसीहि पुरुषको जेसें शीघ्र राणीकेपासमे जाके कहो, की राजा इसतरे कहेलातें है, जो तेरे आगे किसीने भेट दीया है उसमेंसें एक सोपारी भी जो लिया तो तेरेको मेरे यहां रहेणेकुं जगा नहिं है, वादमें उस राजपुरुष पूर्वोक्तप्रमाणे कहेणेसें भय प्राप्त होके राणीने कहा अहो लोको जो वस्तु जो लाया है वह वस्तु उसको अपणे घर लेजाना एक सोपारी मात्रसेंभी मेरे प्रयोजन नहिं हैं इसतरे यह उपायभी निस्फल हुवा, वादमें उन चैत्यवासी मुनियोंने ४ उपाय विचारा कि जो राजा देशांतरसें आये हुवे मुनियोंको बहुत मानेगा तो सर्वमंदिरोंको छोडके देशांतरमें चले जावेंगें, ऐसा प्रघोष नगरमें करा, और नगरके बाहिर जावै ते यह बात किसी मनुष्यने राजाकुं कही राजाने कहा कि बहूतहि अच्छा है जहां रुचे वहां जावो, राजाने मंदिरोंमे ब्राह्मणकों वेतनसें पूजारी रखे, तुमारेकुं इन मंदिरोंमे पूजा करणी ऐसा कहेके, वादमे कोइ चैत्यवासी मुनि किसी मिस करके अपणे मंदिरमे आये, कोइ किसी मिस करके पीछे आये, किंबहुना, सर्वचैत्यवासी मिस कर २ पीछे चले आये सर्व अपणे २ मंदिरोंमे रहे श्रीमान् वर्द्धमानसूरिजी भी सपरिवार राजाके मान्यनीक पूजनीक होणेसें अस्खलितविहारपूर्वक सर्वत्र For Private And Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०५ गुजरातादि देशोंमे विहार करते हुवे, कोई कुछभी कहेोकुं समर्थ न होवे, वाद शुभ लग्रमे श्रीवर्द्धमानसूरिजी महाराजने पंडित श्रीजिनेश्वर गणिजीकुं सूरिमंत्र देकर अपणे पदमे स्थापित कीये, दूसरे भाईकोभी आचार्य पदमे स्थापित करा, और उणोंकी बेनको महत्तरा पद दीया और इणोंका मूल नाम जिनदास, बुद्धिदास, सरस्वती, था वादमे ३ जीव पुन्यवान् विनीत होणेसे स्वल्प कालमे गीतार्थ भये, वाद पंडित, गणि आदि क्रमसें पदवी प्राप्त करी, और श्रीगुरु महाराजकुं चारित्रपक्षमे ज्ञान पक्षमे शासनोन्नति वगेरे धर्मकार्यों मे परिपूर्ण साहायक भये और गुजरातमे अणहिलपुर पाटणके प्रथम शास्त्रार्थमे परिपूर्ण सहायक भये, वाद योग्य पात्र स्वसमय परसमय के परिपूर्ण वेत्ता शासनोन्नति करणेवाले, युगप्रधान पद धारक होगा ऐसा विचारके श्रीगुरुमहाराजने कोइ एक समय शुभ लग्नमे पूर्वोक्त ३ जनकों क्रमसें पदस्थ करके अपने गच्छमे अधिकारिकीये वाद श्री - जिनेश्वरसूरि, बुद्धिसागरसूरि, कल्याणवती महत्तरा, इसनामसें सर्वत्र प्रसिद्ध भये, बाद गुजरातादि देशोंमें अलग विहार करणे कीआज्ञा दीवी ३ जनकों, तब तीनुं जन श्रीगुरुमहाराजकी श्रेष्ठ आज्ञा पाकर अपणे २ समुदाय सहित गुजरात देशमे विचरणें लगें, पीछे श्रीवर्द्धमानसूरिजीनें १३ अथवा ३० बादशाहोंसें मान पाया हुआ चंद्रावती नगरी स्थापक, पोरवाड गोत्रीय, श्रीविमलमंत्रीकों प्रतिबोध देके जैनधर्मी अपना श्रावक किया, और विच्छिन्न हुवे आबु तीर्थकों प्रगट करनेका उपदेश किया, तब For Private And Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar २०६ विमलमंत्री गुरुका वचन अंगीकार करके गुरूको साथ लेके आबुजी आया, तब उहांके रहीस ब्राह्मण और जोगी लोक या बात सुनके विमल मंत्रीको कहने लगे कि यह हमारा तीर्थ है, अभी हमारा मंदिर है तुमारा मंदिर नहिं है, इससे जैनमंदिर नहिं होने देवेंगें, तव गुरुमहाराज एक पुष्पमाला मंत्रके विमलमंत्रीके हाथमें दीनी, और कहाकि ब्राह्मणोंसे कहोकि ये सदैवसें जैनका तीर्थ है, जो न मानो तो तुमारी कोइ कन्याके हाथमें यह फूलमाला देवो, और डूंगर ऊपर फिरो जिस ठिकाणे तुमारी कन्याके हाथसें यह फूलमाला गिरपडे वहां हमारा तीर्थ, और देव है, इसीतरे करा ॥ जहां फूलमाला पडी उहां पूजाका उपगरण सहित तीन प्रतिमा प्रगट भइ ॥ १ श्री आदिनाथस्वामि २ अंबिकादेवी ३ चवालीनाथ क्षेत्रपाल ॥ ऐसी तीन प्रतिमाकों प्रगट हुइ देखके ब्राह्मणलोक बडे आश्चर्यकों प्राप्त भए, तथापि ब्राह्मण जातिपणासें कहने लगे तुमारा देव है तो देवकी पूजा करों, परन्तु मंदिर होनेसें तो हम मरमिटेंगे, तब बडा दयाल उत्तम पुरुष विमलमंत्रीने विचार किया कि ये कोण गिणतीमें है, अभी मंदिर बना सक्ताहूं, परन्तु ये भिक्षुक है, इनकों क्या जोर देखाउं, इससे इनोंकों बहोतसा द्रव्य देके, राजी करके जैनमंदिर तैयार कराउं, ऐसा विचारके ब्राह्मणोंकों बहुतसा धन देके राजी किये, पीछे बहुमोला मकराणेंका पत्थर मंगवायके, बडा एक बावन जिनालय मंदिर बनाया, और सारे मंदिरमें ऐसी झीणी कोरणी कराई, जिस For Private And Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०७ मंदिरका सर्व पत्थर कोरणी मजूरीका, अठारे १८ क्रोड ५३ लाख आसरे द्रव्य खरच हुआ, विमलमंत्रीके करानेसें विमलवसहि नाम प्रसिद्ध हुवा, पीछे सर्व तैयार होनेसें संवत् एक हजार अठ्यासी, १०८८, में श्रीउद्योतनसुरिजीके सुशिष्य और श्रीजिनेश्वरसरिजी श्रीबुद्धिसागरसरिजीके श्रीगुरुमहाराज श्रीवर्द्धमानसूरीजीने प्रतिष्ठाकरी, वादघणे भव्यजीवोंकों प्रतिबोधके धर्ममे स्थिर करके धर्मकार्योंमें विशेष सहाय करके घणी शासनोन्नति करके अंतसमय सिद्धांतीय विधिपूर्वक समाधिसहित अणशण करके उसी वरषमें देवलोक गए यह मूलग्रंथ अभिप्राय है ॥ ३९ ॥ ॥४०॥ श्रीवर्द्धमानसरिजीके पट्टपर श्रीजिनेश्वरसरि हुए, यह प्रथम वाणारसी नगरीके रहीसथे, सोमदेव ब्राह्मण पिताथा दुर्लभराजपुरोहित शिवशर्मा ब्राह्मण मामा होवे है और सरसा नगरमें सोमेश्वर महादेवके वचनसें श्रीवर्द्धमानसूरिजीके पासदीक्षा ग्रहण करी, बादमे जैनसिद्धांत स्वगुरुमुखसें पढकर गीतार्थ भये, पीछे पंडित, गणि, वाचनाचार्य आदि पदवीयों क्रमसें प्राप्त करी, शुभशकुन निमित्तसें लाभ जाणके श्रीगुरुमहाराजके साथ अणहिलपुरपाटण पधारे वहां चैत्यवासी संप्रदायके आचार्योंके साथ प्रथम शास्त्रार्थ हुवा, पीछे स्वपट्टपर सूरिमंत्र विधिपूर्वक देके मुख्याचार्यपणेका गच्छाधिकार वगेरे सर्व दिये, पीछे श्रीदुर्लभराजदत्त खरतर विरुदकों धारण करते हुवे, और राजगुरु होनेसें सर्वत्र गुजरातप्रांतमें अस्खलित विहार करे, और अप्रतिबद्धपणे विहार करते हुवे जिनचंद्र १ अभयदेव २ धनेश्वर ३ हरिभद्र ४ For Private And Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०८. प्रसन्नचंद्र ५ धर्मदेव ६ सहदेव ७ सुमति ८ वगेरह बहुत शिष्य हुवे बादमे श्रीवर्द्धमानसूरिजी स्वर्गवासी हूवे, पीछे श्रीजिनचंद्र, जिनाभयदेव, इन दोनोंकों विशेष गुणवान् और योग्य पात्र जाणके सूरिपद में स्थापित कीये, क्रम करके युग प्रधान हूवे, औरभी दो आचार्य बनाये, श्रीधनेश्वसूरिः ( अपर नाम श्रीजिनभद्रसूरि : ) है, १ श्रीहरिभद्रसूरिः २ तथा उ० श्रीधर्मदेवगणिः, १ उ० सुमतिगणिः, २ उ० श्रीविमलगणिः, ३ यह ३ उपाध्याय की, और श्रीधर्मदेव उपाध्याय, श्रीसहदेवगणिः, यह दोय सगे भाइ होवें है, श्रीधर्मदेव उपाध्याय जीनें ३ निज शिष्य बनाये, हरिसिंह, सर्वदेवगणिः, यह २ भाइ होवें है, ३ पंडित श्रीसोमचंद्रमुनिः, और श्रीसहदेवगणिजीनें अशोकचंद्र नामें निजशिष्य किया, वह अशोकचंद्र अत्यंत वल्लभ था, उसको श्रीजिनचंद्रसूरिजीनें विशेष भणायके, आचार्यपद में स्थापित किया, और श्रीअशोकचंद्रसूरिजीनें अपनें पट्टपर श्रीहरिसिंह रिजीकों स्थापित किये, औरभी दोय आचार्य बनाये, श्रीजिनप्रसन्नचंद्रसूरिजी, श्रीजिनदेव भद्रसूरिजी और श्रीजिनदेवभद्रसूरिजी तो श्रीसुमति उपाध्यायजी के सुशिष्य थे, और श्रीजिनप्रसन्नचंद्रसूरिजी वगेरे च्यारकुं श्रीजिनाभयदेवसूरिजीनें तर्कादिशास्त्र भणाये, इसिहीसें श्रीजिनवल्लभसूरिजीनें श्रीचित्रकूटीयप्रशस्तिमे कहा है, ।। सतर्कन्यायच चर्चितचतुरगिरः श्रीप्रसन्दुसूरिः, सूरिश्रीवर्द्धमानो यतिपतिहरिभद्रो मुनी देवभद्रः, इत्याद्याः सर्वविद्यार्णवकलशभुवः संचरिष्णुरुत्कीर्तिस्तंभायन्तेऽधुनापि श्रुतचरणरमाराजिनो यस्य शिष्याः ॥ १ ॥ For Private And Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०९ अर्थ श्रेष्ठतर्कशक्तियुक्त तर्कशास्त्र और न्यायशास्त्रोंकी चर्चाकरके पूजितहै चातुर्ययुक्तवाणी जिणोंकी, संपूर्णविद्यारूपी समुद्रमें कलशकेसदृश, और जंगमश्रेष्ठमहत्कीर्तिस्तंभ, वर्तमान समयमें दिखाइ देरहेहैं, ऐसे श्रीजिनप्रसन्नचंद्रसरिजी, श्रीजिनवर्द्धमानसूरिजी, श्रीजिनहरिभद्रसरिजी, श्रीजिनदेवभद्रसूरिजी, वगेरे श्रुतचारित्रास्मक लक्ष्मीसें सुशोभित वर्तमान समयमेंभी जिसनवांगीकृत्तिकर्ताश्रीजिनअभयदेवमूरिजीके सुशिष्य मौजूद हैं ॥१॥ बादमें श्रीजिनेश्वरसरिजी आशापल्लीमें पधारे, वहां व्याख्यानमें विचक्षणलोक बेठतें हैं, वास्ते विचक्षण लोकोंका मनरूपकुमुदकुंविकसितकरनेवाली जो पूर्णमासी चंद्रिका, ( याने चंद्रमाकी चांदणी,) उसकी साक्षात् बेनहोवे वैसी, संवेगयुक्त वैराग्यकों बढाणेवाली, ऐसी लीलावतीनामककथा, विक्रमसंवत् (१०९२) के साल रची, तथा श्रीजिनेश्वरसूरिजी डिंडियाणक ग्राम पधारे वहां पूज्यपाद श्रीजिनेश्वरमुरिजीने व्याख्यानमें वाचणेवास्ते चैत्यवासी आचायाँके पाससे पुस्तक मांगा, कलुषितहृदयवाले उनचैत्यवासीआचार्योंने नहिं दिया बादमे पिछाडीके पहोर दोयमें बनावे, और प्रभातके व्याख्यानमें वाचे, इसकारणसें, उसीगामके चउमासेमे, कथानक कोश, किया, तथा मरुदेवा नामकी महत्तरा थी, उसनें अनशन ग्रहण किया, ४० दिनतक अनशनमें रही, उसकुं श्रीजिनेश्वरसरिजीने समाधि उत्पन्न करी, और उस महत्तराकुं कहा कि जहां तें उत्पन्न होवे, वह स्थान हमकुं कहना, उस महत्तरानेभी कहा हे भगवन् ! इसीतरे करुंगी, यह वचनअंगीकारकिया, बाद पंच १४ दत्तसूरि. For Private And Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१० परमेष्ठीका स्मरण करति हुइ वा मरुदेवा महत्तरा देवलोकगई, और महर्द्धिक देव हुवा, इहांसें कोइएकश्रावक युगप्रधान कानिवेकरणे श्री गिरनारपर्वत ऊपरजायके विचार किया कि यह सिद्धिक्षेत्र अधिष्ठायकसहित हैं, इससे अंबिकादिदेवताविशेष, जोमेरेकुं युगप्रधान कहेगा याने बतावेगा तो में भोजन करूंगा, अन्यथा में भोजन नहिं करूंगा, ऐसा साहसको अवलंबन करके रहा, उपवास करणा सरुकिया, इसअवसर में महाविदेहक्षेत्र में श्रीतीर्थंकरकुं नमस्कार करणेवास्ते गये हूवे, ब्रह्मशांतियक्षकों, उस मरुदेवा नामक महत्तराका जीवदेवने संदेशादिया, जैसे तेरेकुं, श्रीजिनेश्वरसूरिजी के सन्मुख यह कहेगा, तथाहि मरुदेवीनाम अज्जा, गणणी जा आसि तुम्ह गच्छंमि । सगंमी गया पढमे, जाओ देवो महिडीओ ॥ १ ॥ टक्कलयंमि विमाणे, दुसागराऊसुरो समुत्पन्नो, समणेसस्स जिणेसरसृरिस्स इमं कहिजासि ॥ २ ॥ टक्कउरे जिणवंद्णनिमित्तमेवागएण संदिहं । चरणमि उज्जमो भे, कायचो किंच सेसेहिं ॥ ३॥ अर्थ महत्तरापद धारणेवाली मरुदेवीनामकीसाध्वी तुमारे गच्छ में थी, वा मरुदेवी प्रथमदेवलोकगई है, उन मरुदेवीका जीव महर्द्धिक देव हुवा है || १ || टक्कल नामक विमान में, दोय सागरके आयुवाला देव उत्पन्न हूवा है, संपूर्ण साधुवोंका मालिक श्रीजिनेश्वरसूरिजीकों यह कहेणा || २ || टकोरनामक नगर में श्रीतीर्थ For Private And Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २११ करकों चंदननिमित्तआये हुवे देवनें ब्रह्मशांति यक्ष के साथ संदेशा कहा है, हे भगवन्! हे परमकल्याण योगिन् ! हे पूज्य ! आपसाहिब चारित्र में विशेषउद्यमकरणा, यहहि द्वादशांगीका सार है, और सर्वसारआल पंपाल है, ॥ ३ ॥ उस ब्रह्मशांति यक्षनें अपणे आप जाके यह संदेशा श्रीजिनेश्वरसूरिजी के पास नहिं कहा, तो क्या किया, युगप्रधानका निचे निमित्त प्रारंभ किया उपवास जिसश्रावकनें उसको उठाया, बाद उस श्रावकके वस्त्रके छेडेमे, अक्षर लिखे जैसे, मसटसट, और कहा कि अणहिलपुर पाटणमें जा, जिस आचार्य के हाथ से घोणेसे यह अक्षर जावेगा, वहिआचार्य इसबखत में भारतवर्ष में युगप्रधान है, बाद में उसश्रावकनें पारणाकरके श्री नेमिनाथस्वामिकुं वंदना करके अणहिलपुरपाटणआके सर्वउपाश्रयों में जाके वस्त्र छेडेपर लिखे हूवे अक्षर देखाये, परंतु किसीनें नहिं जाणे, अर्थात नहिं मालूम हुवे, और श्रीजिनेश्वरसूरिजी के उपाश्रय में जाके देखाये तब अक्षरोंकुं वाचके, उत्पन्न हूइ जो प्रतिभा यानें तत्काल विषय, संबंध अर्थग्रहण करणेवाली बुद्धि उससे यह पूर्वोक्त ३ गाथा विचारके श्रीजिनेश्वरसूरिजीनें वे अक्षर धोये, धोणेसे चलेगये, यानें मिटगये, बादमें उस श्राचकनें मनमें विचारा कि यह आचार्य निश्चय युगप्रधान है, इस हेतुसें विशेषश्रद्धान और भक्तियुक्त होकर गुरुपणे अंगीकार किये, और धारानगरी में भोजराजाका पुरोहित सर्वधर नाम था, वहांपर कोइ एकसमें श्रीवर्द्धमानसूरिजी पधारे, तब राजपुरोहितका विशेष परिचयहूवा, तब सर्वधरनें आचार्यमहाराजकुं कहाकि मेरेघरमें बडा For Private And Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१२ निधानहै, परंतु मालूमनहिं कहांपरहै, और आपकृपाकर बतायें तो, आधादेवू, तब आचार्य महाराजनें कहा घरका सार आधा देना, पुरोहितवोला ठीकहै, वाद धर्मका लाभजाणके, निधान स्थान देखाया, तब निधानप्रगटहूवा, जब आधा धन देने लगा, तब नहिं लिया, और आचार्यमहाराजने कहाके यह धन तो हमारे बहुत था, परंतु छोडके साधु वेहैं, तब पुरोहितनें कहा कि आपश्रीने आधा केसे मांगा, तब आचार्यमहाराज बोले, कि घरका सार आधा मांगाहै, तबफेरपुरोहितनेकहा कि घरका सारतो धनहै, तब आचार्यमहाराजने कहा घरकासार धननहिं है, किंतु घरकासारपुत्रहै, ऐसासुणके सर्वधरनें मौनधारा, तब आचार्यमहाराज अन्यत्र विहार करगये, पीछेसें सर्वधरके मनमें जैनाचार्यका उपगाररूप करजा, वोही एकशल्य मनमें रहगया, बाद अंतसमे पिताके मनमें असमाधिदेखके धनपाल और शोभन इन दोने पिताकुं असमाधिकाकारण पूछा तब पिता सर्वधर बोला कि अहो पुत्रो मेरे ऊपर एक जैनाचार्यका उपकारका ऋण है वहि एक असमाधिका कारण है दूसरा कोई कारणनहिं है यह मेरे मनमे असमाधिहै सो तुम दोनुमेंसें एक जैनाचार्यके पास जैनीदीक्षा लेवो तब मेरा ऋणउतरे और मेरे मनमें समाधिहोवे, और किसी हालतसें मेरेकुं समाधि नहिं होवे, ऐसा पिताका वचन सुणके धनपाल तो मौनधारके रहा और शोभन पिताका विशेषभक्त और विशेषविनीतहोणेसें, इसतरे नम्रहोके पिताकुं बोला हेपिताश्री निश्चे आपका वचन में पालुंगा, ऐसा शोभनका वचनसुणके, सर्वधरपुरोहितविशेष For Private And Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१३ समाधिसहितपरलोकगया, वादमें शोभन जंगमयुगप्रधान कल्पवृक्ष चिंतामणिसे अधिकमनोवांछितपूरणेवाले श्रीवर्धमानसूरिजीके सुशिष्य श्रीमान्जिनेश्वरमरिजीके पास शुभमुहूर्तमे दीक्षाग्रहणकरी, जैनसिद्धान्तस्वगुरुमुखसें भणके गीतार्थ शोभनमुनिहुवे, वाद उजेणी नगरीके श्रीसंघके पत्रसें, श्रीशोभनमुनिकुं वाचनाचार्यपददेके दोनोंमुनियोंके साथ शीघ्र राजपुरोहितधनपालकों प्रतिबोधनवास्ते भेजे, श्रीशोभनाचार्य गुरुजीकी आज्ञासें उजेणीनगरीमे जाके क्रमसें धनपालकुं प्रतिबोधके धर्ममें स्थिरकरके पीछे श्रीगुरुजीके चरणमें पधारे और धनपालका विशेषाधिकार आत्मप्रबोधग्रंथसे जाणना, इसतरे अनेकप्रकारसें चउवीसमाश्रीमहावीरस्वामितीर्थकरदर्शितधर्मकी बहुतप्रभावना करके वृद्धिको प्राप्त किया, अंतसमे सिद्धान्तविधिपूर्वक अणशणकरके समाधिसहित वर्गनिवासीहवे और प्रभावकचरित्र तथा पट्टावलि वगेरेमे इणोंका चरित्र लिखा है उसमें कुछ कुछ भेद मालूम होताहै सो धारणा भिन्न भिन्न होणेसें, भिन्न भिन्न मतान्तर है और जैनइतिहास, १ हरिभद्राष्टकभाषान्तर, २ मराठीरासमाला, ३ खरतरपट्टावलि संस्कृत ४ तथा भाषा ५ इत्यादि वहुतहि ठिकाणे खरतर विरुद १०८० का लेख है और पंचलिंगी, १ षट्स्थानक, २ कथाकोश, ३ लीलावती कथा ४ प्रमाणलक्ष्मा ५ वगेरे तथा श्रीबुद्धिसागर सूरिकृत व्याकरण वगेरे अनेक ग्रंथ खुदके रचे हुवे और शिष्य प्रशिष्योंके रचे हूवे वर्तमान समयमें उपलब्धहोतेहैं ॥४०॥४१॥ श्रीजिनेश्वरसूरिजीके पट्टपर श्रीजिनचंद्रसरिजी हूवे इनोंके १८ For Private And Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१४ नाममाला ( कोश ) सूत्र अर्थसे कंठथी, सर्व शास्त्रोंके जाणनेवाले, और भव्यप्राणियोंके मोक्षप्रासादकी प्राप्तिमें बीजभूत १८ हजार प्रमाणे संवेगरंगशालानामक प्रकरणरचा और जाबालिपुरमें पधारणेपर श्रावकोंके सन्मुख व्याख्यानमें, चियवंदणमावस्सय. इस गाथाका व्याख्यान करतां जो सिद्धान्तानुसारसूत्रादि पाठअर्थसहितप्रश्नोत्तर अर्थ कहे सो सर्व एक सुशिष्यने लिखे, सो (३०००) प्रमाणे दिनचर्या नामकग्रंथहूवा, वह दिनचर्या ग्रंथ श्रावकोंके बहुतहि उपगारिहवा, और आचार्यपदको प्राप्त होके विहार करते प्रथम दिल्लीसहरमें गए, उहां एकपुरुषको भाग्यशाली देखके ऐसाकहा, कि दिल्लीका बादशाहहोगा, जब वो पुरुष वोला कि में जो बादसाहहोउंगा तो आपमुझे दरशण अवश्य दैना, फेर दिल्लीके आसपासमें महाराज विहार करने लगे, जब वो पुरुषमोजदीननामेंबादसाहहुवा, तब गुरुमहाराज फेर दिल्लीनगरमें गए, तब दिल्लीके संघने बादसाहकों अरजकरी हमारे पूज्य श्रीजिनचंद्रसूरिजी महाराजआयें हैं, सो उनोंका प्रवेश उच्छव करने की इच्छाहै, तब मोजदीन बादशाहभी पूर्वोक्त वरदेनेवाले अपना गुरूकों आया जानके संपूर्णवाजिनसहित संघके साथमें, आप सामनेंगया, प्रवेश, उच्छवसहित शहरमें लायके धनपालनामा श्रीमालके बड़े मक्कानमें उत्तारा करवाया, उहां रहते धनपालश्रीमालप्रमुख बहुतसें श्रीमालांकों प्रतिबोधके जैनी श्रावककिये, तबसें श्रीमालजैनी श्रावक हुवे, और कितनेक राज्याधिकारियोंकों प्रतिबोधके जैनी श्रावक किये, उनोंको बादशाहनें बहुतमानदिया इससे उनका, For Private And Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१५ महतियाण, गोत्र हुवा, ये महतियाण गोत्रवाले, या तो भगवानकों नमस्कार करे, या अपनाधर्माचार्य श्रीजिनचंद्रसूरिजी गुरुकों नमस्कार करे, और किसीकों नमस्कार न करें, और महाराजके उपदेश बादशाहभी बहुतसरलपरिणामीहुवा, बहुत देशमें पर्यपणादिपर्वदिनों में, बहुतजीवहिंसा छोडाई, इसमाफक धर्मका उद्योतक, बडे प्रतापीक, संवेगरंगशाला प्रकरण, दिनचर्या आदि अनेक प्रकरण कर्त्ता श्रीजिनचंद्रसूरिजी भए, वेभी श्रीमहावीर स्वामिदर्शित धर्मको यथार्थपणे प्रकाशन करके और अंतसमें सिद्धान्तीय विधिपूर्वक अणशण करके समाधिसहित स्वर्ग निवासी हुवे, यह श्रीजिनचंद्रसूरिजीका यहां पर चरित्र संक्षिप्तमात्र कहा है || ४२ ॥ श्रीजिनचंद्रसूरिके पट्टपर छोटे गुरु भाइ, श्री अभयदेवसूरिजी विराजमान हवे, इनका संबंध संक्षिप्तमात्र लिखता हूं, धारापुरीनगरी में 'धन्नानामें सेठ जिसके धनदेवीनामें स्त्री उनके अभयकुमार नाम पुत्र हुवा क्रमसे ( सर्व कला शीखके ) युवान अवस्थाकों प्राप्त भया, तब एकदा प्रस्तावे श्रीजिनेश्वरसूरिजी विचरते भए, धारापुरीनगरीमें पधारे, जब नगरके सर्वलोक महाराजकों वंदना करने गए तब अभयकुमारभी अपने पिताके साथ दर्शनको गया, श्रीजिनेश्वरसूरिजी महाराजके मुखसे धर्म उपदेश सुणके वैराग्यकों प्राप्तभया, संसारकों असार जाणके दीक्षा ग्रहणकरी, क्रमसें बुद्धीके वलसें, सकल शास्त्र पढके आचार्य पदक प्राप्तभये, एकदा व्याख्यानमें शृंगारादिनवरसोंका बहुतपोषणकरा, तब सबसभा बहुतआनंदकों प्राप्तभइ, परंतु For Private And Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Acha २१६ श्रीजिनेश्वरसूरिजी महाराजनें स्त्रीयोंका वीर्य स्खलित हुवा देखके (विचार किया कि पहिलेभी अंबररंतर इत्यादि २ गाथाओंका अर्थ शृंगाररसवर्णनपूर्वक मुनियोंको रात्रिमें कहा तब मार्गमें जाति हुइ राजकन्याने सुणके बुद्धिशाली पुन्यवान् कोइ पुरुष है इसके साथ पाणिग्रहण करणेसें संसारिकविषयसुखबहुतश्रेष्ठ होगा, ऐसा मानकर-शृंगाररससें परवस हुइ थकी-आधि रात्रिसमय उपाश्रयके द्वार पास आयके किवाड खडकायें और अवाजदी, तब गुरु महाराजनें कहा ये कुगतिद्वार प्राप्त हुवा है, उतने फेर अवाज आइ में राजकन्या हूं दरवाजा जलदि उघाडो ऐसा कहने पर आप उठकर दरवाजे पास जाकर कपाट खोले और कहा कि क्या प्रयोजन है ! तब उस राजकन्याने शृंगार वर्णनसें लेकर अपना अभिप्राय हुवाथा सो कहा और कहाके मेरा पाणिग्रहण करो तब आचार्यश्रीनें कहा हेभद्रे ! हम साधु है हमको पाणिग्रहण करणा नहिं कल्पे ऐसा कहके बीभत्सरसका वर्णन किया तब वा राजकन्या छी छी करती हुइ विरक्तहोकर अपने ठिकाने गइ, वादव्याख्यानमे शृंगाररसका वर्णनकरनेसें ऐसाअनर्थहुवा श्रीअभयदेवसरिजी महाराजकों एकांतमें ऐसा ओलंभा दिया, कि आत्मार्थीकों शृंगारादिक रसोंका बहुत पोषण करना न चाहिये, ऐसा गुरुका वचन सुनके आत्मशुद्धिके अर्थ प्रायश्चित्तमांगा, तब गुरु महाराजनें कहा 'छमासतक आंबिलकी तपसा करे और छाछकी आछ पी' तब शुद्धी होवे, तब श्रीअभयदेवसूरिजी गुरुका वचन तहत्ति करके इसी मुजब For Private And Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१७ तपस्या करने लगे, ऐसी कठिन तपस्या करनेसें अंतप्रांत आहार खानेसें, कोई पूर्वकृत कर्मके योगसे सरीरमें 'गलित कोढ, रोग उत्पन्न होगया तथापि धर्मसे चलितचित्त न हुआ शरीरकी शुश्रूषा मात्रभी न करी, जब क्रमसे बहुतरोगवढने लगा, तब श्रीअभयदेवसरिजीकी अणशण करने की इच्छा उत्पन्न भइ, अन्यत्वेवमाहुः-श्रीजिनचंद्रसरिजीके वादमे श्रीमान् अभयदेवसूरिजी नवांगवृत्तिकर्ता युगप्रधान भये, उन्होंकी नवांगवृत्ति करणेमें सामर्थ्य और नीरोगता (याने-रोगरहित) किसतरे भइ, वो स्वरूप लेशमात्र कहे हैं, गुजरात देशमें भगवान् श्रीमान् अभयदेवाचार्य प्रधानचारित्रसमाचारिकी चतुराईमे मुख्य ऐसे परिवारसहित ग्रामनगरआकर वगेरे स्थानोंमे विहार करणेकर महीमंडलकुं पवित्र करते हुवे, संघके आग्रहसें धवलक नगर पधारे, वाद विहार क्रमसे शंभाणक ग्राम पधारे, वहां पर कुछ शरीरमें रोगोत्पत्ति कारण हवा, जैसे जैसे औषध वगेरे करे तैसे तैसे यह दुष्ट रोग विशेष वधे, जराभि उपशम न होवे (याने मिटेनहिं ) अलग अलग ग्रामोंमें रहनेवाले श्रीपूज्यपादभक्त श्रावक जब जब चउदशमें पाक्षिक प्रतिक्रमण होवे है, तव चार योजन प्रमाणे क्षेत्रसें वहां पर आयके पूज्योंके साथ प्रतिक्रमण करे, भगवान श्रीमद्अभयदेवसरिजीभि अपने शरीरकं अत्यंत रोगग्रस्त जाणके (इस वखतमें अपना कार्य परलोकसंबंधि साधना श्रेष्ठ है ऐसा विचार करके मिच्छामिदुक्कडं देने वास्ते विशेष कर तुम सवकों चउदशके रोज इहांपर आना ) इसतरे ज्ञानका उपयोग For Private And Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१८ देने पूर्वक उनसवश्रावकोंको बुलवाये 'याने समाचार भेजकर खामणानिमित्त आमंत्रण करवाया' श्रीसंघ समक्ष सर्व जीव राशिके सह खामणाकर अणशण आराधना करनेका विचार किया. वाद तेरसकी आधिरात्रिके समय शासनदेवताआई, और उस शासनदेवताने कहा, कि हे पूज्य ! आप सोए हो १ अब इहांसे आगे श्रीकोटिकगछपट्टावलीमें इसतरे लिखे है, की 'उहां तेरसके दिन आधिरात्रिकेसमें शासनदेवीने प्रकट होके' कहा कि 'हे स्वामिन् ये नव सूतकी कोकडीको सुलझावो! तब गुरु महाराज वोले' कि हाथोंकी आंगुली गलनेसें सुलज्ञावणेकी सामर्थ्य रही नहीं, तब शासनदेवी कहने लगी अभीतक आप बहुत कालतक श्रीवीर भगवान का शासन दीपावोगे, ओर नवांगसूत्रों की टीका करोगे, इससे हे खामिन् आप रोग जानका उपाय सुनो ! स्थंभनपुरके नजीक 'सेढिका नदी के किनारे खंखर पलासवृक्षके नीचे श्रीपार्श्वनाथस्वामीकी अतिशययुक्त प्रतिमा है' उहां निरंतर एक गाय आती है ओर प्रतिमांके मस्तक पर सदा दूधकी धारा देके, चली जाती है; उसी ठिकाणे सर्वसंघके साथ आप जायके श्रीपार्श्वनाथ प्रभुकी स्तवना करना तब उहां श्रीपार्श्वनाथखामीकी प्रतिमा प्रगट होगी, जिसके स्नात्रजलके प्रभावसे आपका रोगरहित दिव्य शरीर होवेगा, ऐसा स्वप्नमें कहके देवी अदृश्य होगई. जब प्रभात समय भया, तब उहांसें विहारकरके स्थंभनपुर गये, वहांके सर्वसंघको साथ में लेके पूर्वोक्त स्थानको गये, उहां जाके नमस्कार करके जयतिहुअण इत्यादि वत्तीस काव्योंका नवीन स्तोत्र करके स्तवना करने लगे. जय "फणिफणफार फुरंतरयणकर रंजियनहयल, फलिणी कंदलदलतमाल निल्लुप्पलसामल कमठासुरउवसग्गवग्ग संसग्ग अगं जिय, जय पञ्चक्ख जिणेसपास थंभणयपुरहिअ ॥१७॥, यह सत्तरमा काव्य बोलते, श्रीपार्श्वनाथखामीकी प्रतिमा जमीनमेंसे प्रगट भई, फिर सम्पूर्ण स्तवना जब पूर्ण भई, तब सर्व संघ मिलके आनंदके साथ स्नात्र पूजा करके, भगवानका स्नात्र जल महाराजके शरीरपर सींचा कि, तत्काल रोगरहित कंचनवर्ण शरीर होगया, तब तो सर्व संघ, तथा नगरके लोक देखके वडे आश्चर्यको प्राप्त भये, और जहां प्रतिमा प्रगट भई, तहां बहोत मनोहर उंचा शिखरबद्ध मंदिर बनवाया, मंदिर तैयार होनेसें For Private And Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१९ श्रीअभयदेवसूरिजी महाराजनें उसी प्रतिमाको स्थापन करी, तहां स्थंभनकनामें महातीर्थ प्रसिद्ध हुवा, बहोत यात्री लोक आने लगे, और 'जय तिहुअण स्तोत्र गुरूमहाराजने किया जिसके अंतके दो काव्योंमें धरणेन्द्र पद्मावतीको आकर्षणरूर बीजमंत्र गोपित रखाथा, इससे उसको हरकोइ कार्य में अपवित्रपणे स्त्री पुरुष बालकादिकगुणे तब धरणेन्द्रको आयके हाजर होना पडे, इससें धरणेन्द्र हाथ जोडके गुरूमहाराजसे कहने लगा कि ये दो गाथा आप भंडार करो, जो शुद्धभावसे तीस काव्य सदा पडिक्रमणेंके आदीमें गुणेंगे, तो टिकाणे बेटाही उनका उपद्रव दूर करूंगा, वाद धरणेन्द्र पद्मावतीके वचनसे अंतके दो काव्य भंडार किये, संघकों बोलने का मना किया, और स्वप्नेमें शासनदेवताने नवकोकडा सूतका, सुलझाणे वावत कहाथा, इसवास्ते भगवानने (अभय देवसूरिजीने ) नवांगसूत्रोंकी टीका करी, बीरनिर्वाणसें १५ ८१, विक्रमसंवत् ११११, श्रीस्तंभणपार्थनाथ प्रगट किया, और वीरनिवाणसें १५९०, विक्रम संवत् ११२०, में श्रीनवांगसूत्रोंकी टीका करी, ऐसे महा अतिशयी चारित्र पात्र चूडामणी निकेवल सर्व जीवों के उपचारार्थ गांव नगरोंमें विहार करते थके बहुत कालतक धर्मका उद्योत करते रहे, एकदा श्रीअभयदेव सूरिजीके प्रतियोधे हवे, दोय श्रावक अणशणकरके देवलोक गये, तब देवलोकमें जातेही ज्ञानके उपयोगसें जाना, कि हमारा धर्माचार्य श्रीअभयदेवसूरेिजी है, उनों के प्रसादसे यह देवलोकका सुख मिला है, अत्यंत रागी भया थका महाविदेहमें श्रीसीमंधरस्वामीके पास जाके हाथ जोड़के ऐसा प्रश्न किया, कि हमारा धर्माचार्य श्रीअभयदेवसूरिजी, इहांसें कोन गतिमें जावेगें, ओर कितने भवमे मोक्ष जावेगें! तब भगवान सीमंधरस्वामीने कहा कि तुमारा गुरु अभयदेवसूरि इहांसें अणशणकरके चोथे देवलोक जावेगा, उहांसें महाविदेहक्षेत्रमें उत्पन्न होके मोक्ष जावेगा, (इस्से इस भवसें तीसरे भवमें मोक्ष जावेगा,) ऐसा भगवानका वचन सुणके आनंदित हुवा थका श्रीअभय देवसूरिजीके व्याख्यानावसरमें सब सभाके सामने दोनों देव आके बोले, 'भणियंतित्थयरेहि महाविदेहे भवंमितइयंमि, तुह्माण चेव गुरुणो, मुक्खे सिग्वं गमिस्संति १, 'इत्यादि' और इस माफक शासन प्रभावक श्रीअभय देवसूरिजी नवांगवृत्तिकर्ता गुर्जरदेशमें कप्पडवाणिज्य नाम ग्रामके विषे अंतमें अणशणकरके वि० सं० ११६७ में कालकरके चौथे देवलोक गये ॥ ४२ ॥ ॥ ४३ ॥ श्रीअभयदेवसूरिजीके पाट ऊपर श्रीजिनबल्लभसूरिजी भए, वह प्रथम कूर्चपुरगछीय चैत्यवासी श्रीजिनेश्वर For Private And Personal Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २२० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूरिजीके शिष्य थे, जब उनके पास दशवैकालिकजीसूत्र पढनें लगे तब वैराग्यकों प्राप्त हो गुरुकों कहा, कि साधुका आचार तो ऐसा है, ओर सिथलाचारकों क्युं धारण किया है, तब गुरुनें कहा अभी हमारा ऐसाही कर्मोदय है, तब श्रीजिनवल्लभगणि गुरुकों पूछके शुद्ध क्रिया निधान, परमसंवेगी, श्रीजिनअभयदेवसूरिजीका शिष्य होगया, शुद्धचारित्र पालता थका अनुक्रमें सकलशास्त्रकों पढके गीतार्थ हुआ, एकदा विहार करते चीतोडनगरमें आए, उहां चंडिकादेवीकों प्रतिबोधके जीवहिंसा छोडाई, चंडिका देवी पिणशुद्ध क्रियापात्र साधु जाणके बडी भक्तिवती भई, फेर उहांके संघ साधारणद्रव्यसे ७२ बहत्तर जिनालय मंडित श्रीमहावीरस्वामीका मंदिर बनाया जिसकी प्रतिष्ठा करी, और पिंडविशुद्धिप्रकरण १, षडशीतिप्रकरण २, सूक्ष्मार्थसाधशतकप्रकरण ३, संघपट्टकप्रकरण ४, आदि अनेकग्रंथ बनाये, तथा दशहजार १००००, प्रमाण बागडी लोकोकों प्रतिबोधके जैनी श्रावक किये, फेर उसी चित्रकूटनगर में विक्रमसंवत् ११६७ ॥ श्री अभयदेवसूरिजी के वचनसें श्रीदेवभद्राचार्यजीनें श्रीजिनवल्लभगणिजीको आचापदमें स्थापन किये छ महिनातक आचार्यपदपालके, अंतमें अणशण करके और समाधिसे कालकर के देवलोकगए, इससमयमधुकरखरतरशाखा निकली यह प्रथम गछभेदभया, ॥ ४३ ॥ श्रीजिनवल्लभसूरिजी के पाट ऊपर श्रीजिनदत्तसूरिजी हुवे, सो बड़ा दादाजीके नामसें सर्वत्र सर्वलोक में प्रसिद्ध भए, इसतरह कोटिकगछ पट्टावली में लिखा है १, और श्रीजिनदत्ताचार्यकृत गुरुपारतंत्र्य पंचमस्मरणमें २ और लघुगणधरसार्धशतकवृत्ति में और गणधर सार्धशतक बृहत् वृत्ति में ४, श्रीक्षमाकल्याणजीकृत खरतरपट्टावली में ५ और गणधर सार्धशतक मूलपाठ में ६, और उपदेशतरंगिणीमें ७ और उपदेशसीत्तरि में ८, और कल्पांतरवाच्यामें ९ खरतरगछमे हुवे और बडे प्रभावीक हुवे लिखे हैं, इत्यादि अनेक ठिकाणे नवांगवृत्तिकर्ता खतरगछमें हुवे ऐसा लिखा है । उपाध्याय ३, और गुजराति जैन इतिहास में भी १० इसीतरह है और प्राकृत अभिधानराजेन्द्रकोसमें भी ११ श्रीनवांगवृत्तिकर्त्ता श्रीअभयदेवसूरिजी के बारेमें इसतरे लिखा है, तद्यथा ॥ अभिधानराजेंद्र प्राकृतकोश में अभयदेव शब्द के अधिकार में पृष्ठ ७०६ में नवांगवृत्तिकारक पहिला आचार्य है For Private And Personal Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२१ __ और अभयदेव शब्दका अर्थ-खरूप इसतरे लिखाहै अभयदेव-अभयदेव-पु०नवांगवृत्तिकारके, खनामख्याते आचार्य, स्थानांगसूत्रवृत्तौ, (१) तच्चरित्रं त्वेवमाख्यान्ति धारानगरीमें महीधर (धन्ना) शेठकी स्त्री धनदेवी नामहै उसको कूखसे अभयकुमार नामका पुत्ररत्न हुवा, वह अभयकुमार धारानगरी समोसरे हुवे श्रीवर्द्धमानसूरि शिष्य श्रीजिनेश्वरसूरिजीके पास दीक्षाली, कुमार अवस्थामेंहि व्रतलिया और अतिशायिबुद्धिसें १६वर्षकी उंबरमें श्रीवर्द्धमानसूरिजीकी आज्ञासे विक्रमसंवत् १०८८ के सालमें आचार्यपदको प्राप्तहुवे, उस बखतमें दुःकालादि होणेसें पढणे लिखणेके अभावसें सिद्धान्तोंकी वृत्तियां विछेदप्राय हुइथी, तब कोई एकरात्रिके समेमें शुभध्यानमें रहे हुवे अभयदेवसूरिजीकू शासनदेवता आकर बोली के हे भगवन् पूर्वाचार्योंने इग्यारे अंगोपर टीका करीथी, वा तो दोय अंगोंपर रहीहै वाकी टीका विछेदहुई है, इसलिये अबी फेर उण टीकाओंकी रचना करके संघपर दयाभाव लाके अनुग्रहकरणा' आचार्य महाराजने कहा, हे शासनाधिष्ठायिके हे मातः में अल्पबुद्धि, वालाहूं, और यह ऐसा दुष्कर कार्यकरणेकुं में किसतरे समर्थ हो, जिससे वहां पर टीका करणेमें जो कुछभी उत्सूत्र होवे तो महाअनर्थ संसारमें गिरना रूप होवेवादमें देवतानें कहा हे भगवन् आपको शक्तिमान् जाणकेहि मेंने कहाहै, जहांपर आपको संशय होवे, वहां पर उसी समय मेरा स्मरणकरणा, में महाविदेहमें जाके वहां श्री सीमंधरस्वामिकुं पूछके आपकों कहूंगी इसतरे करणे पर कुछ भी उत्सूत्र नहिं होगा, इसप्रकारसे शासनदेवीके उत्साह वढानेपर वह कार्य करणा सुरू किया, वह पूर्वोक्त कार्यकी समाप्ति न होणेपर-पहिलेहि आंबिलकी तपस्या करके और रात्रिमें जागरणकरणेकर धातुप्रकोपसें रुधिरविकाररूपरोग उत्पन्न हुवा, याने रक्तपित्तरोगहूवा, तब उनोंके विरोधिलोकोनें, अर्थात् चैत्यवासी लोकोनें, हरखपूर्वक अपवाद करा के जो यह अभयदेव उत्सूत्र व्याख्यान करताहै, इसलिये शासनदेवी क्रोधातुर होकर इसके शरीर में कोठरोग उत्पन्न कियाहै, उस अपवादको सुणके दुखी हूवे आचार्यकुं रात्रिमे धरणेन्द्रने आयके उस रुधिर. विकाररोगकुं मिटादिया, और कहा के खंभनकगामके पासमें सेढीनदी है, उसके किनारे जमीनमें श्रीपार्श्वनाथस्वामिकीप्रतिमा है, जिसके प्रभावसें नागार्जुनजोगीने रससिद्धि प्राप्त करीथी, उस प्रतिमाको प्रगटकरके वहां महास्तीर्थ आप प्रवर्तावो, वादमें आपकी अपकीर्ति नष्ट होगा, वादमें वहां जाकर श्रीअभयदेवसू. For Private And Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२२ रिजीनें, जयतिहुअण इत्यादि ३२ गाथाका स्तोत्र बणाकर संघसमक्ष उस प्रतिमाको प्रगट करी, तब आचार्यका महायश सर्व ठिकानें हवा, पीछे धरणेन्द्रके कहनेसें उस स्तोत्रकी २ गाथा निकालके शेष ३० गाथाहि प्रसिद्ध किया, वैसाहि अबी है, वा प्रतिमा खम्भातसहरमें अबिभी पूजिजे है, वा प्रतिमा श्रीनेमिनाथके शासनमें, २२२२ सालमें भराइ है, एसा उस प्रतिमाके आसनपर टांका हूवाहै, पीछे नव अंगोंपर टीका रची और पंचाशक बगेरेकी टीका बनायके वादमें कपडवंजसहरमें वि० सं० ११३५ के सालमें स्वर्ग गये, जैन इतिहासः, इत्येकोऽभय. देवसूरिः, अनेन चात्मकृतप्रबन्धेष्वेवं स्वपरिचयोऽदर्शि_श्रीमदभय देवसूरिनाम्ना मया महावीरजिनराजसन्तानवर्तिना महाराजवंशजन्मनेव संविग्नमुनिवर्गश्रीमजिनचन्द्राचार्यान्तेवासियशोदेवगणिनामधेयसाधोरुत्तरसाधकस्येव विद्याक्रियाप्रधानस्य साहाय्येन समर्थितम्, तदेवं सिद्धमहानिधानस्येव समापिताधिकृतानुयोगस्य मम मंगलार्थ पूज्यपूजा नमो भगवते वर्तमानतीर्थनाथाय श्रीमन्महावीराय, नमः प्रतिपन्थिसार्थप्रमथनाय श्रीपार्श्वनाथाय, नमः प्रवचन प्रबोधिकायै श्रीप्रवचनदेवतायै, नमः प्रस्तुतानुयोगशोधिकायै श्रीद्रोणाचार्यप्रमुखप. ण्डितपर्षदे, नमश्चतुर्वर्णाय श्रीश्रमणसंघभट्टारकायेति, एवंच निजवंशवत्सलराजसन्तानिकस्येव ममासमानमिममायासमतिसफलतां नयन्तो राजवंश्या इव वर्द्धमानजिनसन्तानवर्तिनः स्वीकुर्वन्तु, यथोचितमितोऽर्थजातमनुतिष्ठन्तु मुठूचितपुरुषार्थसिद्धिमुपयुञ्जतांच योग्येभ्योन्येभ्य इति, किञ्च–सत्सम्प्रदायहीनखात्सदूहस्य बियोगतः, ॥ सर्वखपरशास्त्राणामदृष्टेरस्मृतेश्च मे ॥१॥ वाचनानामनेकखात् , पुस्तकानामशुद्धितः, ॥ सूत्राणामतिगांभीर्यान्मतिभेदाच कुत्रचित् ॥ २॥ क्षुण्णानि संभवन्तीह, केवलं सुविवेकिमिः ॥ सिद्धान्तानुगतो योऽर्थः, सोऽस्माद्ग्राह्यो न चेतरः ॥ ३ ॥ शोध्यं चैत. जिने भक्तैर्मामवनिर्दयापरैः, ॥ संसारकारणाद् घोरादपसिद्धान्तदेशनात् ॥ ४ ॥ कार्या नचाक्षमाऽस्मासु, यतोऽस्माभिरनाग्रहैः ॥ एतद्गमनिकामात्रमुपकारीति चर्चितम् ॥५॥ तथा संभाव्य सिद्धान्ताद्, बोध्यं मध्यस्थया धिया ॥ द्रोणाचार्या दिमिः प्राज्ञै. रनेकैरादृतं यतः ॥ ६ ॥ जैनग्रन्थविशालदुर्गमवनादुचित्य गाढश्रमं, सद्व्याख्यानफलान्यमूनि मयका स्थानांगसद्भाजने, संस्थाप्योपहितानि दुर्गत नरप्रायेण लव्यर्थिना, श्रीमत्संघ विभोरतः परमसावेव प्रमाणं कृती ॥ ७ ॥ श्रीविक्रमादित्यनरेन्द्र कालाच्छतेन विंशत्यधिकेन युक्ते ॥ समासहस्रेऽतिगते (वि० सं० ११२०) निबद्धा For Private And Personal Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २२३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्थाviratarsपधियोऽपि गम्या ॥ ८ ॥ स्था० १० ठा०, एवं समवायांग भगव त्यंगेपि सविस्तरतः स्ववंशपरम्परादर्शितेति । तस्याचार्यजिनेश्वरस्य मदवद्वादिप्रतिस्पर्द्धिनः, तद्बन्धोरपि बुद्धिसागर इति ख्यातस्य सुरेर्भुवि, छन्दोबन्धनिबद्धबन्धुरवचः शब्दा दिसलक्ष्मणः, श्रीसंविनविहारिणः श्रुतनिधेश्चारित्र चूडामणेः ॥ ८ ॥ शिष्येणाभयदेवाख्यसूरिणा विवृतिः कृता ॥ ज्ञाताधर्मकथांगस्य, श्रुतभक्त्या समासतः ॥ ९ ॥ युग्मम् ॥ निरृतिककुलनभस्तलचन्द्र द्रोणाख्य सूरिमुख्येन ॥ पण्डितगणेन गुणवत्प्रियेण संशोधिताचेयम् ॥ १० ॥ एकादशसु शतेष्वथ, विंशत्यधिकेषु विक्रमसमानाम् ॥ ( वि० सं० ११२० अणहिल पाटकनगरे, विजयदशम्यां च सिद्धेयम् ॥ ११ ॥ ज्ञा० द्वि० श्रु०, यस्मिन्नती ते श्रुतसंयमश्रियावप्राप्नुवत्याथ परं तथाविधम् ॥ स्वस्याश्रयं संवसतोऽति दुस्थिते' श्रीवर्द्धमानः स यतीश्वरोऽभवत् ॥ १ ॥ शिष्योऽभवत्तस्य जिनेश्वराख्य. सूरिः कृतानिन्द्य विचित्रशास्त्रः ॥ सदा निरालम्बविहारवर्ती, चन्द्रोपमचन्द्रकुलाम्बेरस्य ॥ २ ॥ अन्यपि विज्ञो भुविसारसागरः, पाण्डित्यचारित्रगुणैरनुपमैः, शब्दादिलक्ष्मप्रतिपादकानघग्रन्थप्रणेता प्रवरः क्षमावताम् ॥ ३ ॥ तयोरिमां शिष्यवरस्य वाक्यात् वृत्तिं व्यधात् श्रीजिनचन्द्रसूरेः ॥ शिष्यस्तयोरेव विमुग्धबुद्धिर्धन्थार्थबोधेऽभयदेवसूरिः ॥ ४ ॥ बोधो न शास्त्रार्थंगतोऽस्ति तादृशो, न तादृशी वाक् पटुताऽस्ति मे तथा ॥ न चास्ति टीकेह न वृद्धनिर्मिता, हेतुः परं मेऽत्र कृतौ विभोर्वचः ॥ ५ ॥ यदिह किमपि दृब्धम् बुद्धिमान्द्याद् विरुद्धं, मयि विहितकृपास्तद्धीधनाः शोधयन्तु ॥ विपुलमतिमतोऽपि प्रायशः सावृतेः स्यान्नहि न मति विमोहः किं पुनमदृशस्य ॥ ६ ॥ चतु रधिकविंशतियुते, वर्षसहस्रे शते ( वि० सं० ११२४ ) च सिद्धेयम् ॥ धवलकपुरे प्रसस्त्यै, धनपत्योर्वकुलचन्दिकयोः ॥ ७ ॥ अणहिलपाटकनगरे, संघ वरैर्वर्तमानबुधमुख्यैः ॥ श्रीद्रोणाचार्यायैर्विद्वद्भिः शोधिताचेति ॥ ८॥ पञ्चा० १९ विव०, अविस्सइ तयवत्थो, जिणनाहो पणसयाइ वरिसाणं ॥ तयणुं वरणिंद निम्मिअ, सन्निझो विइअ सुअसारो ॥ ४४ ॥ सिरिअभयदेव सूरि, दूरीकय दुरिअरोगसंघाओ ॥ पयडंतित्थं काही, अहीणमापदिप्पतं ॥ ४६ ॥ ती० ६ कल्प, इति अभिधान राजेन्द्र कोशे, इस उपरोक्त लेखका सारभावार्थसंक्षेपसें लिखता हूं कि निग्रंथ, कोटिक, चंद्र, वनवासी, इण नामोसें श्रीसुधर्मास्वामिकी पट्टपरम्परा और गछपरम्परा अविछिन्नपणे ३७ पट्टतकक्रमसें चलतिरहि और चन्द्रकुल, वयरी शाखा यहभी क्रमसें चलते रहे वादमें ३८ पट्टमें सुविहित परंपरावाले, सुविहितपक्ष, वा सुविहित गछके धारक For Private And Personal Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २२४ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir और ८४ गछके नायक श्रीउद्योतनसूरिजी हूवे, उनोके पट्टमें श्रीसूरिमंत्रकों धरणेंद्रों तीर्थंकरपास भेजकर शुद्धकरवाणेवाले, और महाघोर तपके प्रभावसें श्रीविमलसाद मंत्रीकों प्रतिबोधके श्रावक धर्मधराणेवाले, आबुजी तीर्थंकों प्रगटकराणेवाले, श्रीउद्योतनसूरिजी के ज्येष्ठांतेवासी श्रीवर्धमानसूरिजी हूवे, उनोके पट्टनें युगप्रधान पदकों धारणकरणेवाले, १०८० में दुर्लभराजाके सन्मुख अणहिलपुरपाटणमे चेत्यवासीयोंकों जीतकर अतिनिर्मलखरतर विरुदकों धारणकरणेवाले और दशमे अछेरेके प्रभावकों दूर हटानेवाले, और अनेक निर्दोष शास्त्रोंकों रचनेवाले, श्रीजिनेश्वरसूरिजी और श्रीबुद्धिसागरसूरिजी हूवे, इनोके पहमें संवेगरंगशालादिग्रंथोंके कर्त्ता पद्मावतीसें वरकों प्राप्तहुवा और मौजदीन नामक बादसाहकों वरदेनेवाले, और उसको प्रतिबोध देनेवाले, श्रीजिनचन्द्रसूरिजी हूवे, इनोंके पट्टमें छोटे गुरु भाइ जयतिहुअणस्तोत्र बनायके श्रीस्तंभन कतीर्थकों प्रगटकर अपने शरीरमे उत्पन्नहुवे कोढरोगकों दूर हटानेवाले, और शासनदेवीके अनुरोधसें निर्दोष नवांगवृत्तिकों बनानेवाले, औरभी अनेक टीका प्रकरण वगेरे रचनेवाले, एकावतारी श्रीमान् अभयदेवसूरिजी हूवे. इस अनुक्रमसें स्थानांग, समवायांग, भगवती, ज्ञाताधर्मकथा, पंचाशक प्रकरणवगेरेकी वृत्तियोंके अंतप्रशस्तियोंमे वृत्तिकारनें अपनी गुरुशिष्य की परम्परा दिखाई है ऐसा वृत्तिकार खुद लिखतें है और चान्द्रकुल, वा चांद्रगछ एकहि है भिन्न भिन्न नहिं है इस कथनसें, वृत्तिकारनें यथाऽऽम्नाय पूर्वापर प्रसंगानुसार, शेष रहै कोटिक - गछ, वयरीशाखा, खरतर विरुदभी दिखाइ दिया है, एसा समजना चाहिये, और श्रीसुधर्मास्वामिसें लेकर श्रीउद्योतनसूरिजीतकतो चान्द्रकुलीय खरतरवडगच्छादिकों की पावली प्रायें कर एकसरिखीहि मिले है और आगे फरक है, वास्तेहि श्रीउद्योतनसूरिजी श्रीवर्धमानसूरिजीसें लेकर श्रीअभयदेवसूरिजीनें अपनेतक गुरुशिष्य की परम्परा और चांद्रकुल मात्र लिखा है, शेष रहै कोटिकगछ, वयरीशाखा, खरतर विरुद पूर्वापर प्रसंगानुसार स्पष्टतर होने में नहिं लिखा है, और गुरुशिष्य - परम्परा लिखनेकी अति आवश्यकता समजकर यथावस्थित अपनी परम्परा लिखीहै, इतने लिखने पर हि शेषरहि वातोंका बोध होता हूवा देखके जादा विस्तार नहिं किया, बडे पुरुष गंभीरस्वभाववाले होते हैं, जहांपर जितना प्रयोजन देखे उत - नाहि लेखादि कार्य करते हैं, ज्यादे नहिं, For Private And Personal Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २२५ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir > और वाद में वृत्तिकार अपनेकों शोधनेमें, वा लिखने में सहाय देनेवाले, विद्वान आचार्य मुनियोंका उपकार समजकर, उनका नामादिक स्पष्टतर लिखा है और बेगड खरतरशाखामें, श्रीजिनसिंहसूरिशिष्य श्रीजिनप्रभसूरिकृत श्रीतीर्थंकल्पप्रकरणमें ६ छठा तीर्थंकल्पाधिकारमें लिखते हैं कि श्रीधरणेंद्रकरके सेवितहूवे थके सेतीनदीके तटपर पांचसे वर्षतक श्रीस्तंभनपार्श्वनाथस्वामीरहे देदीप्यमान सर्वोत्कृष्टप्रभाववाले, ऐसे श्रीस्तंभनपार्श्वनाथस्वामीकुं प्रगटकर अपने शरीरमे जो दुष्टकोढरोग के समूहकों दूर हटानेवाले श्रीअभयदेवसूरिजी भये, उनोंनें जयतिहुआण स्तोत्र रचकर इस्तंभन कतीर्थको प्रगट किया, इहांतक अभिधान राजेंद्र कोशअंतर्गत लेखका भावार्थ है और तपागच्छीय श्रीसोमसुंदरसुरिशिष्य श्री सोमधर्मकृत उपदेशसित्तरि १ और गुजराति जैन इतिहास २ और गणधरसार्धशतक ३ तथावृत्ति, ४ प्राकृतवीरचत्रि ५ श्रीजिनदत्तसूरिकृत गुरुपारतंत्र्य नामक पंचमस्मरण ६ श्रीसमय सुंदरोपाध्यायशिष्यकृत तीर्थकल्पव्याख्या ७ श्रीस्तंभन पार्श्वनाथजी उत्पत्तिका बडास्तवन ८ समाचारिशतक ९ और हीरालाल हंसराजकृत श्रीहरिभद्राष्टकटीका भाषान्तर १० इत्यादि अनेकशास्त्रों में नवांगवृत्तिकारक श्री अभयदेवसूरिजीका खरतर विरुदगच्छ वगेरे प्रगटपणे लिखा है और नवांगवृत्तिकारक श्रीअभयदेवसूरिजी के पट्टमें युगप्रधानपदधारक श्रीजिनवल्लभसूरिजी हूवे, और इनोंके पहमें अंबादत्तयुगप्रधानपदधारक और एक लाख तीस हज्जार घरकुटुंबकुं प्रतिबोधनेवाले, और च्यारनिकाके अनेक देवदेवीयोंकरके सेवित. 5, एकावतारी, बडादादाजी, इसनाम प्रसिद्ध श्रीजिनदत्तसूरिजी हूवे, गणधर सार्धशतकवृत्ति, गुरुपारतंत्र्य पंचम स्मरण, कोटिकगच्छपट्टावली, समाचार दि अनेक ठिकाणे प्रगट लिखा है और धर्मसागरने खरतरगच्छ परद्वेष धारके उ क दोनों महापुरुषों पर द्वेष करके इसतरे कहाकि, नवांगवृत्तिकारक श्री अभयदेवसूरि खरतरगच्छ मे नहिं हूवे, श्रीजिनवल्लभसूरिजी नववृत्तिकारक श्री अभयदेवसूरिजी शिष्यहि नहि हैं, अर्थात् नवांगवृत्तिकारक श्रीअभयदेवसूरिजीके पहमें नहिं हैं श्रीजिनेश्वरसूरिजी सें १०८० में खरतर विरुद नहिं हुवा, अर्थात् श्रीजिनेश्वरसूरिजीकों खरतर विरुद नहिं हैं, श्रीजिनदत्तसूरिजीसें खरतरगच्छ हुवा है फेर कहा कि १२०४ में खरतरकी उत्पत्ति हुई है, और चामुंडक, और औष्ट्रिक आदि शब्दोंसें गच्छके ऊपर ऊपरोक्त दोय महापुरुषोंके ऊपर १५ दत्तसूरि० For Private And Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२६ द्वेषधारके असत् दोषारोपण कियाहै, इत्यादि अनेक शास्त्रबाह्य अशुद्ध प्ररूपणा मनोमति धर्मसागरने करी है, इत्यादि कारणोंसें संवत् १६ सेमें निन्हव धर्मसागर मतावलंबियोंसें आधुनिक तपोटमतकी पुष्टी हुई, और इस समे उनोंकी बहुतहि प्रबलता है, इसवास्तेहि पूर्वोक अशुद्ध प्ररूपणा करते हैं, उपदेशन के करवाते हैं, ॥ अब इहांपर प्रत्युत्तरमें बहुत हि वेचनीय है, बहुत शास्त्रोंकी शाख है परन्तु इहांपर ग्रंथगौरवभयसें अतिप्रर यसे उन शास्त्रोंका पाठ वगेरे नहि लिखा है __ और किसीकों विशेष देखनेकीही इच्छा तो श्रीचिदानंदजीकृत आत्मभ्रमोच्छेदनभानु नाम ग्रंथकी पीठिका सहसे, व ३१ से ६८ तक अवश्य देखलेवे, और यह ग्रंथ छपकर तइयार हवा है सा आदिसे अंततक देखना जिस्से इस विषयका परिपूर्ण समाधान होगा, और इस विषयके पहिले बहुत ग्रंथ छप चुके. है, और उनग्रंथोंमे इसविषयका बहुतहि सप्रमाण शास्त्रपाठोंसे प्रत्युत्तर दिया गयाहै, इसलिये उन पुरुषोंकों धन्यवाद है, सत्यार्थ प्रगटकरणेसें, और उनोंके रचे हुवे ग्रंथ ये हैं प्रश्नोत्तरविचार, प्रश्नोत्तरमंजरी, ३ भाग हैं, पर्युषणानिर्णय, आत्मभ्रमोछेदनभानु आदि छपे हैं, इसलिये पिष्टपेषण समजकर मेने इहांपर विशेष नहिं लिखा है, इत्यलं विस्तरेण, __ और ऊपरोक्त विषयकी समूल उत्पत्ति इसतरे भइ है श्रीउद्योतनसूरिजीके ज्ये. छांतेवासी श्रीवर्धमानसूरिजी हूवे, तिनोंके शिष्य श्रीजिनेश्वरसूरिजी हुवे इस अनुक्रमसें अविच्छिन्न जो पाटपरम्परा चली सो खरतर इसनामसें प्रसिद्ध है, यह एकही गच्छसात नामसें प्रसिद्ध है' प्रथम निग्रन्थ, १ कोटिक, २ चन्द्र, ३ वनवासी, ४ सुविहित, ५ खरतर, ६ राजगच्छ, ७ याने धार्मिक ७ क्षेत्र होवे वैसा, भिन्न भिन्न कारणोंसें अतिनिर्मल यह ७ नाम प्रसिद्ध हैं, और श्रीउद्योतनसूरिजी महाराजनें श्रीसिद्धक्षेत्रमें श्रीसिद्धबडके नीचे श्रीसर्वदेवादि भिन्न भिन्न आचार्योंके ८३ शिष्योंकों श्रेष्ठ समयमें मध्यरात्रिसमे अपणे हाथसें आचार्यपद दिया, उसवक्त ८४ गच्छ हवे, इन ८४ सी गच्छोंमे शुद्ध प्ररूपक बडे प्रभाविक आचार्य महाराज हवेहैं सो सर्व पूजनीय For Private And Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२७ माननीय है, और तिन ८४ सीयोंकी समाचारी, कथंचित् एकहि है, एक गुरुके थापे भये हैं प्ररूपणाभी प्रायें एक समानही है, और इस समय (८४) चौरासी गच्छोंमेसें बहुत गच्छ तो विच्छेद होगये है, प्रायें २-४ गच्छ संप्रदाय शेष रहि संभवे. है, ऐसा प्राचीन जैनसंप्रदायिक इतिहाससे मालूम होवे है, फेर विशेष तो श्रीज्ञानिमहाराज जाणे, श्रीवर्धमानसूरिजीकी संप्रदायवाले, और श्रीसर्वदेवसूरिजीकी संप्रदायवाले और चित्रवाल गच्छीय तपाविरुदधारक श्रीजगचंद्रसूरिजीकी संप्रदायवाले, ओसीयां नगरी प्रतिबोधक श्रीरत्नप्रभसूरिजीकी संप्रदायवाले, चोथकी संवच्छरी षडावश्यकादि समाचारी प्रायें समानहि करते हैं इन संप्रदायोंमे होनेवाले महापुरुषोंकी करीहुई प्ररूपणाभी शुद्ध है, येही संप्रदाय प्रायें प्राचीन हैं __ और श्रीवर्धमानसूरिजी ८४ सी शिष्योंमे बडे थे, और मुख्य थे, विणोनें छमास निरंतर आचाम्ल (आंबिल) किया, और पक्षातरमे, श्रीसूरिमंत्रका अधिष्ठायककों जाणनेके लिये, क्रमागत श्रीसूरिमंत्र श्रीउद्योतनसूरिजीके मुखसे प्राप्त होकर, वादमे श्रीदेवगुरुआराधनरूप अष्टम तप किया, तिसमें श्रीसूरिमंत्रका अधिष्ठायक श्रीनागराजधरणेन्द्र आया, और कहा कि हे भगवन् मेरेकों किसवास्ते याद किया, श्रीसूरिमंत्रका अधिष्ठायक में हूं, कार्य होयसो कहो, तब आचार्यश्रीजी बोले कि, इस श्रीसूरिमंत्रका चौसठ देवता हैं, उणों का स्मरण करणेसें, किसीनेभी दर्शन ना , इसका क्या कारण है, तब धरणेन्द्रनें कहा कि, आपके सूरिमंत्र में एक र कम है, इसलिये अशुद्ध होणेसे अशुभभावसें देवता दर्शन नहिं देवेनी तुमारे तपके प्रभावसें आया हूं, तब आचार्यश्रीनें कहा कि, तें प्रथम त्र शुद्धकर, फेर दूसरा कार्य यथावसर कहूंगा, तब धरणेन्द्रने कहा कि, शक्ति नहिं है, तीर्थकर सिवाय शुद्ध होवे नहिं, तब आचार्य श्री. ने सूरिमंत्रक डब्बा धरणेन्द्रकुं दिया, तब धरणेन्द्रनें महाविदेहक्षेत्रमें श्रीसीमंधर. खामीकों जाके दिया, और श्रीसीमंधरस्वामीनेभी तब सूरिमंत्रकों शुद्धकरके धरणेन्द्रकों दिया, धरणेन्द्रनें पीछा लाकर श्रीवर्धमानसूरिजीकों दिया, वादमें तीनवार उस शुद्ध सूरिमंत्रका स्मरण किया, वादमें सप्रभाव वह सूरिमंत्र हूवा, बहुतहि जादा फुरणे लगा, बादमे उस सूरिमंत्रके सर्व अधिष्ठायक देवताओंने दर्शन दिया, तब उन देवताओंसें कहा कि, विमलदंडनायक हमको पुछे है कि, आबुगिरि शिखरपर, जिनप्रतिमारूप तीर्थ है, वा नहिं, इत्यादि अधिकारआबुप्रबंधमे है, For Private And Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar २२८ सो अर्थरूपसें श्रीवर्धमानसूरिजीके संबंधमें दिया गया है, इसतरे श्रीआबुतीर्थकों प्रगटकर श्रीविमलवसहीकी प्रतिष्ठा करी, वादमे बहुत शासनकी प्रभावना करके स्वर्गगये इनोंके श्रीजिनेश्वर बुद्धिसागर जिनचन्द्र अभयदेवादि और श्रीमरुदेवा कल्याणवती महत्तरादि बहुतहि विद्वान गीतार्थ साधु-साध्वीयोंकी वृद्धि हुई, और बहुत बडा समुदाय होणेसें, बृहद्गच्छ इस नामसे यह गच्छ प्रसिद्ध हवा, ऐसा गणधरसार्धशतकादिकका अभिप्राय है, और पूर्वोक्त विषयपर आबुप्रबंध विशेष उपकारार्थ दिया जावे है-तद् यथा ॥ अह अनयाकयाइ सिरिवद्धमाणसूरि आयरिया अरन्नर गच्छनायगासिरिउज्जोयणसूरिणो गामाणुगाम दूइज्जमाणा अप्पडिबंधेणं वि गं विहरमाणा अब्बुयगिरि सिहरतलहट्टीए कासदहगामे समागया तयाणं विमलदंड नायगो पोरवाडवंसमंडणो देसभागं उग्गाहेमाणो सोवितत्थेवागओ 'यगिरिसिहरे चडिओ सवओ पव्वयं पासित्ता पमुईओ चित्ते चित्तेउ माढत्तो जिणपासायं कारेमि ताव अचलेसर गुहावासिणो जोई जंगम तावस सन्नासिणो माहण प्पमुहा दुमिच्छत्तिणो मिलिऊण विमलसाह दंडनायग समीवं आढत्ता एवं वयासी भो विमल तुह्माणं इत्य तित्थं नत्थि अम्हाणं तित्थं कुलपरंपरया तं वट्टई अओ इहेव तव जिणपासायं रचयं नदेमो तओ विमलो विलरको जाओ अव्वुयगिरि सिहरतलहट्टीए कासदहगामे समागओ जत्थ वटूमाणसूरि समोसरिओ तत्थेव गुरुं विहिणा वंदिऊण एवं वयासी भयवं इहेव पव्वए अम्हाणं तित्थं जिणपडिमारूवं वई. ति वा नवा तओ गुरुणा भणियं वच्छ देवया आराहणेणं सव्वं जाणिजइ छउमत्था छहं जाणंति तओ तेण विमलेण पत्थणाकया किंबहुणा वटुमाणसूरिहि छम्मासी तवं कयं तओ धरणिंदो आगओ गुरुणा कहियं भोधरणिंदा सूरिमंत्त अहिछायगा चउसटि देवया संति ताण मज्झे एगावि नागया न किंचि कहियं किं कारणं धरणिदेणुत्तं भयवं तुम्हाणं सूरिमंत्तस्स अक्खरं वीसरियं असुह भावाओ देवया नागच्छंति अहं तव बलेण आगओ गुरुणा वृत्तं भो महाभाग पुव्वं सूरि मंत्त सुद्धं करेहि पच्छा अनं कजं कहिस्सामित्ति धरणिदेणुत्तं भगवन् मम सतीनस्थि सूरिमंत्तक्खरस्सअसुद्धिसुद्धिं काउं तित्थगर विणा कस्सवि सत्ती नत्थि तो सूरिणा सूरिमंत्तस्स गोलओ धरणिंदस्स समप्पिओ तेण महाविदेहखित्ते सीमधरसामिपासेनीओ तित्थगरेण सूरिमंत्तो सुद्धो कओ तओ धरणिंदेण सूरिमंत गो. For Private And Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२९ लओ सूरिणं समप्पिओ तओ वारत्तय सूरिमंत्त समरणेण सव्वे अहिट्ठायगा देवा पञ्चक्खीभूया तओ गुरुणा पुट्ठा विमलदंडनायगो अह्माणं पुच्छइ अव्वुयगिरिसिहरे जिणपडिमारूवं तित्थं अच्छइ नवा तओ तेहिं भणियं अव्वुयादेवी पासओ वामभागे अदबुदआदिनाहस्स पडिमा वइ अखंडरकयसत्थियस्स उवरि चउसर पुप्फमाला जत्थदीसइ तत्थ खणियन्वं इइ देवया वयणं सुच्चा गुरुणा विमलसावयस्स पुरओ कहियं तेण तहेव कयं पडिमानिग्गया विमलेण सव्वे पासंडिणो आहृया दिट्ठा जिणपडिमा सामवयणा जाया पासायं काउमारद्धं विमलेण, पासंडेहिं भणियं, अह्माणं भूमिदव्वं देहि तओ विमलेण भूमी दव्वेहिं पूरिऊण पासायं कयं वट्टमाणसूरीहिं तित्थंपइद्वियं न्हवण पूयाइ सव्वं कयं तओ पच्छागयकालेण मिच्छत्तिणो तस्साहिणा जाया, तओ वावण्णजिणालओ सोवन्नकलसधयसहिओ निम्म विओ विमलेण अठारसकोडी तेवनलरकसंखादव्वो लग्गो अज्ज वि अखंडो पासाओ दीसह इत्यादि इति अर्बुदाचलप्रबंध इस आबुतीर्थकों प्रगट करणेवाले श्रीवर्धमानसूरिजीसें अविच्छिन्न दुप्पसहसूरिपर्यंत जो संप्रदाय है, सो सर्वत्र बहुलताकरके, खरतरगच्छ, इसनामसें इसजगतमे महसूर है, और श्रीउद्योतनसूरिजी श्रीसिद्धक्षेत्रमें सिद्धवडनीचे ८३ शिष्योंकों आचार्यपद देकर अपणा अल्पायु जाणके वहांहि अणसणकर समाधिसें वर्गगये, और ८३ तयांसी शिष्योंकों वडवृक्षनीचे आचार्यपद दिया, इस्स कारणसे वडगच्छकी स्थापना हुइ, महाप्रभाविक हूवे, तिस्से अपणे अपणे गच्छनामसे प्रसिद्ध हूवे, और सामान्यप्रकारसें तयांसीयोंकाहि बडगच्छ कहा जावे है, परन्तु वादमें अलग अलग अपने नामसें प्रसिद्धि पाये, और उन ८३ तयांसीयोंमें बडे श्रीसर्वदेवसूरिजी थे, वैहि विशेषकर, वडगछ, इस नामसें प्रसिद्ध हुवे हैं ऐसा संभव है, और श्रीउद्योतनसूरिजी श्रीसर्वदेवसूरिजी और श्रीदेवसूरिजी आदि श्रीमुनिरत्नसूरिजी पर्यंत अनुक्रमसें जो पाटपरम्परा है, सो वडगच्छ इसनामसें प्रसिद्ध है, और यह गच्छ, निग्रन्थ, कोटिक, चन्द्र, वनवासी, सुविहितपक्ष, वडगच्छ इन नामोंसें प्रसिद्ध है, और कहा जाता है, और यथार्थरूपसे तो श्रीमुनिरत्नसूरिजीके आगे पाटपरम्परा नहिं चली, विच्छेद गइ ऐसा प्रायें संभवे है, और कहा जावेहै कि मुनिरत्नसूरिजी आगे वडगच्छ संप्रदाय श्रीचित्रवालगच्छमें जामिलि है, इस्सें महातपाविरुदधारक श्रीजगचन्द्रसूरिजीसें लेकर वडगच्छकी पाटपरम्परा लिखि जावेहै, और वडगच्छकी पावलिमेंभी इसी. For Private And Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३० तरे पाटपरम्परा देखनेमे आवेहै, ऐसा किसीका कहिना है, यह भी श्रीबृहत्कल्पवृत्ति श्रीधर्मरत्नप्रकरणवृत्ति आदि शास्त्रदेखतां तो यह कहेना मिथ्या संभवे है, जैसे श्रीअभयदेवसूरिजी नवांगवृत्तिकर्तानें अपणा कुल पाटपरम्परा वगेरहवतंत्र लिखाहै, इसीतरे महातपाविरुद धारक श्रीजगच्चन्द्रसूरिजीकामी तत्पप्रभाकर श्रीदेवेन्द्रसू. रिजी तत्संतानीय श्रीक्षेमकीर्तिसूरिजोनेंभी अपणा चित्रवालगच्छ, महातपाविरुद, और स्वतंत्र पाटपरम्परा लिखी है, इस्से इनोंमे वडगच्छका गन्धभी नहिं है, इनोंके वडगच्छकी पाटपरम्परासें कोई संबंध नहिं है, तद् यथा- श्रीपद्मचन्द्रकुलपविकाशी श्रीधनेश्वरसूरिजी हुवे, श्रीचैत्रपुरमंडन महावीर प्रतिष्ठासें चैत्रगच्छ हुवा, उस गच्छमें श्रीभुवनेन्द्रसूरिजी उनके शिष्य श्रीदेवभद्रगणिजी, उनके शिष्य श्रीज. गच्चन्द्रसूरिजी और श्रीदेवेन्द्रसूरिजी, तथा श्रीविजयेन्दुसूरिजी, यह तीन महाराजश्लोकोक्तगुणसहित हुवे, श्रीविजयेन्दुसूरिजीके प्रथम शिष्य श्रीवज्रसेन सूरिजी दूसरे शिष्य श्रीपद्मचंद्रसूरिजी तीसरे शिष्य श्रीक्षेमकीर्तिसूरिजीने श्रीबृहत्कल्पसूत्रकी टीका विक्रमसंवत् १३३२ में रचि है, उसकी प्रशस्तिमें और श्रीधर्मरत्नप्रकरणवृत्ति आदिमें इस मुजब अपणा गच्छ अपणा विरुद, और अपणी गुरुशिष्यकी पाटपरम्परा लिखि है और श्रीवडगच्छीयमणिरत्नसूरेिजीका गुरुशिष्यतरीके नामभी नहिं लिखा है, इस्से जाणा जाता है कि श्रीवडगच्छके साथ श्रीचैत्रवालगच्छका कोई संबंध नहिं है, यह वात सत्य है, इस्से यह चैत्रवालगच्छ स्वतंत्र अलगहि है, और श्रीजगचन्द्रसूरिजी तत्पट्टे श्रीदेवेन्द्रसूरिजी आदि जो अनुक्रमसें पाटपरम्परा है सो इस्समें लघुपौशालीयतपा शाखा है, श्रीदेवेंद्रसूरिजीसे प्रसिद्ध भइ है, और श्रीविजयेन्दुसूरिसे जो पाटपरम्परा है, सो बृहत्पौशालीयतपा शाखा है, सो प्रसिद्ध है, यह दोनों शाखा श्रीचित्रवालगच्छकीहि है, वडगच्छकी नहिं है, और महातपाविरुद, तपागच्छ चित्रवालगच्छ, यह एकहि है, ऐसा शास्त्र देखनेसें मालूम होवे है, और श्रीशास्त्रों के अनुसार तो इसीतरे मानना उचित है, वा प्ररूपणा करणा सत्य है, और श्रीसर्वदेवसूरिजीसें लेकर श्रीमणिरत्नसूरिजीतक वडगच्छकी पाटपरम्पराकों श्रीजग• चन्द्रसूरिजीके नाम साथ लगाते हैं, सो शास्त्रके आधारसे तो मिथ्या है, और विना विचारी अंधपरम्परा है, ऐसा जाणा जावे है, और विशेष तो श्रीज्ञानी महाराज जाणे और विक्रमसंवत् १६१२ में श्रीजिनमाणिक्यसूरिजीके शिष्य श्रीजिनचंद्रसूरिजी हूवे, उससमय चित्रवालगच्छीय, अपरनाम, श्रीतपागच्छीय श्रीविजयदानसूरिजी For Private And Personal Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar २३१ का शिष्यधर्मसागरने अनेक उत्सूत्रबोलोंकी प्ररूपणा की, और अनेक गुरुआम्नायाश्रितविरुद्धबोलोंकी अशुद्धप्ररूपणा की, तव श्रीजिनचन्द्रसूरिजी विहार करते अणहिलपुर पाटणमे पधारे, तब यह वृत्तांत श्रीजिनचन्द्रसूरिजीने सुणा, तब सर्व गच्छमताश्रित सर्व सभाजनसमक्ष जाहिर शास्त्रार्थ धर्मसागरके साथ श्रीजीका हूवा तिसमें निर्णयार्थ अंतिमसभामें धर्मसागरको बुलाया, अपणा पक्ष निर्बल जाणके, सभामें आणेवास्ते नट गया, तब धर्मसागरका पक्ष झूठा जाण, सर्व गच्छवासीयोंने, और मतवासीयोंने शास्त्र देख श्रीजिनचन्द्रसूरिजी आश्रित पक्ष सत्य जाण, सर्वनें सही करी, याने दशकत किये, वह सहीपत्र, पाटण, जेसलमेर बीकानेर आदि भंडारमें रखा गया था, और श्रीविजयदानसूरिजीने धर्मसागरका बनाया हुवा, कुमतिकंदकुद्दालग्रंथकों जलशरण किया, और गच्छव्यवस्थाश्रित, ७ और १३ बोल लिखे, और धर्मसागरकों गच्छ बाहिर किया, इत्यादि व्यवस्था उस समय हुइ थी, सो कुमतिविषजांगुलि १ और श्रीजसविजयजीकृत आगमविरुद्ध अष्टोत्तरशत उत्सूत्र बोल २ श्री सोहमकुलरत्नपट्टावलि दीपविजय कविकृत ३ आदि ग्रंथ देखणेसें प्रगटपणे सत्यहि मालूम होवे है, इसी लियेहि लघुपौशालीयतपा शाखामें श्रीविजयसेनसूरीजीके वादमें दोय गद्दी भइ है, सो आणन्दसूरि, १ तथा देवसूरि, २ इस नामर्से प्रसिद्ध है, सो इस्सेंभी धर्मसागर और धर्मसागरकृत प्ररूपणाकाहि मुख्य कारण जाणा जाता है, और उस समय तो इन सर्व अशुद्ध प्ररूपणाओं का निषेधहि किया गया है, और इसतरे तपगच्छनायकनें अपणें गच्छमें हुक्म जाहिर कियाथा कि, धर्मसागरका बनाया हुआ ग्रंथ उसके अंदरसें कोइभी गीतार्थ अपणे बनाये हुवे ग्रंथमें एकभी बात लावेगा तो गच्छनायकके तरफसे बडा ठबका मिलेगा, और इसतरेका कोइभी नवीन ग्रंथ होवे सो सव गीतार्थके शोधे सिवाय प्रमाण करे नहिं, इत्यादि व्यवस्था गच्छकी लिखि है, इसलिये मालूम होवे है कि, तपगच्छनायकोंने धर्मसागरकी करी हुइ तिससमयकी अशुद्ध प्ररूपणायें कबुल नहिं करी थी और शुद्ध प्ररूपणा मार्गमेहि रहे, वादमें श्रीविजयसेनसूरिजीके पीछे मुख्य शिष्य देवसूरिजीनें अपणा मामा भाणेज नाता होणेसें, विजयसेनसूरिजीके वचनोंका अनादर करके, और धर्मसागरकी अशुद्ध प्ररूपणा कबुल करके, तीन पीढीसें गच्छबाहिर किये हुवे धर्मसागरकों पीछा गच्छमें लिया, और गच्छमें भेद करके अ. पणे आपसेंहि स्वतंत्र आचार्य हुवा, तबसें दोय आचार्य गच्छमें हुये, एक विन - For Private And Personal Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Acha २३२ यसेनसूरिजीके आज्ञानुसार पट्टवर विजयतिलकसूरिजी, और विजयदेवसूरि, इनोंने गच्छमे अशुद्ध प्ररूपणाकी प्रवृत्ति करी, और विजयतिलकसूरिजी ३ वर्ष आचार्यपदमे रहे वाद वर्ग हुवे, वादमें श्रीविजयतिलकसूरिजीके पट्टमें श्रीविजयाणंदसूरिबी हुवे, जिनके नामसे आणंदसूरिंगच्छ प्रसिद्ध है, और यह आचार्य चिरंजीवी हुवे, इनोंने खगुरु आज्ञानुसार प्रवृत्ति करी, इसतरे होणेसें लघुपौशालीयतपा शाखामें दोय पाटपरंपरा भइ, गच्छमें अशुद्ध प्रवृत्ति हुइ, यह अबभी चल रहि है, यह इतिहास प्रसिद्ध है तथापि विशेष वृत्तान्त पूर्वोक्त ग्रंथानुसार जाणना और परपक्षवालोंके साथ द्वेष धरके मैत्रीभावकों दूर हटाके देवसूरिआश्रित निन्हव धर्मसा. गरनें अपणा मंतव्य पौषणेके लिये, प्रवचनपरीक्षा १ कुपक्षकौशिकादित्य २ सर्वज्ञसिद्धि, ३ कल्पकिरणावली, ४ वगेरे ग्रंथ बनाये हैं, और धर्मसागरका शिष्य विमलसागरने स्वकपोलकल्पित खरतर तपाचर्चा आदि बनाये हैं, और श्रोहीरविजयसूरिजी बगेरेके नामसें तथा अपणे नामसे कितनेक पत्र १ बोल २ काव्य ३ चरित्र ४ जम्बूदीपपन्नत्ति टीका ५ वगरे ग्रंथ नवीन अपणा पक्ष पौषणेके लिये बनाये हैं, उनके अंदर अपणी मरजी प्रमाणे पूर्वसूरियोंके नामसें अपणै सत्यवादी होणेके लिये, असल पक्ष पोषण किया है, तदाश्रित विद्वानोंने श्रीजिनचंद्रसूरिजीके साथ बैरानुबद्ध हो कर, उनके प्रच्छन्नपणे, विजयप्रशस्तिकाव्य, २ श्रीहीरसौभाग्यकाव्य २ वगेरे काव्य बनाये हैं तिनोंके अंदर कितनाक असत्य पोषण किया है, और ऋषभदाशकृत हीररास तथा लावण्यसमयकृत विमलरासमें चीतोडवासी कर्मचंदडोसी तथा विमलसाह मंत्री बगेरेके वारेमें कितनाक असत्यका पोषण किया है, और तिण पुन्यवानोंने खखकालभावि खगच्छाश्रित धर्मगुरुओंके सदुपदेशसें श्रेष्ठ धर्म कार्य किये हैं, सो तिनके, धर्मगुरुओंका नाम श्रीवर्धमानसूरिजी है, श्रीजिनमाणिक्यसूरिजी है सो क्रमसे जाणना, और श्रीहीरसूरिजी पहिले अकबरसें मिले है, वादमे कोइ कारणसें श्रीजिनचन्द्रसूरिजी अकबरसें जा मिले है, उनोने वकरीका ३ भेद, टोपीकाजीकी वसकरणा, अमावसकों चन्द्रका उगाना आदि चमत्कार दिखाये हैं, और बादसाहाको प्रतिबोध देके षट्दर्शनीयोंका कलंक दूर किया, दिहीका बादसाहका मुख्य मंत्री कर्मचंद वच्छावतके निजगुरु, सवा सोमजीको प्रतिबोधके जैनी पौरवाल श्रावक बनानेवाले, श्रीजिनचंद्रसूरिजी थे, इत्यादि शुद्धार्थ गो. पणेसें और अनेक असत्यबातोंकों ग्रन्थद्वारा पौषणेसें असत्य प्ररूपणा करणेसें और For Private And Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३३ खगच्छकी शुद्ध प्रवृत्ति बिगाडणेसे और खगुरुकी आज्ञा लोपणेसें, धर्मसागर तथा धर्मसागरपक्षपाताश्रितविजयदेवसूरि आदिकसें, संवत् १६१२ के आसरेमे तपोटमतकी पुष्टी हुइ और इन तपोटमतियोंने तिससमय आगम आचरणा विरुद्ध ६० बोल आसरेका फरक किया, और बादमें तो जादातर फरक किया गया है, एसा मालूम होवे है, और इनहि तपोटमतियोंका खरूपवर्णन, स्वभावगुणवर्णन वगेरेका सत्यार्थ तपोटमतकुट्टनशतकमें लिखा है, और इन तपोटमतियोंके तथा खरतर गच्छवालोंके आगम, आचरणा, प्ररूपणा, आश्रित आपसमें बहुतहि अन्तर है, सो जाणके सत्य स्वीकार करके और असत्यका त्याग करणा यहहि धर्मार्थी प्राणिका प्रथम कर्तव्य है, यह संक्षिप्त आधुनिक तपोटमतका वृत्तांत है, अपिच वडगच्छ, तथा चित्रवाल गच्छ, अपर नाम, तपागच्छ, तथा उपकेशगच्छके प्रायें कर आचरणा, आगम, खस्खआम्नाय, प्ररूपणा, आश्रित आन्तरंगिक अंतर शास्त्र देखनेसें तो श्रीखरतरगच्छवालोंके साथ भेद नहिं है, एसा मालूम होवे है, और प्रायेंकर आपसमे विरोधकाभी कोई कारण नहिं है, और प्रायें अन्य गच्छवाले सबहिने आपसमे मैत्रीभाव रखा है और खरतरगच्छवाले तो अभितक अन्यगच्छवालोंके साथ अवश्यकर मैत्रीभाव रखते हैं, और ऐसाहि सबके साथ हरवखत रखना चाहते हैं, और चला कर प्रथम कबिभी किसीके साथ विरोध भावकी उदीर्णा करणी नहिं चाहते हैं, और पुरुषादानीय श्रीतेवीसमे तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथस्वामिके संतानीय परदेशी राजा प्रतिबोधक श्रीकेशीकुमारजी हवे, श्रीगौतमखामिके साथ मिलाप होणेसें श्रीवीरशासनमें संक्रमण हुवे, वादमें क्रमसें पट्टपरम्परा चलति रहि, और श्रीजम्बुस्खामिके समे श्रीरत्नप्रभसूरिजी चौद पूर्वधारी हुवे, जिनोनें एकवखतमें दोय रूप करके कोरंटक, और औशीयांमे समकालमे प्रतिष्ठा करी, और १३ कोस लांबी और ९ कोस चोडी, एसी ओसीयां नगरी प्रतिबोधके प्रथम, जैनकुलकी तथा ओसवंशकी स्थापना करी, वादमें श्रीवज्रखामिके समय दशपूर्वधर :श्रीभद्रगुप्तसूरिजी हवे, जिणोंके पास श्रीवज्रखामि दशपूर्व भणे हैं, वादमें श्रीलोहित्याचार्यके समय पूर्वधर श्रीदेवगुप्तसूरिजी हवे हैं, जिणोके पास वल्लभीय वाचना करनेवाले, और सिद्धान्तोंको पुस्तकारूढ करनेवाले, श्रीलोहित्याचार्य शिष्य श्रीदेवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणसार्ध एकपूर्व भणे हैं, एसा वृद्धसंप्रदाय है, यह वीरनिर्वाणसे ९८० वर्षे हुवे हैं, इनोके वादमे प्रायेंकर चेत्सवास स्थिति हुइ, वादमें विक्रमसं १०८० के सालमे खगुर्वादिसहित श्रीजीनेश्वरसू For Private And Personal Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३४ रिजी अणहिलपुरपाटणमें आये, उस समय चैत्यवासस्थिति मे रहे हुए श्री उप केशगच्छीय संप्रदाय मे श्रीसूराचार्य प्रमुख ८४ चैत्यवासी आचार्योंके साथ श्रीपंचासरीय चैलसभा में श्रीदुर्लभराजा समक्ष शास्त्रार्थ हूवा था तिस शास्त्रार्थमें श्रीजीनेश्वरसूरिजीका पक्ष सत्य होणेसे, श्रीदुर्लभराजानें श्रीजिनेश्वरसूरिजीकों खरतर करके कहै, और वादी पक्ष श्रीसूराचार्यवगेरेकों नर्म होणेसें श्रीदुर्लराजानें कवलाकरके कहै, और कहाभी है, कि जीत्या सो खरतर हुवा, हाखा सो कवला जाणिया, तिणसमे जैनसंघमें, गच्छ दोय वखाणिया, १॥ वादमे श्रीअभयदेवसूरिजी हूवे उनोंने श्रीस्तंभणपार्श्वनाथजी की प्रतिमा प्रगटकरके नवांग वगेरेकीवृत्तियांरची उस समय श्रीसूराचार्य शिष्य पंडित शिरोमणि सर्वचैत्यवासीयों में मुख्य श्रीद्रोणाचार्य हूवे, उणोनें श्री अभयदेवसूरिजीकृत सर्ववृत्तियां शोधि है और वाद क्रमक्रमसे कितनेक चैत्यवास छोडकर वसतिवासी हूवे, और खगच्छमें (कवलाग ० ) बहुत कालसें साधुधर्मविच्छेद होणेसे किसीनें किया उद्धार नहिं किया और क्रियोद्धार नहिं करसके तथाविध आगमानुरोधसें और परिग्रहधारि श्रीपूजपणेमेहि अपणी परम्परा चलाते रहै, सो अबिभी कमलागच्छमे परिग्रह धारी आचार्य यानें श्रीपूजयतिवगेरे विद्यमान है, परन्तु साधु-साध्वी प्रायें नहिं है, और इनोंका विशेष समुदाय भी फलोधि और बीकानेर में मौजूद है, और इनोंका श्रीपूजभी वीकानेर वगेरहमेहि रहेते थे, यह प्राचीनगच्छ संप्रदाय है, और यह उपकेशगच्छ वा कावलागच्छ, इस नामसे प्रसिद्ध है, और इस संप्रदायका करिमीसें खरतरगच्छवालोंके सह प्रशस्त मैत्री भावादि चला आवे है यह बात गुरुगमसंप्रदाय होवे सो जाणते हैं, और पहिला सामायक पीछे इरिया वही, श्रीवीरषट्रकल्याणकादि प्ररूपणा सर्व प्रायें खरतरगच्छके समानहि मानतें हैं, और यह बडी बडी बातें लिखकर कवले - गच्छका संक्षिप्त स्वरूप कहा है, और विशेष श्रीउपकेशगच्छ सविस्तर पट्टावली तथा खरतरगच्छ पट्टावलीसें गुरुगमाम्नायसें जाणना, और ८४ सी गच्छवाले एक गुरुके शिष्य है, सबकी सदृश समाचारी है विशेष मेद नहीं है और प्ररूपणा समाचारी प्राचीन शास्त्रानुसारतो एकहि मालूम होवे है, इसलिये प्रायें विरोध वगेरेका कारण कोइ नहिं मालूम होवे है, और श्रीरत्नप्रभ सूरिजी और श्रीजिनवल्लभसूरिजी और श्रीजिनदत्तसूरिजी इन ३ आचार्योकाहि जैनकोमपर वा ८४ सी गच्छवालोंपर विशेष उपकार किया हुवा मालूम होवे है, इत्यलं विस्तरेण किंच बहु वक्तव्यमस्त्यत्र तत्तु नोच्यते, अभे यथावसरं विस्तारयिष्यामः. For Private And Personal Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३५ अथवा जागते हो, वादमें आचार्यश्रीनें मंद स्वरसें जबाव दिया कि, हे भगवति! जागताहुं, वादमें देवता बोली हे प्रभो ! शीघ्र उठो, और ये नव सूतकी कोकडी अलुझी भइ है सो आप खोलो 'याने सुलजावो, श्रीसूरिजी बोले कि सुलजानेको में नहिं समर्थ हूं, तब देवता बोलि के हे पूज्य आप कैसे नहिं समर्थ हो ! अभितो आपश्री बहुतकालतकजीवोगा, और नव अंगकी टीका वनावोगा, आचार्यश्रीबोले कि इसतरेका प्रचंडरक्तपित्ति रोगयुक्त शरीर होनेपर कैसे नवअंगकीटीकावनाचुंगा, वादमें शासन देवतानें कहा स्तंभनक पुरमें सेढी नदीके किनारे पर खाखरेके वृक्षके अंदर जमीनमें श्रीपार्श्वनाथ भगवानकी प्रतिमा है, उन प्रतिमा सन्मुख देववंदन करो, जिससें रोगरहित समाधियुक्त शरीरहोवे, ऐसा कह कर शासन देवता अदृश्य भइ, वाद प्रभातमें गुरुमहाराज मिच्छामि दुक्कडं देवेगा, इस अभिप्राय कर दूसरे ग्रामोंसें आये हुवे और उसी ग्राममे रहनेवाले सर्व श्रावक मिलकर आचार्य श्रीके पास आये, उन सर्व श्रावकोंने आचार्य श्रीकों नमस्कार करा, वादमें आचार्यश्रीने कहा कि हमारेकों श्रीस्तंभनक पुरमें श्रीपार्श्वनाथ स्वामिकों वंदना करनी है, आचार्यश्रीका यह वचन सुनकर वादमें सब श्रावकोंने अपने मनमें जाना कि निश्चे आचार्यश्रीकुं किसीका रात्रिमें उपदेश हुवा है, उस्सें इसतरे आचार्यश्री फरमातें हैं, इसतरे श्रावकोनें अपने मनमें विचारके वादमें उन सब श्रावकोने आचार्यश्रीकों कहा कि हमभि सब आपके साथमे आगे वाद उन For Private And Personal Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३६ श्रावकोने आचार्यश्रीके वास्ते डोली करी, तिस डोलीके अंदर आचार्यश्री बेठे, और यात्राकेवास्ते स्तंभनकपुर प्रति वहांसें चले, वादमें आचार्यश्रीकी अनाजपर रुचि भइ, प्रथम आचार्यश्रीकों भूख बिलकुल नहिथी, परन्तु स्तंभनकपुर प्रति प्रयाण करनेपर, पहिले प्रयाणे हि रस विषयि इच्छा उत्पन्न भइ, क्रमसें जितने धोलके पहुंचे उतनें आचार्यश्रीके शरीरमें विशेष समाधि भइ, वाद प्यादलहि विहार कर आचार्यश्री स्तंभनकपुर पधारे, वादमें जितने श्रावक लोक श्रीपार्श्वनाथस्वामिकी प्रतिमाजीके तलासमें लगे, उतने वा प्रतिमा कहांभि नहिं देखनेमें आइ, वादमें श्रावकोंने आचार्यश्रीकों पूछा, तब आचार्यश्रीनें कहा, कि खाखरेके अंदर तुमलोक देखो, वादमें श्रावकोने सेढी नदीके किनारेपर पलाशवृक्षोंके अंदरतलासकरणेसें देदीप्यमान श्रीपावनाथ स्वामिकी प्रतिमा देखनेमें आइ, और उस प्रतिमाके ऊपर निरंतर स्नात्रके लिये एक गाय वहांपर आके दूधकुं झारतिथी, वादमें हरपित हुवे ऐसे श्रावकोंने आयके आचार्य श्रीकों कहा, हे भगवन् आपके कहे हुवे प्रदेशमें प्रतिमा देखनेमें आइ हे, यह वचन श्रवण कर वादमें भक्तिपूर्वक आचार्यश्री वंदना करनेके लिये जहांपर प्रतिमा देखनेमे आइ वहांपर पधारे, और वहांपर खडे खडेहि मस्तक नमायकर नमस्कार करा, और नमस्कार करके वादमें देवप्रभावसे ।। जयतिहु अणवरकप्परुक्ख, जयजिणधनंतरि, जयतिहुअणकल्लाणकोस, दुरिअकरिकेसरि, तिहुअणजणअविलंधियाण, भुवणत्तयसामिअ, कुणसु सुहाई जिणेसपास, थंभणयपुर ठिअ ॥१॥ For Private And Personal Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३७ इत्यादि नमस्कार बत्तीसी करी, वाद अंतकीदोयगाथा अत्यंतदेवतावगेरेकी आकर्षण करनेवाली जाणके, शासन देवताने कहा, हेभगवन् इसस्तोत्रकी तीसगाथा कहेणेंसेहि हम अपणेठिकाणे रहेहुवेहि सर्वस्तोत्रका पाठकरणेवाले भव्योंका सर्व कष्ट दूर करेंगे, संपूर्णस्तोत्रका पाठकरणेवालोंके प्रत्यक्ष होणा हमारे बहुतहि कष्टका कारणहै, इसकारणसें, परमेसर सिरिपासनाह धरणिंद पयहिय, पउमावई वहरुट देव जय विजयालंकिय, तिहुअणमंततिकोंण विज्ज सिरिहरि महीमंडिअ, तियवेढिय महविजदेव थंभणयपुरद्विय ॥१॥ सत्तमवन्न जगद्धवन्न सरअविभूसिय, वंजणवन्न दसद्धवन सिरिमंडलपूरिय, चिरिमिरिकित्तिसुबुद्धिलच्छि किर मंत सुसायर थंभणपास जिणंद सिद्ध मह वंछिय पूरण ॥२॥ एव महारिह जत्त देव इयन्हवणमहुसउ, जंअण लिय गुणगहण तुम्ह मुणिजण अणिसिद्धउ, इय मइं पसियसुपासनाह थंभणय पुरहिअ, इयमुणिवर सिरि अभयदेव विण्णवइ आणंदिअ. ॥ ३२ ॥ यह गाथा आपश्री हमारेपर कृपा करके भंडार करो, वादमें देवताके आग्रहसें दाक्षिण्यताके समुद्र ऐसे आचार्य श्रीने वैसाहि करा, वादमें आचार्यमहाराजनें समस्तसंघके साथ चैत्यवंदन करा, वादमें श्रावक समुदायनें विस्तारसें, स्मात्र, विलेपन, मुकुट, कुंडल, वगेरे आभूषण पहिराणेकर और सुगंध युक्त पुष्प चढाणेकर अनेक प्रकारसे पूजा करी, और मनोहर शाल स्तंभा तोरण चोकी वगेरे करके शोभित अत्यंत उंचा For Private And Personal Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३८ मनोहर देरासर श्रावकोंने बनाया, वादमें श्रीमान् अभयदेव सूरिजीनें स्थापना करी, बादमें श्रीमद् अभयदेवसरिजी स्थापित वह श्रीमान् स्तंभनक पुरमे रहे हुवे, श्रीस्तंभन पार्श्वनाथ स्वामि सर्वलोकोंका वांछित पूरण करणेसे स्तंभनतीर्थ ऐसा करके सर्वठिकाणे प्रसिद्धिको प्राप्त हुवे. वादमें आचार्यश्रीभि वहाँसे विहार कर अणहिल्लपुर पाटण पधारे, वहां पाटणमे श्रीजिनेश्वरसूरिजी स्थापित वसतिमे रहे, उस वसतिमे रहेतां थकां आचार्यश्रीने, स्थानांग, समवायांग, विवाहपन्नत्ती, वगेरे नवअंगोकी वृत्तियों करणी सरु करी, उन वृत्तियांके करणेमे जहां कहांभी संशय उत्पन्न होवे, उस ठिकाणे सरण करणेसें जया विजया जयंति अपराजिता नामक देवता स्मरण करणेके साथहि महाविदेह क्षेत्रमे तीर्थकरके पास जाके संशय पदका अर्थ पूछके सत्य अर्थ आचार्यश्रीकों कहै. उस समय वहां पाटणमे चैत्यवासी आचार्य द्रोणाचार्य नामके रहतेथे उणुनेंभि सिद्धांतोंका व्याख्यान करणा सरुकरा, सर्व चैत्यवासी आचार्य पुस्तक लेकर सुणनेकों आते हैं और आचार्यश्रीभि वहांपर व्याख्यान श्रवण करणेकों जातें है यतः स्वयं विदंतोऽपि हि सम्यगर्थ, सिद्धांततकोदिकशास्त्रवाचां । शृण्वंति गत्वालघवोऽन्यतोपि, निमत्सरा एव गुणेषु संतः॥१॥ For Private And Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३९ कहामि है, सिद्धांत और तर्कादिक शास्त्रोंका सत्य अर्थ आप जाणतें है तोभि लघुतापूर्वक दूसरोंके पास जाके श्रवण करते हैं इसका कारण यह है कि सज्जन पुरुष गुणोंमे ईषा रहित हि होते हैं, बाद मे द्रोणाचार्यमि श्रीअभयदेवसूरिजी के गुणोंसें रंजित हुवे अपणे सहाय्यके वास्ते आचार्यश्रीकों आसन दिरावे, व्याख्यान करतां द्रोणाचार्यको जहां संशय उत्पन्न होवे, वहां पर तिसप्रकारके नीचे खरसें कहै, जैसे और दूसरे नहिं सुणे, इसतरे निरंतर व्याख्यान करत थकां उन द्रोणाचार्यकों और कोइ दिनमें जिस सिद्धांत का व्याख्यान करे हैं उस सिद्धांतकी व्याख्यान स्थलविषय वृत्ति लाये, और आचार्यश्रीने उस द्रोणाचार्य के हाथमें दी, उस वृत्तिकों देखके अत्यंत आश्चर्यसहित होकर द्रोणाचार्यने अपणे मनमें विचार किया कि अहो इये क्या वृत्ति साक्षात् गणधर महाराजकी बनाइ है अथवा इनोंकी बनाइ हूह है, इसतरे मनमे विचारके द्रोणाचार्यने कहा क्या इये वृत्ति तुमारी बनाई हुई है इसतरे पूछनेपर आचार्य श्रीमौनधारके रहै बादमें द्रोणाचार्यनें अपणे मनमें विचार किया कि निश्चय इसी आचार्य - श्रीने हि या वृत्ति बनाई है, जिससे कहाभि है कि जिसका निषेध न किया वह कार्य माना हुवा होवे है, औरभि कहा है ॥ स्वगुणान्परदोषांश्च वक्तुं प्रार्थयितुं परा, नर्थिनश्च निराकर्तु सतामास्यं जायते ॥ १ ॥ भावार्थ - उत्तम पुरुष अपणे मुखसे अपणा गुण और दूसरोंका अवगुण कहेणेवाले न होवें, और दूसरे पुरुषोंकों प्रार्थना For Private And Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४० करणेवाले न होवें, याचना करणेवाले पुरुषोंकी याचनाका भंग करणेवाले न होवे ॥१॥ . वादमें द्रोणाचार्य अपणे मनमें विचारणे लगे कि, अहो इति आश्चर्ये कोणपुरुष रत्नप्राप्त होकर,. रत्नग्रहणकरणेमें मंदआदरवाला होवे, अपि तु कोइभी मंदआदरवाला न होवे, ऐसा विचारके द्रोणाचार्य श्रीअभयदेवसरिजीका गुणवर्णन करै आचार्यश्रीके प्रति बहुमान करणेमें तत्पर हुवे, वाद जब जब आचार्यश्री आवे जावे, तव तब द्रोणाचार्य खडे होवे, सामने आवे, कुछ दूरतक पोहचाने जावे, वादमे वेसा सुविहित आचार्य विषयि आदर करता हुवा देखके, और चैत्यवासी आचार्य वगेरह नाराजहोके सर्व उठकर खडे भये, और अपने अपने मठमें चैत्यवासी आचार्योंने प्रवेश करा. और बहुतहि बोलने लगे, जैसे कि, अहो यह किस गुण करके हमारेसे अधिक है, जिस गुणकर हमलोकोंमे मुख्यभी ये द्रोणाचार्य श्रीअभयदेवाचार्यका इसप्रकारका आदरसत्कार बहुमान करते हैं, पीछे हमलोक कैसे होवेगें, अर्थात् हमारी कैसी दशा होवेगी, इत्यादि वादमें द्रोणाचार्य वह पूर्वोक्त वचन अपणे समुदायवाले आचार्य वगेरोंका सुणकर, विशेषज्ञ गुणोंका पक्षपात करणेवाले द्रोणाचार्यने नवीन श्लोक वणाके सर्व चैत्यवासी आचार्योंके मठोंमें भेजा, वह श्लोक यह है, आचार्याः प्रतिसद्म संति महिमा येषामपि प्राकृतमातुं नाध्यवसीयते सुचरितैस्तेषां पवित्रं जगत्, । एकेनापि गुणेन किंतु जगति प्रज्ञाधनाः सांप्रतं, योऽधत्ताऽभयदेवसूरिसमतां सोऽस्माकमावेद्यताम् १ For Private And Personal Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४१ भावार्थ-जिणोंकामहिमा प्राकृतयानेअल्पबुद्धिवाले मनुष्योंसें नहिं प्रमाण होसके ऐसेआचार्य प्रत्येकठिकाणेहे, और उनआचायाँके श्रेष्ठआचारकरके यहजगतपवित्र है, परन्तु वर्तमानकालमें जेबुद्धिरूपधनवाले, याने बुद्धिमानआचार्य जगतमें है, उणोंके अंदरसे कोइभी ऐसा आचार्यहै के जो एकभी गुणकरके श्रीअभयदेवस्वरिजीके सदृशहोवे, कदाचित् कोइ आचार्य होवे तो मेरेको जरूरदेखावोगा" यह पूर्वोक्त श्लोक वाचकर वादमें सर्वचैत्यवासीआचार्यशान्तहूवे, और श्रीमद् अभयदेवसरिजीके सन्मुख श्रीद्रोणाचार्यजीने इसतरे कहाकि "जो सिद्धान्तवगैरेकीटीका आपवणाओगा, उणसर्वटीकाओंको में शोधुंगा, और लिखुंगा" और अणहिलपुरपाटणमें रहेतां पूज्यश्रीने दोय गृहस्थोंकों प्रतिबोधकर सम्यक्तसहितवारेव्रतधारि करेथे, वेदोनुं श्रावक समाधिसे श्रावकपणा पालकर, देवलोक गये, देवलोकसें वह दो-देव श्रीतीर्थकरकों वन्दना करणेके लिये महाविदेहक्षेत्रमें गये, श्रीसीमंधरस्वामि श्रीयुगंधरवामिकों नमस्कारकरा, धर्म सुणकर उण दोनुं देवोंने भगवानकों पूछाकि हमारा धर्माचार्य धर्मगुरु श्रीअभयदेवमूरिजी कितनेभवमें मोक्षजावेगा, तब अर्हतभगवाननें कहा, तीसरे भवमें तुमारा धर्माचार्य मोक्षजावेगा, यहसुणकर हरखसें जिणोका शरीर विकस्वरमान हूवा, और जिणोकी रोमराजि विकसितहूइ, ऐसे वह दोनुं देव अपणे धर्मगुरूजीके पासमे गये, तीर्थंकरकों वांदणेका स्वरूप कहा वादमें वंदना करके जातां उणदेवोने आगाथा कही, यथा भणि तित्थयरेहि, महाविदेहे भवंमि तइयंमि, तुह्माण चेव गुरुणो, मुक्खेसिग्धंगमिस्ससि ॥१॥ १६ दत्तसूरि. For Private And Personal Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar २४२ यह गाथा प्रगटार्थ है, आगाथा स्वाध्यायकरति हूई, आचार्य श्रीसंबधि महत्तरापदप्राप्तकरनेवाली मुख्यसाध्वीने सुणी, वादमे उसमुख्यसाध्वीने उसमाथाकों आचार्यश्रीके सन्मुखआकर सुणाइ, वाद आचार्यश्रीबोले यहअर्थपहिलेहि हमनें जाणा है, और कोइ अवसरमें श्रीपूज्य पालणपुरपधारे, वहांपर आचार्य संबंधि भक्तश्रावकहैं, उणश्रावकोंका जहाज समुद्रके अंदर व्यापारके लिये चले हैं, वे जहाज क्रयाणोसेंभरके भेजे हवेहैं, उणक्रयाणोंसें भरेहूवे जहाज उणोंके समुद्रके भीतर मार्गमें चालतांथकां इसतरे वात सुणनेमें आइ कि क्रयाणोंसें भरेहूवे जहाज थे सो समुद्रकेभीतरडूबगये, बादमें श्रावक उसबातकों सुणकर, बहुतहि जादा अपणे मनमे उदास हूवे, वह श्रावक श्रीअभयदेव सरिजीके याद करणेके साथहि उपाश्रयमे आये, आचार्य श्रीकों वंदना करी, वादमें उण श्रावकोंको आचार्य श्रीने पूछाकि, हे धर्मशील श्रावको आज तुमको वंदना करणेमें देरी केसे हुइ, याने किस कारणसें आज तुमलोक वंदना करणेको मोडे आये, उण श्रावकोंने कहा, हेभगवन् किसिकारणकरके हमारा मोडा आणावा, पूज्यपाद आचार्यश्रीनें कहा । क्या कारणहै, तब श्रावकोंने कहा, हे भगवान् समुद्रके अंदर जहाजोंका डूबना सुणकर हमलोक दुखी हुवे है, इस कारणसें हमलोक वंदनाके वक्तपर नहि आसके, यहवातसुणनेके बादमें, क्षणमात्रअपनेमनमें ध्यानधरके आचार्यश्रीनें कहा, हे श्रावको इस विषयमें तुमारे दुख करणा नहिं श्रीगुरुदेवके प्रभावसे अछाहोवेगा, इसतरे श्रेष्ठभावार्थकों कहेनेवालेहि सत्पुरुषहोवेहै, यहसुणकर श्रावक हर्पितहवे, For Private And Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४३ उतनें दूसरे दिनमें खबर लानेवाला मनुष्य उसने वहां आकर इसतरे खबर दीवी, के तुमारे जहाज क्षेमकुशलसें समुद्रको उलंघकर तटपर आये है, बाद में यह बात सुणके, सत्यकरके पवित्र श्रीगुरुमहाराजके वचनोंपर उत्पन्न हवा हे विश्वास जिणोंकों ऐसे उण श्रावकोंने सर्वपरिवारसहित श्रीगुरुमहाराजके पास आकर विधिपूर्वक वंदना नमस्कार करके विनय सहित हाथ जोडके इसतरे श्रीगुरूमहाराज बोले, कि हेभगवन् जहाजोमे आये हुवे क्रयाणोंसे जितनालाभ होवेगा, उसका आधा हिस्सा हमलोक सिद्धान्त पुस्तकों के लिखाणेमें लगायेंगे, वादमें आचार्यश्रीनें प्रशंसा करी, अहो श्रावको तुमलोक धन्यहो, जिणोंका मुक्तिस्त्रीके कंठका स्पर्शकरणे में हेतुभूत इसतरेका परिणाम है, यतःइह किल कलिकाले चंडपाखंडिकीर्णे, व्यपगत जिनचंद्रे केवलज्ञानहीने, कथमिव तनुभाजां संभवेदस्तुतत्वावगम इह यदि स्यान्नागमः श्रीजिनानां ॥ १ ॥ भावार्थ - प्रचंड पाखंडियोंसें व्याप्त इस कलियुगमें निश्चय सर्वज्ञरूपी चंद्रमा अस्त होनेपर और केवलज्ञान के विछेद होनेपर इहांपर जो श्रीतीर्थंकरप्रणीत सिद्धान्त नहिं होते तो मनुष्योंकों वस्तुतत्वका बोध केसे होता ॥ १ ॥ जिनमतविषयाणां पुस्तकानां स्ववित्तैरतिशयरुचिराणां लेखनं कारयेद्यः ॥ प्रथयति महिमानं वस्त्रपूजादिरम्यं, सुगुरु समय भक्तिर्मानवो माननीयः ॥ २॥ For Private And Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४४ भावार्थ:- जो पुरुष आद्यंत मनोहर ऐसे जैनधर्मसंबंधि पुस्त - star लिखाणा अपणे धनसें करावे है और वस्त्र पूजादिकसें मनोहर ऐसा महिमा विस्तारे है, वह सद्गुरू और सिद्धान्तकी भक्ति करणेवाला मनुष्य जगत में मानणे योग्य होवे है ॥ २ ॥ सकलभरतनाथा यद्भवंतीह केचित्, त्रिदशपतिपदं यद्दुर्लभं मानयंति, यदपि गुरुदुर्गग्रंथगर्भ विदन्ति, स्फुरितमखिलमेतत्तत्कृताराधनस्य ॥ ३ ॥ भावार्थ:- इहां जो कोई समस्तभर क्षेत्रका राजा याने चक्रवर्त्त होते है और कितनेक इन्द्रपणो पावे है और कितनेक बहुतहि जादा कठिन ग्रंथोंके तत्वको जाणते हैं इये सर्व सिद्धान्तकी आराधना करणेवाले मनुष्यको फलप्राप्ति होवे है ॥ ३ ॥ इत्यादि देशना करके बहुतहि जादा उत्साहको प्राप्त हुवे, ऐसे उण श्रावकोनें श्री अभयदेवसूरिरचितअनेकसिद्धान्तकी वृत्तियांवगेरेके बहुत पुस्तक लिखवाये और प्रसिद्धिमें लाये और लिखवाके ठिकाणे ठिकाणे भंडार कराये. वाद में औरभि उसस्थानसें पूज्यअभयदेवसूरिजी विहार क्रमसें आकर अणहिल पुरपाटनकों अलंकृत करा, निश्चय यह मी पूज्यपाद आचार्यश्रीजी कुशाग्रबुद्धिवाले सर्वसिद्धान्तपारंगामी सुविहितचक्रवर्ती युगप्रवर युगप्रवरागम संविग्नसाधुवोंके समूहमें शिरोमणी पुण्यपात्र इत्यादि अनेक प्रकारसें सर्वत्र पृथ्वीमंडल में प्रसिद्धिकों प्राप्तभये, उधरसें उससमय आसिकानामकीनगरी में रहेनेवाले चैत्यवासी कूर्चपुरीय गच्छके श्रीजिनेश्वरसूरिहोते भये, For Private And Personal Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४५ वहां जो श्रावकोंके लडके हैं वे सर्वहि उस आचार्यके मठमें भणतें हैं, वहां सर्व विद्यार्थीयोंमें जिनवल्लभ नामका श्रावकका लडका है, उसका पिता परलोक गयाहै, उस लडकेकों उसकी माता निरन्तर सुखसें पालती है, यह लडका जब पडने योग्यभया तब उसकी माताने जिनेश्वराचार्यके मठमें पढणेके लिये भेजा, सर्व विद्यार्थीयोंसें अधिक पाठ उस जिनवल्लभको याद होवे, अब कोइ एक दिनके समय नगरके बाहिर शौचादिकके निमित्त जातां, उस जिनवल्लभको एक टीपना मिला उसटीपनेमें दो विद्या लिखि भई है, एक तो सर्पआकर्षणी दूसरी सर्पमोचनी, वादमें दोनों विद्याको कंठ करके, जितने पहिली विद्याको अजमाणेके लिये पढि, उतने फणोंके समूहसें भयंकर फूत्कार करते हूवे अत्यंतचपलमुखसें वाहिर निकाली दो जिहा जिनोंनें चलते हूवे लालनेत्र जिनोंके ऐसे दशदिशाओंसें विद्याके प्रभावसे खेंचे हवे आते हुवे बडे बडे सप्पोकों देखे, निर्भय मनवाला उस जिनवल्लभने अपने मनमे विचारकराकि निश्चयआविद्या प्रभावसहित है, ऐसा विचारके, फेर दूसरी विद्याका उच्चारणकरा, उस दूसरी विद्याके प्रभावकर सर्व सर्प पीछा अपना मुखफोरके जाने लगे, यह सर्ववृत्तांत सहरमेरहेहूवे जिनेश्वराचार्य- सुणा, अपणे मनमे जाणा और निचयकरा कि यह लडका सात्विकहै विशेष पुण्यवान है यह गुणपात्र है इस लिये अपने बसमें करणा युक्त है इसतरे विचारके बादमें दास खज्जूर घेवर मालपूआ मखाणा लाडु वगेरे अनेक सारपदार्थ देनेपूर्वक आचार्यनें उस जिनवल्लभकुं अपने वशकरके बादमें उस जिनवल्लभकी माताकों For Private And Personal Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४६ मीठे कोमलवचनोंकर प्रतिबोध करा, और यह तेरा पुत्र विशेष विद्वान् है विशेषप्रतिभा सहित है विशेषसत्ववान् है, ज्यादा कह - नेसें क्या प्रयोजन है, यह जिनवल्लभ आचार्यपद योग्य है तिस कारण से इस जिनवल्लभकुं हमकों देदें यह धर्मसंबंधि देरासर मठ वगैरे सर्व तेरा है, तेरा और दूसरोंका विस्तार करनेवाला होगा, इस अर्थ में अन्यथा कुछ कहना नहिं, अर्थात् नाकारा वगेरे करना नहिं, ऐसा कहके पांचसें रुपिया जिनवल्लभकी माताके हाथमे देके, शीघ्र जिनवल्लभकुं दीक्षा दी, जिनवल्लभको दीक्षा देके, जिनवल्लभकुं जिनेश्वराचार्यजीनें सर्व व्याकरण छन्द अलंकार नाटक ग्रहगणित वगेरे निरवद्य विद्या भणाई, और जिनवल्लने भी थोडी मुदतमे अपनी बुद्धि बलसें सर्व न्यायसाहित्य ज्योतिष वैद्यक वगेरेपर सिद्धान्त रहस्यरूप सर्व विद्या ग्रहण करी, कभी उस जिनेश्वराचार्य के गाम वगेरे जानेका प्रयोजन उत्पन्न हूवा, तब गामको जाते हुवे आचार्यनें पंडित जिनवल्लभकों कहा कि में गाम जाकर पीछा आवुं उतनें मठ देराशर ग्राम ग्रासवाडी वगेरे सबकी चिंता तेरे करणी, जितने कार्य करके में आऊं, इतने कहेने पर विनयसे मस्तक नमाकर जिनवल्लभने कहा जेसी पूज्योंकी आज्ञा है वैसाहि करूंगा, आप साहिब परमपूज्योंको कार्य करके पीछा जलदि आना, इतना कहेनेपर यह जिनेश्वराचार्य ग्रामान्तर गया, बाद में दूसरे दिनमें जिनवल्लभनें विचारा कि जो यह भंडारके अन्दर पुस्तकों से भरीभइ पेटी देखने में आवे है तो इन पुस्तकों में क्या लिखा है में देखें कारण कि जिस्से सर्वकार्य मेरे आधीन हुवा है, For Private And Personal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४७ ऐसा विचारकर, जिनवल्लभनें एक पुस्तककों खोला, वह पुस्तक सिद्धान्तसंबंधि है, उसपुस्तकमें यहलिखा हुवा देखा, साधु मुनिराजोंकों भ्रमरकी तरह गृहस्थोंके घरोंसें बयालीश दोषरहित आहार लेनेकर संजम निर्वाहके वास्ते शरीरकी रक्षा करणी, सचित्त पुष्पफल वगेरे हाथसेंभी स्पर्शना नहिं कल्पे, तो खाणा तो नहिंज कल्पे, और मुनियोंको चतुर्मासकसिवाय एक मास उपरांत एक ठिकाने नियत रहेना नहिं कल्पे, इत्यादि साध्वाचारसंबंधि विचारोंकों देखकर, पंडित जिनवल्लभ अपने मनमें आश्चर्यसहित भया विचार करने लगा कि अहो इति आश्रयें, दूसराहि वह कोई व्रताचार है, जिसकर मुक्ति में जाया जाय है, उससे विरुद्ध यह हमारा आचार है, प्रगट जागा जाता है कि इस आचारकर दुर्गतिरूप गर्त्ता में पडता को भी आधार नहिं होगा, ऐसा मनमें विचार करके, गंभीर वृत्तिकर पुस्तकवगेरेकुं जैसे पहिले रखे थे वैसाहि पीछा रखकरके, गुरुमहाराजकी कहीहूई मर्यादाप्रमाणे सर्व व्यवस्था संभालता हूवा रहा, बाद में आचार्य कितने दिनोंके अनंतर अपaratर्यकरके अपनेस्थानपर पीछाआया, और सर्व व्यarr बरोबर देखके, आचार्य अपने मनमें विचार करा कि कोइभी वस्तुकी हानि तो नहिं हुई, जितनी जिनवल्लभने मठवाडी मंदिर द्रव्यसमूह भंडार वगेरे सर्व वस्तुजात इसके आधीन कीगइ थी उसमे जबतक जिनवल्लभने संभाला तबतक किसीभी वस्तुकी हानि नहिं हू, तिसकारणसे यह जिनवल्लभ सर्वस्व संभालने में समर्थ है सर्वका निर्वाहकरणेवाला है, अतः योग्य है, जैसा विचारा है वैसाहि निश्चययह जिनवल्लभहोवेगा, परन्तु For Private And Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४८ जैनसिद्धान्तविना शेष सर्वहि तर्क अलंकार ज्योतिष वगेरे विद्या इस जिनवल्लभने भणी है ऐसा जिनेश्वराचार्य- विचारा और यथावस्थितसंपूर्ण जैनसिद्धान्त इस वक्तमें वर्तमानकालकी अपेक्षा श्रीअभयदेवमूरिजीके पासहै, ऐसा सुणतेहै, उससर्वजैनसिद्धान्तकी वाचनालेनेके वास्ते श्रीअभयदेवमूरिजीके पासमें जिनवल्लभकुं भेजें" जैन सिद्धान्तोंकी बाचना ग्रहणकीयोंके वाद सर्व विद्यारूपी स्त्रीका भार पंडित जिनवल्लभकों अपणे पदमें स्थापनकरुंगा, ऐसा विचारकर और वाचनाचार्यकापद देके, चिंतारहितहुवा थका भोजनादिकयुक्ति विचारके, जिनशेखर नामका दूसरा शिष्य वैयावच्च करनेके लिये साथमें देकर, श्रीजिनवल्लभकुं श्रीअभयदेवमूरिजीके पासमें भेजा, वाद स्वस्थानसें अणहिलपुरपाटण जातां मरुकोटमे रात्रि रहै, वहां मरुकोटमें माणानामका श्रावकनें कारित जिनभवनकी प्रतिष्ठा करी, वाद अणहिलपुरपाटण पहुचे, वहाँ श्रीअभयदेवमूरिसंबंधी वसती (उपासरा) पूछकर अन्दर प्रवेश करा, तब वसतीके अन्दरस्तीर्थंकरसमान भगवान् श्रीअभयदेवसरिजीकों देखे, कैसे हैं वहश्रीअभयदेवसरिभगवान् विशिष्ट सिद्धान्तकी वाचनाके अर्थी पासमें बैठे हुवे है बहुत आचार्य जिनोंके ऐसे और अपणीवाणीके वैभवकरके तिरस्कारकरा है देवाचार्यका जिणोंने ऐसे साक्षात् तीर्थकरके समान श्रीअभयदेवमूरिजीकों भक्तिके वससै उलसायमानहै सर्वरोमराजिरूपकी कंचुकिका पेहेरनेकावस्त्रविशेष उस्से युक्त है शरीररूपी लता जिसकी ऐसा जिनवल्लभने भक्तिबहुमान पुरस्सर विधिपूर्वक For Private And Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २४९ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वंदना नमस्कार किया, वादमें श्रीगुरुमहाराजने देखणे मात्र से हि जाणा कि यह योग्य है, और दर्पणकी तरे विशेषशुद्ध हैं अंत - करण जिसका ऐसा, यहकोइपुरुषरत्न देखणेमें आवेहै, ऐसा देखणे सेंहि श्रीअभयदेवसूरिजीनें विचारके मधुरवाणीसे पूछा कि कहांसें आयें है, और तुमारे आणेका क्या प्रयोजन है, वादमें दोनो हस्तकमलोंकों जोड़कर श्रीअभयदेवसूरिजी भगवानके दर्शनसें उत्पन्न हूवा जो उपमारहितबहूमान जलसमूहसें छोया अन्तःकरणसंबंधि मेलजिसनें ऐसा, और वचनरूपीजलसें मानकरा हूवा जो अमृतसेंबना हूवाचन्द्रके जैसाग णिजिनवल्लभनें कहा कि हे भगवन् अपणीअखंडशोभाकसमूहसेंयुक्त ऐसी अपणी आसिकानामकनगरीसें में आयाहूं, और भ्रमरकों भ्रमकरणेवाला जो आपके मुखकमलमें लगा हूवा सिद्धान्तरस पीणेकी बुद्धिवाला मेरेकों मेरे गुरुमहाराजश्रीजिनेश्वरसूरिजीने श्रीमती आसिकानगरीसें सर्वलोकोंका मनोवांछित पूरणकरणेमें कल्पवृक्षके समान आपसाहिबके पास में श्रीजैन सिद्धान्तोंकी वाचना ग्रहणकरके लिये भेजा है, मेरे आणेका यह प्रयोजन है, इसलिये आपके पास सर्व जैन सिद्धान्तोंकी रहस्यसहितवाचना लेणेकी मेरी इच्छा है बादमें पूज्यपाद श्री अभयदेवसूरिजीनें विचारा कि कालंमि आगए विऊ, अपत्तं च नवाइज्जा पतंच नाव माणए ॥ १ ॥ अर्थ - विद्वान् गीतार्थ सुविहित आचार्य व्यवहारसूत्रादिकमे कहा हूवा काल होनेपर भी योग तप उपधानादिक करणे पर भी सिद्धान्तकी रहस्यसहित वाचना अयोग्य कुपात्र विगई प्रतिबद्धादि - For Private And Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५० कोंको नहिं देवे, और योग्यपात्रगुरुभक्त श्रद्धा विनय बहुमानादिकसहित सर्वव्यवहारिकविद्यासंपन्न रहस्यसहितपरसिद्धान्तका जाणकार सुशिष्य मिलनेपर कालयोगादिकविनाभी विद्वान् गीतार्थ सुविहत आचार्य श्रीसिद्धान्तकी रहस्यसहित वाचना देवे, योग्यसुशिष्यका वाचनादि नहिं देणेकर कदापि अपमान नहि करें ॥१॥ __ गुरुक्रमायात संप्रदायसें, ऐसा विचारकर श्रीअभयदेवसूरिजी महाराजनें कहा, तुमने बहुतहि श्रेष्ठ विचार किया है, और जो इहां पर सिद्धान्तकीवाचनाके अभिप्रायकर तुमारा आणा हुवा है, इसलिये प्रधानदिनमें वाचना देवेगे ऐसाकहकर प्रधानदिनमें वाचना देणी सरुकरी, जैसे जैसे सुगुरुसिद्धान्तकी वाचना देवे वैसा वैसा हरखितचित्तवालाहूवाथका सुशिष्य अमृतकीतरे सिद्धान्त वाचनाका पानकरे, अर्थात् स्वादलेवे, हरखसे विकस्वरमान कमलसदृश उसको वैसा योग्यशिष्यदेखकर, श्रीगुरुमहाराजभी संतोषकी पुष्टिसें वाचनादेनेमेंद्विगुणउत्साहसहित हूवे, बहूत कहेणेसें क्या प्रयोजन है, वहवह जणाणेकीवुद्धिकर श्रीपूज्यपादने उस जिनवल्लभकों वाचना देणेके लिये प्रवृत्ति करी, जैसे थोडे हि कालमें सिद्धान्त वाचना पूरीहूइ, तथा श्रीगुरुमहाराजके एक पूर्वपरिचितमित्र ज्योतिषीथा, उसनें श्रीगुरुमहाजकों कहाथा कि जो आपके कोई योग्यशिष्य होवे, तब उस शिष्यको मेरेको सोंपणा, जिसे उस शिष्यको समग्र ज्योतिष समर्पण करुंगा इसलिये श्रीसिद्धान्तोंकी वाचनापूर्ण होनेपर पूज्यश्रीने श्रीजिनवल्लभगणिको ज्योतिषीकों सोंपें उसज्योतिषिनेभी जि For Private And Personal Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५१ नवल्लभगणिके लिये सर्वज्योतिषविद्या परिज्ञानसहित अर्थात् रहस्यसहितदीवी, इसतरे सिद्धान्तवाचनावगेरे ग्रहण पूर्वक श्रेष्ठ अनुष्ठानवर्द्धमानपरिणामसें श्रीसिद्धान्तोक्त क्रिया करता हूवा, और अच्छीत रेप्राप्त किया हैस्फूर्त्तिमानज्योतिषजिसने ऐसा, जिनवभगणि अपणे गुरुमहाराजके पासमे जानेके लिये आचार्य श्री का आज्ञा वचन चाहता है इस अवसरमे पूज्यपाद श्री अभयदेवसूरिजीनें कहा, हेवत्स सिद्धान्तोक्तसाध्वाचारसर्वतुमने जाणा है इसलिये सिद्धान्तानुसार हि क्रियाउद्धारविधिकरके जैसे इस समय वर्त्तते हो वैसाहि करणा, वादमे श्रीजिनवल्लभगणिनें श्री अभयदेवसूरिजी के चरणोंमे नमस्कार करके कहा जैसे श्रीपूज्यपादों कि आज्ञा है, वैसाहि निश्चयवतूंगा, औरप्रधानदिनमें आचार्यश्री के पाससें चला और जिसमार्गसें आया उसी मार्गकरके फेर मरुकोटमें पहुचा, और श्रीगुरुजीके पास जातिसमयसि - द्धान्तअनुसार मंदिरमें विधिलिखि, जिस विधिकरके अधि मंदिर भी मोक्षका साधन विधि चैत्य होवे, वह यह इहां पर उत्सूलोकक्रम है, नच नच स्नानं रजन्यां सदा साधूनां ममताश्रयो, नच नच स्त्रीप्रवेशो निशि जातिज्ञातिकदाग्रहो, नच नच श्राद्धेषु ताम्बूलमित्याज्ञाऽत्रेयमनिश्रिते विधिकृते श्रीजैन चैत्यालये ॥ १ ॥ अर्थ :- इहां निश्रारहित विधिसें बना हुवा इस श्रीजैनमन्दिरमें यह आज्ञा है कि निरंतर रात्रिमें स्नात्रपूजा शान्तिकपूजा शान्तिस्नात्र अष्टोत्तरी पंचकल्याणकपूजा महोत्सव अंजनशलाका मन्दिर For Private And Personal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५२ प्रतिष्ठा वेदीप्रतिष्ठा मूर्तिप्रतिष्ठा बलिकरणा दर्शनकरणा पूजा करणी नाटक गान भावनादिक नहिंजकरणा, साधुवोंके ममत्वका स्थान भी वह जिनमन्दिर नहिं है, रात्रिमें स्त्रियोंका प्रवेश भी नहिं है, पिता माता पुत्र पौत्र वगेरे घरसंबंधि पंचायति जातिकदाग्रह कहा जावे है, सासु शुसरा वगेरे ज्ञातिकी पंचायति ज्ञातिकदाग्रह कहाजावे है यह जातिकदाग्रह और ज्ञातिकदाग्रह भी जिस जैनमंदिरमे नहिं होवे है __और जैनमंदिरमें पुरुषोंके स्त्रियोंका संघट्टा (स्पर्श) पूजा प्रभावना वगेरे धर्मकार्य रात्रिमें नहिं होवे रागादि हेतु होणेसें, श्रावकोंको ताम्बूलका देना और ताम्बूल लेना और ताम्बूल वगेरेका खाना नहिं होवे है . और निरंतर रात्रिमें पुरुषोंका प्रवेश विधि चैत्यमें नहिं होवे और तरुण स्त्री मूलनायक प्रतिमाकी पूजा नहिं करे, और १० और ८४ आशातना टालनेपूर्वक पांच अभिगमनसाचवणेपूर्वक दिवसमें शास्त्रनियमानुसार सर्वसंघ इस विधि चैत्यमें पूजा सामायिक व्याख्यान प्रभावना वगेरे यथायोग्य धर्मकार्य कर सक्ते है ॥ १ ॥ इत्यादि विधि इस जैनमंदिरमें करणा उचित है, जिस्से सर्व चैत्यवंदनादि अनुष्ठान करा हूवा मुक्ति के लिये होवे, वादमे यह जिनवल्लभगणि वहांसें अपणे गुरुमहाराजके पास जाणेके लिये प्रवृत्तमान हूवे क्रमसें चलते हुवे माइयड ग्राममें पहुंचे, आसिका नगरीगढसें तीनकोश उरली तर्फरहै, अर्थात् नगरीमें नहिं गये तीन कोश दूर रहै, उसी ग्राममें श्रीगुरुमहाराजसें मिलणेके लिये एक मनुष्यकों भेजा, उस पुरुपके हाथमें लेख For Private And Personal Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५३ लिखकर दिया, उस लेखका यह भावार्थ है कि - यथा आपकी दयार्से अपणे गुरुमहाराज के पासमें सर्वसिद्धान्त संबंधि वाचना लेकर माइयड गाम में आयाहूं, पूज्योंको मेरेपर प्रसाद करके saiपर हि मेरेकों मिलणा, वादमें गुरुश्रीनें जाणा कि क्या कारण है जिससे जिनवल्लमगणिनें इसतरे पुरुषके साथ संदेसा मेजा है, और वह जिनवल्लभगणि खुद इहां पर नहिं आया, इसलिये जाना जाता है कि इहां कोई जरूर कारण है, इसतरे विचारके दूसरे दिन सर्व लोकोंके साथ आचार्य सामने आया, जिनवल्लभगणि सामनें गया गुरु श्रीको नमस्कार करा गुरु श्रीने कुशलवृतान्त पूछा और जिनवल्लभ गणियें यथार्थ सर्व बात कही, और ब्राह्मण वगेरे लोकोंके समाधाननिमित्त ज्योतिषके बलसैं कितनाक भूतभविष्यवर्तमान संबंधि मेघवगेरेका स्वरूप इस प्रकारसे कहा कि जिस मेघादिखरूपको श्रवण करके गुरुकोभी आश्रर्य हुवा, भूतपूर्वकस्तद्वदुपचार, इति न्यायाद् गुरोरित्युक्तं, भूतकालका वर्तमान में उपचारकरणेसें गुरुको भी आर्य हूवा इत्यादि कहा, वादमें गुरुनें पुछा कि हे जिनवल्लभ तुं अपणे मठमें क्युं नहिं आया, वादजिनवल्लभ गणिने कहा, हे भगवन श्रीसुगुरुके मुखसे जिनवचनरूपी अमृतको पीके, इस समय किसतरे दुर्गतिरूप कारागार में अपने आत्माके सघनबन्धनसदृश और विषवृक्षके सदृश चैत्यवासकुं सेवणेकी इच्छा करूं, बाद में गुरुनें कहा है जिनवल्लभ मैनें यहविचारा था कि जो तेरेकों अपणा पददेके तेरे खंधपर अपणे गच्छसंबंधि मन्दिर श्रावक वगेरेका भार रखके, पीछे में सद्गुरुके पास में वसतिमार्गअंगीकारकरूंगा, वादमें जिन For Private And Personal Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Anh २५४ वल्लभ गणिने विकस्वरमान मुखकमलकरके कहा, हे भगवन् यह आपका कहेना बहुत हि उचित है, _ और विवेकका यह हि फल है जो हेय पापादिक वस्तु है उसका त्याग करणा उपादेय अंगीकार करणे योग्य तप संजमादि जो अंगीकारकरणेमें आवे तो श्रेय है, ___ और यह शुभमार्ग अंगीकार करणेकी आपकी तीव्रतर इच्छा है. तो अपणे साथ हि सुगुरुके पासमें चले, यह प्रत्युत्तर सुणके गुरुनें इसके सामने निश्वासा नांखके कहा कि गच्छादिव्यवस्था कियां विना हि चारित्र अंगीकारणा, हे वत्स, ऐसी निस्पृहता हमारी नहिं है, जिस निस्पृहताकरके गच्छादि चिंता करणेमें समर्थपुरुष विना खगच्छ मन्दिर वाडी वगेरेकी चिंता छोडके सुगुरुके पासमें वसतिवास हम अंगीकार करें, इसलिये अवश्य वसतिवास तुमकोहि अंगीकार करना, यह आज्ञावचनश्रवण करके श्रीजिनवल्लभगणिजीने कहा, हे भगवन् ऐसा हि होवो, वादमें गुरु पीछा पलटके आसिकानगरीमे पहुंचा, वाद में श्रीजिनवल्लभगणि भी भूतपूर्वगुरुकीआज्ञासें श्रीअणहिल पुर पाटणकी तर्फ विहारकिया, और क्रमसें विहार करते हुवे वाचनाचार्य श्रीजिनवल्लभगणि अणहिलपुरपाटणपधारे और श्रीमान् पूज्यपाद अभयदेवमूरिजीके चरणकमलोंमें बहुत हि आदरसें विधिपूर्वकवन्दनाकरनेपूर्वक दोनुचरणकमलोंको स्पर्शकर अपणे जन्मको सफलकरा, तब श्रीमान्अभयदेवसरिजीको आपणे मनमें पूर्णसमाधान याने पूर्णविश्वास, उत्पन्न हुवा और विचारा कि जैसे इसकी हमनें परीक्षा करी, वैसाहि यह हूवा, For Private And Personal Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५५ वादमें श्रीमान्अभयदेवसूरिजी अपणे मनमें जाणते हुवे भी किसीकोभी कहें नहिं, और उस समय आपणे मनमें विचारते हुवे कि यह जिनवल्लभगणि हि हमारे पद योग्यहै, परंतु चैत्यवासी आचार्यका शिष्य है, इसलिये गच्छके संमत नहिं होगा यह विचारके गच्छस्थितिवास्ते गच्छधारक श्रीवर्द्धमानसूरिजीको अपणे पट्टमें स्थापे, और श्रीजिनवल्लभगणिजीको श्रीमान् अभयदेवसूरिजीनें अपणे संबंधि उपसंपद दीवी, अर्थात् अपणे शिष्यत्वपणे स्वीकार करणेपूर्वक वेषचारित्र श्रुतस्वाम्नाय योगादिक सातिशय ज्योतिष गुप्तरहस्य वगेरे सर्व प्रकारकी उपसम्पद अपणे नामसें अपणे हाथसें दीया और सूरिमत्रानाय गुप्तरहस्य और गणि वाचनाचार्य आदि पदवी और बहुमानपूर्वक सर्वगुणकलापरिपूर्ण भावसें अपणा मुख्य शिष्य पट्टयोग्य समजकर किसी प्रकारका अन्तरभाव नहिं रखकर योग्यगुणपात्र बनाये, और गुणरत्न सत्वसमूहके आधारभूत क्रमसें भये, और गच्छके कारणसें उसतरे होनेपरभी अवसरकी अपेक्षा करते हुवे, कालक्षेप करा और आचार्यश्री मनमें विचारें कि योग्य अवसर आवे तो वाचनाचार्य श्रीजिनवल्लभगणिको मुख्याचार्य पद देनेमें आवे, इस तरे विचार करते रहै, वादमें अपणा स्वल्पायु होनेसें और योग्य अवसर नहिं आणेसें अपणे हाथसें मुख्याचार्य पद नहिं दे सके सामान्य तरिके गच्छस्थितिनिर्वाहके लिये अपणे पदमें श्रीवर्द्धमानसूरिजीको मुकरर करके श्रीमान् अभयदेवसरिजी अपणे हाथसें वेषश्रुत चारित्ररूप उपसम्पद देके कहा कि-आजसें लेके हमारी आज्ञामें रहेना, सर्वत्र हमारी आज्ञासें हि तुमको प्रवर्तना, ऐसा कहा, और For Private And Personal Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २५६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकान्तमें श्रीजिनप्रसन्नचन्द्रस्वरिजीको कहा, मेरे पट्टमे श्रेष्ठलम में श्रीजिनवल्लभगणिको स्थापणा, इसतरे मुक्तिनगरकी साक्षात् सोपानपंक्ति होवे वैसी श्रीनवांगवृत्तिका भव्य लोकोंको उपदेश दे के, सिद्धान्तमें कहे हुवे, विधिसें अणशणआराधना संलेखना करके समाधिसें पंचपरमेष्ठीनमस्कारका स्मरण करते हुवे श्रीमान् अभयदेवसूरिजी वि० सं० १९६७ में कवडवंजनगर में स्वर्ग निवासी हूवे, और श्रीप्रसन्नचन्द्रसूरिजी कोंभी श्रीअभयदेवसूरिजीके पट्टमें मुख्याचार्यपद कहेप्रमाणे देनेका अवसरनहिं मिला, वादमें श्रीजिनप्रसन्नचन्द्रसूरिजीनें भी अपणें आयुके अन्तसमय श्रीदेवभद्रसूरिजीको वीनति करी, यह पूर्वोक्त सुगुरुका उपदेश आपको अवश्यहि सफल करणा, वह सुगुरुका उपदेश करणेकुं में समर्थ नहिं हूवा हूं, तब श्रीदेव भद्रसूरिजीनें श्रीप्रसन्नचन्द्रसूरिजीका वचन अंगीकारकरा, वर्त्तमान योगकरके इसतरे हि करेंगें, आपको मनमें समाधिरखना, किसीत रेकी चिंता करणीनहिं, इसतरे प्रसन्नचन्द्रसूरिजी कों श्रीदेवभद्रसूरिजीनेंकहा, और श्रीजिनवल्लभगणिवाचनाचार्य भी कितनाकालपर्यंत श्रीअणहिलपुरपाटन भूमिमें विचरके, इहां गुजरातदेशमें किसीकोभी वैसा विशेष बोध करणेकुं नहिं समर्थ होवें हैं जिस्सें मनमें समाधान उत्पन्न होवे, ऐसा मन में विचारके, तीनठाणासें आगमविधि करके और श्रेष्ठशकुन करके भव्य जनमनरूपी क्षेत्रभूमिकामें भगवान की कहीहुई विधिकरके धर्मवीजवाणेके लिये, श्री मेवाड आदि देशोंमें विहार करते हुवे, उस वक्त मेवाडआदि सबहि देश प्रायेंकर चैत्यवासीआचायोंकरके व्याप्तयें, वहां सब हि लोक For Private And Personal Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५७ चैत्यवासी आचार्यों करके वासितवर्ने है, किंबहुना, वैसादेशान्तरमें रहे हुवे, अनेकगामनगरादिकोंमें विहारकरतेहूवे, चितोडपर्वतके किलेमें पहोचे, परन्तु चितोडनगरसंबंधि सबहि लोक क्षुद्र चैत्यवासीयों करके भावितहै, तोभी अयुक्त उपसर्गपरिसहादिक कुछभी करणेकुं नहिं समर्थभये, श्रीअणहिलपुर पाटणमें विचरते हुवे श्रीगुरूमहाराजकी बहुतहि बड़ी प्रसिद्धिकीर्ति प्रभाव सुणनेसेंहि हतप्रभाव हूवे, बल पराक्रम धैर्यादिक जिणोंका नष्ट हुवा, इसलिये कुछभी अयुक्तव्यवहारकरणेके लिये समर्थ नहिं हूवे, वादमें वाचनाचार्य श्रीजिनवल्लभगणिजीनें वहां चितोडनगरीका लोकोंके पासमें रहेणेके लिये स्थान मांगा, तब चितोडनगरीके श्रावकोंने कहा हे भगवन् इहांपर रहणेके लिये कोइ स्थान नहिं हैं परंतु एकचंडिकादेवीका मठ है, जो वहां आप रहोतो हाजरहै, तब वाचनाचार्यश्रीजिनवल्लभगणिजीनें शुद्धज्ञानोपयोगसें जाणाकि, दुष्टआशयसें यहकहेतेहैं, तथापि वहां रहेणेसेभी श्रीदेवगुरुके प्रसादसें कल्याणहोगा, यह विचारके उण श्रावकोंसे कहा, तुमारी आज्ञा होवे तो वहां चंडिकादेवीके मठमें हमरहैं, यह सुणकर उण क्षुद्राशयवाले श्रावकोंने कहा कि-हमारे अतिशय कर सम्मत है, आप चंडिकादेवीके मठमें रहो, तब वाचनाचार्य श्रीजिनवल्लभगणिजी श्रीदेवगुरूका अछी तरह स्मरण करके श्रीचंडिकादेवीकी स्तुति प्रदान पूर्वक अवग्रहलेके, चंडिकादेवीके मठमें रहे, श्रीमतीचंडिकादेवी वाचनाचार्य श्रीजिनवल्लभगणिजीके ज्ञान ध्यान तप संजम वगेरेह सदनुष्ठान करके प्रसन्न हुई दुष्ट प्रयुक्त छल छिद्र मंत्र तंत्र यंत्र वसीकरणादि १७ दत्तसूरि० For Private And Personal Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org A २५८ उपसर्ग प्रमादरहित उपयोगसहित निरन्तर रक्षा करें, श्रीजिनवल्लभगणिवाचनाचार्य कैसे समस्त विद्या के निधान है सो देखातें सर्वसिद्धान्त जाणनेवाले, सूत्रपाठ और अर्थसें, कंठ हैं पाणिनी आदि आठ व्याकरण जिनोंकों, और मेघदूत आदि सर्व महाकाव्य कंठ हैं, रुद्रट उदभट दंडि वामनभामहादि अलंकार ८४ नाटक सर्व ज्योतिष शास्त्र, जयदेवादि सर्व छंद ग्रंथ और जिनेन्द्रमतकी विशेषकरके स्थापना करनेवाले, श्रीसिद्धसेनाचार्य श्रीहरि - भद्राचार्य श्री अभयदेवाचार्य कृत सम्मति तर्क अनेकान्तजय पताकादि तर्क शास्त्र और ८४ हजार स्याद्वादरतनाकर प्रमाण लक्ष्मा प्रमाणरहस्य शब्दलक्ष्मादि ग्रंथोंकों अपणे नाममुताबिक जाणनेवाले और कन्दली किरणावली न्यायशंकर नंदन कमलशीलादि परदर्शनसंबंधि तर्कादि शास्त्रों में बहुतहि विचक्षण भये हैं, इसका यह भावार्थ हूवा कि- इग्यारमी सदीमें बारमी शादीके प्रारंभसमय जो प्राचीन अर्वाचीन स्वदर्शनसंबंधि पंचांगी सहित सर्व जैन सिद्धान्त और स्वदर्शनसंबंधि सर्वव्याकरण न्यायकाव्य कोश छंद साहित्य अलंकार ज्योतिष वैद्यक प्रकरण चरित्र रास कथा चम्पू नाटकादि सर्व शास्त्र अपणे नाम सदृशउपस्थित किये हुवे है, और परदर्शनसंबंधि अनेकमताश्रित कपिल वैदिक जैमिनी गौतम कणाद बौद्ध शैव वैदांतिक वैष्णवादि मताश्रित मूलसिद्धान्त रहस्य सहित और अन्यदर्शन संबंधि सर्व व्याकरण न्याय काव्य कोश छंद साहित्य अलंकार ज्योतिष वैद्यक वेदस्मृति पुराण इतिहास कथा चम्पू नाटकादि गद्य पद्यात्मक सर्वशास्त्र अपणे नाममुताबिक जानते हैं और पुरुष संबंधि सर्व Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५९ गुणकला में बहुतहि विचक्षण हैं इसलिये चउदहप्रकारकी विद्याके पारंगामी हैं, और उसवक्त में ऐसा कोई शास्त्र या गुण कला नहिथा जो कि श्रीजिनवल्लभगणिवाचनाचार्य अपणे बुद्धिके बलसें नहिं जाना या नहिं शीखा और सर्वशास्त्र गुणा कलाके भंडार और सर्वविद्याके पारंगामी हुवे और शंकादिदूषणरहित सिडसठसम्यक्तगुणसहितहोनेसें सर्वोत्कृष्टसम्यक्त गुणसें भूषिहे आत्माजिणों का ऐसे, और स्वसमय परसमयके सर्वप्रकारस जाणकार होणेसें समयानुसार सर्वोत्कृष्टज्ञानप्रधान चरण करण गुण प्रधान, तप संजम प्रधान, ध्यान प्रधान, समिति गुप्ति प्रधान, क्षमा मार्दव आर्य मुक्ति सत्य शौच अकिंचन ब्रह्मचर्यप्रधान, लाघवप्रधान, सज्झायप्रधान, दानप्रधान, भावप्रधान, योगप्रधान, मन्त्र यत्र तंत्रप्रधान, आयुक्त सर्वानुयोग प्रधान, घोरगुणी घोरब्रह्मचर्यवासी घोरतपस्वी, दिप्ततपस्वी तप्ततपस्वी महातपस्वी कुलसम्पन्न जातिसम्पन्न बलसम्पन्न रूपसम्पन्न विनयसम्पन्न गुणसम्पन्न धृतिसम्पन्न संघयणसम्पन्न संस्थानसम्पन्न प्रतिरूपतेजस्वी युगप्रधानागम मधुरवचन गंभीर उपदेशतत्पर अपरिश्रावी सोम्यप्रकृति शान्तगुण संग्रहशील अभिग्रहमति अनेकप्रकारका अभिग्रह करणेवाले, ओर कलहादि नहिं करणेवाले, विकथादि नहिं करणेवाले १८ पापस्थान में द्रव्य भावसें कहांभि प्रवृत्ति नहिं करणेवाले सत्तावीस मुनिगुणविभूषित पचीस उपाध्यायगुणे विराजमान अकथक अचपल प्रशान्तहृदय इत्यादि सद्भूत गुणशतशः परिकलित और सर्वोत्कृष्ट सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र तप संजमवीर्यादिक जिणोंका ऐसे, और श्रीहर्ष भारवि माघ कालिदासादि जो लोकमें For Private And Personal Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६० बहुतहि श्रेष्ठ उच्च कोटिके विद्वान और कवि हूवे हैं, वो भी जिणोके प्रत्यक्ष सन्मुख शिष्यत्व भावकों प्राप्त होवें ऐसे, और विशेषसें इन्द्र शुक्राचार्य सुरगुरु आदिदेवभि श्रुतसमुद्रके विषयमें जिणोंके सामने अल्पबुद्धिवाले होते है, और गौतम सुधर्म जम्बुप्रभवादि अवतार, और " तित्थरसमो सूरि जो सम्मं जिणमयं पया मेहत्ति वचनात्" तित्थंकर समान श्रुतसमुद्रके पारंगामी, कलिकालसर्वज्ञ प्राकृतके अंतिम महाकवि इस लिये प्रधान ज्ञान शक्तिसें और महाकवित्व शक्तिसें अर्थात् महाकवित्वकी प्रधान सुगंधिसें, श्रीजिनवल्लभगणिवाचनाचार्य श्रीचित्रकूट नगरमें सर्वत्र प्रकर्षपणे प्रसिद्ध होते हूवे' वादमें सर्वपरदर्शनवाले ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र ४ वर्णवाले लोक आणे शरु हूवे, और जिस जिसकुं जिस जिस शास्त्रविषयमें संशय उत्पन्न होवे, वो सबहि लोक उस उस शास्त्रविषयी संदेहकुं विनयसहितभक्तिपूर्वक पूछे श्रीजिनवल्लभगणिभी सूर्यकी तरह सर्वत्र भन्योंके अंत:करणोंमें विशिष्ट उपदेशद्वारा प्रवेश करके सर्व संदेहरूप अंधकारकुं नाश करते भये, चित्रकूटनगरके श्रावक भी धीरे धीरे थोडे थोडे आणे लगे, वादमें श्रावकोंने सत्यार्थ आगमवाणी सुणके, आगम अनुसारे सत्य क्रिया भी देखके, बहुतसें श्रावकोंने और अन्यदर्शनवाले ४ वर्णके लोकोंनें अपणे निजगुरुपणे श्रीजिनवल्लभ गणिवाचनाचायको स्वीकारकरे और साधारण सुदर्शन सुमति पल्हक वीरक मानदेव धंधक सोमिलक वीरदेव आदि श्रावकोंने सादर संतोष विनय बहुमान भक्तिसहित विधिपूर्वक समाघि सम्यक्तसहित निजनिजशक्ति अनुसार अणुव्रत, गुणवत, शिक्षावत, रात्रिभोजनविरमणव्रत, For Private And Personal Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६१ अभक्ष अनंतकाय विरमणबत सातव्यसनविरमण, श्रावकषद्कर्मनियम, यथाशक्ति आश्रव निरोध नियम,अनेक अभिग्रहकरण,नियम आदिव्रत नियमादिक संतोष पूर्वक ग्रहण किये, और श्रीजिनवल्लभगणिवाचनाचार्यजीकों निजगुरुपणे स्वीकार किये, ॥१॥ और श्रीअभयदेवस्मूरिजी गुरुमहाराजके सदुपदेश करके श्रीजिनवल्लभगणिवाचनाचार्यजीकोंसातिशायिअतीत अनागतादि ज्ञानसातिशायि ज्योतिष परिज्ञान बहुतहि विशेष था, इसलिये भगवान श्रीजिनवल्लभगणिवाचनाचार्यजीकेपासमें एक साधारण नामक श्रावकनें परिग्रह परिणामव्रत ग्रहण करणैकेलिये प्रवर्तमान हुवा, उतने गुणगरिष्ठ या गुण विशिष्ठ श्रीजिनवल्लभ गणिवाचनाचार्यजीनें उस श्रावकसे कहा, हे साधारण कितना सर्व परिग्रहका प्रमाण करेगा, तब उस श्रावकनें कहा' हेभगवान मेरे वीशहजार प्रमाणे सर्व परिग्रहका प्रमाण रखणा है, शेष सर्व परिग्रहका त्याग करता हूं, पुत्रकलत्रादिककी गिणतिनहिं, उतनें निर्मलज्ञानदृष्टिवाले श्रीजिनवल्लभमरिजी बोले कि हेश्रावक परिग्रहप्रमाणबढावो, वाद उस साधारण श्रावकनें परिग्रहप्रमाण बढाकर तीस हजार प्रमाणे करणे लगा, उतने फेर पूज्यश्री बोले, कि हे महानुभाव इससे भी बहुतर विचारो, तब साधारण श्रावकनें कहा, हे स्वामी मेरे घरसंबंधि सर्वसारवस्तुवोंका मोलगिणेपरभी पांचसो (५००) पुरा न होवे, तिसपरभी आप श्रीके वचनसें मेने सर्वपरिग्रह प्रमाण वढाकर ३० हज्जारपर रखाहै, उसपरभी आपश्रीने कहाकि हे महानुभाव इससेंभी जादा प्रमाण बढावो, एसा आप श्री फरमाते हैं तों इससे जादा कहांसें मेरे अधिक तर द्रव्य (धन) की प्राप्ति होगी, For Private And Personal Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६२ वाद सातिशायि शानशाली भगवान् श्रीजिनवल्लभग णिवाचनाचार्य बोले, सर्व साधर्मियों में सर्व साधारण स्थितिवाले, हे साधारण श्रावक पुण्यसमूह क्या असाध्य है, अतुलागणना ( प्रमाणरहित गिणति ) मतकर, केवल चणामात्र वेचनेवाले पुरुषभी अगण्य धनके स्वामी होजाते हैं, ऐसा अभिप्राय सहित गुरुमहाराज के वनचसुनके संदेह रहित होकर मनमें विचारा कि कुछने कुछ धनादिककि प्राप्ति जरूर मेरे होगी, और योग क्षेमरूप कल्याण जरूर मेरे होवेगा, यह साधारण श्रावक पूर्वोक्त मनमें विचारके वादमें मुख विकाश करके साधारण श्रावकनें कहा, जो ऐसा है तो हे भगवान् मेरे एक लाख प्रमाणे सर्व परिग्रहका प्रमाण होवो, तब श्रीगुरुमहाराजनें साधारण श्रावकों सर्वपरिग्रहपरिमाणत्रत उच्चराया, और परिग्रह प्रमाणत्रत ग्रहणकियां वाद, श्रीसद्गुरुमहाराज के चरण कमलोंकी सेवासें, अशुभअन्तरायकर्मकाक्षयोपशम होनेसें प्रतिदिनमें प्रवर्द्धमानसंपदावाला हुवा, विशेषकरके श्रीगुर्वाज्ञामें प्रवृत्ति करता हुवा, वह साधारण श्रावक संपूर्ण श्रीसंघके हरकोई कार्य में सर्वश्रीसंघका मध्यस्थपणें कार्यकरणेंमें तत्परहूवा, और सहकादि श्रावकभी साधारण नामा श्रावककी तरह सर्वत्र हरेक धर्मकार्यों में श्रीजिनवल्लभगणिवाचनाचार्यजीकी आज्ञा करकेहि प्रवर्त्तना शरुकरा, वाद तिस चित्रकूटनगरमें श्रीजिनवल्लभगणिवाचनाचार्यजीनें चतुर्मासकसंबंधि नवमाकल्पकरा और क्रमसे पचास दिनमें संवत्सरीप्रतिक्रमण कियांके वाद में आश्विन मास आया तब आसोजवदि तेरसका श्रीमहावीर देवका गर्भापहार कल्याणक आया सूत्रसिद्ध जाणके, और चैत्यवासीयों करके तिरो For Private And Personal Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Anh २६३ हित किया हूया जाणके, सर्व सभा समक्ष श्रावकोंको श्रीजिनवल्लभ गणिवाचनाचार्यजीनें कहा, हेश्रावकजूनो आज श्रीमहावीरदेवका दूसरा गोपहार कल्याणक है, यह गर्भापहार कल्याणकक्रम संख्या दूसरा कहाजावे हैं, और यह गर्भापहार कल्याणकसूत्र सिद्ध है, तथाहि " पंचहत्थुत्तरे होत्था साइणा परिनिव्वुडे" इनहि प्रगट अक्षरों करकेहि सिद्धान्तमें कहनेंसें, और दूसरा वैसा कोइभी विधिचैत्य ईहांपर नहिं हैं, ईसलियेहि चैत्यवासीयोंके चैत्यमे जाकें, जो आज देव वांदनेमें आवे तो अच्छाहे वाद श्रीगुरुमहाराजके मुखकमलसें निकले हुवे वचनोंको आराधन करणेवाले श्रावकोंने कहा, हेभगवन् जो आपके सम्मत है वह हि हम करणेकुं तइयार हैं, वादमें सर्व पौषहवाले वगैरह श्रावक लोक अति निर्मल शरीर जिनोंका और निर्मल वस्त्र जिनोंका और ग्रहण कियाहै निर्मल देवपूजाका उपकरण जिनोंने ऐसे श्रीगुरुमहाराजके साथ मन्दिरमें जाणेके लिये प्रवर्त्तमान हूवे, वादमें श्रीगुरुमहाराजकोंश्रावकसमुदायके साथआतेहूवे देखके, चैत्यवासीनीसाध्वीनें किसी मनुष्यकोपूछा कि आज इन वसतिवासी. योंकेक्याविशेषपर्वहै, जिससे यहबहुतसें गुरु श्रावक मिलकर जिनमन्दिरजारहे हैं, उतनें किसीएकमनुष्यनें उस चैत्यवासीनी साध्वीकों कहा, सामान्य गणनामें छठा, और क्रमसंख्यामें दूसरा गर्भापहार नामकल्याणक करणेके लिये यहजारहेहैं, अर्थात् चैत्यवासीयोंकरकेतिरोहितकिया हुवा और सूत्र सिद्धवीरगर्भापहारकल्याणकआजहै इसलियेकल्याणकनिमित्तदेव वन्दनाकरणेकोंकल्याणकादिबहुमान निमित्त यह जारहेहैं, वाद तिसचैत्यवासीनी For Private And Personal Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६४ साध्वीनें वीर गर्भापहार कल्याणक, कल्याणकतरीकेकवीभीमेनें मेरीउंबरमें नकीया नसुणा नदेखा, सुविहितमुनीनांदर्शनाभावात्, चैत्यवासिनांकल्याणकतयानिषेधात्, सुविहितमुनियोंके दर्शनके अभावसें, चैत्यवासीयोंके तो यह गर्भापहार कल्याणक रूपता करके निषेध करणेंसें, इसलिये तिस चैत्यवासनी आर्याने अपणे मनमें विचारा कि यहां चित्रकूटनगरमें हमारी प्रबलता विशेष होनेपर पहिले कोइभी सुविहित मार्गवाले श्वेताम्बराचार्यनें आयके वीरगर्भापहारकल्याणकादिशुद्धप्ररूपणा नहिं करणेंपाये, और यहां रहके हमारे प्रतिकूल प्रगटपणे शुद्ध धर्मोपदेश सुविहित साधु श्रावकादि मार्गोपदेश वीर गर्भापहार कल्याणकादि शुद्धप्ररूपणारूपकार्य पहिले कीसीसुविहित आचार्यनें आयके नहिं करा और यह वीरगर्भापहारकल्याणक आराधन आदि धर्मकार्य हमारे मन्दिरमें हमारे प्रतिकूल प्रगटपणे कीसीने ऐसा पहिले वर्ताव नहिं कीया, और इस समय ( इस वखतमें) "एएजूअप्पहाणायरिआ सुद्धपरूवगा सुविहियमग्ग विहारिण वाऊ इव अप्पडिबद्धा सारय सलिलं व सुद्धहियया, चरणकरणोवजुत्ता भयेणएए संमुहेण कोवि पडिसेहिउं समागमिस्सइ सवेवि कायरा इच्चाइचिंतिऊ ण जेणकेणवि उवायेण अहं पडिसेहामि जहाणं आम्हाणं परंपराणं ण हवइ लोवो तहासमायरामि" यह जिनवल्लभगणिवाचनाचार्यजी बहुत बडे आडंबरपूर्वक श्रावकादिसमुदायसाथ आयरहे हैं, और इनोंका For Private And Personal Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६५ यह इहां पर कोइ भी विधिचैत्य हेनहिं इसलिये जिनवल्लभगणि वाचनाचार्य श्रावकादि समुदाय साथ जगजाहिर रीतिसें आज यहां हमारे मन्दिरमें आकर पहिले पहेल कल्याणका आराधन करेंगें, और हमारी आचरणाविरुद्ध स्वमंतव्यकों पोषण करेंगें, इस वजेसें इहांपर हमारी आचरणा आम्नायमें धक्का पहोंचायेंगें, और लोकोमें हमारी हासी निंदा होगी इसवास्ते यह आज कल्याणककाआराधनकरणायुक्तनहिं, परन्तु यह आचार्यविशेषश्रुतवान है युगप्रधानआगमकोंजानतें हैं, और इस समय इहांपर इनके मुताबिक दूसरा कोइभी आचार्य है नहीं, और इससमय यह युगप्रधान आचार्य है, शुद्ध प्ररूपक है, सुविहितमार्ग में चलनेवाले हैं, वायुकेमुताबिकअप्रतिबद्ध विहार करणेवालें हैं, सरदऋतुके जलमुताबिक शुद्धहृदयवालें हैं, चरण करणमें विशेषउपयोगी है, अपने गुणोंसें इहां पर स्वदर्शन परदर्शन में प्रसिद्धहवे हैं, नगरवासी सर्व परदर्शनवाले नाह्मण क्षत्रिय वैश्य वगेरे लोक भ्रमरकी तरह गुणोसें रंजित होकर निरंतर सेवा करतें हैं, परम भक्त हुवे हैं, हमारे श्रावक समुदायकोंभी सुविहितमार्गका उपदेश द्वारा भाग बहुतसे हमारे भक्त श्रावकोंको अपणें भक्त करलिये हैं, बहुत हमारे श्रावक लोक स्वेच्छासें शुद्धप्ररूपक शुद्ध चारित्रिया जाणके तथा इनका शुद्धआचारदेखके इस समय इनके भक्त हुवे हैं, प्रायेंकर आधे श्रावक तो हमारे इनके तरफ चले गये हैं सेस रहे हैं वेभी सायत न चले जावेंगे इस हेतुसें इनकों अपनें मंदिरवगेरे धर्मस्थानोंमें नहिं प्रवेशकरनेदेना यहहमारे पाडकर For Private And Personal Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६६ पक्षके विरोधि है, इनके परिचयसें हमारे पक्षकी हानी होवे है इनका परिचय आगमन वगेरे अछा नहिं है, इसलिये अपने मंदिर मठ वगेरेमें इनको इनोंकीविधिसें इनोकेमंतव्य प्रमाणे धार्मिक क्रिया नहिं करणे देना इस समय इनोका बहुत बडा प्रभाव पडे है, इस वजेसें इनोंके ख्योभसें इनोंके सामने हमारे पक्षवाले कोइभी इससमय निषेध करणेंके लिये नहिं आवेंगे, इस समय इनोंके पक्षकी प्रचुर प्रबलता भइ हैं, हमारे पक्षवाले सर्व कायर हैं, इत्यादि उस आर्यानें अपणे मनमें विचार करके स्त्री जाति होणेसें एकदम साहसअवलंबनकरके बोली के इस समय जिसतिसउपायकरकेमेंमनाकरूं, जिस्से हमारीपरम्परा आचरणाका लोप न होवे, और लोकोंमे हमारी निंदा हासीभी न होवे, वैसा वरताव करं, बादमें वह आर्यामन्दिरके दरवजेमें आडी गिरके रही, अर्थात् मन्दिरके दरवाजेमें आडी मार्ग रोकणेके लिये सोगई" वादमें मन्दिरकेदरवाजेपरआये हुवे आचार्यश्रीकों देखके आचार्यश्रीके प्रति पूर्वोक्त दुष्ट चित्तवाली आर्यानें कहा कि, जो आपश्री इस हमारे मन्दिरमे मेरा अपमान करके प्रवेश करेगें, तो में अवश्य इहांपर मरंगी मरंगी, वैसा अप्रीतिका कारण जाणके देखके वादमें पूज्यश्री वहांसें पीछे लोटके अपणे स्थानपर आये, वादमें धर्मांतराय मिटानेके लिये और आचार्यश्रीकी आज्ञा आराधनेके लिये धर्मिष्ट परमभक्त श्रावकोंनें कहां, हे भगवन् बहुतसें हमारे घर बडे बडे हैं, वास्ते कोइ घरके ऊपर मजलमें चउवीसमहाराजका चित्रितपट्टधरके देववंदनादि सर्वधर्मकार्यकरें, और गर्भापहार कल्याणककी आराधनाकी For Private And Personal Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६७ जावेतो ठीक है, आचार्यश्रीनें कहा अहो श्रावको यह धर्मकार्य किया जाय इस समय क्या संदेह है, अर्थात् निसंदेह अवश्य करणीय यह धर्म कार्य है ऐसा निश्चय तुमजाणों, यह धर्मकार्य अवश्य आजहि करणेमें आवेगा, यह आचार्यश्री का वचन श्रवण कर, वाद मे आचार्यश्री के साथ श्रावकादि संघनें विस्तार पूर्वक विधिसहित गर्भापहार कल्याणक आसोज वद १३ के रोज आराधन करा, इसलिये समाधान हुवा, दूसरे दिन गीतार्थ श्रावकोंनें विचार करा, वह यह है अविधि मार्ग में प्रवृत्ति करनेवालोंके साथ रहेनेसें, विधि मार्गके विरोधि पक्षवालोंके सह संबंध होनें सें अथवा रखनेसें जिनोक्त विधिबरोबर करणेंकुं नहिं समर्थ हैं इसलिये जो आचार्यश्री के सम्मत होवे तो ' उपरितले च देवगृह द्वयंकार्यते' ऊपरके मजल में दोय जिनमन्दिर कराया जायतो ठीक है, और अपणें समाधि होवे, यह अपणा अभिप्राय आचार्यश्रीकों निवेदन करा, तब आचार्यश्री भी बोले, यथा जिन भवनं जिनबिम्ब, जिनपूजां जिनमतं यः कुर्यात् । तस्य नरामरशिव सुखफलानि करपल्लवस्थानि ॥ १ ॥ व्याख्या - जिनमन्दिर जिनप्रतिमा जिनपूजा जिनधर्मकुं जो पुरुष करे, उसपुरुष के मनुष्यदेव मोक्षका सुखरूपफल हस्तपल्लवमें रहे हुवे हैं, ॥ १ ॥ इस देशना करके श्रद्धा प्रधान श्रावकोंने जाणा कि जो हमारा विचार है वह श्रीगुरुमहाराजकों वांछित हिहै, यह लोकोंमें वात भइ के जैसे इन वाचनाचार्य जिनवल्लगणिके भक्तश्रावक लोक दूसरा मन्दिरकरावेंगे, इस बातकुं सुणके, प्रहलाद नामक श्रावक बड़ाचैत्यवासीश्रावकच हुदेव नाम सेठनें श्रीजिनवल्लभगणि वाचनाचार्यजीकों सुणाणेके लिये For Private And Personal Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६८ प्रहलादनादि श्रावक समुदायप्रति कहां इये आठ मुंडेवाले दोय मन्दिर करावेगा, और राजके माननीक होगा, यह बात श्रीजिनवल्लभगणिजीने सुणी, दूसरे दिनमें बाहिर स्थंडिल भूमि जाता आचार्यश्रीको मार्गमें चैत्यवासी श्रावक बहुदेवनाम सेठ मिला, तब आक्षेपसहितज्ञानदिवाकरश्रीजिनवल्लभगणि मिश्रनें कहा, हेभद्रबहुदेव गर्वनहिकरणा, इन हमारे श्रावकोंके अन्दरसें कोइकश्रावक धन समृद्धहोकर तुमारे कहे प्रमाणे कार्यकरणेवालाहोगा, और वह तेरेकुं बंधे हुवे कुं छु डावेगा, वह कार्य वैसाहि हुवा, और आचार्यश्रीके प्रसादसें सजन प्रकृतिवाला साधारण नामश्रावक राजाके अधिकतर माननीयहुवा, और वह बहुदेवनामा सेठचैत्यवासीश्रावक राजासंबंधि किसी अपराधमें आनेपर, उस दुष्टमुखवाले सेठके ऊपर नरवर्मराजा नाराजहुवा, और उससेठकुं उंठके साथ बांधा, उंठकी तरह विलाप करते हुवे सेठकुं राजपुरुष धारानगरीमें नरवमराजाके पास लातें हैं, इस अवसर पर धारानगरीमें कोई कार्यके लिये सरलप्रकृतिवाला साधारणनामश्रावक सुविहित पक्षीय गयाहुवाथा, सर्वजगतके लिये समभावसें हितकारी प्रवृत्तिवालासजन साधारणनामा श्रावकने राजपुरुषकों मनाकरके निष्कारण उस सेठका कष्ट हटाकर राजाकुं वीनति करके अंगीकार करी है सजनोंकी चेष्टा जिसनें ऐसा श्रीजिनवल्लभाचार्यका भक्त साधारण नामश्रावकनें राजाका मनमनाकर अपराध आश्रित धन वगेरे देके, इसरांक बहुदेवसेठकुं बंधनसे छुडाया, और उत्साह सहित श्रावकोंने दोयमन्दिरभी बनाना सरु किया, For Private And Personal Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६९ और देव गुरुके प्रसादसें दोनुं मन्दिर तइयार भये, वहां मंदिर में ऊपरके मजल में श्रीपार्श्वजिनमंदिर और नीचेके मज्जलमें श्रीभव्योंके नेत्रोंको और मनको हरणेवाला अतिशय उंचा शिखर बद्ध तोरण सहित सोनेमयी दंडकलशोकी परंपरा और प्रभामंडलसें खंडन करा है अत्यंत गाढअंधकार जिसनें ऐसा ५२ जिनालय श्रीमहावीर जिनका मंदिर कराया, वादमें श्रीजिनवल्लभगणि वाचनाचार्यजीनें विस्तारसें सर्व विधिपूर्वक बडे उपनिषा करी सर्वत्र प्रसिद्धि भइ, अहो येहि गुरुहैं येहि गुरु हैं, अर्थात् श्रेष्ठ गुरुराज ऐसेहि होने चाहिये, त्यागी वैरागी सुविहित जैनाचार्य ऐसेहि होतें हैं, इत्यादि प्रसिद्धि खदर्शन परदर्शनके लोकोंमें भड़ और कोई एक दिनके समय लोकोंमें इस प्रकारके सर्व शास्त्र - विशारद श्वेताम्बराचार्य आयें हैं, इस प्रकारकी बडी प्रशंसाकुं सुणके, एक ब्राह्मण जोतिषी पंडितमानी श्रीजिनवल्लभगणिवाचनाचार्यजीके पास में आया, उसको बैठके लिये श्रावकोंनें आसन दिया, इस ब्राह्मणकों श्रीगुरुमहाराजने पूछा कि हे भद्र आपका रहना किस ठिकाणे हैं, कौनसे शास्त्र में तुमारा अभ्यास है, ब्राह्मण बोला रहातो इहांहि है, अभ्यास तो व्याकरण काव्य नाटक अलंकार वगेरे सर्व शास्त्रों में है, वादमे वाचनाचार्यश्रीजिनवल्लभगणिजी बोले कि, होवो, विशेष परिचय कौनसे शास्त्रमें है, ब्राह्मणबोला कि विशेष परिचय जोतिष शास्त्र में है, वादमें वाचनाचार्य श्रीजिनवल्लभगणिजी बोले कि, अछीतरे याद है, तब ब्राह्मणनें कहा, तुमारेकों भी लग्नके विषय में कुछभी क्या परिज्ञान है, तब वाचनाचार्य श्रीजिनवल्लभगणिजीनें कहा कि, For Private And Personal Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७० होगा किंचित् , अर्थात् कुछपरिज्ञानहै, वाद ब्राह्मण आक्षेपसहित बोला कि, तो आप कहो, तव वाचनाचार्य श्रीजिनवल्लभगणिजीभी उत्साहसहित हुवे थके बोले, कि हे विप्र कहो, कितने लग्न कहुं, दश अथवा वीस लग्न कहुं, यह वचन सुणके उस ब्राह्मणकों आश्चर्य हुवा, उतने दश-वीस संख्यक लग्नोंकुं जलदिसे कहके, फेर आचार्यश्रीनें कहा, हे विन आकाशमंडलमें दोय हाथ प्रमाणे वादल है, उसको तुम देखतेहो, ब्राह्मण बोला कि हे भगवन् देखताई, वाचनाचार्यश्रीनें कहा, हे विप्र कहो कितने प्रमाणे जल डालेगा, वादब्राह्मण नहिं जानता हुवा, शून्य नजरसें दिशाकों देखता रहा है, उतनें आचार्यश्रीनें कहा, हे विप्र ? सुणो, दोय घडीवाद यह वादल दोय हाथ प्रमाणकाभी दोय घडीके अन्दर अन्दर संपूर्ण आकाशमंडलकुं व्यापके, उतनी वर्षात करेगा, जितने जलकर दोय भाजनपूरा भराजाय उतनेप्रमाणे वर्षात होगा याने जलगिरेगा, वादमें वहांहि बेठा हुवा उंचा आकाशकी तरफ मुख है जिसका ऐसा वह ब्राह्मणके सन्मुख सर्व वैसाहि जलकावरसात हुवा, बादमे वह ब्राह्मण ललाटमे दोनुं हाथकुं जोडके, अहो यह बड़ा आश्चर्य है, अहो ज्ञानं अहो ज्ञानं, यहहि ज्ञान है यहहि ज्ञान है, अर्थात् इसीका नाम सत्यज्ञान कहते हैं, इसतरह मुखसे कहता हुवा, मस्तकको धूणता हुवा, पूज्य आचार्यश्रीके चरणों में पडा, और मुखसे कहेणें लगा कि, जबतक में इहांपर रहुंगा तबतक निश्चे आपश्रीके चरणकमलोंमे नमस्कार करके, भोजन करुंगा, अभिमानसहित होणेकर हे भगवन् मेने आपश्रीको इसतरहके ज्ञानी नहिं जाणेथे, वाद For Private And Personal Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७१ यह सर्वत्र प्रसिद्धि भइ, अहो जो यह श्वेताम्बराचार्यहै सातिशायि विशेषज्ञानी होवेहै, बहुरता वसुंधराहै इति । और कोइ एकदिनके समय कभी वडगच्छीयश्रीमुनिचंद्रसूरिजीनें सिद्धान्तोंकी वाचना ग्रहण करणेके लिये, दो शिष्योंको वाचनाचार्यश्रीजिनवल्लभगणिजीके पासमें भेजे, वाचनाचार्यश्रीजिनवल्लभगणिजीभि श्रीमुनिचंद्रसूरिसंबंधि उन दोनों शिष्योंको संप्रदायगत सिद्धान्तोंकी प्रीतिपूर्वक वाचना देनी सरुकरी, और उन दोनों शिष्योंनेभि अपणे मनमें अशुभ चिंतवतां, यह विचार किया, कि जो वाचनाचार्यश्रीजिनवल्लभगणिके श्रावकोंकुं कीसी प्रकारसें अपणे ठगें, अर्थात् इणके ऊपरसें श्रद्धाहटाकर अपणें गुरुमहाराजके रागि बनाकर वादमें अपणे आचार्यश्रीमुनिचंद्रमूरिजीके परम भक्त श्रावक करें, तो अच्छा होवे, ऐसी बुद्धि करके श्रीजिनवल्लभगणिजीके भक्तश्रावकोंकू रंजितकरतेभये, और कभी अपणे गुरुके पासमे प्रच्छन्नवृत्तिसें भेजनेके लिये छाना लेख लिखा, उन दोनों शिष्योंनें, उस लेखकुं वाचनासंबंधिकाफीमे डालके वाचना ग्रहणकरणेंके लिये, वह दोनों शिष्य वसतिमें श्रीजिनवल्लभगणिजी वाचनाचार्यके पासमे आये, वह दोनों शिष्य वंदनाकरके, बैठे, जितने वाचनेका पुस्तकखोला उतने नवीन लेख लिखा हुवा देखा, गुणविशिष्टमें मिश्र शब्द है, जिनवल्लभगणि मिश्रनें उस लेखकुं ग्रहण किया, और उस लेखकुं खोला वे दोनों शिष्यभी वाचनार्यजीके हाथसे पीछा लेख लेनेकुं नहिं समर्थ हुवे, उतने उस लेखकों वाचनाचार्यश्रीजिनवल्लभगणिजीनें, For Private And Personal Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar २७२ वांचा उस लेखमें यह लिखा हुवा था, कि जिनवल्लभगणेः केचिच्छ्रद्धास्ते वशंनीताः सन्ति, क्रमेण सर्वानपि वशीकरिज्यामः इति मनोवृत्तिरस्ति, जिनवल्लभगणिके भक्त कितनेक श्रावकोंको हमने अपणे वशमे करें हैं, और धीरे धीरे क्रम. करके सबहिको हम अपणे वश करेंगें, यह हमारे मनकी धारणावर्ते है, और इहांपर ऊपरोक्त विषयके लिये वृत्तिकार लिखते हैं कि, अयं चार्थो विरुद्धत्वात् यद्यपि शास्त्रीपनिबंधयोग्यो न भवति, तथापि चरितोपरोधादुक्तमिति, यह अर्थ ( कार्य) विरुद्ध होणेसें जो कि शास्त्रमे लाणे योग्य नहिं है, और लेखके और शास्त्रके कोई संबंध नहिं है, तोभी चरितानुवादके उपरोधसे कहा है ऐसा जाणना, वादमें श्रीजिनवल्लभगणिजीने, लेखका दो खंड करके कहा एक श्लोक सो यह है, आसीजनः कृतघ्नः, क्रियमाणनस्तु सांप्रतं जातः । इति मे मनसि वितर्को, भविता लोकः कथं भविता ॥१॥ व्याख्या-प्रथमहिसें लोक किये हूवे उपगारकुं हणनेवाले थे, और वर्तमान कालमेभी किये हुवे कार्यको नहि मानते हैं ऐसा मेरे मनमें विचार भया है लोककी क्या दशा होगी क्या होनेवाला है ॥ १॥ ऐसा कहके बोले अहो ऐसे अशुभ अध्यवसायवाले तुम हो वाचनालेने सैसरा वादविमुखहोके स्वस्थान गये उहां न रहे चले गये, कदाचित् श्रीजिनवल्लभगणि बहिर्भूमी जाते थे तब कोइ विचक्षण पांडित्यकी प्रसिद्धी सुनके मार्गमे For Private And Personal Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७३ मिला कोइराजाका वर्णन आश्रयि समस्यापददिया वह यह है कुरंगः किंभृगोमरकतमणिः किंकिमशनिः वादजिनबल्लभगणिने उसीवक्त थोडा विचारके समस्या पूर्ण करी उसके आगे कही यथाचिरं चित्रोद्याने चरसि च मुखाजं पिबसि च, क्षणादेणाक्षीणां विरहविषमोहं हरसि च । नृप त्वं मानादि दलयसि च किं कौतुककरः, _ कुरंगः किं भुंगो मरकतमणिः किं किमशनिः॥१॥ अर्थ-कोइकवि कोइराजासै कहता है हेराजन् बहुतकालतक विचित्रउद्यानमे स्वेच्छासै विचरतेहो और मुखकमलका पान करतेहो और मृगाक्षियोंका विरह हि विषमोहकुं दूर करते हो और शत्रुलोकोंका मानरूप पर्वतको तोडते हो यह आश्चर्यकारि क्या कुरंग हो (मृग) भुंग २ (भ्रमर) हो क्या, मरकतमणि हो क्या ३ अथवा क्या वज्र हो ४ इति ऐसा सुनके अत्यंतप्रमुदित होके समस्या पूच्छनेवाला विचक्षण बोलाअहो लोकोंमें जो प्रसिद्धि होति है वह निर्मूल नहिं होति है यह निश्चय है हेभगवन् आपकों जैसे सुने थे वैसेहि आपहें ऐसी गुणोंकी स्तुतिकरके नमस्कार करके स्वस्थानगया वादगुरु उपाश्रय आये श्रावकोंने पूच्छा हेप्रभो आज बहुतसमयकैसे लगा तब साथमें जो शिष्यगयाथा उसने सब बात कही सुनके सबश्रावकलोक बहुत हर्षित भये नेत्रकमलसुगुरुमाहात्म्यसूर्यसें विकसित भये उस समय गणदेव नामका एकश्रावक सुवर्णकाअर्थीथा जिनवल्लभगणिके पास स्वर्णसिद्धि है ऐसासुणके चित्रकूटस्थगुरुकेपासमेंआके सेवाकरणा सरू किया १८ दत्तसूरि० For Private And Personal Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७४ उसका भाव गणिजीने जाना योग्यजानके भवनिस्तारणी वैराग्यउत्पन्न करणेवाली संसारसे निर्वेदजननी देशनादिवी जिस्सै गणदेव श्रावक अत्यंतसंविग्न निस्पृही भया तब गणिश्रीने फरमाया हे भद्र क्या स्वर्णसिद्धिकहुं गणदेवने कहा हेभगवन् आपके चरणोंकी सेवा करतां विंशतिद्रव्य (बीश रुपिया) की पूंजीसै व्यापार करतां श्रावकधर्म पालन करुंगा जादाधनउपाधिका मूल है गणदेवमें धर्मवर्धनसामर्थ्यथी इसवास्ते लिखेहुवे द्वादशकुलकग्रंथविशेषदेके सिखाके वागडदेशमें भेजणेका उपदेशकरा बागडमें जाके सब वागडदेशके लोक जिनवल्लभगणिजीके रागी गणदेवश्रावकने किये, श्रीजिनवल्लभगणिजीके व्याख्यानमें सब विचक्षण लोक आते हैं बेठते हैं विशेषतः ब्राह्मण आते हैं अपणा अपणा विद्याविषयि संदेह निवर्तनकेवास्ते, अथ कदाचित् यह गाथा व्याख्यानमें आइ यथा घिजाईण गिहीणय, पासत्थाईण वा वि दट्टणं । जस्स न मुज्झइदिट्ठी अमूढ दिडिं तयं विति ॥१॥ अर्थ-ब्राह्मणजातीय और गृहस्थ और पासत्था वगेरेको देखके जिसकिदृष्टि नहिं मोहप्राप्तहोवे वह अमूढदृष्टिपणा कहाजावे १, ऐसा निःशंकपणे व्याख्यान किया यथावस्थितपदार्थसुनके ब्राह्मणमनमें क्रोधातुरहोके बाहिरनिकलके एकडेमिले तब विरोधिभि निकट भये ब्राह्मणोंने विचार किया श्रीजिनवल्लभगणिजीके साथ विवाद करके निरुत्तर करके प्रभाव नष्ट करेगें बाद यह स्वरूप श्रीजिनवल्लभगणिजीने जाना परंतु मनमें विलकुल भय नहिंभया, कहाजाताहै अपणाकियाभया सिंहनादसै For Private And Personal Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७५ बधरीकृतकाननजिसने और उत्कट मदोद्धत हाथीयोंका कुंभस्थलरूपतट गिरानेमें बहुतकठोरनखमुखहै जिसका ऐसे सिंहकों कोइ. वक्त पवनसे प्रेरित वृक्षोंके अग्रभागसैगिरेपत्र मात्रके शब्दसे अत्यंतभागते भये भयाहे अंगभंगजिनोंका ऐसै मृगोंसै क्या भयहोताहै अपितु नहिं, व्याख्याकार श्रीसुमति गणि कहते हैं हमारे गुरु श्रीजिनपतिमरिजी कि इसी अर्थमें अन्योक्ति है यथा खरनखशरकोटिस्फोटिताग्रेभकुंभ, स्थलविगलितमुक्ताराजिविभ्राजिताजिः। हरिरधिगरिमा किं तर्जितोऽ तर्जितो वा, ___ऽनिलचलदलपातत्वंगदंगैः कुरंगैः ॥१॥ अर्थ-कठोरनखरूपवाणों की कोटिके अग्रभागसै विदारण कियाहै कुंभस्थल जिसने उस्सै निकलीमोतियोंकिश्रेणिस सोभित पृथ्वी करि है जिसने जैसा हरिनाम केसरिसिंघ हे सो परवतके समीपकी भूमीमे वायुसै चलता पत्रोंके पातसै कूदते भये हरिणोंसै क्या तर्जित होता हे ॥१॥ वाद गणिजीने एक श्लोक भोजपत्रमें लिखके कोई विवेकीकों देके मिले भये ब्राह्मणोंमें मुख्यविपके पासभेजा तब उसब्राह्मणने श्लोककाअर्थ विचारके मनमें विचार किया वहवृत्तयह है मर्यादाभंगभीतेरमृतरसभवा धैर्यगांभिर्ययोगा न्न क्षुभ्यंते च तावन्नियमितसलिलाः सर्वदैते समुद्राः। आहोक्षोभं व्रजेयुः कचिदपि समये दैवयोगात्तदानीं, नक्षोणी नाद्रिचक्रं न च रविशशिनौ सर्वमेकार्णवं स्यात् १ For Private And Personal Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७६ व्याख्या-अमृतरसकी (पक्षे चंद्रकी ) उत्पत्तिवाले और सदाकाल नियमित जलवाले एसे यह समुद्रों धैर्य और गांभीर्य गुणके योगसें और मर्यादाभंगके भयो, प्रथम कबिभी क्षोभ नहिं पाये हैं, और हा हा इति खेदे दैवयोगसे कोई वखतमें कभी क्षोभपावे तो पृथ्वी न रहे पर्वतोंका समूह पण न रहे और तिससमय चंद्रसूर्य भि न रहे, परन्तु यह सर्व एक समुद्ररूप होवे, ? अहो हम लोक एकेक विद्याके धारणेवाले हैं, अर्थात् एकेक शास्त्रके विषयकों जानते हैं, सामान्यपणे ( अस्पष्टपणे ) विशेष प्रगटतर स्पष्टतर स्पष्टतम एकेक शास्त्र के विषयको हम लोक नहिं जानते हैं, और यत् किंचित् सामान्यपणे हम लोक एकेक शास्त्रके विषयके अधिकारी हैं, परन्तु यह श्वेताम्बराचार्यश्रीजिनवल्लभसूरिजी तो सर्व विद्यानिधान हैं, अर्थात् चउद विद्याके पारंगामीहैं, स्वसिद्धान्त परसिद्धान्त पदशानादिरहस्यसहित प्रगटतर स्पष्टतम विषयको जानते हैं, अत यह श्वेताम्बराचार्य श्रीजिनवल्लभमूरिजी संपूर्ण सर्वशास्त्रके अधिकारी हैं, इसलिये कैसे इण श्रीमान् जिनवल्लभसूरिजीकेसाथ विवाद करणेकुं शक्तिमान् होवें, अर्थात् श्वेताम्बराचार्य श्रीमान् जिनवल्लभसरिजीके साथ शास्त्रार्थ करणेकी शक्ति हमारी नहिंहै, इनके साथ हम शास्त्रार्थ करणेकों समर्थ नहिं हैं, इसतरे वृद्ध ब्रामणने विचारके, सबहि ब्राह्मणोंको कहा, अहो, अहो ब्राह्मणों तुम लोक हृदयचक्षु करके क्या नहिं देखो हो, अर्थात् क्या नहिं जानोहो, तुम लोक सबहि एकेक मलिन (अस्प ष्टतर अस्पष्टतम ) विद्याके धारणेवाले हो, और वह श्वेताम्बराचार्य For Private And Personal Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संपूर्ण सर्व विद्याओंका निधान हैं, अत इस श्वेताम्बराचार्यके साथ तुमारा विवाद केसा, अर्थात् सर्वविद्यापारंगामी श्वेताम्बराचार्य श्रीमजिनवल्लभसूरिजी सर्वोत्कृष्ट अद्वितीय कवीश्वरके साथ अहो विद्वानो विवादकरणा तुमको न शोभे, यदि जो आत्मोन्नति यशःख्याति और विशेषगुणप्राप्तिकीचाहना हो तो तुमको विवाद करणा युक्त नहिं, इत्यादि वचनसमूहसे प्रतिबोधके सर्व ब्राह्मणोंकों शांत किये, वाद वे सर्व विद्वान् ब्राह्मण तिस वृद्धब्राह्मणके सुवचनोंको सुणके, शान्तिभावको प्राप्तहोके, नम्र हुवेथके विनयसहित श्रीगुरुमहाराज श्रीजिनवल्लभ गणिजीके चरणकमलोंमें आकर गिरे, अपणा अपराध क्षमा करवाके विनयपूर्वक श्रीमजिनवल्लभसरिजीकी सेवा करणे लगे, सर्व विद्वान् ब्राह्मणलोक, अन्यदा धारा. नगरीमें श्रीनरवर्मराजाकी राजसभामें देशान्तरसें दोय विदेशी पण्डित आये, और तिनविदेशीपण्डितोंने श्रीनरवर्मराजाके पण्डितोंके सामनें पूर्णकरणेंकेलिये यहसमस्यापदकहा, जेसे कि, "कंठे कुठारः कमठे ठकार" इति समस्यापदं इस समस्यापदकुं सुणके, वाद अलग अलग श्रीनरवर्मराजाके पण्डितोंने अपणी अपणी बुद्धिअनुसार पूरण करी, परन्तु तिन विदेशी पण्डितोंका मन हर्षित न हूवा, मनमाफक समस्या पूरण न होनेसें, यह स्वरूप किसी पुरुषने जाणके, श्रीनरवर्मराजाके आगे कहा, हे देव इन दोनों विदेशीय पंडितोंकों आपके पंडितोंकी पूरणकरी भइ समस्या नहिं रुचे है, श्रीनरवर्म राजानें कहा, अहो पुरुष तुं कहे अब इससमय कोई समस्या पूरणेंके लिये दूसरा उपाय है, जिस उपाय करके इन दोनों विदेशी पंडितोंका मनरंजितहोवे, तब For Private And Personal Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७८ किसी विवेकी पुरुषनें श्रीनरवर्मराजाके प्रति कहा, हे देव चितोडमे श्वेताम्बराचार्य श्रीमजिनवल्लभगणिजी सर्व विद्यानिधान सुण में आवे है, यह वृत्तांत सुणके, श्रीनरवर्मराजाने उसीसमय चितोडके प्रति दोय ऊंठ शीघ्रगतिवाले लेखसहित भेजे, और सजनसाधा. रण नामक श्रावकके ऊपर लेखलिखा कि हेसज्जनसाधारण श्रावक तुमारे वहां विद्वज्जनचूडामणि सर्व विद्यानिधान श्रीमजिनवल्लभगणिजी सुणतें हैं, वास्ते यह लेख तुमारेकुं लिखा है, मनोहर तुमारे गुरुमहाराजके पास विद्वानोंके मनको हरण करे इस प्रकारसें पूरण करवाके, "कंठे कुठारः कमठे ठकार” इति, यह समस्या पीछी जलदि आवे वैसा उपाय करणा परन्तु अन्यथा करणा नहिं, इस प्रकारका लेख तिन दोय ऊंठवाले पुरुषोंने संध्यासमयमे सज्जन साधारण नामक श्रावकके हाथमे दीया, और वह श्रीनरवर्मराजासंबंधि लेख साधुसाधारण श्रावकने प्रतिक्रमणवेलामें श्रीगुरुमहाराजके सामने वाचा, उसलेखका परमार्थ श्रीमान्गणिमिश्रने जाणा, और जाणने के वाद प्रतिक्रमण करणेके अनन्तरहि जलदिसें समस्या पूरण करी, जैसे कि"रे रे नृपाः श्रीनरवर्म भूप, प्रसादनाय क्रियतां नतांगैः॥ कंठे कुठारः कमठे ठकारश्चक्रे यदश्वोग्रखुराग्रघातैः" ॥१॥ __व्याख्या-हे राजाओ जिस श्रीनरवर्मराजासंबंधि घोडोंके तीक्ष्ण खुरोंके अग्रभागके प्रहारोंसें, कमठमेठकार है उस प्रमाणे तुमलोकभी अपणे कंठपर (खंधेपर ) कुहाडा धारण करो श्रीनरवमराजाको प्रसन्न करणेके लिये नम्र होके शरीरकी रक्षा करणी For Private And Personal Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७९ चाहते हो तो ॥१॥ यह समस्यापूरणकरके साधारणश्रावककों पत्र दिया उसने उंठवालोसैदिया राजाकों साधारणश्रावकनें एक पत्र भि लिखके दिया तब लेखवाहक लेख लेके रात्रिहीमे शीघ्र धारानगरी पोहचै दूसरे दिन समस्या विदेशी विद्वानोंकों सुनाई बहुत हर्षितभये मन प्रसन्न भया और बोले इस सभामें ऐसा विद्वान् कोइ नहि है जिसने यह समस्या पूरी होवे अपि तु और किसीने पूरण करि है समस्या पूरण करनेवाला अद्वितीय विद्वान् है ऐसै प्रशंसा करते-भये उन विद्वानोंको वस्त्रादिकसै सत्कार करके राजाने विसर्जन कीये श्रीजिनवल्लभगणिवरभि स्वाध्याय ध्यानमे मग्न घोर ब्रह्मचर्यमे रहनेवाले उद्यत विहारी कितनेक दिनोंके वाद चित्रकूट (चितोड)सै विहार कर धारानगरी पधारे भव्य कमलोंकों विकसित करते ऐसै तब राजाकों किसीने कहा महाराज ? समस्थापूर्ति करणेवाले श्वेतांबर गणिवर इहां पधारे हैं तब अतिशायिविद्वत्तता गुणसै आकर्षित हृदय ऐसै, राजा बोले अहो शीघ्र बोलावो तब राजपुरुषोंने सत्कारपूर्वकबुलाये जिनवल्लभगणि राजसभामें आये राजा आदरसहित नमस्कार करके हाथ जोडके आगे बैठा गणिवरभि राजाको धर्मलाभरूप आशीर्वाद देके अभिनंदित किया तब राजा बोले भो विद्वज्जनचूडामणे ? हे महाराज ? मेरे मनमें संतोषहोणेके वास्ते (३) तीन लाखद्रव्य अथवा तीन ग्राम लेवो तब श्रीजिनवल्लभगणिवाचनाचार्यबोले हे महाराज ? प्रतियोंको धनसंग्रहका निषेध हमारे शास्त्रमें विशेषकरके लिखा है ऐसा आगम भि है। For Private And Personal Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८० "दोससयमूलजालं" पुवरिसि विवज्जियं जइ दंतं, अत्थंवहसि अणत्थं, कीनस निरत्थं तंवयंचरसि ॥१॥ द्रव्य सइकडो दोषोंका मूल है पापोपादानमें पूख्य हेतु है दुर्गतिका मुख्यकारण है साधुवोंके सर्वथा त्याग होवे है गृहस्थोंके परिग्रहप्रमाणबत होता है आचार्य उपदेश करते हैं पूर्वरि षियोंने मनाकिया धन जो रखे तो व्रतनिरर्थक होवे, महाराज ? हम श्रमण हैं धनकों हाथसेंभि नहिं स्पर्शकरते हैं लेणा रखना कैसे होवे, राजा गणिवरके चरणोंमे मस्तक लगाके नमस्कार करके बोले भो महात्मन् ? निर्लोभियोंमें शिरोमणि आप हों तथापि तीन लाख द्रव्य लिये सिवाय मेरे मनमें समाधि न हो इस वास्ते कृपा करके मेरे मनमें जेसे बने वेसा समाधिउत्पन्नकरणा आप जैसे उत्तम पुरुषोंका अनुग्रह है, तब श्रीगणिवर बोले जब आपका महान् आग्रह हे तब चित्रकूट नगरमें श्रावकोंने दो जिनमंदिर वनवाये हैं उहां पूजाके वास्ते दो लाख द्रव्य आपकी मंडिसै दिरादो, वाद राजा संतोष प्राप्त होके बोला शाश्वत दान रहेगा वाद उसीतरह द्रव्य दोलाख दिया तथा श्रीजिनबल्लभगणि विद्वान् परोपगारी धार्मिक कार्यकरणेमे तत्परहै ऐसी सर्वत्र प्रसिद्धि भई । बाद श्रीनागपुरनगरमें श्रावकोंने नवीनदेवघर और श्रीनेमिनाथस्वामीका नवीन बिंब कराया है ओर उण श्रावकोंका यह अभिप्राय भया कि महाचारित्रिया श्रीजिनवल्लभगणिवरोंकों गुरुकरें ओर गणि श्रीके हाथसे प्रतिष्ठा करावेंगे ऐसा विचारके बडे आदरसै सर्वकी सम्मतिसै महान्बहुमानसै श्रीजिनबल्लभगणिजीकों बीनति For Private And Personal Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८१ करी बुलाये तब पूज्योंने विहार किया कमसें ग्रामानुग्राम विचरते नागपुर गये संघने प्रवेशोत्सव बहोत ठाठसै किया बाद शुभ लग्न में जिनमंदिर ओर श्रीनेमिनाथ स्वामीके बिंबकी प्रतिष्ठा किया शासनो नति भइ गणिवरकी करिभइ प्रतिष्ठा के प्रभावसे नागपुर के श्रावकलक्षाधिपति भये लोकों में श्रीजैनधर्म की ख्याति बहुत भई श्रीम नाथस्वामी रत्नोंका मुकुट तिलक कुंडल अंगद श्रीवत्स कंठमें मणिरत्नकी माला हांसवगेरह आभरण करायै पूजा प्रभावना विशेष करते भये तथा राजपुरि श्रावकोंकाभि वैसा अभिप्राय भया कि हमभि श्रीजिनवल्लभ गणिजीकों गुरुपणे अंगीकार करे और जिनमंदिरखनवावे प्रतिमाजी नवीन भरावै प्रतिष्ठा करवावें वाद सब कि सम्म ति वैसाहि कीया दोनु नगरोंके जिनमंदिरों में रात्रिको वलिवाकुल रखणाऔरणा रात्रिमें स्त्रीप्रवेश रात्रि में प्रतिष्ठाका करणा इत्यादिक अविधिका निषेध करके मुक्तिमारगकी प्रवृत्तिसाधक विधिवाद लिखके प्रवृत्ति कराई, बाद मरोटके श्रावकोंने श्रीगणिवरोंको बीनति करी तब श्रीजिनवल्लभगणिजी विहार करते विक्रमपुरमे होके मरोट पधारे श्रद्धावान श्रावकोंने भक्तिसै यतनास्थानादियुक्त स्वाध्यायध्यानादिकके भिन्न २ स्थान है जिसमे ऐसा उपाश्रय उतरनेकुं दिया वसति में रहे श्रावकोंने कहा भगवन् ? आपके मुखकमलसै जिनवाणीमकरंद का पानकरणेकी इच्छा है तब भगवान् बोले श्रावकोंको युक्त है शास्त्रश्रवण करणा, " सोचा जाणइ कल्लाणं, सोचा जाणइ पावगं०" इत्यादि दशवेकालिक है सुणके कल्याण जाणते हैं सुणके अकल्याण जानते हैं धर्म अधर्म पुण्य पाप कर्त्तव्य अकर्त्तव्य जिनवचन For Private And Personal Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८२ मुणनेसे जाना जाता है इनोंमें जो श्रेय होवे वह अंगीकार करणा। इसलिये उपदेशमाला प्रारंभकरें तब श्रावकोंने बीनति किया प्रभो? पहले सुना है पूज्य बोले और सुणनाउचित है शुभ दिन में व्याख्यान करणा प्रारंभ किया।। संवच्छर मुसभजिणों छ मासे बद्धमाण जिणचंदो। इअविहरिया निरसणा जइजएओवमाणेणं ॥१॥ अर्थ-रिषभदेवसामी १ वर्ष तप किया और बर्द्धमानस्वामीने ६मासी तपकरा निराहार विचरे इसी तरह मुनियोको तपमेयत्न करणा इस एकगाथाका व्याख्यानमे छमहिना व्यतीतभया तथापि श्रावकोंको बहोतसिद्धांतोंका उदाहरणरूपअमृतरससै तृप्ति नहि भइ और कहने लगे श्रीभगवान् तीर्थंकरदेवहि ऐसा वचनामृतसैं श्रोताजनोंके श्रवणकुं सुखउत्पन्नकरणेमें समर्थहोतेहैं सत्यहै आप श्रीतीर्थंकरसदृशहैं कहाभि है “तित्थयरसमोसरि०" इत्यादि अन्यथा ऐसी अमृतवरसावणीवाणी इसतरहकीव्याख्यान लब्धि कहांस होवै इस प्रकारसै अत्यंत संतुष्टमनश्रावक देशना सुनके होतेभये बहोतअनुमोदन करतेभये अपार हर्षप्राप्त भये अन्यदा चैत्यघरमें व्याख्यान वांचके बहुत श्राक्कजिनोंके साथथे ऐसे गणिवर उपाश्रय आतेथे इस प्रस्तावमें मार्ग में एक पुरुष बहोत परिवारसै परिवरा हुवा स्त्रीयों गीत गातिहै घोडेपर सवार है पाणिग्रहणको जारहाहै पूज्यपादने देखा तबसंविनशिरोमणि ज्ञानदिवाकर संसारकी असारता विचारते ऐसै श्रीगणिवरने कहा अहो देखो देखोसंसारकी क्षणदृष्टनष्टता कैसीहै जिसकारणसे येत्रियां विकखरमानहे मुखारविंदजिनोंका ऐसी गान करति जारहि है येहि For Private And Personal Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८३ स्त्रियां वक्षस्थल ( छाति) कूटती महाआनंद शब्दकरतिहि इसी मार्ग से पीछी आवेगी वाद पूज्य उपाश्रयगया उतने वह पाणिग्रहणकरणेवाला अपणे सासरे पोहचा ऊपरके मजलपरचढणे लगा उतने पादस्खलित भया अर्थात् पग डिगगया इस्से नीचे घरके ऊपर गिरा घरटके कीलेसै पेटफटगया ओर उसीसमय देहत्याग कर दिया तदनंतर वै स्त्रियों रोति भइ उसी मार्गसे पिछी आतिभइ देखी तब श्रावक लोक बोले अहो श्रीगुरुमाहाराजका ज्ञान कैसा त्रिकालविषय है सब श्रावक लोक धर्म में स्थिरभये ऐसे श्रावकोंकाधर्ममें स्थिर परिणाम उत्पन्न करके विहार करके और नागपुर गये श्री जिनवल्लभ ग णिजीने उहां विशेषधर्मकी प्रवृत्ति करी इस अवसरमें श्रीदेवभद्राचार्य विहार क्रमसे करते करते श्रीअणहिल्लपत्तनमें आये उहाँ आके विचारकरा कि, श्रीप्रसन्नचंद्राचार्यजीने अंतसमय मेरे कहाथा कि तुम श्रीजिनवल्लभगणिको श्रीअभयदेवसूरिजीके पद स्थापन करणा, पट्टपर बैठाना वह प्रस्ताव अब वर्ते है ऐसा विचारके श्रीनागपुरमें जिनवल्लभगणिको विस्तार से पत्र लिखके भेजा पत्र मेंयह लिखा तुमकों परिवारसहितशीघ्र चितोडतरफ विहार करणा ओर चित्रकूट जलदी पोहचना जिस्से हमभि आके विचाराहुवाकार्य करें ऐसां पत्र पोहचणेसें गणिवरने नागपुर विहारकरा चित्रकूट पोहचे श्रीदेवभद्राचार्य भिपरिवारसहित पत्तनसै विहारकरचित्रकूट आये पंडितसोमचंद्रमुनिकोंभि पत्र लिखके बुलाया परंतु नहिं आसके बाद वडे आडंबरसै महान् विस्तारसें श्रीदेवभद्रा - चार्यजीने श्रीअभयदेवाचार्यजीके पट्टपर श्रीजिनवल्लभगणिको For Private And Personal Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८४ बैठाये अर्थात् आचार्यपदमेस्थापित किये तब अनेकलोकयुग प्रधानश्रीअभयदेवसरिजीके भक्तश्रीजिनवल्लभसूरिजीकुं देखकेमहाउत्साहसैधर्ममेंमोक्षमार्गमें प्रवर्त्तमान भये श्रीदेवभद्राचार्यादिकपदस्थापनाकरके अपणेकुं कृतकृत्य मानता श्रीअणहिल्ल पाटणवगेरहस्थानों मे विहारकरतेभये, श्रीजिनवल्लभसरिजीने अपणे आयुषका प्रमाण जोतिषसैं गिना छ वरस हाल आयुष हे ऐसा गणितसें आया तब विचार किया इतने कालमें बहोतभव्यलोकों को प्रतिबोधकरेंगे इस प्रकारसे विचरते अछितरहसे ग्रामनगरादिकमें उपदेश करते भव्य प्राणियोंकों सन्मार्गमें प्रवर्तावते श्रीवीरपरमेश्वरके शासनको सोभित करते ६ छ मास व्यतिक्रांत भये तब अकस्मात् शरीरमे अस्वास्थ्य भया अर्थात् मारि भइ यह क्याहे ऐसा जितने विचारके ओर गणित करके विचारा उतने आंकविस्मरणहुवा जाना छ महिनोंके ठिकाने छ बरस आये तब श्रीपूज्योंने कहा इतनाहि आयुष है वाद निश्चय करके वह महापुरुष श्रीजिनबल्लभमूरिजी महाराज समस्तसंघके साथ खामणा करके मिछामिदुक्कडदेके आराधना करके सर्व जीवोंके साथ खामणा कर सर्वपापको आलोयपडिक्कमके च्यार सरण अंगीकार किया तीन दिनका अनशन याने संथारा करके इग्यारहसै सिडसठ (११६७ ) के सालों कार्तिक वदि द्वादशी १२ को रात्रिके चोथे पहरमें पंचपरमेष्टिनवकारका स्मरण करते भये श्रीजिनवल्ल. भसूरीश्वरजी महाराज समाधिसे आयु पूर्णकरके चोथे देवलोक पधारे सुरसुख प्राप्त भये ऐसे महापुरुष प्राकतके अद्वितीय कवि इस For Private And Personal Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८५ भारतवर्ष में अंतिम भये परंतु उन महापुरुषोंने जो जो शास्त्र रचे सो परिचय लिखते हैं निर्मल चारित्रके निधानमरुकोटमें सात बरस आते जाते एकंदर निवास करके सर्व आगम परिशीलित करके समस्त गछीयोंने अंगीकार किये ऐसे पदार्थवर्णन द्रव्यानुयोग वगेरहके शास्त्ररचे सो लिखते हैं सूक्ष्मार्थसार १ सिद्धांत सार २ विचारसार ३ षडशीति ४ सार्धशतक कर्मग्रंथ ५ पिंडविशुद्धि ६ पौषधविधिप्रकरण ७ प्रतिक्रमणसमाचारी ८ संघपट्टक ९ धर्मशिक्षा १० द्वादशकुलक ११ प्रश्नोत्तरशतक १२ शृंगारशतक १३ नानाप्रकारका विचित्र चित्रकाव्यसार १४ सइकडो स्तुतिस्तोत्रवगेरह लघु अजित सांतिस्तोत्र प्रमुख बहुत प्रकरण चरित्र प्राकृतसंस्कृतरूप रचे वह । कीर्तिरूपपताका सकलपृथ्वीमंडलभारतीयजनोको मंडनकरति है सोभित करति है विद्वानोंके मनोंको हर्षित कररहीहै ऐसे श्री. जिनबल्लभसूरिजी महाराजकाकिंचित्मात्र चरित्र लिखके जो पुन्य उपार्जनकरा उस्सैभव्यजीवजिनमार्गमें प्रवृत्तिकरके अजरामरस्थानपावो इति। __ अत्राह कश्चित् साक्षेपं, जिनवल्लभायोपस्थापनोपसंपदाचार्यपदेषु कतमत् , श्रीनवांगीवृत्तिकारकश्रीअभयदेवमूरिभिः समर्पि, अर्थात् , इहांपर आक्षेपसहित कोई तपोटमताश्रितादिवादी कहे है, श्रीनवांगवृत्तिकारकश्रीमद्अभयदेवमूरिजीमहाराजकेपट्टधर शिष्य श्रीजिनवल्लभसूरिजीमहाराजको बडीदीक्षा १ उपसंपदा २ आचार्यपद ३ इन तीनवस्तुओंमेंसें नवांगटीकाकार श्रीमद् अभयदेवसूरिजी महाराजनें किस बस्तुको अर्पण किया, For Private And Personal Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org · २८६ " उत्तर, श्रीखरतरगच्छ की पट्टावली ग्रंथमें लिखा है कि, तत्प त्रिचत्वारिंशत्तमः श्रीजिनवल्लभसूरिः स च प्रथमं कूर्च पुरगच्छीयचैत्यवासीजिनेश्वरसूरेः शिष्योऽभूत् ततश्च एकदा दशवैकालिकं पठन् सन् औषधादिकं कुर्वाणं अतिप्रमादिनं स्वगुरुं विलोक्य उद्विशचितः संजातः तदनंतरं स्वगुरुमापृच्छय शुद्ध क्रियानिधीनां श्रीअभयदेवसूरीणां पार्श्वेऽगात्, तदुपसंपदं गृहीत्वा तेषामेव शिष्यव संजात, क्रमेण सकलशास्त्राण्यऽधीत्य महाविद्वान् बभूव, तथा पिंडविशुद्धिप्रकरण, पडशीतिप्रकरण, प्रमुखाऽनेकशास्त्राणि कृतवान् तथा अष्टादशसहस्रप्रमितवागड श्राद्धान् प्रतिबोधितवान् तथा पुनचित्रकूटनगरे श्रीगुरुभिः चंडिका प्रतिबोधिता जीवहिंसात्याजिता धर्मप्रभावात्सधनीभूतसाधारणश्राद्धेन कारितस्य द्विसप्ततिजिनालयमंडितश्रीमहावीरस्वामीचैत्यस्य प्रतिष्ठा कृता तथा तत्रैव पुरे संवत् सागररसरुद्र (१९६७) मिते श्रीअभयदेवसूरिवचनादेव भद्राचार्येण तेषां पदस्थापना कृता व्याख्या - श्रीमहावीरस्वामीकी संतानपाटपरं परामें ४२ वें पाटे नवांगटीकाकार श्रीअभयदेवसूरिमहाराज हुवे, उनके पाटपर ४३ वें श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराज हुवे, प्रथमकूर्च्चपुर गच्छीय चैत्यवासीय श्रीजिनेश्वरसूरिजी के शिष्य थे, एक दिन दश चैका लिकसूत्र को पढते हुवे अतिप्रमादी औषधादि करनेवाले अपने गुरु जिनेश्वरसूरिजी को देखकर उद्विग्नचित्त हुवे, उसके अनंतर अपने गुरुसें पूछकर शुद्धक्रिया के निधाननवांगटीकाकार श्रीमद् अभयदेवसूरिजी महाराजके पासगए, उनसें उपसंपदग्रहण करके उन्हींके याने नवांगटीकाकार श्री अभयदेवसूरिजी महाराजके शिष्य Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८७ श्रीजिनवल्लभमरिजी महाराज हुवे, अनुक्रमे सकलशास्त्रोंको पढकर महाविद्वान् हुवे तथा पिंडविशुद्धिप्रकरण, संघपट्टक प्रकरण, धर्मव्यवस्था प्रकरण, षडशीति, सूक्ष्मार्थसार्धशतक प्रकरण, श्रीजिनवल्लभमूरिसमाचारी, इत्यादि अनेक प्रकरण शास्त्र किये, तथा अढारे हजार वागडदेशमें श्रावक नवीन जैनी किये, और चित्रकूट नगरमें श्रीजिनवल्लभसूरिजीमहाराजने चण्डिकादेवीको प्रतिबोधी और जीवहिंसा छुडाई तथा धर्मप्रभावसे धनवाला हुवा साधारण नामका श्रावकनें कराया हुवा ७२ जिनालयमंडित श्रीमहावीर स्वामीके चैत्य ( मंदिर )की प्रतिष्ठा करी उसी चित्रकूटस्थानमें वि० संवत् ११६७ में श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजको आचार्यपद नवांगटीकाकार श्रीमद् अभयदेवमूरिजी महाराज देवलोक होनेसें उनके वचनसे उन्होंके संतानीय श्रीदेवभद्राचार्य महाराजनें दिया, याने नवांगटीकाकार श्रीअभयदेवमूरिजी महाराजके पाटपर मुख्य श्री. जिनवल्लभसूरिजी महाराजको आचार्यपदमें स्थापित किये, नवांगटीकाकार श्रीअभयदेवमूरिजी महाराजने श्रीभगवतीसूत्रकी टीकाके अंतमें अपने पूर्वजोंकी पाटपरंपरा इसतरह लिखी है कि चांद्रे कुले सदनकक्षकल्पे, ___ महाद्रुमो धर्मफलप्रदानात् , छायान्वितः शस्तविशालशाखः, श्रीवर्द्धमानो मुनिनायकोऽभूत् ॥ १॥ तत्पुष्पी विलसद्विहारसद्धसंपूर्णदिशौ समंतात् , बभूवतुः शिष्यवरावऽनीचवृत्ति श्रुतज्ञानपरागतौ ॥२॥ For Private And Personal Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८८ एकस्तयोः सरिवरो जिनेश्वरः ख्यातस्तथाऽन्यो भुवि बुद्धिसागरः । तयोर्विनेयेन विबुद्धिनाप्यलं वृत्तिकृतैषाऽभयदेवसूरिणा ॥ ३ ॥ तयोरेव विनेयानां तत्पदं चानुकुर्वतां, श्रीमतां जिनचंद्राख्यसत्प्रभूणां नियोगतः ॥ ४ ॥ श्रीमज्जिनेश्वराचार्यशिष्याणां गुणशालिनां । जिनभद्रमुनींद्राणामस्माकं चांघिसेदिनः ॥ ५ ॥ यशचंद्रगणेर्गाद, सहाय्यात्सिद्धिमागता, परित्यक्ताsन्यकृत्यस्य, युक्ताऽयुक्तविवेकिनः ॥ ६ ॥ व्याख्या - श्रीआचारंगसूयगडांगसूत्र की टीकाके अंत में - "इत्याचार्यशीलांक विरचितायां श्रीआचारांगटीकायां द्वितीयश्रुतस्कंधः समाप्तः इत्यादि, टीकाकार श्री शीलांकाचार्यमहाराजने लिखा हैं, किन्तु श्रीमहावीर स्वामीसें लेकर अपने सब पूर्वजों के नाम वा गुरु दादा गुरुके नाम तथा अपना निग्रंथ गच्छ कोटिकगच्छादिनाम या विशेषण नहिं लिखा है, इसी तरह श्रीठाणांगआदिनवांगसूत्रटीकाके अंत में श्री अभयदेवसूरिजी महाराजने भी श्रीमहावीरस्वामीसें लेकर अपने सब पूर्वजोंके नाम तथा निग्रंथगच्छ, कोटिकगच्छ, वज्रशाखाचंद्रकुल, बृहत् गच्छ, खरतरगच्छ, ६ ये सब नाम या विशेषण प्रायः नहीं लिखें हैं, किंतु किसी अज्ञके प्रश्न के उत्तर में कोई बुद्धिमान् संक्षेपप्रशंसा अपने कुलका नाम तथा उसमें अपने पितादादेका नाम जैसा बतलाता है वैसा नवांगटीकाकार श्री अभयदेवसूरिजी - For Private And Personal Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८९ महाराजने भी बालजीवोंके कुतर्क वा उनकी अज्ञानताको दूर करनेके लिये उपर्युक्त श्लोकोंमें संक्षेपप्रशंसासें अपने कुलका नाम चंद्रकुल उसमें अपने दादा गुरुका नाम श्रीवर्द्धमानसूरिजी उनके शिष्य अपने गुरुका नाम श्रीजिनेश्वरसूरिजी श्रीबुद्धिसागरसूरिजी उनके लघुशिष्य श्री अभयदेवसूरिजीनें यह श्रीभगवती सूत्रकी टीका करी श्रीजिनेश्वरसूरिजी तथा श्रीबुद्धिसागरसूरिजीके पाटे बडे शिष्य श्रीजिनचंद्रसूरिजी की आज्ञासें और श्रीजिनेश्वरसूरिजी के शिष्य श्रीजिनभद्रसूरिजी तथा श्रीअभयदेवसूरिजी के चरणसेवक श्रीयशश्चंद्रगणिजीके सहायसें टीका करनें में आई, यह श्रीअभयदेव - सूरिजी महाराजनें अपनी गुरुशिष्यपरम्परा स्पष्ट लिख बतलाई है, और यह पाटपरंपरा खरतर गच्छवालोंकी है, उसमें नवांगटीकाकार श्री अभयदेवसूरिजी हुवे, तपगच्छके श्रीमुनिसुंदरसूरिजी - महाराजविरचित श्रीउपदेश तरंगिणी ग्रंथ में - " नवांगटीकाकार श्री - अभयदेवसूरिजी उनके शिष्य श्रीजिनवल्लभसूरिजी प्रशिष्य श्रीजिनदत्तसूरिजी इन प्रभाविक आचार्योंकी स्तुतिद्वारा खरतरगच्छवालोंकी गुरुशिष्यप्रशिष्यपाटपरंपरा दिखलाई है कि व्याख्याताऽभयदेवसूरिरमलप्रज्ञो नवांग्या पुनः, भव्यानां जिनदत्तसूरिरऽददद्दीक्षां सहस्रस्य तु ॥ प्रौढिं श्रीजिनवल्लभो गुरुरऽधीज्ज्ञानादिलक्ष्म्या पुनः, ग्रंथान् श्रीतिलकश्चकार विविधान् चंद्रप्रभाचार्यवत् ॥ १ ॥ व्याख्या - निर्मलबुद्धिवाले श्रीअभयदेवसूरिजी महाराजने नवअंगसूत्रों की टीका करी, उनके प्रशिष्य श्रीजिनदत्तसूरिजी महाराजने १९ दत्तसूरि० For Private And Personal Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९० हजारों भव्यजीवोंको दीक्षा दी और चंद्रप्रभाचार्यकी तरह (श्री) शोभा वा लक्ष्मीके तिलकसमान नवांगटीकाकारके शिष्य श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराज ज्ञानादिलक्ष्मीसें प्रौढताको धारण करतेहूवे, विविध (अनेक ) ग्रंथोंकों करते भये, और श्रीकल्पांतर्वाच्या तपगच्छके श्रीहेमहंसमरिजी महाराजने भिन्न भिन्न गच्छके प्रभाविक आचार्योंके अधिकारमें लिखा है कि, “खरतरगच्छे नवांगीवृत्तिकारक श्रीअभयदेवसरि थया, जिये शासनदेवीना वचनथी थंभणाग्रामे सेढीनदीने उपकंठे जयतिहुअणबत्तीसी नवीन स्तवना करके श्रीपार्श्वनाथजीनी मूर्ति प्रगट कीधी धरणेन्द्र प्रत्यक्ष थयो शरीरतणो कोढरोग उपशमाव्यो नवअंगनीटीका कीधी तच्छिष्य श्रीजिनवल्लभमरिजी थया जिये निर्मल चारित्र सुविहित संवेगपक्ष धारण करी, अनेक ग्रंथतणो निर्माण कीधो तच्छिष्य युगप्रधान श्रीजिनदत्तमरि थया जिये उजैनी चित्तोडना मंदिरथी विद्यापोथी प्रगट कीधी देशावरोंमें विहारकरते रजपूतादिकनें प्रतिबोधीनें सवालाख जैनी श्रावक कीधा इत्यादि"-और श्रीसूक्ष्मार्थ सार्धशतक मूलग्रंथके अंतमें लिखा है किजिणवल्लह गणिरइयं, सुहुमत्थवियारलवमिणं सुयणा, निसुणंतु सुणंतु सयं, परे विबोहिंतु सोहिंतु॥१॥ श्रीचित्रवालगच्छके श्रीधनेश्वरसरिजी महाराजविरचित श्रीसूक्ष्मार्थ सार्धशतक मूलग्रंथकी टीकामें लिखाहै कि-श्रीजिनवल्लभगणिनामकेन मतिमता सकलार्थसंग्राहिस्थानांगाद्यंगोपांग पंचाशकादिशास्त्रवृत्तिविधानावाप्तावदातकीर्तिसुधाधवलितधरामंडलानां श्रीमदऽभयदेवसूरीणां शिष्येण कर्मप्रकृत्यादिगंभीरशास्त्रेभ्यः समुद्धृत्य रचितमिद।। For Private And Personal Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९१ अर्थ - सकल अर्थके संग्रहवाले स्थानांगआदिनव अंगसूत्र । और उपांगसूत्र पंचाशक आदिप्रकरणशास्त्र इन्होंकी टीकाकरणेसें प्राप्त स्वच्छ कीर्तिरूप सुधासे उज्ज्वल किया है पृथ्वीमंडल जिन्होंने ऐसे श्रीमद् अभयदेवसूरिजी महाराज उनके शिष्य मतिमान् श्रीजिनवल्लभगणि है नाम जिनका उन्होंने कर्मप्रकृति आदि गंभीर शास्त्रों से उद्धार करके यह सूक्ष्मार्थ साधशतक मूलप्रकरण ग्रंथ रचा है । इसतरह चित्रवालगच्छके श्रीधनेश्वरसूरिजी महाराजने नवांगटीकाकार श्रीमद् अभयदेवसूरिजी उनके शिष्य श्रीजिनवल्लभ (गणि) सूरिजी, यह गुरु-शिष्यपरंपरा लिखदिखलाई है तो इन उपर्युक्त शास्त्रप्रमाणोंसें चंद्रकुलके श्रीवर्धमानसूरिजी उनके दो शिष्य श्रीजिनेश्वरसूरिजी तथा श्रीबुद्धिसागरसूरिजी, उनके बड़े शिष्य श्रीजिनचन्द्रसूरिजी तथा लघुशिष्य नवांगटीकाकार श्रीअभयदेवसूरिजी उनके शिष्य श्रीजिनवल्लभसूरिजी उनके शिष्य श्रीजिनदत्तसूरिजी इत्यादि खरतरगच्छवालोंकी गुरु-शिष्यपरंपरामें नवांगटीकाकार श्रीअभयदेवसूरिजी महाराजने श्री - जिन - वल्लभसूरिजी महाराजको उपसंपद अर्पण करके अपने शिष्य किये, इत्यादि इसविषयमें उपर्युक्त शास्त्रप्रमाणों कों देखकर पूर्वपक्षी अपनी शंका दूर करें और निनलिखित प्रश्नोंके उत्तर शास्त्रप्रमाणों से प्रकाशित करें १ [प्रश्न ] तुमने लिखा कि- "जिनवल्लभगणिजीने बड़ी दीक्षा उपसंपद इत्यादि" तो हमभी लिखते हैं कि – “जग चंद्रसूरिजी को बड़ीदीक्षा १, उपसंपद २ और आचार्यपदवी ३ इन तिनमेंसे चि For Private And Personal Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९२ त्रवालगच्छके श्रीधनेश्वरसरिजीके शिष्य श्रीभुवनचंद्रसरिजी उनके शिष्य शुद्धसंयमी श्रीदेवभद्रगणिने कौनसी वस्तु दी ॥ २ [प्रश्न] श्रीजगचंद्रजी बड़ी दीक्षा उपसंपदादि ग्रहण करके किस गच्छके और किस नवीनशुद्धसंयमी गुरुके शिष्य हुए मानते हो ३[प्रश्न] श्रीधर्मरत्नप्रकरण ग्रंथमें चित्रवालकगच्छके श्रीभुवनचंद्रसरि उनके शिष्य श्रीदेवभद्रगणि उनके शिष्य श्रीजगचंद्रसूरि उनके शिष्य श्रीदेवेन्द्रसरिने यह उपर्युक्त अपने पूर्वजोंकी गच्छनामसहित गुरु-शिष्यपरंपरा मानना बतलाया है अन्य नहीं तो श्रीदेवेन्द्रसूरिजी उक्तकथनसे विरुद्ध अपने मनसे बृहत्गच्छ तथा श्रीमणिरत्नसरि उनके शिष्य श्रीजगचंद्रसूरि यह गुरु-शिष्यपरंपरा मानना क्यों बतलाते है ? ४ [प्रश्न ] श्रीदेवेन्द्रसूरिजीके उक्तकथनसे विदित होता है कि श्रीजगचंद्रसरिजीने उपसंपद दीक्षादि लेकर-चैत्रवालगच्छको तथा उस गच्छके श्रीदेवभद्रगणिजीको और उनके पूर्वजोंकी परंपराको स्वीकार किया और अपने प्रथम गुरु श्रीमणिरत्नसरिजीको तथा उनके पूर्वजोंकी परंपराको और उनको गच्छको त्यागा, तो फिर पट्टावलीमें उन गुर्वादिकोंको क्यों मानते हो? ५[प्रश्न] श्रीसत्यविजयजीने और श्रीयशोविजयजीने तथा श्रीनेमसागरजीने वा उनके गुरूने यतिपनके शिथिलाचारको स्याग कर क्रियाउद्धार किया तो योग १, बड़ीदीक्षा २, उपसंपद ३, पन्यासपद ४, उपाध्याय पद ५, किस दूसरे शुद्धसंयमी गुरुके For Private And Personal Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पास ग्रहण किया और किसकिस दूसरे शुद्धसंयमी गुरुको धारण करके उनके शिष्य हुए? ६ [प्रश्न ] जिसके गच्छमें पूर्वकालमें दो, तीन, चार पीढ़ीपर कई जनोंने क्रियाउद्धार किया है और उनके शिष्यप्रशिष्यादि साधु साध्वी वर्तमानकालमें बहुत विचरते हुए नज़र आते हैं उनके गच्छमें कोई वैराग्यभावसे यतिपनेके शिथिलाचारको त्यागके क्रियाउद्धार करके साधुकी रीतिसे विचरता है उसको दूसरेके पास उपसंपद लेनेकी और दूसरेका शिष्य होनेकी आवश्यकता नहीं है ऐसी शास्त्रकारोंकी आज्ञा मानते हो तो उन क्रियाउद्धारकारक सुसाधुकी निरर्थक निंदा करनेवाले और बालजीवोंको भरमानेवाले, शास्त्रविरुद्ध वादी वा द्वेषी दुर्गतिके भाजन हो या नहीं ? श्रीजिनेश्वरसूरये दुर्लभेन. राज्ञा पत्तने चैत्यवासिविजयेन खरतरविरुदं सहस्रे समानामऽशीत्यधिके प्रादायि न वा? अर्थात् अणहिलपुरपाटणमें (सुविहित) शुद्धक्रियावंत साधुओंको नहीं रहने देनेके लिये मिथ्याअभिमानी श्रीजिनमंदिरों में रहनेवाले चैत्यवासी यतियोंका बड़ाभारी व्यर्थ कदाग्रह (जोर) को हटानेसे खरेतरे याने खरतरविरुदश्रीजिनेश्वरसूरिजी (नवांगटीकाकार श्रीअभयदेवसूरिजीके गुरु ) महाराजको संवत् १०८० में दुर्लभराजा तथा भीमराजाके समयमें मिला या नहीं ? . [उत्तर ] इस विषयका निर्णय अनेक ग्रंथोंके प्रमाणोंसे श्रीप्रश्नोत्तरमंजरी ग्रंथमें लिख दिखलाया है अतः उस ग्रंथमें देखलेना। और इस विषयमें शंका रखनी सर्वथा अनुचित है । क्योंकि इस For Private And Personal Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २९४ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनाभोगको दूर करनेके लिये तपगच्छनायक श्रीसोमसुंदरसूरिजी - के शिष्य महोपाध्याय श्री चारित्ररत्नगणिजी के शिष्य पंडित श्रीमत् सोमधर्मग णिजीमहाराजने स्वविरचित उपदेशसप्ततिका नामक महाप्रमाणिक ग्रंथ में लिखा है कि पुरा श्रीपत्तने राज्यं, कुर्बाणे भीमभूपती । अभूवन् भूतलाख्याताः, श्रीजिनेश्वरसूरयः ॥ १ ॥ सूरयोऽभयदेवाख्या, स्तेषांपदे दिदीपिरे । येभ्यः प्रतिष्ठामापन्नो गच्छः खरतराऽभिधः ॥ २ ॥ " भावार्थ - (पुरा) पूर्वकालमें याने संवत् १०८० में अणहिलपूर पाटण में दुर्लभ तथा भीमराजाके राज्य के समयमें चैत्यवासी यतियोंका सुविहित मुनियोंको शहरमें नहीं रहने देनेका बड़ाभारी व्यर्थ कदाग्रह ( ज़ोर ) को हटाने से और अत्यंत शुद्धक्रिया आचारसे खरेतरे याने खरतर विरुद धारक श्रीजिनेश्वरसूरिजी महाराज भूमंडल में प्रख्यात हुए । उनके पाटे जयतिहुअणस्तोत्र से श्रीस्थंभ पार्श्वनाथ प्रतिमा प्रगट कर्ता नवांग - टीकाकार श्री अभयदेवसूरिजी महाराज खरतरगच्छ में महाप्रभाविक हुए, जिनसे खरतर - नामकागच्छलोक में प्रतिष्ठाको प्राप्त हुआ । इत्यादि अधिकार लिखा है और श्रीप्रभावक चरित्रमें भी लिखा है कि जिनेश्वरस्ततः सूरिरऽपरो बुद्धिसागरः । नामभ्यां विश्रुतौ पूज्यै, विहारेऽनुमतौ तदा ॥ १ ॥ ददे शिक्षेति तैः श्रीमत्, पत्तने चैत्यवासिभिः । विघ्नं सुविहितानां स्यात् तत्राऽवस्थानवारणात् ॥ २ ॥ For Private And Personal Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९५ पूर्वाभ्यामऽपनेतव्यं, शक्त्या बुद्ध्या च तत् किल । यदिदानींतने काले नास्ति प्राज्ञो भवत्समः॥३॥ अनुशास्तिं प्रतीच्छाव इत्युक्त्वा गुर्जरावनौ । विहरंतो शनैः श्रीमत् पत्तनं प्रापतुर्मुदा ॥४॥ सद्गीतार्थपरीवारौ तत्र भ्रांती गृहे गृहे । विशुद्धोपाश्रयाऽलाभात् वाचां सस्मरतुर्गुरोः॥५॥ श्रीमान् दुर्लभराजाख्यस्तत्र चाऽऽसीदिशांपतिः। गी:पतेरऽप्युपाध्यायो नीतिविक्रमशिक्षणात् ॥६॥ इत्यादि उपर्युक्त भावार्थवाला अधिकार बहुत लिखा है तथा श्रीखरतरगच्छकी पट्टावलीमें भी लिखा है कि तदा शास्त्राविरुद्धाऽऽचारदर्शनेन श्रीजिनेश्वरसूरिमुद्दिश्य अतिखरा एते इति दुर्लभराज्ञा प्रोक्तं तत-एव खरतरविरुदं लब्धं तथा चैत्यवासिनो हि पराजयप्ररूपणात् कुंबला इति नामध्येयं प्राप्ता एवं च सुविहितपक्षधारकाः श्रीजिनेश्वरसूरयो विक्रमतः १०८० वर्षे खरतरविरुदधारका जाताः। - इसतरह अनेकशास्त्रोंमें यह उपर्युक्त अधिकार स्पष्ट लिखा है वास्ते श्रीसोमधर्मगणिजी महाराजकेउचित तथा शास्त्रसंमत सत्यवचनोंमें सर्वथा शंकारहित शुद्धश्रद्धाधारण करें और द्वेषीके शास्त्रविरुद्ध कपोलकल्पित महामिथ्या अनुचित वचनोंपर श्रद्धा नहीं रक्खे क्योंकि शास्त्रविरुद्ध मिथ्यावचनके कदाग्रहसे भवभ्रमण होता है नवांगटीकाकार श्रीअभयदेवमूरिजीके शिष्य श्रीजिनवल्लभसरिजीके समयमें खरतरगच्छकी मधुकरशाखा (पाटगादी) सं. ११६७ में अलग हुई है । For Private And Personal Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९६ उसके स्थानमें द्वेषसे १२०४ में ऊष्ट्रिक मत निकला कहना, यहभी द्वेषीके प्रत्यक्ष द्वेषभाववाले महामिथ्या कपोलकल्पित अनुचित आक्षेपवचन है। १२०४ में श्रीजिनदत्तमरिजीसे खरतरगच्छ खरतरविरुद खरतरमतकी उत्पत्ति हुई इत्यादि-कल्पित अनेक मिथ्याप्रलापोंसे अपने झूठे कदाग्रह मंतव्यको सिद्ध करना कि नवांगटीकाकार श्रीअभयदेवसूरिजी महाराज खरतरगच्छवालोंकी गुरुशिष्यपरंपरामें नहीं हुए। परंतु उपर्युक्त शास्त्रपाठोंसे प्रत्यक्ष विरुद्ध इन महामिथ्या प्रलापोंसे अपने झूठे मंतव्यका जय कदापि नहीं कर सकते हैं। वास्ते अपने पूर्वज श्रीसोमधर्मगणिजीके शास्त्रसंमत उपयुक्त सत्यवचनोंसे सर्वथा विपरीत महाद्वेषीके कपोलकल्पित अनेक तरहके असत्यवचनोंसे पराजय फलको वेरवेर प्राप्त होना ठीक नहीं है। अस्तु यदि ऐसाही आग्रह है तो निम्नलिखित प्रश्नोंके उत्तर आग्रही सत्यप्रकाशित करें [१] अंचलगच्छकी पट्टावली आदिग्रंथोंमें लिखा है किसंवत् १२८५ में श्रीजगचंद्रसूरिजीसे (गाढक्रियतापसः) याने तापलमत-तपोमत-(चांडालिका तुल्या) पुष्पवती प्रभू पूजाका मत निकला और श्रीविजयदानसरिजीके शिष्य धर्मसागर गणिसे संवत् १६१७ में तपौष्ट्रिकमतकी उत्पत्ति हुई श्रीहीर विजयसूरिजीसे संवत् १६३९ में गर्दभी मतोत्पत्ति हुई इसतरहके तपगच्छ के १८ नाम हेतुवृत्तांतसहित लिखे हैं उनको आग्रही लोग सत्य मानते हैं या मिथ्या ? २ [प्रश्न] क्रमशश्चित्रवालकगच्छे-कविराजराजिनभसीव, For Private And Personal Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २९७ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीभुवन चंद्रसूरिगुरुरुदियाय प्रवरतेजाः ॥ १ ॥ तस्य विनेयः प्रशमैकमंदिरं देवभद्रगणिपूज्यः, । शुचिसमयकनकनिकषो बभूव मुनिविदितभूरिगुणः ॥ २ ॥ तत्पादपद्मभृंगा निस्संगाचंगतुंगसंवेगाः । संजनितशुद्धबोद्धा जगति जगच्चंद्रसूरिवराः ॥ ३ ॥ तेषामुभौ विनेयौ श्रीमान् देवेंद्रसूरिरित्याद्यः | श्रीविजयचंद्रसूरिद्वितीयको ऽद्वैत कीर्तिभरः ॥ ४॥ स्वाsन्ययोरुपकाराय श्रीमद्देवेंद्रसूरिणा । धर्मरत्नस्य टीकेयं सुखबोधा विनिर्ममे ॥ ५ ॥ ये श्लोक श्रीजगचंद्रसूरिजीके मुख्यशिष्य श्रीदेवेंद्रसूरिजीने अपनी रची हुई श्रीधर्मरत्नप्रकरणकी टीका उसकी प्रशस्तिमें लिखे हैं इन श्लोकोंमें तथा श्रीजगचंद्रसूरिजी के शिष्य श्री विजयचंद्रसूरिजी उनके शिष्य श्रीक्षेमचन्द्रकीर्तिसूरिजीने संवत् १३३२ में श्रीबृहत् कल्पसूत्र - कीटीका रची है उसकी प्रशस्ति में भी चित्रवालगच्छ में श्रीधनेश्वरसूरिजी उनके शिष्य श्रीभुवनचन्द्रसूरिजी उनके शिष्य श्रीदेवभद्रगणिजी उनके शिष्य श्रीजगचंद्रसूरिजी इत्यादि लिखा है किंतु न तो अपना या श्रीजगचंद्रसूरिजीका बृहत्गच्छ ना तपगच्छ ऐसा नाम या विशेषण लिखा और न तो उनके गुरुका नाम -- श्रीमणिरत्न- सूरिजी लिखा और न तो श्रीजगच्चंद्रसूरिजीने जावज्जीव आचाम्ल तप किया लिखा और न तो संवत् १२८५ में अमुक राजाने तपगच्छनाम या तपगच्छ विरुद दिय लिखा तथा ३२ दिगंबर जैनाचार्यों को अमुक विवाद में जीतनेसे For Private And Personal Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९८ अमुक नगरके अमुक राजाने श्रीजगचंद्रसूरिजीको हीरलाविरुद दिया यहभी नहीं लिखा है तथापि आप लोग अपनी तपगच्छकी पट्टावलीसे उक्त वातोंको मानते हो तो श्रीसमवायांगसूत्रकी टीकाके-अंतमें (श्रीमत्सरिजिनेश्वरस्य जयिनो दपीयसां वाग्मिनां) इस श्रीअभयदेवमूरिजीके वाक्यसे तथा अनेक शास्त्रसंमत खरतरगच्छकी पट्टावलीके लेखसे विदित होता है कि वाचाल और अहंकारी चैत्यवासियोंको जीतनेसे खरेतरे याने खरतर विरुदधारक श्रीजिनेश्वरसूरिजी महाराज भूमंडल में प्रख्यात हुए उनके शिष्य नवांगटीकाकार श्रीस्थंभनपार्श्वनाथप्रतिमा प्रगटको श्रीअभयदेवसरिजी महाराज हुए जिनसे खरतर नामका गच्छ प्रतिष्ठा को प्राप्त हुवा इन अपने पूर्वजोंकी लिखी हुई सत्यवातोंको क्यों नहीं मानते हो? ३ [प्रश्न ] संवत् १२८५ वर्षके पहले रचे हुए किस ग्रंथमें श्री. जगचंद्रसूरिजीका बृहत् या वड़गच्छ वा वृद्धगच्छ लिखा है ? ४ [प्रश्न] धर्मसागरउपाध्यायके ग्रंथों में आगमविरुद्ध अनेक कदाग्रह वचनोंको तथा द्वेषसे परगच्छवालोंकी निंदारूप कपोलकल्पित महामिथ्या कटु वचनोंको उनके गुर्वादिकने अपने रचे द्वादशजल्पपदआदिग्रंथोंमें जलशरणद्वारा मिथ्याठहराये हैं या नहीं? और उन मिथ्यावचनोंको कोई माने वह गुरुआज्ञा लोपी हो ऐसा लिखा है या नहीं ? इन उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर धर्मसागरादिमताश्रिततपोटमतवाले सत्यप्रकाशित करें। इत्यलं किं बहुना ? __ और यह ऊपरोक्त प्रश्नोत्तर और प्रश्न सप्रमाणसत्यतापूर्वक दिये हैं सो सद्गुणीवरोंके भक्तिनिमित्त गुणानुरागसे गुणानुरागी For Private And Personal Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९९ भव्योंके उपगारार्थ और धर्मानुरागी भव्योंके सत्यधर्म आराधनके लिये विशिष्टगुणवान् आचार्योंपर दुर्लभ बोधिजीवोंके करे हुवे आक्षेप दूर करनेके लिये भावदयापूर्वक देनेमें आया है, नतु द्वेषभावसे है और भगवान की आज्ञानुसार साम्नाय सप्रमाण शास्त्रानुसार धर्माराधन करते हुवे सबहि गच्छवाले श्री सर्वज्ञ देवकी आज्ञा के आराधक हैं और अक्षर प्रमाणविना पुरुषप्रमाणविना पूर्वापर संबंध शोच्यांविना हरेक विषयमें द्वेषसें विना विचार के प्रमाण विना रागद्वेष करणेसें झूठा दूषण देनेसें और उत्सूत्र प्ररूपणाकरनेसें महानुकर्मबंध होवे है और धर्मार्थीयोंकों भवभीरुता रखनी चाहिये, नहिं तो इसतरह करणेसें महान संसारवृद्धिहि होणाहै, और श्रीमहावीरस्वामी श्रीगौतमस्वामी श्रीसुधर्मास्वामी श्रीजंबुस्वामी प्रभवस्वामी आदि पाटपरंपरा क्रममें ३८ में पाटे श्रीउद्योतनसूरिजी हूवे इहांतक प्रायें सर्वगच्छोंकी पट्टावली एकसरखी है, और केवल श्रीपार्श्वनाथस्वामीके संततिवालोंकी पट्टावली सो अलग हि संभवे है श्रीउद्योतनसूरिजी ८४ गच्छों की स्थापना भई, यह स्थापना श्रीउद्योतनजीने अपणे खहस्तसें की है, और ८४ गच्छ इन गच्छोंमें सुविहित क्रियाकरणेवाले शुद्धप्ररूपक कंचनकामनीके त्यागी पृथग् पृथग् आचार्यादिक हवे हैं और होते है होवेंगे सो सर्व आचार्यादिक ८४ गच्छवाले धर्मार्थी गुणानुरागी भव्योंके मानने पूजने योग्य है, और श्रीउद्योतनसूरिजी के ज्येष्ठांतेवासी श्रीवर्धमानसूरिजी की संतति चली सो इस समय भी खरतर गच्छ नाम से प्रसिद्ध है और खरतर यह नाम १०८० में श्री जिनेश्वरसूरिजी कुं दुर्लभराजाके समक्ष पंचासरा देवलमें सभा समक्ष खुददुर्लभराजाने दिया है तबसें खरतर यह नाम श्री वर्धमानसूरिजी For Private And Personal Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ___ ३०० की शिष्यसंततीमें सर्वत्र जगतमे प्रसिद्ध भया, इसीतरे प्राकृत अभिधानराजेन्द्र शब्दकोशके भाग. चोथेमें पृष्ठ ७३३ खकारादि शब्दाधिकारमें खरतरशब्द लिखा है तद् यथा-खरतर-खरतर-पुं. वैक्रम संवत् १०८० श्रीपत्तने वादिनो जित्वा खरतरेत्याख्यं विरुदं प्राप्तेन जिनेश्वरसरिणा प्रवर्तिते गच्छे, इति आत्मप्रबोध १४१ आसीत् तत्पादपंकजैकमधुकृत् श्रीवर्द्धमानाभिधः, सूरिस्तस्य जिनेश्वराख्यगणभृजातो विनेयोत्तमः यःप्रापत् शिवसिद्धिपंक्ति (संवत् १०८०) शरदि श्रीपत्तने वादिनो,जित्वा सदविरुदं कृती खरतरेत्याख्यां नृपादेमुखात् अष्ट० ३२ अष्टकवृत्तिः" और श्रीउद्योतनसरिजीके दूसरे शिष्य श्रीसर्वदेवमूरिजीकी संतति चली सो वडगच्छके नामसें प्रसिद्ध भई, यह संतती प्रायें मुनिरत्न अथवा मणिरत्नसरिजीपर्यंत चली एसा संभव है, और चित्रवालगच्छ स्वतंत्र अलगहि था ऐसा शास्त्रानुसारसें संभवे है, और इस गच्छकी पट्टावलीभी श्रीउद्योतनसूरिजी वगेरेसे संबंध रखनेवाली अलगहि मालूम होवे है, और सर्वदेवसूरिजीकी पाटपरंपरामें श्रीचित्रवालगच्छकी पट्टावलीकों संबंध रखनेसें कीसी तरहका प्रयोजन नहिं संभवे है और इस चित्रवाल गच्छके यह एकार्थपर्याय शब्द है, निग्रंथ, कोटिक, चंद्र, वनवासी सुविहित पक्ष, वडगच्छ, वृद्धगच्छ, तपगच्छेति वा वज्रशाखेति चंद्रकुलमिति वा यह सदृशनाम शाखावाले गच्छकों अपर गच्छके साथ मिलानेका श्रीमुनिसुंदरसूरिजीने स्वरचितपट्टावलीमें बहुतहि For Private And Personal Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०१ अछी पालिसी की है, यह संस्कृत पट्टावली है १४ सो ६६ में बनाई गई हैं, परन्तु श्रीबृहत् कल्पकीटीकाकी अंतप्रशस्तिमें और धर्म रत्नप्रकरणकी टीकाकी अंतप्रशस्ति में श्रीक्षेमकीर्त्तिसूरिजीने तथा श्रीदेवेन्द्रसूरिजीने चित्रवालगच्छ अपणी पाटपरंपरा बतलाई है, वह परंपरा सत्य है तद् यथा श्रीजैनशासननभस्तल तिग्मरश्मिः श्रीपद्मचंद्र कुलपद्मविकाशकारी, स्वज्योतिरावृतदिगंबरडंबरोऽभूत् श्रीमान् धनेश्वरगुरुः प्रथितः पृथिव्यां ॥ १ ॥ श्रीमञ्चैत्रपुरेकमंडनमहावीरप्रतिष्ठाकृतस्तस्माच्चैत्रपुरप्रबोधतरणिः श्रीचैत्रगच्छोऽजनि ॥ तत्र श्री भुवनेन्द्रसूरि सुगुरुर्भूभूषणं भासुरः, ज्योतिः सद्गुणरत्नरोहणगिरिः कालक्रमेणा भवत् ||२|| तत्पादांबुजमंडनं समभवत् पक्षद्वयी शुद्धिमान्, नीरक्षीरसदृशदूषणगुण त्यागग्रहैवादृतः ॥ कालुष्यं च जडोद्भवं परिहरन् दूरेण सन्मानसः, स्थायी राजमरालवद् गणिवरः श्रीदेवभद्रः प्रभुः ॥ ३ ॥ शस्याः शिष्याः त्रयस्तत्पदसरसिरुहोत्संगशृंगार भृंगाः, विध्वस्तानंगसंगाः सदसि सुविहितोत्तुंगरंगा बभूवुः ॥ तत्राद्यः सच्चरित्रानुमतिकृतमतिः श्रीजगच्चंद्रसूरिः, श्रीमद्देवेन्द्रसूरिः सरलतरलसच्चित्तवृत्तिर्द्वितीयः ॥ ४ ॥ For Private And Personal Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तृतीयशिष्याः श्रुतवारिवाईयः परीषहाक्षोभ्यमन:समाधयः, जयन्ति पूज्या विजयेन्दुसूरयः परोपकारादिगुणौघसूरयः ॥५॥ प्रौढं मन्मथपार्थिवं त्रिजगतीजैत्रं विजित्येयुषां, येषां जैनपुरे पुरेण महसा प्रक्रांतकांतोत्सवे, "स्थैर्य मेरुरगाधतां च जलधिः सर्वसहत्वं मही, सोमः सौम्यमहर्पतिः किल महत्तेजोकृत प्राभृतं ॥६॥ वापं वापं प्रवचनवचोबीजराजीविनेय क्षेत्रे क्षेत्रे सुपरिमिलिते शब्दशास्त्रादिसीरैः॥ यैः क्षैत्रज्ञैः शुचिगुरुजनानायवाक्सारणीभिा, सिक्त्वा तेने सुजनहृदयानंदिसंज्ञानसत्यं ॥ ७ ॥ यैरप्रमत्तैः शुभमंत्रजापैत्तालमध्ये प्रकलिस्ववश्यं, अतुल्यकल्याणमयोत्तमार्थसत्पूरुषः सत्वधनैरसाधि ॥८॥ किंबहुना! ज्योत्ला मंजुलया यया धवलितं विश्वंतरामंडलं, या नि:शेषविशेषविज्ञजनताचेतश्चमत्कारिणी "तस्यां श्रीविजयेन्दुसूरिसुगुरुनिष्कृत्रिमायां गुणः, श्रोणः स्याद्यदि वासवः स्तवकृतौ विज्ञः स चावां पतिः९ तत्पाणिपंकजरजापरिपूतशीर्षाः । शिष्यास्त्रयो दधति संप्रति गच्छभारं ॥ . . श्रीवज्रसेन इति सद्गुरुरादिमोऽभूत् श्रीपद्मचंद्रसुगुरुस्तु ततो द्वितीयः ॥१०॥ For Private And Personal Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०३ तार्तीयीकस्तेषां, विनेयपरमाणुरऽनणुशास्त्रेऽस्मिन् , श्रीक्षेमकीर्तिसूरिर्विनिर्ममे विवृतिकल्पमिति ॥११॥ श्रीविक्रमतः कामति, नयनाग्निगुणेन्दु १३३२ परिमिते वर्षे, ज्येष्ठश्वेतदशम्यां, समर्थितैषा च हस्ताकें ॥ १२ ॥ __ और इस पाठसे यह विदित हूवा कि श्रीउद्योतनसूरिजी श्रीपद्मचंद्रसूरिजी चित्रवाल एसा गच्छका नाम उत्पन्न करनेवाले श्री. धनेश्वरसूरिजी उस चित्रवालगच्छमें कालक्रमसें श्रीभुवनेन्दुसूरिजी हवे, और दोनुं पक्ष शुद्धजिनोंका एसे उनोंके शिष्य श्रीदेवभद्रसूरिजी इनोंके तीन शिष्य हवे जिसमें पहिले श्रीजगचंद्रसूरिजी दूसरे श्रीदेवेन्द्रसूरिजी तीसरे श्रीविजयेन्दुसरिजी और श्रीजगचंद्रसूरिजीके पदमें श्रीदेवेन्द्रसूरिजी हवे इनोंने श्राद्धदिनकृत्यवृत्ति धर्मरत्नप्रकरणति वगेरे ग्रंथ बनाये हैं इन ग्रंथोंकी अंतप्रशस्तिमें इस तरह लिखा है। क्रमशश्चित्रवालकगच्छे, कविराजराजिनभसीव, श्रीभुवनचंद्रसूरिर्गुरुरुदियाय प्रवरतेजाः ॥१॥ इत्यादि पूर्वोक्तप्रमाणे इहांपर जाणलेना इन श्रीदेवेन्द्रसूरिजीके शिष्य श्रीविद्यानंदमूरिजी वगेरे पाट चले हैं सो प्रसिद्ध है, और श्रीजगच्चंद्रमुरिजी दूसरे श्रीविजयेन्दुसूरिजी इनके तीन शिष्य पहिले श्रीवज्रसेनसरिजी दूसरे श्रीपद्मचंद्रमुरिजी तीसरे श्रीक्षेमकीर्तिसूरिजी इनोंने श्रीबृहत्कल्पकी वृत्ति १३३२ में रचि है उसमे इसतरे लिखा है, और इनोकी पाटपरंपरा आगे इस तरह चली है, तद् यथा श्रीदेवेन्द्रमुनीन्दोर्विद्यानन्दादयोऽभवन् शिष्याः, लघुशाखायां तु गुरोर्विजयेन्दोश्च त्रयः पट्टे ॥ १४०॥ गरिजी इनोन र इनोकी पारधानन्दायायः For Private And Personal Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३०४ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीवज्रसेनसूरिः, पद्मेन्दुः क्षेमकीर्तिसूरिश्व, रदविश्वते १३३२ वर्षे, विक्रमतः कल्पटीकाकृत् ॥ १४१ ॥ अथ हेमकलशसूरिस्तत्पद् मौलिर्गुरुर्यशोभद्रः, रत्नाकरस्ततोपि च, शिष्यो रत्नप्रभश्चाऽस्य ॥ १४२ ॥ मुनिशेखरस्तदीयः, शिष्यः श्रीधर्मदेवसूरिरपि, श्रीज्ञानचन्द्रसूरिः, सूरिः श्रीअभयसिंहश्च ॥ १४३ ॥ अथ हेमचंद्रसूरिर्जयतिलकाः सूरयस्ततो विदिताः, जिनतिलकसूरयोऽपि च, सूरिर्माणिक्यनामा च ॥ १४४ ॥ कालानुभाववशतः शाखापार्थक्यचेतसो ह्यधुना, सर्वे ते गुणवन्तो ददतां भद्राणि मुनिपतयः ॥ १४५ ॥ इस तरह श्रीजगचंद्रसूरिजीके दो शिष्योंसें दो शाखा निकली वृद्धशाखा और लघुशाखा पूर्वोक्तप्रमाणे इनका स्वरूप जाणना और श्रीमान् जगच्चंद्रसूरिजीको महातपाविरुद तथा चारित्र - स्वीकारविषयी यह ख्याति है, सो इस तरे श्रीभुवनचंद्रसूरिजी के वचनसें वस्तुपाल तेजपालकी उत्पत्ति भइ कालक्रमसें राजाके मंत्री भये वाद कुलक्रमागतमर्यादा साचवनेके लिये अपणे गच्छके उपाश्रयमे रहे वे श्रीदेवभद्रसूरिजी के सुशिष्य श्री जगच्चन्द्रसूरिजी शिथिलचर्या में विद्यमान थे, उनको वन्दनादि करने के लिये हरहमेस वस्तुपालमंत्री स्वपरिवारसहित जातेथे इसतरह कितनाक दिन - के बाद कोई एक दिनके समे भाविभावके वशसें अकस्मात् वन्दना निमित्त श्रीजगचंद्रसूरिजी के पास आया तिससमय श्रीजगचंद्रसूरिजीके पास में पण्यस्त्री बेठी थी इस तरहका अनुचित व्यवहार प्रत्य For Private And Personal Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०५ क्षदेखनेपर भी प्रणायानेअभाव नहिं करके शुद्धभावपूर्वक विधिसहित मुनिवेषमें रहे हुवे श्रीजगचंद्रसूरिजीकों वंदनापूर्वक पञ्चक्खाण वगेरे करके गया और अपर्णेकार्य में लगा वाद जातिकुलादिसंपन्न आचार्य के मनमें अत्यंतलञ्जा अनुचितकार्यका महान् प्रश्चात्ताप - पूर्वक तीव्रसंवेग उत्पन्न होनेसें यह विचार किया हाइतिखेदे इस अनुचित मेरे कर्त्तव्यको धिग हो अहो इति आश्चर्ये गुणहीन साध्वाचाररहितकेवलवेषयुक्त मेरेकुं यह महर्द्धिकशुद्धश्रावकवस्तुपालमंत्री निःशंकपणें भावपूर्वक वंदना करके स्वस्थानगया और कुछकहा नहिं अहो यह मुनिवेषधर्मका हि प्रभाव है इत्यादिशुभभावना भावतां दृढसंवेगपूर्वक क्रियोद्धारविधिसें सर्वपरिग्रहका उसी वक्त त्याग करके सुविहितमुनिमार्ग अंगीकार किया अप्रतिबंध विहार करते हुवे तीर्थयात्रानिमित्त गिरनारगये वहां तीव्रतपसंयमादिकरते रहे हैं तिसअवसरमें वहांपर यात्रा निमित्त वस्तुपाल मंत्री भी स्वपरिवारसहित आया तब वहां उग्रतप करते हुवे देखके शुद्ध मुनि जाण के खपरिवारसहित भावसे विधिपूर्वक वंदना करके आगे बेठे मुनि धर्मोपदेश देकर निवृत्तहूवे, वाद विनयसहित वस्तुपालने पूछा कि आपश्रीके गुरु कोण है और उनका क्या नाम है तब श्रीजगचंद्राचार्य बोले कि हेधर्मप्रिय श्रावक मेरा गुरुका नाम श्रीवस्तुपाल मंत्री है, यह सुणते हि मंत्री चमकके बोलाकि यह अनुचित क्या फरमातें हैं, आपश्री मुनिराज हैं औरमें तो आपका श्रावक हूं दाश हुं आपश्रीतो मेरे गुरु हैं और पूजनीक हैं वंदनीक हैं, में आपका गुरु कैसा, तब आचार्य बोले की २० दत्तसूरि० For Private And Personal Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०६ हेमंत्रिन्तेरेकारणसे मेरेको प्रतिबोधहूवाहै, जिससें जिसको प्रतिबोध होवे वह उसका गुरु होवे है, इस लिये मेने तेरेको कहा, और इसकारणसें तें मेरागुरुहि है और व्यवहारसें मेरा श्रावक है सुणके विशेषखुशीहूवा और आपहि मेरे शुद्धगुरु है इत्यादि कहके विशेष वंदना पूर्वक व्रतादि धर्मस्वीकार करके उनीका भक्तशुद्ध श्रावकभया, इसकाविशेष चरित्र ग्रंथान्तरसें जानना शत्रुजय गिरनार आदि तीर्थोकी यात्रा करते भये विहार क्रमसें मेवाड देशमें गये वहां उदेपुरके पास नदीमें उष्णकालके मध्यान्हसमय निरन्तर वेलुकी आतापना करते हुवेरहै तब कोइएकदिनके समय वहां नदीमें अकस्मात् कार्यनिमित्त मंत्री सहित राणेका आणाभया, वहां नदीमें मृतकवत् निचेष्टित पडेहूवे आचार्य को देखके रांणाजी बोलोकि यह इससमय नदीमें कोण अनाथ मृतक पडा हैं तब श्रावक मंत्री रांणेजीको बोला कि हेमहाराज यह अनाथ मृतक नहिं किंतु यह जैनी आचार्य है इससमय यहां नदीमें निरन्तर यह महात्मा निस्पृही वेलुकी आतापना तपस्या करतें हैं घोरतपस्वी है शरीरकी भी जिनोंको वांछा नहिं है एसे यहमाहात्मा है इत्यादि गुणसुणके देखके श्रीमहाराणानें खुशी होके श्रीजगञ्चंद्राचार्य को महातपाविरुददिया, इनोंके दोशिष्यभये ऐसी प्रसिद्धख्याति है, और इनोंके शिष्योंकी पाटपरंपरा शाखा कुल गछ वगेरे ऊपर लिखा है और ऊपरोक्तप्रसिद्धख्याति और ऊपरोक्त ग्रथोंसें तोविदितहोताहेकि श्रीमुनिसुंदरसूरिजीने पूर्वापर संबंध और ऊपरोक्त ग्रन्थोंका विचार या अवलोकन नहिं क. For Private And Personal Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०७ रके उद्योतनसरिजीसर्वदेवसरिसेंलेकरश्रीसोमप्रभसरि मणिरत्नहरिजी पर्यंत दूसरे गछकी पट्टावली श्रीमान्जगचंद्राचार्यके नामाक्षरसाथ लगायी है सो अयुक्त है और खरतरविरुद श्रीअभयदेवसरिजी तच्छिष्यश्रीजिनवल्लभसरिजी तच्छिष्यश्रीजिनदत्तमरिजीके विषयमें विशेषसंकादरकरनेकी इच्छा होवे सो भव्यमध्यस्थ आत्मार्थी भवभीरु प्राणियोंको १ प्रश्नोत्तरमंजरीका तीसरा भाग २ पर्युषणानिर्णयउत्तरार्ध भाग ३ आत्मभ्रमोच्छेदनभानु ४ समाचारीशतकादि ग्रन्थोंको देखें और व्यर्थरागद्वेषके जरीये कदाग्रह करना उचित नहीं है, संसारवृद्धिके कारणोंसें विवेकी प्राणियोंको अपनाबचावकरना उचित है, संसारकी वृद्धिका मार्ग यह है, मजं विसयकसाया, निद्दाविकहा य पंचमी भणिया, एए पंचप्पमाया, जीवं पाडंति संसारे ॥१॥ पखापखीमें पचमरे, सो नर मतके हीन, सारधर्मनिरपक्ष है, सबहीमें लयलीन ॥२॥ निस्कलंक चांद्रादिकुल निग्रन्थकोटिकादिगच्छ वज्रादिशाखा सुविहित आचार्योंपर आक्षेप निंदादि करणेंसें महान् कर्मबंध होता है, काँके मुलायजा नहीं है, और कौके उदय आनेपर पसतावेंगें, इसलिये कर्मबंधका विवेक रखना उचित है, इत्यलं विस्तरेण ॥ नमोऽस्तु भगवते शासनाधीश्वराय श्रीवर्धमानाय सर्वातिशयसमन्विताय चतुष्षष्टिसुरेन्द्रपरिपूजिताय चतुर्मुखाय अष्टप्रातिहार्यसहिताय नमोनमः समस्तविनतमोभास्कराय श्रीगौतमगणहारिणे नमोऽस्तु For Private And Personal Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०८ भारत्यै श्रीश्रुतज्ञानअधिष्ठायिकायै, नमोनमः श्रीसद्ज्ञानदातृभ्योः श्रीगुरुभ्यः नमोऽस्तु श्रीश्रमणसंघभट्टारकाय नमोऽस्तु पितामहचरित्रशोधिकायै परमसंविग्नसूरिमुख्यपंडितपरिषदे, इति श्रीमजिनकीर्तिरत्नसूरिशाखायां तत्परंपरायां च क्रमात् वरीवय॑ते, सच्चारित्रचूडामणिभगवान् श्रीमजिनकृपाचंद्रसूरीश्वरः तच्छिष्य विद्वच्छिरोमणिः श्रीमदानंदमुनिवर्यसंकलिते लोकभाषोपनिबद्धे तल्लघुगुरुभ्राता। उपाध्याय श्रीजयसागरगणिसंस्कारिते श्रीमयुगप्रधानश्रीजिनदतसूरीश्वरचरिते श्रीमद्अभयदेवसरिश्रीजिनवल्लभमरिचरित्राधिकारवर्णनो नामचतुर्थःसर्गः साक्षेपपरिहारसहितः परिपूर्तिभावमगमत् । ॥ अथ पंचमसर्गः॥ ॥ तत्रादौ मंगलाचरणम् ॥ अहंतो ज्ञानभाजः सुरवरमहिताः सिद्धिसौधस्थसिद्धाः पंचाचारप्रवीणाः प्रगुणगणधराः पाठकाथागमानां । लोके लोकेशवंद्या सकलयतिवराः साधुधर्माभिलीनाः पंचाप्येते सदाप्ता विदधतु कुशलं विननाशं विधाय ॥१॥ चिंतामणिः कल्पतरुवराको कुर्वन्तु भव्या किमु कामगव्याः ॥ प्रसीदतः श्रीजिनदत्तसूरेः, सर्वे पदाहस्तिपदे प्रविष्टाः ॥२॥ इदानीं श्रीजिनदत्तमूरिविरचिताः सार्धशतकसंख्याका 'मूलगाथाः' छायया च समन्विता वनुम् प्रारभते ।। गुणमणिरोहणगिरियो, रिसहजिणिंदस्स पढममुणिवइणो सिरिउसभसेन गणहारिणोऽणहे पणिवयामि पओ ॥१॥ अर्थः-गुणरूपमणिके रोहणाचलऐसे श्रीऋषभदेवस्वामी प्रथम For Private And Personal Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०९ ar करके प्रथमगणधर श्री ऋषभसेन के निर्दोषचरणकमलोंमें नमस्कार करूं ॥ १ ॥ अजियाइजिनिंदाणं, जणियाणंदाणं पणय पाणीणं । थुणिमो दीणमणोहं, गणहारिणं गुणगणोहं ॥ २ ॥ अर्थः- अजितनाथस्वामीको आदिलेके उत्पन्नकिया है आनन्द जिन्होंने और तीनजगत् में रहनेवाले प्राणियोंने नमस्कार किया है जिन्होंको ऐसे तीर्थंकरोंके गणधरोंको अदीनमन ऐसा मैं नमस्कार करता हूं ॥ गुणगणके समूहकी स्तुति करता हूं ॥ २ ॥ सिरिवद्धमाण वरनाण, चरणदंसणमणीणं जल निहिणो । तिहुवणपणो पsिहणिय, सत्तणो सत्तमो सीसो ॥ ३ ॥ अर्थ:-श्री वर्धमान प्रधानज्ञानदर्शनचरित्रमणिके समुद्र तीन जगत् के स्वामी कर्मशत्रुवोंको हननेवाले ऐसे तीर्थंकरके प्रधान शिष्य ॥ ३ ॥ संखाईए विभवे साहितो जो समत्तसुयनाणी । छउमत्थेण न नज्जइ, एसो न हु केवली होइ ॥ ४ ॥ अर्थः - असंख्याता भव कहते हुए जो सम्पूर्ण श्रुतज्ञानी छदमस्थ नहीं जानसके यह केवली नहीं है ऐसे ॥ ४ ॥ तंतिरियमणुयदाणवदेविंदनमंसियं महासत्तं । सिरिनाण सिरिनिहाणं गोयमगणहारिणं वंदे ॥ ५ ॥ अर्थः- तिरियञ्च, मनुष्य, भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषि, वैमानिक इन्द्रोंसे नमस्कृत महासात्विक शोभायुक्त ज्ञानादिलक्ष्मीके निधान ऐसे श्रीगौतमखामीको मैं नमस्कार करूं ॥ ५ ॥ For Private And Personal Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar ३१० जिनवद्धमानमुनिवड, समप्पियासेसतित्थभारधरणेहिं । पडिहय पडिवक्खेणं, जयंम्मि धवलाइयं जेण ॥६॥ अर्थः-श्रीजिनवर्धमानस्वामीतीर्थकरोंने अर्पण किया सर्व तीर्थका भार धारण करनेवाले ऐसे प्रतिपक्षको दूर किया जिन्होंने जगत्में उज्ज्वल है यश जिन्होंका ऐसे ॥६॥ तं तिहुयणपणयपयारविंद, मुद्दामकामकरिसरहं । अनहं सुहम्मसामि, पंचमहाणट्टियं वंदे ॥ ७॥ अर्थ:-तीनजगत्करके नमस्कृतहै चरणकमलजिन्होंका बन्धनरहितकामहस्तीके लिये सिंहसदृश निष्पाप दोषरहित पंचमगणधर सुधर्म. खामीको मैं नमस्कार करूं ॥७॥ तारुने विहु नो तरलतार, अत्थि पिच्छरीहिं मणो। मणयं वि मुणिय पवयण, सम्भावं भामियं जस्स ॥८॥ ___ अर्थः-योवनअवस्थामेंभी चंचलनेवाली स्त्रियोंकरके जिनका मन थोडाभी चलितनहीं हुआ ऐसे जानाहैप्रवचनका सद्भाव जिन्होंने ऐसे ॥८॥ मणपरमोहि पमुहाणि, परमपुरपट्टिएण जेण समं ।। समईकंताणि समत्त, भव्वजणजणिय सुक्खाणि ॥९॥ अर्थः-मनःपर्यव परमअवधिप्रमुख (१०) दसवस्तु मोक्षनगर प्राप्त भए जिन्होंके साथ चलीगई ऐसे समस्त भव्य प्राणियोंको उत्पन्न किया है सुख जिन्होंने ऐसे ॥९॥ For Private And Personal Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तं जंबुनामनामं, सुहम्मगणहारिणो गुणसमिद्धं । सीसं सुसीसनिलयं, गणहरपयपालयं वंदे ॥ १०॥ अर्थः-जम्बुस्खामी है नाम जिन्होंका ऐसे श्रीसुधर्मास्वामी गणधरके गुणसमृद्ध सुशिष्यस्थान ऐसेशिष्य गणधरपदके पालनेवालोंको नमस्कार करूं हूं ॥१०॥ संपत्तवरविवयं, वयत्थिगिहिजंबुनामवयणाओ। पालिययुगपवरपयं, पभवायरियं सया वंदे ॥११॥ अर्थ:-पाया है प्रधानविवेक जिन्होंने व्रतके अर्थी गृहस्थाश्रममें रहे जम्बुकुमरके वचनसे चारित्र लियाजिन्होंने ऐसे पालनकिया है युगप्रधानपदजिन्होंने ऐसे प्रभवखामी आचार्यको मैं निरंतर नमस्कार करूं हूं ॥ ११ ॥ कट्टमहो परमो यं, तत्तं न मुणिजइत्ति सोऊणं । सजंभवंभवाओ, विरत्तचित्तं नमंसामि ॥ १२॥ अर्थः-अहो यह परमकष्ट है तत्व नहीं जानते हैं ऐसा सुनके शय्यंभवभट्ट संसारसे विरक्त भया है चित्त जिसका ऐसे चारित्र लेके युगप्रधानपद पाया जिन्होंने ऐसे शय्यंभवसरिको मैं नमस्कार करता हूं ॥ १२ ॥ संजणियपणयभदं, जसभई मुणिगणाहिवं सगुणं । संभूयंसुहसंभूई, भायणं सूरि मणुस्सरिमो ॥ १३ ॥ अर्थः-उत्पन्न किया है नमस्कार करनेवालोंको कल्याण जिन्होंने ऐसे मुनिगणके स्वामी गुणसहित यशोभद्रसरि और सुखसम्पदाके भाजन ऐसे संभूतिविजयआचार्यका स्मरण करें ॥ १३ ॥ For Private And Personal Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१२ सुगुरुतरणीइ जिणसमय, सिंधुणो पारगामिणो सम्मं । सिरिभ बाहुगुरुणो यिए नामक्खराणि धरिमो ॥ १४ ॥ अर्थ:-सुगुरुरूप जहाजसे जैनसिद्धान्तसमुद्रका पारगामी सम्यक् ऐसे श्रीभद्रबाहुगुरुका मनमें नामाक्षर धारण करें ॥ १४ ॥ सो कहं न थूलभद्दो लहइ सलाहं मुणीणं मझंमि । लीलाइ जेण हणिओ सरहेण व मयणमयराओ ॥ १५॥ अर्थ: - वह थूलभद्रखामी मुनिगणमें कैसे प्रशंसा नहीं पावे जिसने लीलासे कामरूप मृगराजको अष्टापद सदृश होके हना ॥ १५ ॥ कामपईव सिहाए, कोसाए बहुसिणेह भरिआए । घणदजणपयंगाएवि, जीए जो झामिओ नेया ॥ १७ ॥ अर्थः- कामप्रदीपशिखा ऐसी कोशावेश्या बहुतस्नेहसे भरी भई बहुतजन पतंगदग्धभए जिससे ऐसीमेंभी नहीं ही दग्धभए ऐसे ॥ १६ ॥ जेण रविणेन विहिए, इह जणगिहे सप्पहं पयासंती । सययं सकज्जलग्गा, पहयपहा सा समिद्धावि ॥ १७ ॥ अर्थः- जिसने सूर्यके जैसी यहां लोगों के घरमें स्वप्रभाका प्रकाश निरंकिया तर खकार्य में लगी भई स्नेहवतीकी प्रभा नष्ट करी ॥ १७॥ जेणासु साविया साविया, चरणकरणसहिएन । सपरेसिं हियकए सुकय जोगउ जोगयं हुं ॥ १८ ॥ अर्थ :- जिसने शीघ्रचरणकरणसहित स्वपरहितकेलिये सुकृतके योग से योग्यतादेखके जिनवचनसुनाके श्राविका करी ॥ १८ ॥ For Private And Personal Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar ३१३ तमपच्छिमं चउद्दस, पुवीणं चरणनाणसिरिसरणं । सिरिथूलभद्दसमणं, वंदे हं मत्तगय गमणं ॥ १९ ॥ अर्थः वह अंतके चतुर्दशपूर्वधारी ज्ञान चरण लक्ष्मीके शरण ऐसे श्रीःस्थूलभद्राचार्यको मैं नमस्कार करूं ॥ कैसे हैं स्थूलभद्रसूरि हाथीके जैसा है गमन जिन्होंका ॥ १९ ॥ विहिया अणमूहियविरियसत्तिणा सत्तमेण संतुलणा। जेणाजमहागिरिणा, समईकते वि जिणकप्पे ॥२०॥ अर्थः-की है अनवगुप्तवीर्यशक्तिकरके जिसउत्तम पुरुषने जिनकल्पीपना विच्छेद होनेसेभी तुलना जिन्होंने ऐसे श्रीआर्यमहागिरिः आचार्यको नमस्कार होवो ॥ २० ॥ तस्स कणिहूं लटुं, अजमुहत्थि सुहात्थिजणपणयं। अवहत्थियसंसारं, सारं सूरि समणुसरिमो ॥२१॥ अर्थः-आर्यमहागिरिके छोटे भ्राता आर्यसुहस्तिमरिः सुखार्थीलोगोंने नमस्कार किया है जिन्होंको ऐसे दूरकिया है संसारजिन्होंने ऐसे श्रेष्ठ आचार्योंका हम संस्मरणकरें ॥ २१ ॥ अजसमुदं जणयं, सिरीइ वंदे समुद्दगंभीरं । तह अजमंगुसूरिं, अजसुधम्म य धम्मरयं ॥ २२ ॥ अर्थः-आर्यसमुद्रसरिः लक्ष्मीकाजनक और समुद्रके जैसा गंभीर तथा आर्यमंगुस्सरिः और धर्ममेरक्त ऐसे आर्यसुधर्म सूरिः को नमस्कार करें ॥ २२ ॥ For Private And Personal Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१४ मणवयणकायगुत्तं, तं वंदे भद्दगुत्तगणनाहं । जइ जिमइ जई जम्मंडलीए, पत्तोमरई तेहिं समं॥२३॥ अर्थः-मनवचनकायकरके गुप्त ऐसे भद्रगुप्तआचार्यको नमस्कार करूं, जो यतिः जिन्होंकी मंडली में प्राप्त भोजन कर उन्होंके साथ मरण पावे ऐसे ॥ २३॥ छम्मासिएण सुकयाणुभावओ जायजाइसरणेणं । परिणामओ णवजा, पव्वजा जेण पडिवत्ता ॥ २४ ॥ अर्थः-छै महीनोंका होनेसे सुकृतके प्रभावसे भया है जातिस्मरण जिसको ऐसे परिणामसे निरवद्य प्रव्रज्या अंगीकार करी जिसने ऐसे ॥ २४ ॥ तुंववणासंनिवेसे, जाएणं नंदणेणं नंदाए। धणगिरिणो तणएणं, तिहुयणपभुपणयचरणेणं ॥२५॥ अर्थः-तुंववनसंनिवेशमें धनगिरिका पुत्र नंदासे उत्पन्न भया ऐसा तीनभवनके प्रभुके चरणोंमें नमस्कार किया है जिसनें ऐसे अथवा तीनभवनके लोगोंने नमस्कार किया है जिसको ऐसे ॥२५॥ इग्गारसंगपाढो, कओदढं जेण साहुणीहितो। तस्स इझायझ्झयणुजएण, वयसा छवरिसैणं ॥ २६ ॥ अर्थः-इग्यारहअंगकापाठ साध्वियोंसे सुनके दृढकंठकिया है जिसने स्वाध्यायअध्ययनमें उद्यत ६ वर्षकी उमर जिसकी ऐसा ॥२६॥ सिरिअन्नसीहगिरिणा, गुरुणा विहिओ गुणाणुरागेणं । लहुओ वि जो गुरुकओ, नाणदाणओ सेससाहणं ॥२७॥ For Private And Personal Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३१५ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थः- श्री आर्यसिंहगिरिगुरूने गुणानुरागकरनेसे लघुवयकोंभी पाठकपद में स्थापित किया ऐसा और साधुओंको ज्ञान देनेवाला ऐसा ॥ २७ ॥ उज्जेणीए गहिअब्बओ, लहुगुझ्झगेहिं वरिसंते । जो सुजइत्ति निर्मितियपरिक्खिओ पत्ततव्विज्जो २८ अर्थः- गृहीतव्रतउज्जैनी नगरी में यक्षोंनेवरसात के समय में परीक्षाकरनेके लिये आमंत्रण किया और शोभन यह यति है ऐसा जानके देवोंने विद्या दिया ।। २८ ॥ उद्धरिया जेण पयाणुसारिणा गयणगामिणीविज्जा । सुमहापईन्नपुव्वाओ, सव्वहा पसमरसिएण ॥ २९ ॥ अर्थ :- जिसने पदानुसारीसुमहाप्रकीर्ण पूर्वसे सर्वथा समपरिणाममें रक्त ऐसोंने आकाशगामिनीविद्याका उद्धारकिया ऐसे ॥ २९ ॥ दुकालंमि दुवालस, वरसियंमि श्रीयमाणे संघभि । विज्ञावलेणमाणियमन्नं, जेणन्नक्खित्ताओ ॥ ३० ॥ अर्थः- बारहवर्षकेदुः काल में संघखेदपातेहुएको विद्याके बलसे और ठिकानेसे अन्नप्राप्तकिया ऐसे ॥ ३० ॥ सुररायचायविभ्भमभमुहाधणुमुक्कन यणवाणाए । कामग्गिसमीरणविहियपात्थणावयणघट्टणाए ॥ ३१ ॥ अर्थः- इन्द्रधनुपके जैसा भ्रूरूप धनुषसे फेंका है नेत्रप्रान्तरूप चाण जिसने ऐसी कामाग्नि वायुसेकरी है प्रार्थना वचनरूप चेष्टा जिसने ऐसी ॥ ३१ ॥ For Private And Personal Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लटुंगपइहाए, सिढिसुयाए विसिचिट्ठाए। गुणगणसवणाओ जस्स, दंसणुकंट्ठियमणाए ॥ ३२॥ अर्थः-मनोहर है अंग जिसका ऐसी सेठकी पुत्रीने साध्वियोंके मुखसे गुणगणश्रवणसे जिसके दर्शनकीउत्कंठामनमें भई विशेष कामकी चेष्टावाली ऐसी ॥ ३२ ॥ निजजणयदिन्नधणकणयरयणरासीए जो ण कन्नाए । तुच्छमवि मुच्छिओ, जुव्वणे वि धनियं धनड्ढाए ॥३३॥ अर्थः-अपनेपितानेदिया धनसुवर्ण रत्नकीराशि ऐसी अत्यन्तधनाढ्यकन्यापर यौवनअवस्थामेंभी मूछितनहीं भए ऐसे ॥३३॥ जलणगिहाओ माहेसरीए, कुसुमाणि जेण समाणित्ता। तिवनियाणं माणो, मलिओ संघुन्नई विहिया ॥ ३४ ॥ अर्थः-ज्वलनदेवका मंदिरवालाउद्यानमाहेश्वरीनगरीमेंथा वहांसे पुष्पलाके बौद्धोंका मान म्लान किया संघकीउनतिकरी ऐसे वज्रस्वामी ॥ ३४॥ दूरोसारिय वइरो, वयरसेननामेण जस्स बहुसीसो। सासो जाओ जाओ, जयम्मि जायाणुसारिगुणो॥३५॥ अर्थः-दूर किया है वैर जिन्होंने ऐसे वज्रसेन नामके जिन्होंके शिष्य बहुतशिष्योंका परिवार है जिसके ऐसा जगत्में प्रसिद्ध गीतार्थानुसारि गुणजिन्होंका ॥ ३५॥ कुंकुणविसए सौपारयंमि, सुगुरुवएसओ जेण । कहिय सुभिक्खमविग्घ, विहिओ संघो गुणमहग्यो ३६ For Private And Personal Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१७ अर्थः- कोंकणदेशमें सोपारक नगरमें सुगुरूके उपदेशसे जिसने सुमिक्षकहके गुण से पूजित संघकाविघ्नदूरकिया ऐसा ॥ ३६ ॥ तमहं दसपुव्वधरं, धम्मधुराधरणं सेससमविरियं । सिरिवइरसामिसूरिं, वंदे थिरियाइ मेरुगिरिं ॥ ३७ ॥ अर्थः- दशपूर्वके धारनेवाले धर्मरूपधराकेधारने में शेषनागके जैसा है पराक्रमजिन्होंका ऐसे मेरुगिरी के जैसानिश्चल ऐसे श्रीवज्रस्वामीआचार्यको मैं नमस्कार करूं ॥ ३७ ॥ निअजणणिवयणकरणंमि, उज्जओ दिट्ठिवायपढणत्थं । तोसलिपुत्तंतगओ ढट्टरसढाणुमग्गेण ॥ ३८ ॥ अर्थः- अपनीमाता कावचन करनेमेंउद्यत दृष्टिवादपढ़नेके लिये तोसलिपुत्रआचार्य के पासमें गया ढड्डरश्रावकके साथमें उपाथयमें प्रवेश किया ॥ ३८ ॥ सड्डाणुसारओ विहिय, सयलमुणिवंदणो य जो गुरुणा । अकाणुवंदणो सावगस्स, जो एवमिह भणिओ ॥ ३९ ॥ अर्थः - श्रावक के अनुसारसे किया है सम्पूर्णमुनियोंकोवंदन जिसने और श्रावकको नहीं किया नमस्कार जिसने ऐसेको गुरुने इस प्रकार से कहा ऐसा ॥ ३९ ॥ को धम्मगुरु तुह्माणमित्थय तेणावि विणय पणएणं । गुरुणो निदंसिओ स ढदूरसढोवियट्टेण ॥ ४० ॥ अर्थ:- तुम्हारा धर्मगुरू यहांकौन है तब उसविचक्षणनेभी विनयसे नम्र होके, गुरूसे दिखाया यह ढट्टरश्रावक है ॥ ४० ॥ For Private And Personal Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१८ अकगुरुणिण्हवेणं सूरियासंमि जिणमयं सोउ । परिवज्जिय सावळं पवज्जागिरिं समारूढो ॥ ४१ ॥ अर्थ:- नहीं किया है गुरूकानिषेधजिसने ऐसा आचार्यके पास जैनधर्म सुनके सावद्यका त्याग किया और प्रव्रज्यापर्वतपर आरूढ़ भया अर्थात् दीक्षा लिया ॥ ४१ ॥ सीहत्तानिक्खतो सीहत्ताए य विहरिओ जोउ । साहियनवपुव्वसुओ संपत्तमहंत सूरिपओ ॥ ४२ ॥ अर्थ :- सिंहके जैसा निकले औरसिंहके जैसाही विचरे और कुछ अधिक नव पूर्वपदे और आचार्यपद पाया ऐसे ॥ ४२ ॥ सुरवरपहु पुट्ठेणं महाविदेहमि तित्थनाहेणं । कहिउ निगोयभूयाणं भासओ भारहे जोउ ॥ ४३ ॥ अर्थ:- इन्द्रने प्रश्न किया महाविदेहक्षेत्र में तब सीमन्धरस्वामीने कहा निगोदके जीवोंका स्वरूपकहनेवाला भरतक्षेत्रमें इसवक्त में आर्यरक्षित सूरि: है ॥ ४३ ॥ जस्स सयासे सक्को माहणरूवेण पुच्छर एवं । भयवं फुड मन्नेस अ मह किन्तियमाउयं कहसु ॥ ४४ ॥ अर्थ :- जिसके पास इन्द्रः ब्राह्मण के रूपसे इस प्रकारसे पूछ हे भगवन आप प्रगट जानते हैं मेराआयुष्य कितना है सो कृपाकरके कहो ॥ ४४ ॥ सक्को भवन्ति भणिओ मुणिओ जेणाउयप्पमाणेण । पुट्ठेण निगोयाणं वि वण्णणा जेण निहिट्ठा ॥ ४५ ॥ For Private And Personal Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Ach अर्थः-इन्द्रसें भगवान्ने आयुःका प्रमाण कहा बाद इन्द्रने निगोदका स्वरूप पूछा आचार्यने कहा ॥ ४५ ॥ हरिसभरनिम्मरेणं हरिणा जो संत्थुओ महासत्तो। जेण सपयम्मि सूरी वि ठाविओ गुणिसु बहुमाणो ॥४६॥ अर्थः-हर्षके समूहसे निर्भर इन्द्रने जिस महासात्विककी स्तुति करी जिस आचार्य ने अपने पदमें आचार्य स्थापा गुणीमें बहुमान होवे है ऐसा विचारके ऐसे ॥ ४६ ॥ रक्खियचरित्सरयणं पयडियजिणपवयणं । वंदामि अज्ज रक्खियमलक्खियंतं क्खमासमणं ॥४७॥ अर्थः-चारित्ररत्नकीरक्षाकियाहै जिसने जैनसिद्धान्तका प्रथम अनुयोग कियाजिसने प्रशान्तमनजिसका ऐसे गंभीर अंतःकरणजिन्होंका ऐसे क्षमाश्रमणआर्यरक्षितमरिःको मैं नमस्कार करूं ॥४७॥ तयणुजुगपघरगुणिणो जाया जायाणं जे सिरोमणिणो। सन्नाणचरणगुणरयणजलहिणो पत्तसुयनिहिणो ॥४८॥ अर्थः-उन्होंके अनन्तर आचार्यों में शिरोमणिः सज्ञान चरणगुणरत्नोंकेसमुद्र, पायाहैश्रुतनिधानजिन्होंने ऐसे युगप्रधान आचार्यभए॥४८॥ परवादिवारवारणवियरणे जे मियारिणो गुरुणो । ते सुगहिय नामाणो, सरणं मह हंतु जइपहुणो ॥४९॥ अर्थ:-परवादीरूपहाथियोंकोविदारण करनेमें सिंहके जैसे ऐसे जे गुरुः सुगृहीतनामधेय उनआचार्योका मेरेको शरण होवो॥४९॥ For Private And Personal Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२० पसमरइपमुहपयरण, पंचसया सक्कया कया जेहिं । पुव्वगयवायगाणं, तेसि मुमासाइ नामाणं ॥५०॥ अर्थ:-असमरतिः प्रमुख पांचसै प्रकरण जिन्होंने बनाया पूर्वगत श्रुतके वाचक ऐसे उमास्वातिः नाम वाचकके ॥ ५० ॥ पडिहयपडिवक्खाणं, पयडीकयपणयपाणिसुक्खाणं । पणमामि पायपउमं, विहिणा विणएण निच्छउमं ॥५१॥ अर्थः-दूरकिया है प्रतिपक्षजिन्होंने और प्रगटकियाहै नमस्कारकरनेवालेप्राणियोंको सुख जिन्होंने ऐसे उमास्वातिः आचार्यके विधियुक्तविनयसे निष्कपटहोके चरणकमलोंको नमस्कार करूं ॥५१॥ जाइणिमहयरिया, वयणसवणओ पत्तपरमनिवेओ। भवकारागाराओ, साहंकाराओ नीहरिओ ॥ ५२ ॥ अर्थः-याकिनीमहत्तराके वचन श्रवण करनेसे पाया परमवैराग्यजिसने ऐसे भवकारागारसेही अपने अहंकारसे निकले ऐसे ॥५२॥ सुगुरुसमीवोवगओ, तदुत्तसुत्तोवएसओ जोउ । पडिवन्नसधविरइ, तत्तरई तत्थ विहियरई ।। ५३ ॥ अर्थः-गुरुके समीपमें गए गुरूका कहाहुआ सूत्रकाउपदेशसे तस्वरुचिमें भई प्रीतिजिन्होंकी ऐसे सर्वविरति अंगिकार किया ऐसे ॥ ५३ ॥ गुरुपारतंतउपगत, गणियओवि मुणिय जिणमयंसम्म । मयरहिओ सपरहियं, काउमणो पयरणे कुणइ ॥५४॥ For Private And Personal Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar ३२१ अर्थः-गुरूके आधीन होनेसे पाया है गणिपद जिसने सम्यक जैनधर्मको मानके मदरहित वपरहितकरनेकामनजिन्होंका ऐसे प्रकरण करे ॥ ५४॥ चउदससयपयरणगो, विरुद्धदोस सया हयप्पओसो। हरिभद्दो हरियतमो, हरिव जाओ जुगप्पवरो ॥५५॥ ___ अर्थः—चौदह सै चवालीस (१४४४) प्रकरणके कर्ता ऐसे रोका है दोषोंको जिन्होंने ऐसे अज्ञानरूपअंधकारको दूरकरनेवाले ऐसे युगप्रधान सूर्यके जैसे हरिभद्रसूरिः भए ॥ ५५॥ उदयंमि मिहरि भई, सुदिद्विणो होइ मग्ग दंसणओ। तहहरिभद्दायरिए, भद्दायरियंमि उदयमिए ॥५६॥ अर्थः-सूर्यके उदयहोनेसे मार्गके देखनेसे सुदृष्टिवालोंको भद्र होवे है वैसा कल्याणके आचरणमें सूर्योदयके जैसे हरिभद्राचार्य भए ।। ५६ ॥ जंपइ केई समनामा, भोलिया भोलिंयाइं जपंति । चीयावासि दिक्खिओ, सिक्खिओ यगीयाण तं नमयं ५७ __अर्थः-जिसहरिभद्रसरिको कईक सदृश नामहोनेसे भ्रांतिसे चैत्यवासियोंमेंदीक्षालिया शिक्षाग्रहणकिया उन्होंको नमस्कारकरो ऐसा मिथ्या कहते हैं ॥ ५७ ॥ हयकुसमयभडजिणभडसीसो सेसुव्व धरियतित्थधरो। जुगपवरजिणदत्तपहुत्तमुत्ततत्तत्थरयणसिरो॥५८॥ अर्थः-दूरकियाहै कुत्सितमत भट्ट जिनभट्टकाशिष्य शेषनागके २१ दत्तसूरि० For Private And Personal Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२२ जैसा जैन सिद्धान्तको धारणकरनेवाला ऐसा युगप्रवर जिनदत्तआचार्यनें कहा सूत्रोंका तत्वार्थरत्नोंको धारनेवाला ऐसा ॥ ५८ ॥ तं संकोsयकुसमयकोसिअकुलममलमुत्तमं वंदे । पणयजणदिन्नभद्दं, हरिभद्दपहुं पहातं ॥ ५९ ॥ अर्थः- वह संकोचित किया है कुसमय कौशिकका कुल जिसने और नमस्कार किया है जिन्होंने ऐसे लोगके कल्याण करनेवाले निर्मलउत्तम प्रकाश करते हुए ऐसे हरिभद्र आचार्यों को मैं नमस्कार करूं ॥ ५९ ॥ आधारवियारणवयण, चंदियाद लियसयलसंतावो । सीलिंको हरिणकुत्र सोहइ कुमुयं वियासंतो ॥ ६० ॥ अर्थः- आचारविचारणरूपवचनचन्द्रिकासे दूर किया है सम्पूर्ण संताप जिन्होंने ऐसे कुमुदको विकसित कर्ता चंद्रके जैसा सीलंकाचार्य शोभते हैं ॥ ६० ॥ तयनंतरं दुत्तरभवसमुद्दमजंतभव सत्ताणं । पोघाणुव सूरीणं, जुगपवराणं पणिवयामि ॥ ६१ ॥ अर्थः- तदनंतर दुस्तरभवसमुद्रमें डूबते हुए भव्यप्राणियों को तारमें जहाज जैसे युगप्रधान आचार्योंको नमस्कार करूं ।। ६१ ।। गयरागरोसदेवो, देवायरिओ य नेमिचंद गुरु । उज्जोयणसूरिगुरु, गुणोह गुरुपारतंतगओ ॥ ६२ ॥ अर्थः-- गतरागद्वेषदेव के जैसे देवाचार्यनेमिचंद्रसूरि और उद्यो तनसूरि गुरुपारतंत्रगत गुणोके समूह ऐसे ।। ६२ । For Private And Personal Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३२३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिरिवद्धमाणसूरी, पवद्धमाणाइरित्तगुण निलओ । चियवासमसंगयमवगमित्तु वसहिहिं जोवसउ ॥ ६३॥ अर्थः - श्री वर्धमानसूरि प्रवर्धमानविशेषगुणकास्थान चैत्यवासको असंगत जानके वस्तीवासअंगीकार किया अर्थात् श्रीउद्योतनसूरिजीकेपास चारित्र उपसम्पत किया ।। ६३ ॥ तेसिं य पयपउम सेवारसिओ भमरुव सङ्घ भमरहिओ । ससमय पर समयपयत्थसत्थवित्थारणसमत्था ॥ ६४ ॥ अर्थः- श्री वर्धमानसूरिके चर्णकमलकी सेवामें रसिक भ्रमरसदृश सर्वभ्रमरहित स्वसमयपरसमयपदार्थसमूह के विस्तारणमें समर्थ ऐसे ॥ ६४ ॥ अणहिलवाडए नाडइव, दंसिय सुप्पत्त संदोहे | परपए बहुकविदूसगे य, सन्नायगाणुगए ॥ ६५ ॥ अर्थः- अणहिल्लपाटन नगरमें नाटकसदृश दिखाया सत्पात्रका समूहजिन्होंने बहुतपद और बहुतविदूषक जिसमें ऐसा सत् नायक अनुगत रहतेभी ।। ६५ ॥ सढिपदुलहराए, सरसह अंकोवसोहिए सुहए । मझे रायसहं पविसिऊण, लोयागमाणुमय ॥ ६६ ॥ अर्थः- श्रीमंत दुर्लभराजा मध्यस्थरहते सरस्वती अंकउपशोभित सुख देनेवाली राजसभा में प्रवेशकरके लोक आगम, अनुमत ॥ ६६ ॥ नामायरिहिं समं, करिय विधारं वियारर हिएहिं । वसइहिं निवासो साहूणं, ठाविओ ठाविओ अप्पा ॥६७॥ For Private And Personal Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२४ अर्थ:-विचाररहित ऐसे नामसे आचार्य ऐसे शूराचार्यादिकोंके साथमें विचारकरके साधुओंके वस्तिवास स्थापितकिया बहुतजीवोंको सन्मार्गमें स्थापा ॥ ६७॥ परिहरिय गुरुकमागयवरवत्ताए य गुज्जरत्ताए। वसहि निवासो जेहिं फुडी कओ गुजरत्ताए ॥ ६८॥ अर्थ-कितनेकसमयमें गुरुकमसेआयाहुआ प्रधानवर्ताव जिसगुजेरदेशमें चैत्यवासका परिहारकरके वस्तीनिवास जिन्होंने प्रगटकिया ऐसे जिनेश्वरसूरिआचार्य और ॥६८॥ तिजगयगयजीववंधूणं, य बंधु बुद्धिसागरसूरी।। कयवायरणो वि न जो, विवायरणकायरो जाओ॥१९॥ अर्थः-तीनजगत्के जीवोंकाबंधु ऐसा जो बुद्धिसागरमरि शास्त्रार्थरूप संग्राम किया है जिसने ऐसेभी विवादरणमें कायर न भए ऐसे ॥ ६९॥ सुगुणजणजणियभद्दो, सूरि जस्स विणेयगणप्पढमो, सपरोसि हियासुरसुंदरी कहा जेण परिकहिया ॥ ७० ॥ अर्थः-सद्गुणी लोगोंकों कल्याण किया है जिन्होंने ऐसे जिन्होंके शिष्यगणोंमें प्रथम शिष्य अपने और स्वपरकेहितकरनेवाली ऐसी सुरसुंदरी कथा जिसने रची ऐसे जिनभद्रसूरिः (गुणभद्र) ॥७॥ कुमयं वियासमाणो विहडावियकुमयचक्कवायगणो। उदयमिओ जस्सीसो, जयंमि चंदुव जिणचंदो ॥७१॥ अर्थः-भव्य कुमुदको विकासमानकर्ता कुत्सितमतरूप चक्रवाकके For Private And Personal Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२५ समूहको वियोगकर्ता उदयप्रातभये श्रीजिनेश्वरमरिके शिष्य जगत्में चन्द्रके जैसे श्रीजिनचंद्रसरिको मैं नमस्कार करूं ॥ ७१ ॥ संवेगरंगसाला विसालसालोवमा कया जेण। रागाइवेरि भयभीय भवजण रक्खणनिमित्तं ॥७२॥ अर्थ:-श्रीः जिनचन्द्रसरिने विशालसालाके जैसी उपमा ऐसी संवेगरंगशालानामकी ग्रंथपद्धति रची रागादिवैरियोंके भयसे डरेहुए भव्य प्राणियोंकी रक्षाके निमित्त ऐसे ॥ ७२ ॥ कयसिवसुहत्थि सेवो, भयदेवों वगयसमय पयक्खेवो। जस्सीसो विहियनवंगवित्ति जलधोय जललेवा ॥ ७३ ॥ अर्थ:-किया शिवसुखके आर्थियोंने सेवनजिन्होंका ऐसे अभयदेवसरि, जाना है सिद्धान्तका. परमार्थजिन्होंने ऐसे नवाझवृत्तिरूप जलसे धोया है अज्ञानरूप लेप जिन्होंने ।। ७३ ॥ जेण नवंगविवरणं, विहियं विहिणा समं सिवसिरीए । काउं नवंगविचरणं, विहियमुझिझयभवजुवइसंजोगं ॥७४॥ अर्थ:-जिसअभयदेवआचार्यने ठाणङ्गादि नवअङ्गका विवरण किया विधिः और शिवलक्ष्मीके साथ नवाङ्गका विचार करनेके लिए भवयुवतिके संयोगको छोड़के शिवस्त्रीका आश्रय किया जिन्होंने ॥ ७४ ॥ जेहिं बहुसीसेहि, शिवपुरपहपत्थियाणं भवाणं । सरलो सरणी समगं कहिओ ते जेण जत्ति तयं ॥५॥ अर्थः-बहुत शिष्योंकरके सहित ऐसे श्रीअभयदेवसरिः महा For Private And Personal Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar ३२६ राजने मोक्षनगरके मार्गमें चलेहुए भव्योंको शरलमार्ग कहा जिससे वह सुखसे जावें ॥७५ ॥ गुणकणमवि परिकहिउँ, न सकई सक्कई वि जेसि फुडं। तसि जिणेसरसूरीणं, चरण सरणं पवजामि ॥ ७६ ॥ - अर्थ:-जिन्होंके सामने अच्छाकवि भी गुणका कण कहनेको नहीं समर्थ होवे है उन जिनेश्वरसूरि के चोंका शरण मैं अंगीकार करूं ॥ ७६ ॥ युगपवरागमजिणचंदसूरि विहिकहिय सूरि मंतपयो। सूरी असोगचंदो, महमणकुमुयं विकासेउ ॥ ७७॥ ___ अर्थः-युगप्रवर आगम जिन्होंका ऐसे श्रीजिनचंदसरि आचार्यका जो सूरिमंत्रपद उसका विधि कहा जिन्होंने ऐसे अशोकचंदसूरिः मेरे मनकुमुदको विकासित करो ॥ ७७॥ कहिय गुरु धम्मदेवो, धम्मदेवो गुरुउवझ्झाओअ । मझ्झावि तेसिं य दुरंत दुहहरो सो लहु होउ ॥७८॥ अर्थः-कहा गुरुधर्मदेव वेंहि गुरुः उपाध्यायपदधारक ऐसे मेरेभी दुरन्त दुःखके हरनेवाले ऐसे उनके प्रसादसे शीघ्रकल्याणकी प्राप्तिः होवे ॥ ७८ ॥ तस्स विणेओ निद्दलिअगुरुगओ जो हरिव हरिसीहो। . मझ्झगुरु गणि पवरो, सो महमणवंच्छियं कुणउ ॥ ७९ ॥ अर्थः-धर्मदेव उपाध्यायके शिष्य कुत्सितमतरूप बड़े हाथीको दलन करनेमें सिंह जैसे हरिसिंह आचार्य मेरेगुरुः गणिप्रवर वह मेरेको मनोवांछित देवो ॥ ७९ ॥ For Private And Personal Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तेसिं जिट्टो भाया, भायाणं कारणं सुसीसाणं । गणि सबदेव नामो, न नामिओ केणइ हटेण ॥८॥ अर्थः-उन्होंका बड़ाभाई सुशिष्योंके भाग्यका कारण सर्वदेव नाम उपाध्याय जिन्होंको किसीने वादमें नहीं नमाया बला कारसे ॥ ८० ॥ सूर ससिणो विन समा, जेसिं जं ते कुणंति अत्थमणं । नक्खत्त गया मेसं मीणं मयरं विभुंजते ॥ ८१ ॥ अर्थः-सूर्यः चन्द्रमाभी जिन्होंके समान नहीं है कारण अस्त होते हैं नक्षत्र गतिमें मेष, मीन, मकर राशिको भोगवते हैं ॥८॥ जेर्सि पसाएण मए, मएण परिवज्जियं पयं परमं । निम्मलपत्तं पत्तं, सुहसत्त समुन्नइ निमित्तं ॥ ८२॥ अर्थः-जिन्होंके प्रसादसे मैंने मदरहित परमपद निर्मल पात्रपना पाया शुभ प्राणियोंकी उन्नतिका कारण ॥ ८२ ॥ तेसिं नमो पायाणं, पायाणं जेहिं रक्खिया अह्म । सिरिसूरिदेवभदाणं, सायरं दिनभदाणं ॥ ८३॥ अर्थः-उन्होंके चरणोंमें नमस्कार होवे जिन्होंने हमको संसारसे बचाया श्रीदेवभद्रसूरिको आदरसहित नमस्कार करें कैसे हैं देवभद्रसूरि किया है कल्याण जिन्होंने ॥ ८३॥ सूरिपदं दिन्न मसोगचंदसूरीहिं चत्तभूरीहिं। तेसि पयं मह पहुणो, दिन्नं जिणवल्लहस्स पुणो॥८४॥ अर्थः-अशोकचंदररिने दिया है आचार्यपद बहुतसोंको छोड़के For Private And Personal Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३.२८. जिन्होंने ऐसे मेरे प्रभुः जिनवल्लभगणिको आचार्यपद दिया ॥ ८४ ॥ अत्थगिरि मुवगएसिं, जिणजुगपवरागमेसु कालवसा । सूरमिष दिट्ठिहरेण विलसियं मोह संतमया ॥ ८५ ॥ अर्थ :- जिनयुगप्रवरागम कालवशसे सूर्य के जैसा अस्त होगया agat हरनेवाला मोह अंधकार फैला ऐसे ॥ ८५ ॥ संसारचारगाओ, निवण्णेहिं पि भव जीवेहिं । इच्छतेहिमवि मुक्खं, दीसह मुक्खारिहो न पहो ॥ ८६ अर्थः - संसारबन्दीखानेसे निर्वेदपाए भव्यजीव मोक्षमार्गकी इच्छा कर्ते हुओं को मोक्षमार्ग देखने में नहीं आता है ॥ ८६ ॥ फुरियं नक्खत्तेहिं महा गहेहिं तओ समुल्लसियं । बुट्टीरयणि परेण वि, पाविआ पत्तवसरेण ॥ ८७ ॥ अर्थ:-नक्षत्र स्फुरित हुआ महाग्रह उल्लसित भया इस अवसर में रजनी करनेभी वृद्धिः पाई ऐसा ॥ ८७ ॥ पासत्यकोसिअकुलं, पयडीहोऊण हंतु मारद्धं । काएका विधाए भावि भयं जंण तं गणइ ॥ ८८ ॥ अर्थ :- पात्थ रूप चैत्यवासी कौसिककुल प्रत्यक्ष होके हनना प्रारंभ किया छकायरूप काकोंके विघातमें भावीभय नहीं गिने ऐसे ॥ ८८ ॥ जाग्गंति जणा धोवा, सपरेहिं निव्वुद्धं समिच्छता । परमात्थ रक्खणत्थं सद्दं सहस्स मेलंता ॥ ८९ ॥ अर्थ :- अपने और परके सुखकीइच्छा करतेभए लोग थोड़े For Private And Personal Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२९ जागते हैं परमार्थरक्षणके लिये शब्दको शब्दसेमिलाते हुए ऐसे ॥ ८९ ॥ नाणासत्थाणि धरंतितेओ, जेहिं वियारिऊण परं । मुसणस्थ मागयं, परि हरंति निजीव मिह काउं ॥१०॥ अर्थः-नानाप्रकारके शास्त्रोंको धारते हैं वे तो जिन्होंसे विचारके परको मोषणके अर्थ आया हुआ उनोंको निर्जीव करके छोड़ते हैं ऐसे ॥९०॥ अविणासिय जीवं ते, धरंति धम्म सुवंसन्निप्पण्णं,। सुक्खस्स कारणं भय निवारणं पत्त निवाणं ॥ ९१ ॥ अर्थः-अविनाशि जीव सवंशमें निष्पन्न हुए ऐसे वह धर्मको धारण करे है भय निवारण सुखका कारण निर्वाण पाया जिन्होंने ऐसे ॥९१॥ धरिय किवाणा केई, सपरे रक्खंति सुगुरु फरयजुआ। पासत्थ चोर विसरो, वियार भीयो न ते मुसई ॥१२॥ अर्थ:-केईक धारण किया है दया कृपारूप तलवार जिन्होंने और सद्गुरुरूप ढाल युक्त ऐसे स्वपरकी रक्षा करते हैं पार्श्वस्थरूप चौरोंका फैलाव विचारसे डराहुआ वह नहीं लूट सकते हैं ९२ मग्गुमग्गा नजंति, नेय विरलो जणो त्थि मग्गण्णू। थोवा तदुत्तमग्गे, लग्गति न वीससंति घणा ॥ ९३ ॥ अर्थः-मार्ग उन्मार्गको बहुत लोग नहीं जानते हैं कोई विरला For Private And Personal Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३० मनुष्य जानता है उस कथितमार्ग में थोड़े लोग लगे हैं बहुत लोग विश्वास नहीं करते हैं ॥ ९३ ॥ अन्ने अण्णत्थीहिं सम्मं, सिवपहमपिच्छरेहिंपि । सत्था सिवत्थिणो चालियावि, पडि पडिया भवारपणे ९४ अर्थ:--और केचित् अन्यार्थियोंके साथ शिवपथकी अपेक्षा करते हुए भी शिवार्थी सार्थ चलाहुआभी भवारण्यमें गिरे ॥ ९४ ॥ परमत्थ सत्थ रहिए, भव सत्थेसु मोह निद्दाए । सुत्तेसु मुसिजंतेसु, पोढ पासत्थ चोरेहिं ॥ ९५ ॥ अर्थः- परमार्थ शस्त्ररहित भव्य प्राणीका साथ मोहनिद्रा करके सोते भएको प्रौढ़ पार्श्वस्थ चोरों ने लूटेभए ऐसे ॥ ९५ ॥ असमंजसमे आरिस, मवलोइअ जेण जाय करुणेण । एसा जिणाणमाणा, सुमरिया सायरं तहआ ॥ ९६ ॥ अर्थः- पूर्वोक्त ऐसा असमंजस देखके उत्पन्न भई हैकरुणा जिसको ऐसा उसवक्त में आदरसहित तीर्थंकरोंकी आज्ञाका स्मरण कराया जिन्होंने ऐसे ॥ ९६ ॥ सुहसीलतेण गहिए, भव पल्लितेण जगडि अमणाहे । जो कुणइ कूजियत्तं, सोवण्णं कुणई संघस्स ॥ ९७ ॥ अर्थ :- सुखशील चोरोंने ग्रहणकिया भवरूपपल्लीके मध्य में अनाथ प्राणियों को रोकके रक्खे जिसमें ऐसा जो पुकार करे वह संघ में प्रशंसा पावे ॥ ९७ ॥ तित्थयर रायाणो, आयरिआरक्खिअब तेहिं कया । पासत्थ प्रमुह चोरो, बरुद्ध घण भव सत्थाणं ॥ ९८ ॥ For Private And Personal Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३१ ... अर्थः-तीर्थकरराजाने आचार्यको आरक्षकके जैसाकिया पासत्था प्रमुख चौरोंसे रोकाहुआ है बहुत भव्य समूह ऐसा ॥ ९८ ॥ सिद्धिपुर पत्थियाणं, रक्खहायरिअवयणओ सेसा। अहिसेअवायणा चारिय, साहुणो रक्खगा तेसिं ॥१९॥ . अर्थः-मोक्षनगरकोचले उन्होंकी रक्षाकेवास्ते आचार्यके वचनसे अभिषेक किया है जिन्होंका ऐसे वाचनाचार्य साधु उन्होंका रक्षक ऐसे ॥ ९९॥ ता तित्थयराणाए, मयेविये हुंति रक्खणिज्जाओ। इय मुणिय वीरवित्ति, पडिवन्जिय सुगुरु संनाहं १०० अर्थ:-यह तीर्थकरकी आज्ञा करके मेरेभी ये रक्षा करने योग्य होवे है ऐसा जानके श्रीवीरकीवृत्ति जानके अथवा वृत्तिको अंगीकार करके सुद्गुरुरूपसन्नाह धारण किया अथवा सुगुरुने सन्नाह धारण किया ॥१०॥ करियक्खमा फलिअंधरिअ मक्खयं कयदुरुत्त सर रक्खं । तिहुअण सिद्धं तं जं, सिद्धंतमसि समुक्खविय॥१०१॥ _ अर्थः-अक्षत क्षमारूप ढाल करके किया है दुरुक्त शरका रक्षण जिसने ऐसा तूणीरको धारके तीन भवनमें सिद्ध ऐसे सिद्धान्तरूप खगको उठाके ऐसे ॥ १०१॥ निवाणवाणमणहं, सगुणं सद्धम्म मविसमं विहिणा। परलोग साहगं मुक्ख कारगं धरियं विप्फुरियं ॥१०२॥ अर्थः-निर्वाण वाण निर्दोषगुणसहित सद्धर्म अविषम ऐसा For Private And Personal Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३३२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विधिः करके परलोककासाधक मोक्षकाकारक देदीप्यमान धारके ।। १०२ ।। जेण तओ पासत्थाह, तेणसेणाविहक्किया सम्मं । सत्थेहिं महत्थेहिं विआरिऊणं च परिचत्ता ॥ १०३ ॥ अर्थः- उसके बाद जिसने पासत्यादि चौरोंकी सेनाकोभी हटा दिया सम्यक शास्त्र महार्थसे विचारके त्याग किया अथवा विदारण करके ऐसे ॥ १०३ ॥ आसन्नसिद्धिया भव सत्थिया, सिवपहंमि संद्वाविया । निघुइ मुवंति जहते, पडंति नभीय भवारपणे ॥ १०४ ॥ अर्थ :- आसन है मोक्ष जाना जिन्होंको ऐसे भव्यसमूह मोक्षमार्ग में चले मोक्ष पहुंचे और जैसे भवारण्यमें नहीं पड़े ऐसा १०४ मुद्राणाययणगया चुक्का मग्गाओ जायसंदेहा । बहुजणपिद्विविलग्गा दुहिणो हुया समाहूआ ॥ १०५ ॥ अर्थः- भोले लोग अनायतनमें गये उत्पन्न हुआ है सन्देह जिन्होंको ऐसे सन्मार्गसे च्युतभए बहुत लोग पीछे लगे दुःखी भए ऐसोंको बुलाया जिन्होंने ऐसे ॥ १०५ ॥ दंसियमाययणं तेसिं, जत्थ विहिणा समं हवइ मेलो । गुरूपारतंतओ समय सुत्थओ जस्स निष्पत्ती ॥ १०६ ॥ अर्थ:-दिखाया आयतन उन्होंको जहां विधिकेसाथ सम्बन्ध होवे गुरु परतन्त्रतासे और समयसूत्रसे जिसकी निष्पत्ति है ॥ १०६ ॥ For Private And Personal Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३३ दीसइय वीयराओ, तिलोयनाओ विरायसहिएहिं । सेविजंतो संतो, हरई तु संसार संतावं ॥ १०७॥ अर्थः-और देखनेमें आता है वीतराग तीनलोकके नाथ जो है सो वैराग्यसहित भव्योंसे सेव्यमान भए ऐसे संसाररूप संतापको हरे है ॥ १०७ ॥ वाइय मुपगीयं नमपि, सुयं दिढ चिट्ठमुत्तिकरं । कीरइ सुसावएहिं, सपरहियं समुचियं जुत्तं ॥१०८॥ अर्थः-वादित्रका बजाना और गाना और नाटकभी सुना देखा इष्ट मुक्तिका करनेवाला सुश्रावक स्वपरहित इकट्ठे होके करे है वह युक्त है ॥ १०८॥ रागोरगोवि नासइ, सोउं सुगुरुवदेस मंत पए। भवमणो सालुरं नासई दोसो वि जत्थाहि ॥ १०९॥ अर्थः-रागसर्पभी सुगुरुका उपदेशरूप मंत्र पद सुनके भग जाता है भव्यमनरूप दर्दुरको जहां दोषरूप सर्प नहीं खाता है ॥१०९॥ नो जत्थुस्सुत्त जणकमोत्थि, पहाणं वलि पइहा य । जइ जुवइपवेसोवि अ, न विजए विजए विमुक्को ॥११० अर्थः-जहां उत्सूत्र लोगोंका क्रम नहीं है मात्र, वलि, प्रतिष्ठा और यतिः युवतिका प्रवेशभी रात्रिमें है नही वहां मुक्ति विद्यमान है ॥ ११०॥ जिणजत्ताण्हाणाई, दोसाणं य ख्कयायकीरेति । दोसोदयंमि कह तेसिं, संभवो भवहरो होजा ॥१११॥ For Private And Personal Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३४ अर्थ :- जिनयात्रा स्नात्रादिक दोषक्षयके वास्ते किए जाते हैं दोषके उदयमें उन्होंके भवहरणका संभव कैसे होवे है ॥ १११ ॥ जा रत्ति जारस्थिणमिह, रई जणइ जिणवरगि हेवि । सारयणी रयणिअरस्स, हेउ कह नीरयाणं मया ॥ ११२ ॥ अर्थ: - यह जो रात्रि तीर्थकरों के मंदिरों में भी जार स्त्रियोंको रति उत्पन्न करे है वह रात्रि पापसमूहका कारण किस प्रकार से निष्पापोंके इष्ट होवे है ॥ ११२ ॥ साहु सयणासणभोअणाई, आसायणं च कुणमाणो । देवहरण लिप्पड़, देवहरे जमिह निवसतो ॥ ११३ ॥ अर्थः साधुः जैनमंदिरमें सोना बैठना भोजनादि आशातना करता हुआ देवद्रव्यके उपभोगके पापसे लिप्त होवे है जो जिनमंदिरमें रहता है ॥ ११३ ॥ तंबोलो तं बोलइ, जिणवसहिट्ठिएण जेण खद्धो । खद्धे भव दुक्ख जले, तरइ विणा नेअ सुगुरुतरं १९४ अर्थः- तीर्थकरके मंदिरमें रहेहुये जिसने तांबूल खाया वह संसारमें डूबता है संसारसमुद्र में डूबता हुआ सुगुरुरूप जहाज सिवाय नहीं तरता है ॥ ११४ ॥ तेसिं सुविहिअजइणोय, दंसिआ जेउ हुति आययणं । सुगुरुजणपारतंतेण, पाविया जेहिं णाणसिरी ॥ ११५ ॥ अर्थः- सुविहित साधुओंने जो दिखाया वह आयतन होवे है जिन्होंने ज्ञानलक्ष्मी सुगुरु जन पारतन्त्रसे पाई है उन्होंके ॥ ११५ ॥ For Private And Personal Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३५ संदेहकारि तिमिरेण, तरलिअं जेसिं दसणं नेयं । निव्वुइ पहं पलोअइ, गुरुविजुव एस ओसहओ ॥११६ अर्थ:-सन्देहकारी तिमिरसे तरलित जिन्होंका दर्शन नहीं है वह गुरु वैद्यके उपदेश औषधसे मोक्षमार्गको देखते हैं ॥ ११६ ॥ निप्पचवाय चरणा, कजं साहंति जेउ मुत्तिकरं । मण्णंति कयं तं यं, कयंत सिद्धंउ सपरहिअं ॥११७॥ अर्थः-निर्दोष है चारित्र जिन्होंका ऐसे कर्मक्षयरूप कार्यको साधते हैं सिद्धांतसिद्ध स्वपरहित जो कार्यको मानते हैं वह।।११७॥ पडिसोएण जे पवद्या, चत्ता अणुसोअगामिनी वहा । जणजत्ताए मुक्का, मयमच्छर मोहओ चुका ॥ ११८ ॥ अर्थः-प्रतिश्रोत मार्गकरके (मोक्षसाधनमार्ग) प्रवर्तमान भया अनुश्रोतगामी मार्ग लोकयात्रा गृहव्यापारादिकसे छूट गये और मद मत्सर मोहसे रहित भए ॥ ११८ ॥ सुद्धं सिद्धंतकहं, कहंति वीहंति नो परेहितो। वयणं वयंति जत्तो, निव्वुइ वयणं धुवं होइ ॥ ११९ ॥ अर्थः-शुद्ध सिद्धांत कथा. कहे औरोंसे डरे नहीं वचन ऐसे बोले कि जिन्हांसे मोक्षमार्गमें निश्चय प्रवृत्ति होवे ॥ ११९ ॥ तविवरीआ अवरे, जइवेसधरावि हुंति नहु पुज्जा। तईसणमवि मिच्छत्तमणुक्खणं जणइ जीवाणं ॥१२०॥ अर्थः-उक्त गुणवालोंसे विपरीतयतिवेषधारनेवालेभी पूज्य For Private And Personal Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३६ नहीं होवे उन्होंका दर्शनभी प्रतिक्षण जीवोंके मिथ्याल उत्पन्न करे है ॥ १२० ॥ धम्मत्थीणं जेण, विवेयरयणं विसेसओ वि। चित्तउडे हिआणं, जं जणइ भवाण निवाणं ॥१२१ ॥ अर्थः-धर्मार्थी प्राणियोंके जिसने विवेकरनविशेषकरके चितौड़नगरमें रहेहुये हृदयरूप पात्र में स्थापा जो विवेकरत्न निर्वाणमुक्तिसुख भव्योंके उत्पन्न करता है ॥ १२१ ॥ असहाएणावि विहिय, साहिओ जो न सेससूरीणं । लोअणपहे वि वच्चइ, वुच्चइ पुण जिणमयण्णूहि ॥१२२॥ अर्थः-सहायरहित होकेभी जिसने विधिः मार्ग साधा जो अगीतार्थ और आचार्योंके दृष्टिपथमें नहीं आया ऐसा जैनधर्मका जाननेवाला कहे है ॥ १२२ ॥ घण जणपवाह सरिआण, सोअपरिवत्तसंकटे पडिओ। पडिसोएण णीओ, धवलेणवसुद्धधम्मभरो॥१२३॥ अर्थः-बहुत लोगोंका प्रवाह जो नदी उसको जो धारानुकूल आवर्तरूप संकटमें पड़ाहुआ प्राणियोंको प्रतिश्रोतमें लाए शुद्ध धर्मको धारणेवाले धवलधौरेयके जैसे ॥ १२३ ॥ कयवहुविजुजोओ, विसुद्धलद्धोदओ सुमेघुव। . सुगुरुच्छाइय दोसायरप्पहो प्पहयसंतावो ॥ १२४ ॥ अर्थः-किया है बहुत विद्यारूप बिजलीका उद्योत उस्से विशुद्ध पाया है उदय ऐसा सुमेघसदृश सुगुरुने दोषाकर चंद्रकी प्रभाका आच्छादन किया और संतापको मिटाया ऐसे ॥ १२४ ॥ For Private And Personal Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३७ सत्थव वित्थरिय, बुट्ठो कयसस्स संपओ सम्मं । नेव वायहओ न चलो, न गज्जिओ यो जए प्पयडो ॥ १२५ अर्थः- सर्वत्र विस्तारपाके वर्षा, अच्छीतरहसे धान वगैरह की उत्पत्ति करी जिसने वादरूप वायुसे नहीं नष्ट हुआ चंचल नही गाजाभी नहीं ऐसा जगतमें प्रसिद्ध ऐसे ।। १२५ ॥ कहमुचमिज्जइ जलही, तेणसमं जो जडाणं कय बुढी । तिसेहिंपिपरेहिं, मुअइ सिरिं पिहु महिज्जतो ।। १२६ ।। अर्थः- समुद्रकी उपमा कैसे करी जावे समुद्र पानीकी वृद्धिः करनेवाला है देवोंने मथा तब लक्ष्मी उत्पन्न भई उसको छोड़ दी ।। १२६ ।। सूरेण व जेण समुग्गयेण, संहरिय मोह तिमिरेण । सहीद्वीणं सम्मं, प्पयडो निब्बुई पहो हूओ ॥ १२७ ॥ अर्थ:- दूर किया है मोहरूप अंधकार जिनोंने ऐसा ऊगाहुआ सूर्यके जैसा जिणुने सम्यकदृष्टि जीवोंको मोक्षमार्ग दिखाया प्रगट किया ऐसा ॥ १२७ ॥ वित्थरियममलपत्तं, कमलं बहु कुमय कोसिया दुसिया । तेयस्सीणमपि तेओ, विगओ विलयं गया दोसा ॥ १२८ ॥ अर्थ : - विस्तार पाया है निर्मल पत्र जिसका ऐसा ज्ञानरूप कमल बहुत कुमतरूप घुग्घुओं करके दूषित हुवा तथापि तेजखि - ओंकाभी तेज नष्ट होनेसे दोष राग द्वेषादि नष्ट होगए ऐसे ॥ १२८ विमलगुण चकवायावि, सङ्घहा विहाटिया विसंघहिया । भ्रमरेहिं भमरेहिंपि, पावओ सुमण संजोगो ॥ १२९ ॥ २२ दत्तसूरि० For Private And Personal Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ:-निर्मलगुणवाले चक्रवाकभी अर्थात् ज्ञानादिगुणयुक्त ऐसे सर्वथा दूर होगए थे उन्होंको मिलाया परिभ्रमण करनेवाले ऐसे भ्रमरोंके जैसे साधुओंका सम्बन्ध किया ऐसे ॥ १२९ ॥ भव जण जग्गिय, मवग्गियं दुट्ट सावय गणेण । जलमवि खंडियं, मंडियं य महिमंडलं सयलं ॥ १३० ।। अर्थः-भव्यप्राणियोंको जगाया और चैत्यवासी श्रावकसमुदायने नहीं खंडन किया अर्थात् खंडन नहीं करसके जिसपर हाथ रक्खे उसका जाड्य नष्ट हो जाय ऐसे संपूर्ण पृथ्वीमंडलको शोभित करनेवाले ऐसे ॥ १३० ॥ अस्थमई सकलंको, सया ससंको विदंसिय पओसो। दोसोदये पत्तपहो, तेण समं सो कहं हुजा ॥ १३१ ॥ अर्थः-सदा कलंकसहित दिखाया है प्रदोष जिसने ऐसा चन्द्रभी अस्त होता है और रात्रिमें प्रकाश होता है जिसका ऐसे चन्द्रके समान वह कैसा होवे ऐसे ॥ १३१ ।। संजणिय विही संपत्त गुरुसिरी जोसया विसेस पयं । विण्णुव किवाण करो, सुर पणओ धम्मचक्कधरो १३२ अर्थ:-प्रचलित किया है विधिः वाद जिनोंने पाई है युगप्रधानपदरूप लक्ष्मी जिनोंने ऐसा जो निरंतर विष्णुके जैसा दया और आज्ञाका करनेवाला देवोंकरके वंदित ऐसा क्षमादि धर्मचक्रको धारनेवाला ऐसा ॥ १३२॥ दसियवयणविसेसो, परमप्पाणं य मुणइ जो सम्म। पयडि विवेओ छच्चरण, सम्मओ चउमुहुच जए ॥१३३॥ संजणिय किवाण करी है विधिः वादतर विष्णुके For Private And Personal Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३९ अर्थः-दिखाया है वचन विशेष परमात्मको अच्छीतरहसे माने ऐसा जो और प्रगट है विवेक जिसका षट्चरण नाम षवतरूप जो चारित्र वह है संमत जिसके चतुर्मुखके जैसा ॥ १३३ ॥ धरइ न कवडुयं पि कुणइ, न वंधं जडाण मवि कयाइ । दोसायरं य चकं, सिरंमि न चडावए कयापि ॥ १३४ ॥ __ अर्थः-एक कौड़ीभी नहीं धारै मूर्योका कभी भी संग्रह नहीं करे दोषाकर याने चन्द्र और चक्रको मस्तकपर नहीं धारे श्लेशार्थ है ॥ १३४ ॥ संहरइ न जो सत्तो, गोरीए अप्पए नो नियमगं । सो कह तविवरीएण, संभुणा सह लहिज्जु पमा ॥१३५॥ अर्थ:-जो प्राणियोंका संहरण न करे गौरीको अपना अंग नहीं देवे वह कैसे निर्मल चारित्र करके शंभुकी उपमाको प्राप्त होवे ऐसा ॥ १३५ ॥ साइसएसु सग्गं गयेसु, जुगप्पवरसूरिनिअरेसु । सबाओ विजांगाओ, भुवणं भमिऊण स्संताउ ॥१३६॥ अर्थः-सातिशई युगप्रधान आचार्योंका समूह स्वर्ग जानेसे सर्व विद्या अंगना जगत्में फिरके श्रांत भइ ॥ १३६ ॥ तह वि न पत्तं पत्तं, जुगवं जवयणपंकएवासं। करिय परुप्पर मचंत, पणयओ हुंति सुहिआओ १३७ अर्थः-तथापि पात्र नहीं पाया युगपद् जिसके मुख कमलमें निवास करके परस्पर अत्यन्त प्रीतिसे सुखी भई ॥ १३७ ॥ For Private And Personal Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३४० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अणुण्ण विरह विरोह, तत्तगत्ताओताओ तणाइओ । जायाओ पुण्णवसा, वासपर्यं पिजो पत्ता ॥ १३८ ॥ अर्थ :- परस्पर विरहसे पीड़ित दुःख परंपरासे तपाहुआ शरीर ऐसी वह दुर्बल अंगवाली भई तथापि पुण्यके वससे अपने निवासका स्थान पाया ॥ १३८ ॥ तं लहिअ विअसिआओ, ताओ तवयण सररुह गयाओ । तुट्ठाओ पुट्ठाओ, समगं जागाओ जिट्ठाओ ॥ १३९ ॥ अर्थः- जिनवल्लभरिको प्राप्त होके हर्षित भई विद्या अंगना उन्होंके मुखकमलमें गई संतुष्ट भई पुष्टभई एकही वक्तमें बड़ी होई ॥ १३९ ॥ जाया कइणोकेके, न सुमहणो परे मिहोवमं तेवि । पावंति न जेण समं, समंतओ सब कवण णिउं ॥ १४०॥ अर्थ :- कवि पृथ्वीपर कौन कौन न भए परन्तु यहां जिस प्रभुके साथ उपमा नहीं पावे है सम्यक बुद्धिवाले सर्व काव्यके नेता ऐसे || १४० ।। उवमिते सन्तो, संतोसमुवचिंति जंमि नो सम्मं । असमाण गुणो जो होइ, कहणु सो पावए उवमं ॥ १४१ ॥ अर्थ :- सज्जन जिसमें उपमान कर्ता सम्यक् संतोष नहीं पावे है कारण समानगुण जो न होवे वह उपमा कैसे पावे ॥ १४१ ॥ जलहिजलमंजलीहिं, जो मिणइ नहं गणं विहु पए हिं । परिचकमह सोवि न सक्कइत्ति, जा गुण गणं भणिउं १४२ For Private And Personal Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४१ अर्थः-समुद्रके जलका जो अंजलिसे प्रमाण करे आकाशको पगोंसे उल्लंघे वहभी जिन्होंके गुणके समूहको कहनेको समर्थ नहीं होवे ॥ १४२॥ जुगपवर गुरु जिणेसर, सीसाणं अभयदेव सूरीणं । तित्थभर धरण धवलाण, मंतिए जिणमयं विमयं १४३ अर्थः-युगप्रधानगुरु श्रीजिनेश्वरसरिके शिष्य अभयदेवसरि तीर्थभार धारणमें धौरेय समान उन्होंके पासमें जैन आगमविशेष करके जाना ॥ १४३ ॥ सविणय मिह जेण सुअं, सप्पणयं तेहिं जस्स परि कहियं । कहियाणुसारओ सवं, समुवगयं सुमणा सम्मं ॥१४४॥ अर्थः-विनयसहित इहां उन्होंने जिसको स्नेहसहित श्रुत कहा कथित अनुसार जिस सद्बुद्धिवालेने सुना और जाना प्राप्त किया ऐसा ॥ १४४ ॥ निच्छम्मं भवाणं, तं पुरओ पयडियं पयत्तेण । . अकय सुकयंगिदुल्लहजिण वल्लह सूरिणा जेण॥१४५॥ अर्थः-कपटरहित भव्योंके आगे वह सिद्धान्त प्रयत्नसे प्रगट किया, नहीं किया सुकृत ऐसे प्राणियोंको दुर्लभ ऐसे जिनवल्लभमरिने ॥ १४५ ॥ सो मह सुह विहिसद्धम्म दायगो तित्थनायगो अ गुरू । तप्पयपउमं पाविय, जाओ जायाणुजाओहं ॥ १४६॥ अर्थः-वह मेरेको शुभ विधिः सद्धर्मका देनेवाला तीर्थसंघका For Private And Personal Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४२ नायकगुरु धर्माचार्य उन्होंके चरणकमलको पार्क मैं गीतार्थोका अनुसरण करनेवाला भया ।। १४६ ॥ तमणुदिणं दिष्णगुणं, वंदे जिणवल्लहं पहुं प्पयओ । सूरिजिणेसरसीसोअ वायगो धम्मदेवो जो ॥ १४७ ॥ अर्थः- दिया है ज्ञानादि गुण जिन्होंने ऐसे जिनवल्लभसूरि प्रभुको निरंतर प्रयत्नसे नमस्कार करें और श्रीजिनेश्वररिके शिष्य वाचक धर्मदेव गणि और ॥ १४७ ॥ सूरीअसोगचंद्दो, हरिसींहो सङ्घदेवगणिष्यवरो । सवेवि तविणेया, तेसिं सबेसिं सीसोहं ॥ १४८ ॥ अर्थः- अशोकचन्द्रसूरि हरिसिंहसूर और सर्वदेवगणप्रवर सर्व जिनेश्वरसूरिके शिष्य धर्मदेवगणिके शिष्य उन सर्वोका मैं शिष्य हूं ।। १४८ ॥ ते मह स परमोवयारिणो वंदनारिहागुरुणो । कयसिवसुहसंपाता, तेसिं पाए सया वंदे ॥ १४९ ॥ अर्थ : - वह मेरे सर्व परम उपगारी नमस्कार करने योग्य गुरु आराध्य हैं किया है शिवसुख संपात जिन्होंने ऐसे उन्होंके चरणों में मैं निरंतर नमस्कार करूं ॥ १४९ ॥ जिणदत्तगणि गुणसयं, सपण्णयं सोमचंदबिंबं व । भवेहिं भणिज्जंतं, भवरविसंताव मवहरउ ॥ १५० ॥ अर्थः- जिनदत्तगणि गणधर उन्होंके गुणग्रहणरूप डेढ़ सौ (१५०) गाथाका यह प्रकरण पौर्णमासीके चंद्रबिंबके जैसा शीतल स्वभाववाला भव्यों करके पठ्यमान नाम पढ़ते गुणते सुनते भव For Private And Personal Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४३ रूपसूर्यका संताप दूरकरो ॥ १५० ॥ इति ॥ इसतरह गणधरोंका स्वरूप कह्योंके अनन्तर स्वसंवेदनसें तथा गुरुजन दर्शित संप्रदाय से और ग्रन्थान्तरसे किंचित् युगप्रधानोंका स्वरूप दिखाते हैं, इस पांचमें आरेके श्रीवीरप्रभुनें २३ उदय फरमायें हैं उन तेवीस उदयोंमें क्रमसें धर्मोन्नतिके करणेवाले युगप्रधानपदोपशोभित दो हजार चार (२००४) आचार्य होवेंगे और पांच में आरेके अंततक वृद्धिहानिके क्रमसें तेवीस वखत धर्मरूपी चंद्रोदय होगा, तत्र त्रयोविंशतिरुदयेषु वर्षादिकं निर्दर्श्यते सचैवं ॥ ९० ॥ नमः श्रीवीतरागाय नमः श्रीभद्रबाहवे, येन श्रीदुः षमाप्राभृतके, त्रयोविंशतिरुदयैः कृत्वा, चतुरधिकद्विसहस्रयुगप्रधानस्वरूपं वर्षादिसहितं प्रतिपादितमस्ति, तत्संख्या यथा ? पढमेवीस १, बीतेवीस २, तीइ अडनवई ३, चउत्थे अडसयरि ४, पंचमे पंचसयरि ५, छट्ठे गुणनवई ६, सत्तमे एगसयं ७, अट्टमे सगसी ८, नवमे पणनवई ९, दस सगसी १०, एगारसमे छत्तरि ११, बारसमे अट्ठहुत्तरि १२, तेरसमे चउणवई १३, चउदसमे अट्ठउत्तरस्यं १४, पनरसमे तिउत्तरसयं १५, सोलसमे सत्तोत्तरसयं १६, सत्तरसमे चउरुत्तरसयं १७, अट्ठारसमे पन्नरोत्तरसयं १८, इगुणवीसमे तित्तीसाहीयसय १९, वीसमेस २०, एगवीसमे पणनवई २१, बावीसमे नवनबई २२, तेवीसमे चालीसा २३, एवं चउरुत्तर दुस्स हसा २००४ For Private And Personal Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४४ तथा प्रवचनसारोद्धारप्रकरणे चतुषष्ट्यधिकद्विशततमद्वारे जादुप्पसहोसूरी, होहिंती जुगप्पहाण आयरिआ, . ... अजसुहम्मप्पभिई, चउरहीया दुनिसहस्सा ॥१॥ वृत्यैकदेश, आर्यः स चासौ सुधर्मस्तत्प्रभृतयः, प्रभृतिग्रहणात् , जंबूस्वामिप्रभवसिय्यंभवाद्यागणधरपरंपराः गृह्यन्ते इत्यादि, अपरं च कालसप्ततिकादीपोत्सवकल्पे च तथासिद्धिप्राभृतिकायां बारसवरसेहिं गोयम, सिद्धो वीराओवीसेहिं सुहम्मो, चउसट्ठीए जंबू, बोच्छिन्नातत्थदसट्टाणा ॥ ३५ ॥ मणपरमोहि पुलाए, आहारग खवग उवसमे कप्पे, संजमतिअ केवल सिझणा जंबूंमिबुच्छिन्ना ॥ ३६॥ सिजं भवेण विहिरं, दसवेयालिअ अट्टनवइ वरसेहिं, सत्तरिसएहिं १७० चुक्काचउपुवा भद्दबाहुमि ॥ ३७॥ तुहिंसु थूलभद्दे, दोसयपन्नरेहिं २१५ पुवअणुओगो, सुहुममहापाणाणिअ आयमसंघयण संठाणा ॥ ३८ ॥ पणसय चुलसीइसु ५८४, वयरेदसपुवा अहकीलियसंघयणं, छसोलेहिअ ६१६ थक्का, दुब्बलिए सडनवपुवा ॥ ३९ ॥ वजसेणे नवपुत्वा पच्छाकमेण हीरमाणा जावदेवाडिगणिखमासमणे साहियपुवसुयं, नवसयअसीए पुत्थयलिहणं, नवसयतेणउएहिं समइकत्तेवीराओकालगसूरिहितो चउत्थीए पतसवणकप्पो, तओपच्छावीराओ वाससहस्सेहि सच्चमित्ताओ पुवसुए बुच्छिन्ने, तओपच्छा उमासाइ हरिभद्दजिणभद्दगणिखमासमणे सीलांगसूरि जाववीराओ For Private And Personal Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar ३४५ साहियसोलसएहिं जिणदत्तसूरि कमेणजुगप्पहाणायरिआनेया, इचाइजावदुप्पसहोसूरि होहीति तावदहवं एतेषां स्वरूपं यंत्रेण दृश्यम् ॥ त्रयोविंशतिरुदयाः १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ १९ २० २१ २२ २३ त्रयोविंशतिरुदय २०, २३, ९८, ७४, ७५, ८९, १००, ८७, युगप्रधानसंख्याः ९५, ८७, ७६, ७८, ९४, १०८, १०३, १०७, १०४, ११५, १३३, १००, ९५, ९९, ४० सर्व २००४ त्रयोविंशतिरुदय ६१७, १३४६, १४६४, १५४५, १९००, वर्षसंख्या १९५०, १७७०, १०१०, ८८०, ८५०, ६५५, ४९०, ३५९, ४८९, ५७०, ५९०, ४४०, सर्ववर्ष २०९८७ १०, १०, ११, ८, ३, ९, ७, १०, १, २, त्रयोविंशतिरुदय भाससंख्या २३ त्रयोविंशति रुदयदिनानि ११ सवे मासवर्ष १२ १७, २९, २०, २९, २९, २२, २७, १५, १८, १२, १४, १९, २२, २५, २९, २०, २४, २, १७, २, ९, ५, १७, For Private And Personal Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २३ त्रयोविंशति रुदयप्रहराः 11 www.kobatirth.org ७, ७, ७, ७, ७, ७, ७, ७, ७, ७, ७, ७, ७, ७, ७, ७, ७, ७, ७, ७, ७, ७, १६१ 9, 27 ३४६ २३ त्रयोविंशति रुदयघटिका २३ त्रयोविंशति रुदयपलानि २३ त्रयोविंशति हृदयांशानि १६१ "" "" एवंच कालसप्ततिकायां सुहम्माइ दुप्पसहंता तेवीसउदएहिं चउजुअ दुसहस्सा, जुगपवर गुरुतस्तसंखा, इगारलरका सहससोलस ॥ ३३ ॥ गावयारि सुचरणा, समयविउ पभावगाय जुगपवरा, पावयणिआइदुतिगाइ वरगुणा जुगप्पहाणसमा ।। ३४ ।। तहसंघचउरी दुप्पसहो, साहुणीअ फग्गुसिरी, नाइलसड्डो, सड्डीसचसिरी अंतिमोसंघो ।। ५० ।। दसवेयालिअ १ जिअकप्पो २ssवस्सय ३, अणुओगदारं ४ नंदिधरो ५ सययं इंदाइनओ, छड्डुग्गतवो दुहत्थar || ५१ ॥ गिहिवयगुरु बारस, चउचउ वरिसो कय अट्ठमो यसोहम्म सागराउहोइ, तओसिझही भरहे ।। ५२ ।। तीर्थोद्वार प्रकीर्णके इत्युक्तं, वीसाए सहस्सेहिं पंचहियस एहिं होइ वरिसाणं सेवस गुवोछेदो उत्तरझाए ॥ १ ॥ इत्यादि विशेषस्तु दुःखमाप्राभृत युगप्रधान गंडिका सिद्धप्राभृतिका तीर्थोद्गालीप्रकीर्णकसिद्धप्राभृतवृहट्टीका कालसप्ततिकादि ग्रन्थेभ्योऽवसेयः, पुनः यत्र ?? 22 "1 17 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1) For Private And Personal Use Only 27 11 11 १६१ १६१ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४७ पत्रेपि जिनवल्लभजिनदत्तादिनामानि समुपलभ्यन्ते, तद् यथाप्रथमोदययुगप्रधाननामानि, श्रीसुधर्मस्वामी १ श्रीजंबूस्वामी २ श्रीप्रभवस्वामी ३ श्रीसिजंभवसरिः ४ श्रीयशोभद्रसूरिः ५ श्रीसंभूतविजयसूरि ६ श्रीभद्रबाहुस्खामी ७ श्रीस्थूलिभद्रस्वामी ८ श्री. आर्यमहागिरिः ९ श्रीआर्यसुहस्तिहरिः १० श्रीगुणसुंदरसूरिः ११ श्रीकालिकाचार्य १२ श्रीस्कंदिलाचार्य १३ श्रीरेवतीमित्रसरिः १४ श्रीआर्यधर्मसूरिः १५ श्रीभद्रगुप्तसरिः १६ श्रीश्रीगुप्तमरिः १७ श्रीवज्रस्वामी १८ श्रीआर्यरक्षितसूरिः १९ दुर्वलिकापुष्पसूरिः २० पुष्पमित्र, इत्यपि दृश्यते, इति प्रथमोदय यूगप्रधानसूरयः अथ द्वितीयोदययुगप्रधाननामानि एवं दृश्यते तद् यथा-श्रीवयरसेनसूरिः १ श्रीनागहस्तिसूरिः २ श्रीरेवतीमित्रसूरिः ३ श्रीब्रह्मद्वीपसरिः ४ श्रीनागार्जुनसूरिः ५ श्रीभूतदिन्नखरिः ६ श्रीकालिकाचार्य: ७ श्रीदेवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण ८ श्रीसत्यमित्रसूरिः ९ श्रीहरिभद्रसूरिः १० श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ११ श्रीशीलांकसरिः १२ श्रीउमास्वातिसूरिः १३ श्रीउद्योतनसूरिः १४ श्रीवर्धमानमूरिः १५ श्रीजिनेश्वरमरिः १६ श्रीजिनचंद्रसूरिः १७ श्रीजिनाभयदेवसूरिः १८ श्रीजिनवल्लभसूरिः १९ श्रीजिनदत्तसूरिः २० श्रीमणिमंडितभालस्थलजिनचंद्रसरिः २१ श्रीजिनपतिसूरिः २२ श्रीजिनप्रभसूरिः २३ इति द्वितीयोदय सूरयः, दिनेंद्रांकादत्रनामांतराण्यपि दृश्यन्ते, पुष्पमित्र, संभूतिसरिः, माढरसंभूति, धर्मरक्तसरिः, ज्येष्ठगणिः, फल्गुमित्र, धर्मघोष, विनयमित्र, शीलमित्र, रेवतीमित्र, सुविणमित्र, अरिहमित्र, २३, एषां प्रतिकूलान्यपि कानिचित् कानिचित् For Private And Personal Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नामान्युपलभ्यते, अन्यच्च यंत्र मुद्रितपुस्तकेपि एवं दृश्यते-तद् यथा-श्रीमन्महावीरात् परंपरया तोसलीपुत्राचार्य आयेरक्षित दुबैलिकापुष्पाचार्य वगेरे १ सुधर्मास्वामी २० ८ आर्यसुहस्ति २९१ २ जंबूस्वामी ६४ ९ सुस्थितसुप्रतिबद्ध ३७२ ३ प्रभवसूरि ७५ १० इन्द्रदिन्न ४२१ ४ शय्यंभव ९८ ११ दिनसरि ५ यशोभद्र १४८ १२ शांतिश्रेणिक १२ सिंहगिरि ५४७ ६ संभूतिविजय १५६ उच्चनागरीशाखानि० १३ वज्रसूरि ५८४ ६ भद्रबाहूस्वामी१७०१४ वज्रसेन ५२० १४ पद्मरथमूरि गोदास १५ चंद्रवगेरे ४ १५ पुष्पगिरि ७ स्थूलभद्र १६ सामंतभद्र १६ फल्गुमित्र १७ वृद्धदेवसूरि १७ धनगिरि ८ आर्यमहागिरि २४५ १८ वज्रस्वामी२७भूतदिन्न आर्यरक्षितम्ररि ९ बहुलवलिस्सह १९ नंदिलक्ष्मण २८ लोहित्य १० स्वातिहारितगोत्र २० नागहस्ति२९ दृष्यगणि-देवर्द्धिगणि. ११ श्यामाचार्य ,, २१ रेवती३० देववाचक(नंदिसूत्रनाकर्ता) १२ शांडिल्यजीतधर २२ सिंह (ब्रह्मद्वीपिका शाखा) १३ जीतधर २३ स्कंदिलाचार्य (माधुरीवाचना) १४ समुद्र २४ हिमवत् १५ मंगु २५ नागार्जुन १६ धर्म २६ गोविंद १७ भद्रगुप्त For Private And Personal Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४९ वज्र १८ प्रद्योतनसरि प्रभावकाचार्य आर्यरक्षित १९ मानवदेवसरि वृद्धवादी सिद्धसेनसून प्रियग्रंथसूरिः शिवभूति २० मानतुंगमूरि हरिभद्रमरि कृष्णमूरि २१ वीरसरि जिनभद्रगणि. भद्रसूरि २२ जयदेवमरि शीलांकाचार्य नक्षत्रसूरि २३ देवानन्दसूरि कालिकाचार्य नागसूरि २४ विक्रमसूरि आर्यमिसतसूरि जेहिलसरि २५ नरसिंहसूरि वप्पभट्टसरि विष्णुमूरि २६ समुद्रसूरि मल्लवादी कालकसरि २७ मानदेवसरि आर्यखपुटाचार्य संपलित, भद्र २८ विबुधप्रभसूरि विनयचंद्रसूरि आर्यवृद्धसूरि २९ जयानन्दसूरि जीवदेवसूरि संघपालितसरि ३० रविप्रभसूरि शांतिसूरि आर्यहस्ति काश्यपगोत्र ३१ यशोदेवसूरि हेमचंद्रसूरि आर्यधर्म (सुव्रतगोत्र) ३२ विमलचंद्रसूरि देवचंद्रसूरि आर्यहस्त ३३ देवमूरि जगचंद्रमूरि आर्यधर्म ३४ नेमिचंद्रसूरि मलयगिरिसूरि आर्यसिंह ३५ उद्योतनसूरि धनेश्वरसूरि For Private And Personal Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आर्यधर्म आर्यशांडिल्य आर्यजंबू आर्यनन्दित आर्यदेशितगणि. आर्यस्थिरगुप्त आर्यकुमारधर्म देवगुप्तसूरि देवर्द्धिगणि सत्यमित्रसूरि उमास्वातिसूरि कालिकसरि हरिभद्रसूरि युगप्रधान० ३५० ३६ वर्धमानमरि अभयदेवसरि ३७ जिनेश्वरसूरि यशोभद्रसूरि ३८ जिनचंद्रमरि वर्धमानसूरि ३९ जिनाभयदेवमूरि सर्वदेवसूरि ४० जिनवल्लभरि वादीदेवमूरि ४१ जिनदत्तसूरि हरिभद्रसूरि ४२ जिनचंद्रसूरि जिनप्रभसूरि ४३ जिनपतिसूरि जिनभद्रसूरि ४४ जिनेश्वरसूरि जिनकुशलसरि ४५ जिनप्रबोधसरि जिनराजमूरि जिनपतिसूरि जिनचंद्रमुरि श्रीआनन्दघनजी श्रीदेवचंद्रगणिः इत्यादिसूरयः ॥ वीरात् प्रथम उदय ॥ २० ६ संभूतिविजयसूरि १५६. ६४ ७ भद्रबाहुस्वामी १७० ८ स्थूलभद्रसूरि २१५ ९ महागिरिमरि २४५ १४८ १० सुहस्तिमूरि २९१ १ सुधर्माखामी २ जंबूस्वामी ३ प्रभवसरि ४ शय्यभवसरि ५ यशोभद्रसूरि For Private And Personal Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५१ ११ गुण(धन)सुंदरसूरि ३३५ १६ भद्रगुप्तसूरि ५३३ ६३ १२ श्यामाचार्य ३७६ १७ श्रीगुप्तसरि ५४८ ७८ १३ स्कन्दिलाचार्य ४१४ १८ वज्रमूरि ५८४ १११ १४ रेवतिमित्रसूरि ४५० १९ आर्यरक्षितसूरि ५९७ १२७ १५ धर्ममूरि वीरात ४९४ २० पुष्पमित्रसूरि ६१७ १४७ विक्रमात् २४ ॥ द्वितीय उदय ॥ २१ वज्रसेनसूरि १५० ३३ संभूतिसरि ८२९ २२ नागहस्तिसूरि २१९ ३४ माढरसंभूतिसूरि ८८९ २३ रेवतिमित्रसूरि २७८ ३५ धर्मरत्नसूरि २४ सिंहमूरि ३५६ ३६ ज्येष्ठांगसूरि १००० २५ नागार्जुनसूरि ४३४ ३७ फल्गुमित्रसूरि १०४९ २६ भूतदिन्नमरि ५१३ ३८ धर्मघोषसरि ११२७ २७ कालिकसरि ५२४ ३९ विनयमित्रमरि १२१३ २८ सत्यमित्रसूरि ५३१ ४० शीलमित्रसूरि १२९२ २९ हारिलहरि ५८५ ४१ रेवतिमित्रसूरि १३७० ३० जिनभद्रसूरि ६४५ ४२ स्वामित्रसूरि १४४८ ३१ उमास्वातिसूरि ७२० ४३ अर्हन्मित्रसूरि १४९३ ३२ पुष्पमित्रसूरि ७८० ___ लोकप्रकाशसर्ग ३४ युगप्रधाननामानि यथा, विषमेऽपि च कालेऽस्मिन भवन्त्येवं महर्षयः, निग्रंथैः सदृशाः केचिचतुर्थारक For Private And Personal Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५२ १३ वर्तिभिः ॥ १०० ॥ + + + श्रीसुधर्माच जंबूश्चे, प्रभव:सूरिशेखरः, शय्यंभवो यशोभद्रः, संभूतिविजयायः ॥ ११४ ॥ भद्रबाहूस्थूलभद्रौ महागिरिसुहस्तिनी, घनसुंदरश्यामार्यो स्कन्दिलाचार्यइत्यपि ।। ११५॥ रेवतीमित्रधर्मोऽ थभद्रगुप्ताभिधोगुरुः श्रीगुप्तवनसंज्ञार्यरक्षितीपुष्पमित्रकः ॥ ११६ ॥ प्रथमोदयस्यैते विंशतिः सरिसत्तमाः, त्रयोविंशतिरुच्यन्ते द्वितीयस्थाथनामतः ॥ ११७ ।। श्रीवनोनागहस्तिश्च रेवतीमित्र इत्यपि, सिंहोनागार्जुनो भूतदिन्नः कालकसंज्ञकः ॥ ११८ ॥ सत्यमित्रोहारिलश्च जिनभद्रोगणीश्वरः, उमाखातिः पुष्पमित्रः संभूतिमूरि कुंजरः ॥ ११९ ॥ तथा माढर. संभूतो धर्मश्रीसंज्ञको गुरुः ज्येष्ठांगः फल्गुमित्रश्च धर्मघोषाहयोगुरुः ॥ १२० ॥ सूरिविनयमित्राख्यः शीलमित्रश्च रेवतिः, स्वममित्रोर्हन्मित्रो द्वितीयोदयसूरयः ॥ १२१ ॥ स्युस्त्रयोविंशतिरेवमुदयानां युगोत्तमाः, चतुर्युक्ते सहस्र द्वे मिलिताः सर्वसंख्यया ॥ १२२ ॥ एकावताराः सर्वेऽमी सूरयोजगदुत्तमाः, श्रीसुधर्माश्च जंबूश्च ख्यातौ तद्भवसिद्धिकौ ॥ १२३ ॥ अनेकातिशयोपेता, महासत्त्वा भवन्त्यमी, प्रन्तिसार्धद्वियोजन्यां, दुर्भिक्षादीनुपद्रवान् ॥ १२४ ॥ इत्यादि लोकप्रकाशमें लिखा है उक्तं च-येषां हि वस्त्रे न पतन्ति यूका, न देशभंगः खलु एषु सत्सु, पादोदकेन गदोपशान्ति, युगप्रधान मुनयोवदन्ति ॥ १ ॥ तृतीयोदये इत्येतन्नामानि दृश्यन्ते-पादलिप्तसूरि जिनभद्रसूरि हरि For Private And Personal Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५३ भद्रसूरि शांतिसरि हरिसिंहमूरि जिनवल्लभसूरि जिनदत्तसरि जिनपतिमूरि जिनचंद्रसूरि जिनप्रभसूरि धर्मरुचिगणि धर्मदेवगणि विनयचंद्रसूरि शीलमित्रसूरि देवचंद्रसूरि हेमचंद्रसूरि श्रीचंद्रसरि जिनभद्रसूरि समुद्रसरि सुखसूरि श्रीचारित्रसूरि धर्मघोषसरि सूरप्रभसूरि सूरप्रभसूरि जिनशेखरसूरि जिनप्रभसूरि श्रीविमलमूरि मुनिचंद्रमूरि श्रीदेवेन्द्रसूरि समुद्रमूरि श्रीदेवचंद्रगणिः श्रीलाभानन्दगणिः श्रीकीर्तिसारगणिः इत्यादि अष्टनवतिसंख्यया तृतीयो. दये युगप्रवराः भविष्यन्ति कियन्तः प्राग्भूता च तृतीयस्य वर्षसंख्या इमा १४६४ मूरिसंख्यापूर्व निर्दिष्टा श्रीसुधर्मतः समारभ्य सुविहितपरंपरायां चतुरशीतिगछपरंपरायां च ये युगप्रधानाः युगप्रधानसमा ये च महान्तः प्रभावका मूरयो प्रागभूताये च भविष्यन्ति सर्वे ते गुणवन्तो ददातु भद्राणि संघाय, पुनरत्र यु० सुरिणां गृहस्थादि पर्यायप्रबोधकानि यत्रकोष्टकानि सन्ति तदपि यथा दृष्टानि तथा लिख्यते तथाहि-गृहस्थ, व्रत, युगप्रधानपद, सर्वायु-वर्षसंख्या, ॥ प्रथम सदय वर्ष ६१७ " प्र.उ. १२ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ १५/११ गृ. ५०/१६३०२८२२४२४५३०३० २४२४२०२२/११/१८२१३५ ८११७ ब्र. ३०२०६४ १७७४४०, १७२४/४०३०३२३५५८५८४०४५५०४४५१३० ४५३०४६४४४" 10.८०१०५६२८६९०७६/९९१०.१०.१०.९६/१०८ २३ दत्तसूरि० ४४३९१५३६१३ For Private And Personal Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Private And Personal Use Only 152 Ro a १ २ 2 | ૭ || ૩ | ૪ | 8 ≥ द्वितीय उदय वर्ष १३४६ ૦૯ d&| 28 |૭/૩૪ {t/a& a{é| 6& | as | d गृ. ९ १९२० १८ १४ १८ १२ १० १७ १४ २० ८ १० १० १५ १२ १४ ८ १० ११ ९ १२ २० maig 2012 व्रत. ११६२८३० २० १९२२ ६० ३० ३० ३० | १५ ३० १९ ३० २० १८ १३ १५ | १९ २० १६ १८ १६ यु. प्र. ३ ६९ ५९ ७८ ७८७९११ ७ ५४ ६० ७५ ६० ४९ ६० ४० ७१४९ ७८ ८६ ७९ 20 - • от の 5 O • G w OF 6 २१ २२ २३ -P O 58 20 26 8FF AU AD O ง 3 ON ३५४ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar ३५५ तृतीय उदय वर्ष १४६७ युग प्रधान १८ यु.प्र.९४ १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२/१३१४/१५ व.प. ८२ २०४०५०३० यु. प्र. ९४५५० ३०५० --more MPR ما هو 15. सर्वायु १००७५ ६९५९० ८८ इत्यादियत्रकोष्टकओरविजाणना, यथादृष्टलिखाहै ऊपरोक्तयुगप्रधानोंकेनामक्रममें भि आगेपीछेपणासंभवेहै, और एक युगप्रधानकेनाम स्थानमें २-३ नामान्तरभिदेखणेमें आवे है, और प्रायें बहुत ठिकाणे एसा है, पर्यायान्तरभिसंभवे है, और युगप्रधानोंकाक्रमभि प्रायें लिखेप्रमाणे बरोबर नहिं मिले है, और सर्वायुवर्षसंख्यावगेरेभिप्रायेंबरोबरनहिमिलता है और लिखेहुवे यंत्रादिककेसाहायसें कितनेकयुगप्रधानोंकेकेवल नाम मात्रतो प्रायें मिलते हैं, और पूर्ण विश्वासुकपणे सर्व इष्टसिद्धि नहीं होसके है, परंतु मेने तो जैसाअक्षरदेखावैसालिखा है, अब विशेषपणे अधिकृत विषयकों लिखदिखाते हैं, कि-सामान्य यंत्र विशेषयुगप्रधानयंत्र सर्वसामान्ययंत्र छुटकरयंत्र इनमें युगप्रधानौका विषय है और यहयंत्रदेखने भिआतें हैं प्राचीनमि है तथापि यथावस्थितप्रमाणसहनशील नहींहै नमालूम क्या कारण है सो ज्ञानिगम्य है प्रसिद्ध अप्रसिद्धपणेंमें नजाणेक्या कारण है कितनेक युगप्रधानतो प्रसिद्ध हैं और कितनेक युगप्रधान अप्रसिद्ध हैं, इतिहास वगेरेमें, गौण मुख्य नाम नामान्तर भेदहोणेंसें, पठनलिखनकीअभ्यासप्रवृत्तिकेअभावसें, सत्संप्र For Private And Personal Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दायके जाणनेवाले अल्पहोणेसें, अथवा लेखकप्रमादसें नाम अंकोंकाअस्तव्यस्तपणामि होणेंसें यंत्र विशेषलाभदायक नहीं संभव है, और विशेष परमार्थतो सत्संप्रदायिगीतार्थजाणे, वा केवली महाराज जाणे, प्रश्न युगप्रधान एकहि संप्रदाय विशेष गच्छमें होते हैं या भिन्न भिन्न गच्छमें होते है, उत्तर-प्रायें भिन्न भिन्न समुदायविशेष गच्छोंमेंहि होवे है, एसासंभव है, एकहि गच्छ विशेषमें होवे ऐसा संभव नहीं है, और युगप्रधानोंकी सुविहित समाचारी होवे है, यह निश्चय है, और आगम आचरणाविरुद्ध मनकल्पित स्वकपोलकल्पित समाचारी नहींहोवे यहभिनिश्चय है, "सव्वगुणेसु अप्पडिवाई" इस वचनसै, और अलग अलगगच्छोंमें होनेपरभि सुविहित एक समाचारी होणेसें, अनुक्रमें सरलंग दो हजार चार (२००४) युगप्रधानोंकी एकपाटपरंपरागिणनेसें, एक गच्छ कहा जावे तो कोइ हरजनहीं है, अन्यथा नहीं संभव है, सर्वयुगप्रधानोंकावचनसर्वगच्छवालोंकेमाननीयहोवे है, जिसनेयुगप्रधानोंके वचनोंका अनादरकिया उसने जिनाज्ञा भंगकिया यहनिःसंदेहजाणना और गुरुपरम्परासंप्रदायभि एसाहि है और विशेषपरमार्थज्ञानीगम्य है, और श्रीगुरुमहाराजनें जिन अक्षरोंकोउच्चारणकरके नाम या पदवी दिया होवे वैसाहि कहा जावे और लिखा जावे, प्राचीनसंप्रदायभि ऐसाहि देखनेमे आवे है, इसलिये कितनेक युगप्रधानोंके नामोंके अंतमें, अमुकआचार्य, अमुकसूरि, अमुकगणि, अमुकक्षमाश्रमण, अमुक वाचनाचार्य वगेरे पदान्तवाले युगप्रधानोंकानामदेखनेमें For Private And Personal Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५७. आवे है, सर्वगच्छके श्रीसंघ में और युगमें प्रधान होणेसें अर्थात्श्रीवीरशासन में प्रधान होणेंसें, युगप्रधानाचार्य महाराज होतें हैं और युगप्रधानाचार्य महाराज के वस्त्रोंमें जूं नहीं पडे १ जिस देशमें वा नगरादिकमें विचरते होवे उसका भंग न होवे २ चरणप्रक्षालित जलसैं रोगकी शांति होवे ३ दुर्भिक्ष दुःकालादि १० कोशपर्यंत उपद्रव न होवे ४ यह ४ अतिशय संयुक्त होवे है, अतः सर्वयुगप्रधानोंके वचनोंमे शंकारहित अप्रतिहतपणें प्रवृत्तिकरणी चाहिये और ऐसे महाप्रभावक युगप्रधान आचार्योंको न माने न पूजे और निंदाअ वर्णवादादि करे वह पुरुष मिथ्यात्वी अज्ञानी है और इस अव सर्पिणीकालके पांच आरेमें २३ उदयमें श्रीमहावीर भगवन्तके निर्वारौं श्रीसुधर्माखामी लेके यावत् श्रीदुप्पसहस्ररिपर्यन्त दो हजार चार युगप्रधान होगा, वाद धर्मान्त होगा, और यह २००४ की संख्या इस तरह होणें पूर्णहोगी कि एक युगप्रधान स्वर्गजानेपर दूसरा युग प्रधानका पाट महोत्सव होवेगा इसअनुक्रमसैं पांचमे आरेके २१ हजार (२१०००) वर्ष पूर्ण होगा और धर्मांत होगा इस तरह होनेसें इस समय ५९ मा युगप्रधान विचरते होने चाहिये वि० सं० १९७२ के सालमें पाट महोत्सव है जिनोंका ऐसे सिद्धहसू रि नामका चाहीये और विशेष तचकेवलीगम्य है. और नवांगवृत्तिकर्त्ता श्रीअभयदेवसूरिजी रचित आगमअष्टोतके वचन श्रीवीरखामीके प्रथमपद में श्री गौतम स्वामी द्वितीयपट्टे श्रीसुधर्मास्वामी तृतीयपट्टे श्रीजम्बूस्वामी इत्यादि गणधरपरंपरा जाणना और श्रीपुष्पमित्रादि अरिहमित्रपर्यन्त नामके आचार्य पूर्व For Private And Personal Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५८ श्रुतगतसत्तामें हो चुके ऐसा संभव है निश्चयसें तो श्रीज्ञानीमहाराज जाणे और श्रीगणधरसार्धशतकप्रकरण १ श्रीगणधरसार्धशतकवृहत्वृत्ति २ तथा लघुवृत्ति ३ उपदेशतरंगिणीप्रकरण ४ कल्पान्तरवाच्या ५ समाचारीशतक ६ श्रीकौटिकगच्छपट्टावलीप्रकरण ७ उपाध्याय श्रीक्षमाकल्याणगणिकृत खरतरगच्छपट्टावली ८ श्रीगुरुपारतंत्र्यसरण ९ प्राचीन जैन इतिहास वगेरे ग्रंथोंसें श्रीजिनदत्तसूरि आदि आचार्योंको युगप्रधानपद प्राप्त होते है, अर्थात् युगप्रधानकरके लिखे हैं, और मध्यस्थ आत्मार्थी धर्मार्थी गुणानुरागी भव्य जीवोंके दृष्टिपथमें आयरहे हैं, और इससैंभी प्राचीनप्रमाण ६ ग्रंथोंका ऊपर लिखआयें हैं अखंड गुरुपरम्परा संप्रदायभी ऐसाहि है, इससे यह निश्चय हूवा कि श्रीजिनदत्तादिआचार्ययुगप्रधान है, अतः इनमहापुरुषोंकाचरित्रादिवर्णनकरनासम्यक्तादि गुणोंकी प्राप्तिमें हेतु भूत अतिउत्तम कार्य है इसलिये श्रीवीरनिर्वाणसे श्रीवर्द्धमानस्वामीके पट्टपर श्रीगौतमसुधर्मादिक युगप्रधानोंसे लेकर श्रीजिनवल्लभसूरिजीपर्यन्त युगप्रधानमहाराजोंकाचरित्रकह्याँके अनन्तर क्रम प्राप्त युगप्रधान श्रीजिनदत्तसूरिजीमहाराजका चरित्र कहेते हैं, तद्यथा-श्रीमंतःप्रभुपुंडरीकगणभृन्मुख्यागणाधीश्वरात्रैलोक्यार्ययुगप्रधानकमलाभूषाभृताः सूरयः, अन्येच प्रवरा मुनीद्रनिकराः श्रीसाधुसाधुव्रजाः, श्रीकल्पद्रुमजैत्रचारुमहसः कुर्वन्तुवः सत्फलं ॥१॥ नानालब्धिनिधिनदीपरिदृढश्रीपुंडरीकादिम, ज्ञानध्यानचरित्रसद्गुणगणावासानगारेश्वरान्, संस्तुमः, मयकात्र. वृत्तमिषतः संप्राप्यपुण्यं ततो, भव्यौघः प्रतनोतु सिद्धिकमला For Private And Personal Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५९ पाणिग्रहणोत्सवम् ॥२॥ लब्ध्वायदीयचरणांबुजतारसारं, स्वादच्छटाधरितदिव्यसुधासमूह, संसारकाननतटेवटतालिनेव पीतो मया प्रवरवोधरसप्रवाहः ॥३॥ वन्दे मम गुरुं तं च, सूरिकृपाचंद्राह्वयं, परोपकारिणां धुर्य, चित्रं चारित्रमाश्रितम् ॥४॥ कमलदलविपुलनयनाः, कमलमुखीकमलगर्भसमगौरी, कमलेस्थिताः भगवती, ददातु श्रुतदेवता सौख्यम् ॥ ५ ॥ अधुनैतप्रकरणकाराणां श्रीजिनदत्तसूरीणां यथाश्रुति यथास्मृति किंचिचरित्रमुत्कीर्त्यते, व्याख्या-अब क्रम प्राप्त और पूर्वनिर्दिष्टप्रकरणके कत्तों अंबाप्रदत्त युगप्रधानपदधारक एकलाख तीसहजार घरकुटुम्ब प्रतिबोधक और तीसरे भवमें सकलकर्म निर्जरी मोक्ष जानेवाले और इस पंचमआरेमे सर्वोत्कृष्टपणे श्रीवीरशासनकी तथा धर्मकी तथा संघकी वृद्धि करणें पूर्वक महाउपकारकरणेवाले मुख्य आचार्य श्रीजिनदत्तसूरीश्वरकास्तुतिधर्मदेसनादिरहितकेवल मूलमात्रचरित्रलेशस्मृतिकेअनुसार जैसासुणा है उसीतरह कुच्छ विन्दुमात्र कहने में लिखनेमें आता है, तथाहि-प्रथम श्रीजिनेश्वरसरिजीके समयमेंश्रीधर्मदेवउपाध्यायभए उन्होंकी गीतार्थी साधवीयोंने सिद्धान्तकीजाननेवालीगीतार्था बहुत साध्वियों हैं उनमें कितनीक साधवीकोंने धवलक नामके नगरमें चतुर्मासक किया था वहां क्षपणक भक्त (आशाम्बर भक्त) हुम्बडगोत्रीय वाछिकश्रावककीस्त्रीवाहडदेवी नामकी पुत्रसहित रहती थी साध्वियोंके पासमें धर्मसुननेको आतीथी साध्वियोंभी विशेष करके उसको धर्मकथादिक कहती थी वाहडदेवीभी पुत्रसहित श्रद्धापूर्वक For Private And Personal Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६० सुनती थी और साध्वियों पुरुषका लक्षण शुभाशुभ गुरूके उपदेशसे जानती हैं उसके पुत्रका प्रधान लक्षणदेखके लाभके निमित्त वाहडदेवीको ऐसा उपदेश दिया कि जिससे कहे माफक करनेवालीभई वाद श्रमणियोंने वाहडदेवीसे कहा हे धर्मशीले यह तेरा पुत्र विशिष्ट युगप्रधानके लक्षण धारनेवाला है इसलिये जो तैं इसको हमारे गुरूको देवे तब तेरेको महाधर्मका लाभ होवे औरसुन यहतेरापुत्रसर्वजगत्कामुकुटभूतपूज्यहोगा वाहडदेवीने भी आर्यायोंकावचनअंगीकारकियावादचतुर्मासिकेअनन्तरश्रीधर्मदेवउपाध्यायको साध्वियोंने कहवाया कि हमको यहां एकरनमिलाहै जो आपके ध्यानमें आवे तो ठीक होवे इसलिए आप यहां कृपा करके पधारें वाद श्रीधर्मदेव उपाध्याय धवलक नाम नगरमेंआए उसबालककोदेखा और निश्चयकिया कि यहसामान्यपुरुष नहीं है किंतु प्रशस्त लक्षणयुक्त पुण्यशाली बड़ेपदके योग्य होगा उस पुत्रकी मातासे पूछा इस तेरे पुत्रको दीक्षादेवें यह तेरे सम्मत है तब वाहडदेवी बोली हे भगवन् प्रसन्न होके आप दीक्षा देवें जिससे मेराभी निस्तार होवे तबउपाध्यायने और पूछा इसकी कितने वर्षकी उमर है वाहडदेवी बोली ११३२ का जन्म है जब इसका जन्म हुआ था तब बहुतही प्रशस्तबातें भई थीं जबयहगर्भ में आया था तब प्रशस्त स्वमहुआथा ऐसा सुनके धर्मदेव उपाध्यायने ११४१ के सालमें शुभ लग्नमें दीक्षा दिया सोमचन्द्र ऐसा नाम स्थापा उपाध्यायोंने सर्वदेवगणीसे कहा तुम्हारे इसकी रक्षा करनी अर्थात् प्रतिपालना करनी वहिभूमिवगेरह लेजाना क्रिया For Private And Personal Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६१ कलापका सिखाना इत्यादि, और श्रावककैसूत्रादिपाठ तो उसके पहले घरमें रहे हुएही सीखा है "करेमि भन्ते सामाइयं" इत्यादि पढ़ाना शुरू किया पहिलेहीदिन सोमचन्द्र मुनिको वहिर्भूमि लेगए सर्वदेवगणी ॥ वाद सोमचन्द्रने नहींजाननेसे क्षेत्रमें वनस्पतिके पत्र तोड़े तब शिक्षानिमित्त रजोहरणमुखवस्त्रिका लेके सर्वदेवगणी बोले दीक्षा लेके क्षेत्रमें क्या पत्रतोड़ेजावे हैं इसलिए तैं अपने घरजा तब उत्पन्नभईहैप्रतिभाजिसको ऐसा सोमचन्द्र बोला आपने युक्त किया परन्तु मेरी जो चोटीथी सोआपदीजिए जिससे मैं घरजाऊं ऐसा कहनेसे सर्वदेवगणी को आश्चर्यहुआ और विचारा अहो छोटीउमरका है तथापि कैसा इसने उत्तर दिया इसको क्या कहा जावे वाद उससे कहा हेवत्स ऐसा करनानहीं तब सोमचन्द्र बोला हे भगवन् यह मेरा एकअपराधक्षमा करें वाद गणिवर सोमचन्द्रको उपाश्रयलेआए यहवार्ता धर्मदेवउपाध्यायके आगेभई धर्मदेव उपाध्यायने विचारा योग्यहोगा गुणविशिष्टहोगा इसकी रक्षा अच्छीतरहसे कीजावे गणमें आधारभूत होगा ऐसा विचारके सर्वदेवगणीसेकहा इसकीरक्षा अच्छीतरहसे करनी वादमें विहारकरके पाटन आए लक्षण नाम व्याकरण न्यायपंजकादिशास्त्र पढ़नेशुरूकिए सोमचन्द्रने, एकदा भावड़ाचार्यकी धर्मशालामें पंजिका पढ़नेके लिए जाते हुए सोमचन्द्रको किसीउद्धतने कहा जैसे अहो यह सितपट कपलिका (पुस्तक विशेष) हाथमें किसवास्ते रखते हैं अर्थात् पुस्तक लेके क्यों फिरते हैं For Private And Personal Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६२ तब सोमचन्द्रवोले तेरेको निरुत्तर करनेके लिए और अपना मुखमण्डनके अर्थ, निरुत्तर होके चला गया कुछ नहीं बोलसका धर्मशालामें गए वहां अनेक अधिकारियोंकेपुत्रपंजिका पढ़ते हैं कोई वक्त आचार्यने परीक्षाके वास्ते पूछा कि भो सोमचन्द्र न विद्यते वकारो यत्र स नवकारः इति यथार्थनाम ? नहीं विद्यमान है वकार जिसमें वह नवकार यथार्थ नाम है तब शीघ्रबुद्धिमान सोमचन्द्र बोला आचार्य ऐसा नहींकहें किंतु नवकरणं नवकारः ऐसी व्युत्पत्ति करनी अर्थात् अंगुलियोंके बारहविश्वोंपर नववेर गुनना वह नवकार कहाजावे पंचपरमेष्ठीके १०८ गुणका सरण नवकारमें होता है ऐसा सुनके आचार्यने जाना अत्यन्त यह श्रेष्ठ उत्तर है इसके साथ कोई छात्र नहींबोलसकताहै अन्यदा लोचके दिनमें सोमचन्द्र पढ़नेको नहीं गया और व्याख्यान व्यवस्था तो ऐसी है की जो एकभी विद्यार्थी नहीं आवे और सब विद्यार्थी आजावें तथापि आचार्य पाठ देवेनहीं वाद आचार्य ने पाठ जब नहीं दिया तब गर्भसहित अधिकारियोंके पुत्रोंने आचार्यमिश्रसैं कहा हे भगवन् सोमचन्द्रके ठिकाने यह पाषाण रखा है आप व्याख्यान कहिए तब उन्होंके उपरोध (आग्रह) से आचार्यने व्याख्यान किया ॥ दूसरे दिन सोमचन्द्र आया पूछा गतदिनमें व्याख्यान मेरे बिना क्या आपने कहा तब आचार्य बोले तेरे ठिकाने इन छात्रोंने पाषाण रक्खा सोमचन्द्र बोला कौन पाषाण है और कौन नहीं है ऐसा अभी जाना जायगा जितनी पंजिका पढ़ीहै मेरेसेभीपूछ इन्होंसेभीपूछे जो यथार्थ व्याख्यान नहीं For Private And Personal Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६३ करेगा वही पाषाण है आचार्य बोले भो सोमचन्द्र तुमको प्रज्ञादि सौरभ्य गुणाढ्य कस्तूरीके जैसा जानता हूं परन्तु इन मूर्ख लोगोंने व्याख्यान करनेमें मेरी प्रेरणा करी इस कारणसे क्षमाकरना ऐसे पंजिका पढ़ी अशोकचन्द्राचार्यने उपस्थापना किया अर्थात् बड़ी दीक्षा दी हरिसिंहाचार्यने सर्वसिद्धान्त पढ़ाए और मत्रकी पुस्तकें पण्डितसोमचन्द्रकोदी जिसपुस्तकपर हरिसिंहाचार्यने सिद्धा. न्तकी वाचना ग्रहण करी थी वह पुस्तक प्रसन्न होके सोमचन्द्रको दी देवभद्राचार्यनेभी संतुष्टमान होके लिखनेकी सामग्री दी जिससे महावीर चरित पार्श्वनाथ चरितादि चार कथाशास्त्र पट्टीपर लिखे इस प्रकारसे पण्डित सोमचन्द्रगणी ज्ञानी ध्यानी सैद्धांतिक सब लोगोंका मन हरन करनेवाला व्याख्यान करके श्रावकोंके मनमें आल्हाद करते सर्वोचारपालते हुए ग्रामानुग्रामविचरते भए । इधरसे श्रीदेवभद्राचार्यने श्रीजिनवल्लभमरि देवलोक गए यह सुना विचारकिया अत्यन्तचित्तमेंसंतापभया अहो सुगुरूकापद उद्योतवानहुआथा प्रकाशितकियाथा परन्तु देववशसे थोड़े दिनोंमें जिनवल्लभसूरिकाआयुःपूर्णहोगया अब क्याकिया जावे ऐसे विचारते देवभद्राचार्यने औरभी ऐसा विचारकिया जो श्रीजिनवल्लभमरिजी युगप्रधानकैपट्टपरयोग्यआचार्यस्थापने कर नहीं आदरकियाजावे तब क्या हमारी भक्ति है इसलिये कोईयोग्यव्यक्तिको आचार्यपददेके श्रीजिनवल्लभमरिजीके पट्टधर करें तब मनोरथसफलहोवे वादमें विचारकरने लगे पद योग्य कौन है उतने पण्डित सोमचन्द्रगणीका सरण हुआ निश्चय For Private And Personal Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विचार किया सोमचन्द्रगणीहीयोग्य है श्रावकोंको ज्ञानध्यान क्रियाप्रवर्तानेकर आनन्दकारीहै वाद सबकी सम्मतिसे पण्डित सोमचन्द्रको लेख भेजा उसमें लिखा चित्रकूट (चितौड़) नगरमें जल्दीआना जिससे श्रीजिनवल्लभसरिजीके पट्टपर पद स्थापन होगा ऐसापत्र लिखा उसमें औरभीलिखा नहीं जाना जाय है कौनबैठेगा श्रीजिनवल्लभसरिजी जब आचार्य भए तब तुम नहीं आए इसवक्त श्रीजिनवल्लभमरिजीके पट्टपर बैठनेके लिए बहुतसे विशालहैं नेत्र जिन्होंके गौरवर्णवाले बड़े २ कान हैं जिन्होंके ऐसे साक्षात मकरध्वजके जैसे गुर्जरदेशमें उत्पन्न भए साधुः उद्यमवानभएहैं परन्तु योग्यतातो गुरूही जाने है ऐसा पत्र भेजा वादमें देवभद्राचार्य और पण्डित सोमचन्द्र औरभी साधुः चित्रकूट आए सबलोग जानते हैं सामान्य प्रकारसे, श्रीजिनवल्लभमरिजीके पट्टपर आचार्य होंगे परन्तु नहीं जाना जावे है कौनबैठेगा श्रीजिनवल्लभसूरिप्रतिष्ठित साधारण श्रावकने करवाया श्रीमहावीरस्वामीका चैत्यमें पद स्थापन होगा वाद विचारा हुआ लग्नका दिन उसकेपहलेदिन श्रीदेवभद्राचार्यने एकान्तमें सोमचन्द्रगणीसेकहा अमुकदिन तुम्हारेलिए पदस्थापनका लग्न विचारा है पण्डित सोमचन्द्रने कहा जो आपके ध्यानमें आवे सो युक्त है परन्तु जो इसलग्नमें पदस्थापना करेंगे तब बहुत काल जीना नहीं होगा ६ दिनोंके वाद अर्थात् वैशाखवदिछठ शनिश्चरवारको लग्न अच्छाहै उसलग्नमें पदस्थापना करनेसे अपने चारों दिशामें विहारकरनेसे चार प्रकारका श्रीश्रमणादि For Private And Personal Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३६५ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संघ श्रीजिनवल्लभसूरिकेवचनसे बहुतहोगा चिरकालजीवित होगा तब श्रीदेवभद्राचार्य बोले यही हम विचारते हैं वह लग्नभी दूर नहीं है बाद उसदिन श्रीजिनवल्लभसूरिके पट्टपर विस्तार विधिसे संध्यासमयलग्न में पदस्थापनाकिया अर्थात् पण्डित सोमचन्द्रगणीको आचार्यपद दिया श्रीयुगप्रवर जिनदत्तसूरि, ऐसा नाम किया तदनंतर वादित्रवाजते उपाश्रयआए प्रतिक्रमणके अनन्तर वन्दनादेके श्रीदेवभद्रसूरिनेकहा देशनादेओ तब सिद्धान्तोक्त उदाहरणको अनुसरण करके अमृतश्रावणी गीर्वाण वाणी प्रबन्धकरके अर्थात् प्राकृत संस्कृत भाषासे श्रीजिनदत्तसूरिपूज्योंने ऐसीदेशनाकरीकि जिसको सुनके सब प्रजारंजित भई और लोग कहने लगे सिंहोंके स्थान में सिंहही बैठे हुए शोभे है सोमचन्द्रगणिका शरीर छोटा था और श्यामवरण था उन्होंकों देखके जब पदस्थापनाका निर्णय भया तब लोगोंने विचारा यह क्या बैठेगा गौरवरण विशाललोचन ऐसे गच्छ में बहुत साधु हैं इत्यादि लोगोंकेमनमेंविचारथा सो सब दूर होगया लोग कहने लगे अहो धन्य है यह देवभद्राचार्य जिन्होंने ऐसे रत्नकी परीक्षा करी और हमारे जैसे अल्पबुद्धिवाले आप्तलक्षण क्याजानें वाद में विहार करते हुए और भव्योंको प्रतिबोधते असत्मार्गको दूर करते सद्मार्ग में प्रवृत्ति कराते क्रम से गुर्जरदेशमें पाटणनगर आए संघने महोत्सव के साथ प्रवेशकराया देशना दिया देशना सुनके लोग कहने लगे यह आचार्य क्या आए हैं साक्षात् बृहस्पति आए हैं साक्षात् गणधर के अवतार हैं अन्य दिनमें श्रीदेव भद्राचार्यने For Private And Personal Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६६ जिनदत्तसूरिजी से कहा कितने दिनोंके अनन्तर श्रीपत्तनसे विहार करना श्रीजिनदत्तसूरि बोले इसीतरह करेंगे || अन्यदिनमें जिनशेखरने साधुविषयमें कुछ कलहादिक आयुक्त किया तब देवभद्राचार्यने निकाल दिया वाद जहां जिनदत्तमूरि बहिर्भूमि जाते थे। वहां जा रहा वहां आए भए पूज्योंके पगोंमें पड़कर दीनवचनसे जिनशेखर बोला हेप्रभो मेरा यह अन्याय एकवक्त आप क्षमा करें दूसरी वक्त ऐसा नहीं करूंगा तब कृपासमुद्र श्रीजिनदत्तरिने जनशेखरको प्रवेशकराया अर्थात् ले आए उसके बाद देवभद्राचार्य ने कहा तुमने युक्त नहीं किया यह दुरात्मा तुमको सुखदेनेवाला नहीं होगा पामायुक्त उष्ट्रके जैसा इसको बाहिर निकालनाही युक्त है तब श्रीजिनदत्तसूरि बोले श्रीजिनवल्लभसूरिके पीछे लगा हुआ यह है अर्थात् साथमें यह रहताथा जबतक यह आज्ञामें वर्तता है तबतक रखते हैं देवभद्राचार्य बोले जैसी इच्छा वाद श्रीदेवभद्राचार्य आदिकने पाटनसे अन्यत्र विहार किया कितने कालके वाद समाधि से आयुः पूर्ण करके स्वर्गपधारे, श्रीजिनदत्तरिभी पत्तनसे विहारकरनेकीइच्छा करते श्रीदेवगुरूस्मरणके अर्थ तीन उपवास किए तदनंतर देवलोक से श्रीहरिसिंहाचार्य आए और बोले किसवास्ते मेरा सरण किया आचार्य बोले कहां विहारकरें तब हरिसिंहाचार्यदेव बोले मरुस्थलादि देशों में विहार करना ऐसा कहके अदृश्य हो गए जबतक पूज्य नहीं रहते हैं विहार करनेवाले हैं लब्धोपदेश हैं उतने मरुस्थल में रहनेवाले मेहर, भाषकर, वासल भर्तादिक श्रावक व्योपारकेवास्ते वहां आए For Private And Personal Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६७ वहां श्रीजिनदत्तसूरिगुरूका दर्शन करके और देशना सुनके संतोष पाया बहुत हर्षित भए और श्रीजिनदत्तसूरिजीको गुरूपने अंगी - कार किया भरतआचार्यके पासमें अध्ययन करनेको रहा और मेहरभाषकरादि स्वस्थान गए अपने कुंटुम्बके आगे गुरूके गुणका वर्णन करे इसवक्त में शुद्धचारित्र पालनेवाले कलिकाल में सर्वज्ञतुल्य श्रीजिनदत्तसूरिजी महाराज है इत्यादि, वाद में विहारकिया उस देशमें प्रवेशभया और नागपुर (नागौर) में आए वहां श्रावक धनदेवसेठ भक्ति करे आयतन अनायतनादि विचार सुनके धनदेवने कहा हेभगवन् मेराकथनआप करें तो सब श्रावकवर्ग आपके परिवारभूत होजाय तत्र पूज्योंने नहीं जानते होवें ऐसे होके बोले हे धनदेवसेठ वह क्या है तब धनदेव बोला हे भगवन् आयतन अनायतन विधि अविधि सर्व विषयमें आप नहीं कहते हैं तो सब लोग आपके भक्त होजावें ऐसा सुनके श्रीपूज्योंने कहा हे धनदेव सुनो तावकीनं, वचनं कुर्मी, उत नु तीर्थ कृतां । " यदनायतनं सूत्रे, भणितं तद्रूमहे नियतं " ॥ १ ॥ उत्सूत्र भाषणात्पुनरनन्तसंसारकारणात् बहुशः किं लोकेन त्वग् रोगिणो भवेत् प्रचुरमक्षिकासंग ः २ "मैवं संस्था बहुपरिकरो जनो जगति पूज्यतां याति । येन बहुतनययुक्तापि शूकरीगूथमश्नाति " ॥ ३॥ अर्थः- तुम्हारेवचनकरें अथवा तीर्थंकरोंके वचन करें जो सूत्र अनायतन कहा है वह हम कहते हैं ॥ १ ॥ For Private And Personal Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६८ उत्सूत्र भाषणकरनेसे अनन्तसंसारपरिभ्रमणकरना होता है तो ऐसे बहुत लोग इकट्ठे होनेसे क्या होवे है केवल भवभ्रमणही होवे है जैसे खग्रोगी पुरुषको बहुतमक्षियोंका संगहोवे तो क्या होवे अपि तु रोगवृद्धि होवे इसीतरह उत्सूत्रभाषण करनेसे संसारवृद्धि होवे है ॥२॥ ऐसा मत जानो कि बहुतपरिवारवाला मनुष्यलोकमें पूज्यता पावे है किंतु जिस कारणसे बहुत पुत्रयुक्त सूकरी विष्टा खाती है इसवास्ते जिनआज्ञासे विरुद्ध करनेवाला क्या प्रशंसनीय होवे है अपि तु नहीं होवे है ॥३॥ ऐसा अत्यन्त कर्णकटुक दुःखउत्पादक वचन धनदेवके भया तथापि गुरूको तो युक्तही कहना उहितहे कहाभी है। "रुशउवा परो मा वा, विसं वा परियत्तउ, भासि अवा हियाभासा, सपख्क गुणकारिआ" ॥१॥ अर्थः-सुननेवाला नाराज होवे या न होवे परन्तु भासा ऐसी कहनी चाहिये जिसका परिणाम विषपरावर्तन होके अमृतका परिणाम होवे स्वपक्षगुणकारिणी बाधारहित होवे अर्थात् सिद्धा. न्तसे विरुद्ध नहीं होवे ॥१॥ ऐसा सिद्धान्तप्रमाणसे आचार्यने कहा तब कितने विवेकी लोगोंने वचन प्रमाण किए और कितने मध्यस्थ रहे वाद नागपुरसे अजमेर तरफ विहार किया क्रमसे अजमेर आए वहां आशधर साधारण, रासल वगैरहः श्रावक रहते हैं श्रीजिनदत्तसूरि देववन्दनाके अर्थ वाहणदेव श्रावकका बना हुआ जिनमंदिरमें जाते हैं For Private And Personal Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६९ अन्यदा वहांका आचार्य उसी चैत्यमें आया पर्यायसे छोटा है वह आचार्य चैत्यमें आए हुए जिनदत्तसूरि का व्यवहार नहीं करे तब ठकुर आशधर वगेरेह ने कहा यहां जिनमंदिरमें आनेका क्या फल है जो युक्त प्रवृत्ति न होवे वादमें देव वन्दनादि व्यहवार निवृत्त हुआ तब श्रावकों ने अरण राजसे विनती किया हेमहाराज हमारे गुरु श्रीजिनदत्तसूरिजी महाराज यहां पधारे हैं राजा बोले बहुत श्रेष्ठ है हमारे योग्य कार्य हो सो कहो तब श्रावकों ने कहा हे देव कितनीक जमीन चाहिये है जिसमें जिनमंदिर वगैरह देवस्थान बनाए जावे और अपने कुटुम्बके रहने के लिए घरभी बनाया जावे, वाद अरणराजने कहा दक्षिणदिग्भाग में जो पर्वत है उसपर जितनीजमीनचाहिये उतनी लेलो देवघर वगैरह वहां निशंक बनाओ. अपने गुरूका मेरेको दर्शनकराना यह स्वरूप आचार्यके आगे श्रावकोंने कहा आचार्य विचारके बोले अहो जो इस प्रकारसे हमारे दर्शनकी उत्कंठावाला है राजा उनको बुलानेसे गुणहीहोगा वाद गुरुका वचनके अनुकूल हुए श्रावकोंने भव्यदिनमें अर्णराजाका आमन्त्रण किया राजा शीघ्र आए श्रीजिनदत्तसूरिजी महाराजको राजाने नमस्कार किया आचार्यने आशीर्वाद देके अभिनन्दित किया वह आशीर्वाद यह, हैं— "विश्वविश्व विनिर्माण स्थितिप्रलयहेतवः । संतु राजेन्द्र भूत्यै ते, ब्रह्मश्रीपतिशंकरा: " ॥ १ ॥ तथा - " नीतिश्चित्ते वसति नितरां लब्धविश्रांतिरुच्चैः श्रीरस्याङ्गे भुजयुगलमप्याश्रिता विक्रमश्रीः । २४ दत्तसूरि० For Private And Personal Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७० एषोऽत्यर्थ क्षिपति बहुभिर्लोकवाक्यः प्रियो मामित्यो राड् भ्रमति भुवनं कीर्तिरस्ताश्रया ते” ॥२॥ अर्थ:-हे राजेन्द्र सब जगतकी रचना स्थिति और प्रलयके कारण ऐसे ये ब्रह्मा विष्णु शंकर तुमारे सम्पदाके लिए हो ॥१॥ हे राजन् नीति चित्तमें बसे है अतिशय विश्रांति पाई है प्रयत्नसे जिसने और लक्ष्मी जिसके अंगमें रहती है और पराक्रम श्रीने दोनों भुजका आश्रय किया है बहुतलोगोंके वाक्यसे यह अर्ण राजा अत्यर्थ मेरी प्रेरणा करता है प्रिय ऐसा मानके कीर्ति तुह्मारा आश्रय नहीं मिला है जिसको ऐसी जगतमें फिरती हैं इसका क्या कारण है ॥२॥ इत्यादि सद्गुरुके मुखकमलसे निकली भई वाणी सुनके राजा संतुष्टमान हुआ और बोला आप कृपा करके निरंतर यहां ही रहें दर्शनका लाभ होगा, गुरु बोले महाराजने ठीक कहा परन्तु हमारी यह स्थिति है कि हम सर्वत्र विहारकरते हैं लोगोंके उपकारके लिए यहां पुनः पुनः आवेगें जैसे आपके समाधान होगा वैसा करेगें वादमें राजा प्रसन्न होके उठे आचार्यको नमस्कार कर के स्वस्थान गए वाद पूज्योंने ठकुर आशधरसे कहा यथा "इदमन्तरमुपकृतये, प्रकृतिचला यावदस्ति संपदियं । विपदि नियतोदयायां, पुनरुपकर्तुं कुतोऽवसरः" ॥१॥ __यह संपदा स्वभावसे चपल है इससे उपकार होवे तवही इसका फल है इसलिए सुकृतमें इसका नियोग करना अर्थात् लगाना प्राणियोंकी आपदाका उद्धार करना जीवरक्षादि प्रकारमें इसका व्यय करना उचित है ॥१॥ For Private And Personal Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७१ इस कारणसे स्तम्भनक शत्रुजय, गिरनार इन तीर्थोकी कल्पना करके श्रीपार्श्वनाथस्वामीश्रीऋषभदेवस्वामीश्रीनेमिनाथस्वामी इन्होंके बिंबोंकी स्थापनाका विचार करना ऊपर अंबिकादेव कुलिका नीचे गणधरादिस्थानवि चारना ऐसा कहके श्रीपूज्योंने वागड़देशकीतरफ़ विहारकिया अच्छे शकुनभए बागड़के लोगोंको श्रीजिनवल्लभसूरिजीने पहलेही बोध दियाथा उन्होंका समाधान कियाथा श्रद्धालु कियेथे जिनवल्लभसूरिजीके नाम ग्रहणमें भी नमनशील थे अर्थात् नमस्कारकरतेथे और जिनवल्लभसूरिजीके देवलोकगमनकीवार्ता सुनके उन्होंकाचित्तखिन्न हुआथा वादमें जिनवल्लभसूरिजीके पदपर स्थापित भए श्रीजिनदत्तमूरिनामकेगुरु ज्ञानध्यानगुणसहित श्रीमहावीरस्वामीवदनादिसे निकलाहुआ जो अर्थ श्रीसुधमोस्वामी गणधर ने रचाहुआ सिद्धान्तके जाननेवाले युगप्रधान तीर्थकरकल्प इस वागड़देशमें बिहारकरके पधारते हैं ऐसासुनके बहुत हर्षित भए दर्शनकीउत्कंठा भई आचार्यकेचरणकमलमें वंदनाकरनेके लिए आए वाद श्रीपूज्योंका दर्शनकरके वंदना कर और देशना सुनके अत्यन्तआनन्द प्राप्तभए जो जो वह श्रावक प्रश्न करे उसका उत्तर केवलीके जैसा देताहुआ उन्होंके मनमें समाधान उत्पन्न करें कइ. योंने सम्यक्त्वअंगीकारकिया केई देशविरति भए केइक में सर्वविरतिपना अंगीकारकिया बहुतसंतोषपाए पूज्योंने वहां बहुत साधु बनाए, (५२) बावन साध्वी हुई ऐसा सुना जावे है उसीप्रस्तावमें जिनशेखरको उपाध्यायपददिया कितनेक साधुसाथमें देके रुद्रवल्ली भेजा, वह जिनशेखरउपाध्यायतप करतेहैं, स्वजनवहारहतेहैं, For Private And Personal Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७२ उन्होंके समाधानके लिए जिनशेखर उपाध्यायगए तथा यह स्वरूप अपने स्थान रहे हुए जयदेव आचार्यने सुना कि श्रीजिनवल्लभसूरिके पदपर श्रीजिनदत्तसूरिजी सर्वगुणयुक्त प्रतिष्ठित भएहैं, और विहारकर्ते हुए इस देशमें आए हैं वाद विचार किया यह अच्छाभया है श्रीजिनवल्लभ गणीने चैत्यवासका परिहारकरके श्रीजिनअभयदेवसूरिजीके पासमें वस्तीवास अंगीकार किया सुनके पहलेही हमारा वस्तिवास प्रतिपत्तिका अभिप्राय उत्पन्न भयाथा इस वक्तमें जाके गुरुका दर्शनकरें ऐसा विचारके परिवारसहित जयदेवआचार्य श्रीजिनदत्तसूरिजीकोवन्दनाकरनेकेलिए आए विनयसहित श्रीजिनदत्त सूरिजीको वन्दना करी आचार्यनेभी सिद्धान्तोक मधुर वचनोंसे जयदेवआचार्यकेसाथऐसावचनव्यवहारकिया कि जिससे सपरिवार जयदेवआचार्यका ऐसा परिणामभया कि इस भवमें हमारे यही गुरुहोवो उसके अन्तर शुभमुहूर्तमें जयदेवआचार्यने चारित्रका उपसंपद ग्रहण किया ॥ सनत्कुमारचक्रीके जैसा पीछा देखानहीं उस देशमें श्रीजिनप्रभाचार्य केवलिकपरिज्ञान नाम शकुनादिअवधारण परिज्ञानसे सबलोगोंमें प्रसिद्धथे वहजिनप्रभाचार्य तुरकराज्यमेंगए किसी तुरक नायकने ज्ञानीजानके पूछा मेरे हाथमें क्या है आचार्यने विचारके कहा खडीमट्टीका टुकड़ा वालसहित है वह तुरकनायक खडीखडजानता है वाल नहींजानता है आश्चर्यपाया हुआ हाथदिखाया तव वालखड़ीपरलगाहुआदेखा तव तुरकनायक खुशीभया चंगा २ ऐसा बोला हाथपकडकर चुंबनकिया बाद आचार्यने For Private And Personal Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७३ जाना यह मेरे को साथमें ले जायगा यह सिंधितुरक दुष्ट विचावाला हैं कोई वक्त मेंरेपर अनर्थ भी करदेवेगा म्लेच्छोंका क्या विश्वास किया जावे ऐसा विचारके रात्रिमें चलके अपने देशमें चले आए जयदेव आचार्यको वस्तीवासमार्ग अंगीकार किया श्रीजिनदत्तसूरिजी के पासमें सुनके जिनप्रभाचार्यका अभिप्राय भया मैं भी चैत्यवासकात्याग करूं परन्तु इनका अत्यन्तकठिनमार्ग सुनते हैं जो कोई सुकरतरधर्ममार्ग होवे तो ठीकहोवे बादमें उसने केवलिक परिज्ञानसे विचारा पहले वक्त में जिनदत्तसूरि ऐसा नाम आया वाद विचारा अंकव्यत्यय न होगयाहोवे दूसरी वक्त और गिनतीकरी तथापि उसीतरह जिनदत्तसूरि ऐसानाम आया और निश्चयकरनेके लिएतीसरीवक्त गिननाप्रारंभ किया तब आकाशसे अग्निपुंजगिरा आकाशमें वाणी भई जो तेरे शुद्ध मार्ग से प्रयोजन है तो बहुतवार क्यागिनता है तो यही जिनदत्त - सूरि आचार्य संसार निस्तारक और शुद्ध मार्गके प्ररूपक सद्गुरु है वाद यह जनप्रभाचार्यनिःसन्देह भए श्रीजिनदत्तसूरि के पास में आए तब ज्ञानभानु श्रीजिनदत्ताचार्यने कहा तुहारा चूड़ामणि परिज्ञान हमारे समीपमें नहीं फुरेगा जिनप्रभाचार्य बोले मत फुरो, मेरे विधिमार्गसे प्रयोजन है, ऐसा कहनेसे पूज्योंने जिनप्रभाचार्यको चारित्र उपसम्पति दिया बाद जिनप्रभाचार्यने आचार्य की आज्ञासे विहार किया तथा वहां रहे हुए जिनदत्तसूरि अतिशय ज्ञानियों के पासमें जयदेवआचार्य जिनप्रभाचार्यने वस्ती - वास अंगीकार किया सुनके विमलचन्द्रगणी नामका चैत्यवासीने For Private And Personal Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७४ वस्तीवासअंगीकारकिया उसीप्रस्तावमें जिनरक्षित शालिभद्र सेठके पुत्रने मातासहित दीक्षालिया तथाथिरचन्द्र वरदत्त नामके दो भाइयोंने प्रव्रज्या लिया तथा जयदत्त नामका मुनि मंत्रवादी भया जयदत्तके पूर्वज मंत्रशक्तियुक्त थे उन सबोंको दुःसाधित रोषातुर भइ दुष्ट देवताने मारा जयदत्त भागा श्रीजिनदत्तमरिजीके शरणे आया तब करुणानिधान शक्तिमान् श्रीपूज्योंने दुष्ट देवतासे बचाया तथा गुणचन्द्र यतिने जिनदत्तसरिके पासमें दीक्षा लिया वह पहले श्रावक था तुर्कोने हाथ देखके यह अच्छा भंडारी होगा यह जानके भागनेके भयसे बेड़ी डालदिया उसने शुद्ध भावसे लाखनौकार गुणा उन्होके प्रभावसे सांकल बेड़ी टूटगइ पहरेवालेने जाना नहीं ऐसा रात्रिके पश्चिमाधमें निकलके कोई वृद्धाके घरमें प्रवेश किया उसने कृपासे कोठीमें रख दिया तुोंने देखा तोभी नहीं मिला वाद रात्रिमें निकलकर अपने देश गया और वैराग्य होगया श्रीपूज्योंके पासमें दीक्षा ग्रहण किया और रामचन्द्रगणी जीवानन्द पुत्रसहित अन्यगच्छसे भव्यधर्म जानके श्रीजिनदत्तसूरिजीकी आज्ञा अंगीकार करी और ब्रह्मचन्द्र गणीने सुविहित पक्षमें दीक्षा लिया इन्होंमें जिनरक्षित, शीलभद्र थिरचन्द्र वरदत्त प्रमुख साधुओने और श्रीमती, जिनमती, पूर्णश्री वगेरेहः साध्विओंने वृत्ति पंजिकाटीकादिलक्षणशास्त्रपढ़नेकेकास्ते धारानगरीभेजे इन्होंने वहां जाके भक्तिवान् महर्द्धिक श्रावक के सहायसे वह व्याकरणादिसबपड़े आप श्रीजिनदत्तसूरिजी महाराजने रुद्रपल्लीके तरफ विहारकिया मार्गमें चलते हुए एकग्राममें ठहरे वहां एक For Private And Personal Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७५ श्रावकको एक व्यन्तर निरंतर बहुत तकलीफ देताथा उसके पुण्यसेही आचार्य वहांआए उस श्रावकने अपने शरीरका स्वरूप कहा श्रीपूज्योंने विचार किया कि यह मंत्रतंत्रोंसे साध्य नहीं है वादगणधर शप्ततिका बनाके टिप्पनकमें लिखाके व्यन्तर ग्रहीत श्रावकके हाथमें वह टिप्पन दिया और कहा इस टिप्पनमें दृष्टि रखना उसने वैसाही किया जितने वह व्यन्तर जादापीडा देनेके वास्ते आया परन्तु खट्वाके पासतकरहा शरीरमेंनहींप्रवेश करसका गणधरशप्ततिकाका हृदयमें निवेशदर्शनप्रभावसे दूसरे दिन दरवजेकीसीमातकआया तीसरेदिन आयाहीनहीं श्रावक खस्थ हुआ अर्थात् समाधि हुई वादमें विहार करके रुद्रपल्ली पहुंचे परिवारसहितजिनशेखरउपाध्याय और श्रावकलोगसामने आए विस्तारविधिसे प्रवेशउत्सव किया वादमें आचार्यने धर्मोपदेशदिया वहां श्रीजिनवल्लभसूरिजीके उपदेशसे उपदेशपाएहुए एकसोवीस (१२०) कुटुम्बके लोग रहतेथे उन्होंने श्रीऋषभदेवस्वामी और पार्श्वनाथस्वामीका २ मंदिर बनवाए थे उन्होंकी प्रतिष्ठा करी वहां कितनेक सम्यक्त्वधारी हुए और कइयोंने श्रावककाव्रतग्रहण किया और कितनेक देवपालगणी वगेरेहाने सर्वविरति पना स्वीकार किया इस प्रकारसे उन्होंके समाधान उत्पन्न करके जयदेव आचायोंको यहां भेजेंगे ऐसा कहके और पश्चिमदेशतरफ विहार किया वहांसे पश्चिम वागड़देशमें आए व्याघ्रपुर नगरमें आके रहे और श्रीजयदेव आचार्यको रुद्रपल्ली भेजे सब व्यवस्था समझाके, वहां रहे हुवे श्रीजिनवल्लभसरिप्ररूपित श्रीजिनचैत्यविधिस्वरूप चर्चरीग्रन्थ For Private And Personal Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar ३७६ बनाया पुस्तकमें लिखवाके विक्रमपुर नगरमें मेहर वासल वगैरेहः श्रावकोंको बोध होनेके वास्ते भेजा देवधर सम्बन्धी संण्हियापुत्र जनकघरके पासमें पौषधशाला है उसमें बैठके जिनदत्तमूरिके भक्त श्रावकोंने चर्चरी ग्रन्थकापुस्तक खोला उसअवसरमें मदोन्मत्त देवधर आके चर्चरी टिप्पन यह है ऐसा कहके अपने हाथमें जबरदस्तीसे लेकर फाडडाला उसका यह कुछ नहींकरसकते हैं उन्मत्त होनेसे श्रावकोंने उसके पिताके आगे वह स्वरूप कहा तव देवधरकापिताबोला यह अत्यन्तदुरदान्त है तोभी मैं मना करूंगा वाद श्रावकोंने श्रीपूज्योंकोविनतीलिखी उसमें चर्चरीका खरूप लिखा तब पूज्योंने और चर्चरीग्रन्थ लिखवाके भेजा और पत्र भेजा उसमें यह लिखा देवधरके ऊपर विरूप किसीको मानना नहीं अर्थात् विरुद्ध नहीं करना श्रीदेवगुरुके प्रसादसे यह भव्य होगा वह दूसरा टिप्पन पहुंचनेसे नमस्कार करके श्रावकोंने खोला समाधान हुआ देवधरने विचार किया यद्यपि मैंने टिप्पनक फाड़दिया तथापि आचार्योंने दूसराभेजा है इहां कुछकारण होना चाहिये इस लिए मैं एकान्तमें प्रछन्नपने वांचू और विचार करूं उसमें क्या लिखा है वादमें जब श्रावक टिप्पनक स्थापनाचार्यके आलयमें रखके दरवाजाबन्धकरके गए तब अपनेघरसे ऊपर वाड़ेसे प्रवेश करके बाहरका दरवज्जा बन्धरहते भी चर्चरी पुस्तक लिया और वांचना शुरू किया जैसे २ उसको वांचे वैसा २ भाव उल्लास होवे सो लिखते हैं For Private And Personal Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७७ जहिं उस्सुत्तजणकमु कुवि किरलोयणेहिं । कीरंतउ नवि दीसइ सुविहियलोयणिहि ॥ निसि न ह्राण न पठन साहुसाहुणिहिं । निसि जुवइहिं न पवेसु न न विलासिणिहिं ॥१ वलि अथिमियइ दिणयर जहिं नवि जिणपुरओ। दीसइ धरिउ न जुत्तइ जहिं जणि तूरउ । जहिं रयणिहि रहभमणु कयाइ न कारियइ । लवु डार सुह जहिं पुरि सुविहित पमुहाइ ॥२ जहिं सावय तंबोल न भक्खइ हिलिंति न य। जहिं पाणहिय धरति न सावय सुद्धन य ॥ जहिं भोयणु नवि भक्खइ न अणुचिय भणओ। सहु पहरणि न पवेसु न पुट्टउं चुल्लणओ ॥ ३ जहिं न हासु नवि हुडु न खिडडु नरूसणओ। कित्ति निमित्त न दिजइ जहिं धणु अप्पणओ ।। कि २जहिं बहु आसायण जहिंति नाम लिहिं । मिलिय केलि करिंतिसमणु महि लियेहिं ॥४ अर्थ-जहां उत्सव करनेवालेलोगोंका क्रम कुत्सित नेत्रों करके करतेहुए सुविहित विधि मागको नहीं देखते हैं सुविहितविधिमार्गमें रात्रिमें स्नान नहीं करना और साधु साध्वियोंका परस्पर रात्रिमें पठन नहीं और रात्रिमें स्त्रियोंका जिनमंदिरमें प्रवेश नहीं और वेश्यायोंका मंदिरमें नाटक नहीं ॥ १ और सूर्य अस्त होनेके बाद तीर्थकरके आगे वलियाने For Private And Personal Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७८ नैवेद्य वगैरहः चढ़ाना युक्त नहीं वादिन बजाना रथ घुमाना कभीभी नहीं किया जावे और लवण उतारना वगैरह रात्रिमें नहीं करना ॥२ जिनमंदिरमें तंबोल खाना नहीं और परस्पर पंचायतकरना नहीं जिनमंदिरमें श्रावक पानी पीवे नहीं भोजन न करे अनुचितव्यापार न करे पहरावनीवगैरहः न करे परमेश्वरकोपीठदेके बैठे नहीं रसोई करे नहीं ॥ ३ जिनमंदिरमें हास्य, कुचेष्टा, परस्पर लड़ाई करना इत्यादि नहीं करे और केवलकीर्तिके निमित्त जिनमंदिरमें दानादिकार्यनहीं करे जिनभक्तिसे दानादिक करे और नाम वगेरेहः नहीं लिखे जिनमंदिरकोमलीननहीं करे यह करनेसे आशातनाहोवे हैं और स्त्रियोंकेसाथक्रीडा न करे ४ इत्यादि अर्थ धारण करे वैसा २ देवधरके मनमें प्रमोद उत्पन्न होवे अहो अत्यन्तशोभनजिनभवनका विधि कहा है इसके अनुसारसे स्थालिपुलाक न्याय करके औरभीसर्व विषय इसशास्त्रमें श्रेष्ठ संभव है इस लिए मैंभी यह मार्ग अंगीकार करूं परन्तु विंब अनायतन १ और स्त्री पूजा न करे यह संदेह दो पूछना है ऐसा विचारके देवधर टिप्पन वैसाही रखके सन्मार्गमें भया है चित्त जिसका ऐसा अपने घर आया । - इधरसे वागड़देशमें रहे हुए श्रीपूज्योंनेभी धारानगरीमें जो साधुओंको भेजेथे उन सबोंको पीछे बुलाए सिद्धान्त पढाया वादमें जिनदेवको जो आपने दीक्षा दियाथा उन्होंको आचार्यपद दिया दस १० वाचनाचार्य किए वाचनाचार्य पंडित जिनरक्षित गणि १ वा. शीलभद्रगणि २ वा. थिरचन्द्रगणि ३ ब्रह्मचन्द्रगणि ४ वा. विमलचन्द्रगणि ५ वा. वरदत्तगणि ६ वा. भुवनचन्द्रगणि ७ वा. For Private And Personal Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७९ चरणागगणि ८ वा. रामचन्द्रगणि ९ वा. भाणचन्द्रगणि १० तथा ५ महत्तरा करीं श्रीमती महत्तरा १ जिनमती महत्तरा २ पूर्णश्रीमहत्तरा ३ जिनश्रीमहत्तरा ४ ज्ञानश्रीमहत्तरा ५ तथा हरिसिंहाचायोका शिष्य मुनिचन्द्रनामका उपाध्याय था उसने श्रीजिनदत्तसूरिजीसे प्रार्थना करीथी जो कोई मेरा शिष्य योग्य आपके पासमें आवे उसको आचार्यपद देना श्रीपूज्योंने यह वचन अंगीकार कियाथा वाद मुनिचन्द्रउपाध्यायका शिष्य जैसिंहनामका आचार्यपदमें स्थापा उसकाभी शिष्य जैचन्द्रनामका था उसको पत्तनमें समव सरणमें आचार्यपदमें स्थापा दोनोंके आगे पूज्योंने कहा हमारी कहीहुई रीतिमें अवतुझारेप्रवर्तना आत्मकल्याणकरना इस प्रकारसे पद स्थापना करके उन्होंको सिखावन देके सबोंको विहारादिस्थान कहके स्वयं आप अजमेरआए, वहां श्रावकोंने तीन जिनमंदिर और अंबिकाका स्थान पर्वतपर तय्यारकराया है वाद श्रीजिनदत्तसूरिजीने शोभनलग्नमेंमूलमंदिरोंमें वासक्षेपकिया इधरसे श्रीविक्रमपुरमें सहियापुत्र श्रीदेवधरने श्रीजिनदत्तसूरिजीने भेजा चर्चरी नामकापुस्तकके वांचनेसेजाना है सद्दर्शनकारी विधिबोध जिसने पनरे अपना कुटुम्ब श्रावक समुदाय करके अपना पिता और आसदेवादिकसे कहा भो श्रावको मेरेको यहां श्रीजिनदत्तमुरिजीको विहार कराना है अर्थात् मैं विनतीकरकेयहां लाउंगा देवधरके आगे कोई कुछभी नहीं बोल सकता है श्रावक समुदायके साथ विक्रम पुरसे देवधर रवाने होके नागौर आया है उस वक्तमें वहां श्रीदेवाचार्य विशेषकरके प्रसिद्धि पात्ररहतेथे For Private And Personal Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८० देवधरभी व्याख्यानप्रस्तामदिरगया देवी वाद देवधर स्वाप्रवेश देवधरमी विक्रमपुरसें आया है यह वात प्रसिद्धभईथी वाद जिनमंदिरमें व्याख्यानप्रस्तावमें देवाचार्यवेठे हैं देवधरभी स्नानादिकसे पवित्र होके जिनमंदिरगया देववंदनादिक करके आचार्यको वंदनाकरी आचार्यने कुशल वातो पूछी वाद देवधर पहलेही आचार्यसे प्रश्न किया हेभगवन् जिनमंदिरमें रात्रिमें स्त्रीप्रवेश और प्रतिष्ठापलिविधान नन्दीवगैरहः करनायुक्त है या नही ऐसा प्रश्न सुनके देवाचार्यने विचारा कथंचित् जिनदत्ताचार्यका मंत्र इसके कानमें प्रवेशकिया है इस कारणसे उन्होंसे वासितके जैसा मालूम होता है ऐसा विचारके कहा हे श्रावक रात्रिमें जिनमंदिरमें स्त्रीप्रवेशादिक ठीकनहीं होवे है तब देवधर बोला क्यों नहीं मनाकरते हैं आचार्य बोले लाखों आदमी हैं किस २ कों मना करें तब देवधर बोला हे भगवन् जिस देवघरमें जिन आज्ञा नहीं प्रवर्ते वहां क्या जिनआज्ञा निरपेक्ष इच्छासे लोग प्रवर्ततेहैं उसको जिनघर कहना या जनघर कहना आप आचार्य हैं कहिये, तब आचार्य बोले जहां साक्षात् तीर्थकरविराजमान दीखते हैं वह कैसे जिनमंदिर नहीं कहा जावे, देवधर बोला हेआचार्य हम मूर्ख हैं परंतु इतनातो हमभी जानते हैं जहां जिसकी आज्ञानहीं प्रवर्ते वह घर उसका नहीं कहाजावे इसकारणसे पाषाणमईजिनबिंब अंदर स्थापनेसे भगवानकी आज्ञाविना स्वेच्छा करके व्यवहार करनेमें वह जिनमंदिर कैसे कहा जावे और ऐसेजानतेभए आप प्रवाहमार्ग नहीं मनाकरते हैं प्रत्युत पोपते हैं वह ये आपको मैं नमस्कर करता हूं आपने मार्ग प्रथम बताया है परन्तु मेरेको जिस For Private And Personal Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८१ मार्गमें तीर्थकरकीआज्ञाप्रवर्तेहै वहमार्गअंगीकारकरनाहै ऐसा कहके देवधरउठाअपनेसाथमें जो श्रावककुटुम्बवगैरह के लोगआएथे उन्होंका विधिमार्गमें स्थिरपनाहुआ वाद वहांसे चलके श्रावकसमुदायसहित अजमेर पहुंचा श्रेष्ठभावसे श्रीजिनदत्तसूरिजी महाराजको वन्दना करी आचार्यश्रीने देवधरका अभिप्राय पहलेही जानाथा श्रीपूज्योंने देशना दिया तब देवधर परिवारसहित निसंदेहभया वाद श्रीपूज्योंकीप्रार्थनाकरी हे भगवन् कृपा करके आप विक्रमपुरके तरफ विहार करें आचार्य बोले जैसा अवसर वादमें विस्तार विधिसे जिनमंदिर बहुत जिनप्रतिमा और गणधरादि प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करके बहुत जिनशासनकी उन्नति करी अढाई दिनकी झुपडी जो कहि जावे सो उसवक्तकावना हुवा मकान हे उसमे अभि बहुत प्रतिमावगेरे निकले है और अजमेरसे पूर्व दिशि तरफ एक पर्वतमें बावनबीरका निवास था वहां आचार्य गए वहां बावन वीरोंको साधे वीर प्रत्यक्ष भए और बोले हम आपकी सेवामें हाजिर हैं आप आज्ञा करें ऐसे कहके वीर अदृश्य हो गए वाद परिवारसहित देवधर है साथमें जिन्होंके ऐसे श्रीआचार्य अजमेरसे बिहारकरके क्रमसे नगरप्रामादिकमें भव्योंको प्रति बोधते ऐसे विक्रमपुर पधारे प्रवेशोत्सव हुआ वहांके बहुत लोगोंको प्रतिबोधा परंतु जिस वक्त विक्रमपुर पधारे वहां पहलेसेही जनमारीका उपद्रव था आचार्य आयोंके बाद श्रावकोमें शांति भई परंतु और लोगोंने बहुतशांतिककाउपायकिया परंतु उपद्रवशांतभया नहीं तब नगरके लोगोंने श्रीपूज्योंसे विनती करी हे भगवन् हमारे गए वहांश तरफ एक पर्वमा प्रतिमावगेरे नि For Private And Personal Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८२ ऊपर उपकारकरें इस उपद्रवकीशांति करें हम आपकी आज्ञा पालनकरेगे तब आचार्य बोले जैनधर्मअंगीकार करो या अपना एक पुत्र या पुत्री हमको देदेओ तो हम अभी उपाय कर देवे तब लोगोंने श्री पूज्यों का वचन अंगीकार किया तब वहां शांति भई तब बहुत लोग श्रावक होगए जिन्होंने जैनधर्म नहिं अंगीकार किया उन्होंने अपना एक पुत्र वा पुत्री आचार्यजीको दिया वहां ५०० पांचसै साधु भए और ७०० साध्वियां भई, वहां भी महावीर स्वामी की प्रतिमा स्थापी वहांसे विहार करके उच्चनगर जाते हुए बीचमें अन्तराय भूत जो विरोधीलोग थे उन्होंको प्रतिबोधे बड़नगर आए वहां प्रवेशोत्सवहुआ बहुतलोगोंकोप्रतिबोधेवहां कितनेकईरपालुब्राह्मणवगैरहःलोगोंने एक मरनेवाली गायको जिनमंदिरमें रखदी गाय मरगई बाद लोगोंने कहा यह जैनदेव गोघातक है श्रावक लोगसुनते घभराए और श्रीपूज्योंसे कहने लगे महाराज लोग अपवाद करते हैं बाद श्री पूज्योंने मांत्रिक प्रयोगसे गायको वहांसे उठाई गाय चली और रुद्रालय में जाके गिरी तब ईरपालु लोग लज्जित होके आचार्य के पावों में गिरे और कहने लगे हमारा अपराधक्षमा करें अबहम ऐसा कभी नहीं करेंगे आपकी संतति के जो यहां आयेंगे उन्होंका प्रवेश उत्सव वगैरह : हम लोग करंगे आचार्यश्रीने वहांसे विहार किया गुर्जरदेश में होके लाटदेशमें नर्मदा के किनारे भड़ौच ( भरूछ ) नगर पधारे वहां मुगलका राज्य था प्रवेश उत्सवमें मुगलका पुत्र आयाथा बहुत लोंगों की भीडथी उसमें वह मुगलका पुत्र घबराके अकस्मात मरगया For Private And Personal Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar ३८३ श्रावक लोग घभराए श्रीपूज्योंसे कहा तब श्रीपूज्योंने उसी वक्त व्यन्तरके प्रयोगसे जीताकरदिया और कहा यह मदिरा मांस नहीं खायगा तबतक जीता रहेगा उसने ६ महीनोंतक मदिरा मांस नहीं खाया वाद एक दिन भूलसे मांस खा लिया उसी वक्त देवशक्ति नष्ट होगई और मरगया, वहां बहुत लोगोंको प्रतिबोधके विहार किया नर्मदा किनारे विहार करते त्रिभुवनगिरीमें कुमारपाल राजाको प्रतिबोधा वहां बहुत यतियोंका विहार कराया वहांसे विचरतेभए मालवदेशमें उजैनीनगरीआए वहां ६४ योगिनियोंको प्रतिबोधी सो लिखते हैं श्रीजिनदत्तसूरिजी महाराज व्याख्यान वांचते थे उस वक्त ६४ योगिनी श्रावकनीका रूप करके आई श्रीपूज्योंने व्याख्यानके पहलेही श्रावकसे कहाथा व्याख्यानमें ६४ छोटे पाटे रखदेना श्रावकने उसीतरह किया उतनेमें ६४ योगिनी आई पाटोंपर बैठगई श्रीपूज्योंने व्याख्यानवांचते योगिनियोंको कीलदी व्याख्यान उठेके वाद सब लोग चले गए योगिनियों बैठी रही तब दीन होकर योगिनियों बोली हे भगवन् हम तो आपको छलनेको आईथी आपने तो हमको स्वाधीन करली आप कृपा करके हमको छोड़ें हम आपकी आज्ञामें रहेंगी तब आचार्यने योगिनियोंको छोड़ी तब योगिनियों आचार्यके विद्यावलसे प्रसन्न होके वरदान दिए उन्होंके नाम लिखते हैं ग्राम २ में खरतरश्रावक दीप्तिवानहोगा १ प्रायः खरतरश्रावक निर्धन नहीं होगा २ संघमें कुमरणनहींहोगा ३ अखंडशीलपालनेवाली साध्वी ऋतुवंती नहीं होगी ४ खरतर संघको शाकन्यादि नहीं छलेगी ५ जिनदत्त नाम For Private And Personal Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८४ लैनेसे विद्युत पातादिउपद्रव नहीं होगा ६ खरतर श्रावक सिंधु देशमें गया हुआ धनवान होगा ७ और योगिनियां बोली यह सात वचन पालना जिससे हमारादिया हुआवरदान सफल होवे सो कहते हैं सिंधु देश में गए हुए गच्छनायकों को पंचनदी साधना १ आचायोंको निरंतर २००० दोहजार सूरिमंत्रकाजाप करना २ साधुओंको निरंतर २००० दोहजार नौकार गुणना ३ खरतरश्रावकोंको घरमें या उपाश्रय में उभय काल सप्तस्मरण गुणना ४ श्रावकोंको नित्य तीन खीचडीकी नौकर वाली गुणना वहां एक मनकेपर एक नवकार और १ उवसग्ग स्तोत्र गुननेसे खीचडीकी माला कही जावे है ५ तथा खरतर श्रावकों के १ महीने में २ आंबिल करने ६ खरतर साधुओंको शक्तिरहते नित्यएकाशनाकरना ७ और जोगनियोंने कहा दिल्ली १ अजमेर २ भडौच ३ उजैन ४ मुलतान ५ उच्चनगर ६ लाहौर ७ ये सात नगरोंमें परिपूर्णशक्तिरहित खरतरगच्छ नायaar रात्रिमें नहीं रहना ऐसा कहके योगनियों स्वस्थान गई और उज्जैन में वज्र खंभमें श्रीमहाकालके मंदिरसे सिद्धसेनदिवाकरका विद्याम्नाय कापुस्तकग्रहणकिया और मायावीजका ३ || सादातीन करोड़ जाप किया वहांसे विहार करके चित्रकूट चीतोड नगरआए वहां विरोधियोंने अपशकूनकरने के लिए कालास बांध के सामने लाए गीत वादिआदिक बंध हो गए विवाद सहित श्रावकोंने कहा अहो सुंदरनहीं हुआ तब ज्ञानदिवाकर श्रीजिनदत्तसूरिजी महराज बोले अहो क्यों उदास होते हैं जैसे यह काला भुजंगडोरीसे बंधा हुआ है वैसा औरभीविरोधी दुष्टलोग है वहबंधन में पड़ेगा परिणामसे यह शकुन अतीव सुंदर है वाद आगे चलते दुष्टोंने एक For Private And Personal Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८५ नकटी स्त्रीको सामने लाए वह सामने आकेखड़ी भईको पूज्योंने देखी उसको वतलाई (आई भल्ली) तब उस दुष्ट रंडाने उत्तर दिया "भल्लाइ धाणुका मुक्की" तब पूज्य थोडे हसके बोले "पक्खा हरा तेण तुह छिन्ना" तब विलखी होके चलीगई वाद आचार्य नगरमें आए श्रीचिंतामणिपार्श्वनाथस्वामीके मंदिरके स्तंभसे अपनीविद्याके प्रभावसे विद्याम्नायका पुस्तक प्रगटकिया वहांसे विहार करते हुए अजमेर आए पाक्षिक प्रतिक्रमण करते हुए श्रीगुरू महाराजने वारंवार चमकती वीजलीको मंत्र बलसे पात्रके नीचे रक्खी प्रतिक्रमणभयोंके अनन्तर पात्रके नीचेसे निकालकर जिनदत्त नाम ग्रहण करेगा वहां मैं नहीं पहूंगी ऐसा वर लेके छोड़दी बीजली स्वस्थान गई वहांसे आचार्य विहार करते हुए गुर्जरदेशमें पाटननगरआए उससमय एक नागदेवनामकाश्रावक था उसका दूसरा नाम अंबड़ ऐसाथा उसने एकदा गिरनार पर्वतपर ३ उपवास करके अविका देवीका आराधन किया अंबा प्रत्यक्ष भई और कहा मेरा क्यों आराधनकिया कार्य कहो तब नागदेवबोला मातर इससमयमें भरतक्षेत्रमें युगप्रधानपदधारक कौन आचार्य है उन्होंको मैं अपना गुरूकरूं ऐसा पूछा तब अंबिकादेवी उसके हाथमें सोनेके अक्षरोंसे यह श्लोक लिखा "दासानुदासा इव सर्वदेवा यदीयपादालतले लुठंति । मरुस्थलीकल्पतरुः स जीयात् युगप्रधानो जिनदत्चसरिः ॥१ __और बोली जो यह हाथके अक्षरवाचेंगे उन्होंको युगप्रधान जानना ऐसा कहके अंबा अदृश्य होगई वाद वह श्रावक ठिकाने २५ दत्तसूरि० For Private And Personal Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८६ २ बहुत आचार्यको हाथ दिखाता फिरा परंतु कोईभी अक्षर वांचनेको समर्थ नहीं भए वाद एकदा पाटननगर में त्राबावाडा नाम मोहल्ले में श्रीजिनदत्तसूरिजी के पास में आया अपना हाथ दिखाया तब गुरूने अपनी स्तुतिलिखी भई देखके हाथपर वासक्षेप किया और शिष्यको वांचनेकी आज्ञादी शिष्यने ऊपर लिखा श्लोक बांचा तब नागदेव श्रावक परम भक्तिमान आचार्यका शिष्य भया ऊपर लिखे भए लोकका यह अर्थ है दासानुदासके जैसा सर्वदेव जिन्होंके चरण कमलमें लुटते हैं अर्थात् नमस्कार करते हैं मरुस्थलीमें कल्पवृक्षके जैसा युगप्रधान श्रीजिनदत्तसूरि चिरंजीव रहो, ऐसे कलिकाल सर्वज्ञ कल्प युगप्रधान पदधारक श्रीजिनदत्तसूरिजी महाराज एकदा व्याख्यान वांचतेथे तब गुरूने दीर्घ उपयोगसे समुद्रमें डूबता हुआ एक श्रावकका जहाज जानके अपना स्मरण करते हुए लोगों के उपकारके लिए व्याख्यानका पत्रनींचे रखके योगशक्तिसे पक्षिवत् समुद्र में जाके जहाजतिराया इस प्रकारसे श्रावकका कष्ट दरकरके पीछे आके व्याख्यान वांचना शुरू किया यह वृत्तान्त सब लोगोंने जाना तब श्रीगुरुका महिमा बहुत फैला बहुत लोग भक्त भए वहांसे विहार करते क्रमसे विचरते भए मुलताननगर गए प्रवेशोत्सव बहुत विस्तारसै होता देखके एक अन्य गणका अंबडनामका श्रावक बोला इहां सामेला होता है जो गुर्जरदेशमे पाटणपधारें और प्रवेशोत्सव ठाठसै होवे तब आपको सच्चासमजैं तब श्रीपूज्य उपयोग देके बोले हम फरसना साथ पाटण आवेंगें तें तेललूण वेचता सांमने मिलेगा बाद श्री जिनंदत्त For Private And Personal Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achan सूरिजी महाराज मुलतानमें बहुत लोकोंको प्रतिबोधे जैन शासनकी उन्नति करके विहार करते पंचाल (पंजाब) मरुस्थल गोडादि देशोंमें विचरते प्रतिबोध करते गुर्जरदेशमें पाटण नगर पधारे बहुत विस्तारविधिसै सामेला होताथा उतने वहही अंबडश्रावक अन्य गच्छीय सामने आया तैलादिवेचणेकुंग्रामांतरजाताथा आचार्यश्रीने बोलाया कैसाहे भद्र तब अंबड लजितहोके नीचा मुख करके चलागया श्रीपूज्य पाटणमे रहे तब अंबड कपटसे खरतरगच्छकाश्रावकभया एकदा उपवासकेपारनेमे साकरके पाणिमें जहिर दिया आचार्यने आहारकियोंके वाद जहिरकापरिणाम जाणा तवरायभणसालीगोत्रीय श्रीआभूनामकाश्रावकने पालणपुरसै जहिरउतारणेकिमुद्रामंगाई उस्सेजहिरउतारा वादअंबडकीलोकोंमेबहुतनिंदाभइ अंबड मरके व्यंतरदेवहुवा तथापिद्वेषनहिंगया एकदा श्रीपूज्यसोतेथे रजोहरण पाटेसैनीचागिरगया तबछलदेखके रजो हरण व्यंतरने लेलीया ओर आचार्य महाराजमें अधिष्ठित भया तब भणशाली श्रावकने धूपादिक करके बोलाया तब अंबड व्यंतर बोला तेरा कुटुंबको मुजै देवै तब श्रीपूज्योंको छोडं बाद उसी वक्त आभु श्रावकने अपने गोत्रवालेसबकुटुंजका उताराकरा तब आचार्य सावधानभये ओघालेके भणसालीका गोत्रबचाया और व्यंतर उसी समय आचार्यका तेज नहिसहता चलागया तब संघमें बहोत हर्षभया श्रावकोने जिनशासनकी उन्नति गुरु महाराजकी भक्तिके लियै उत्सव सांतिस्नात्र वगैरे श्रीदेवगुरुकी भक्ति विशेष करि ऐसे प्रभावक कलिकालसर्वज्ञकल्प परोपकारकरणतत्पर भूमंडलमें For Private And Personal Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar ३८८ स्वखके निजपहोद्वारा प्रतिष्ठाकरणेवालखामीजी प्रमुखजिवनाथखा विचरते श्रीजिनदत्तसरिजी महाराज शिष्यादि परिवारसे परिवृत ज्ञानदिवाकर विचरतेभये मेघवत् उपगारि उपगार करतेहैं इ. त्यादि अनेक आश्चर्यके निधान निरंतर चार प्रकारके देवों करके सर्वदा सेवित चरणकमल जिनोका ऐसे बावन (५२)वीर चोसठ (६४) योगिनी पांचपीर खेत्रपाल मानभद्र वगैरे देवकिंकरवत् सेवाकरतेहैं जिनोकी ऐसे श्रीजिनदत्तसूरीश्वरजी करुणासमुद्र घारापुरि गणपद्रादि स्थानोंमें महावीरस्वामीजी पार्श्वनाथस्वामीजी सांतिनाथस्वामीजी अजितनाथस्वामीजी प्रमुखजिनबिंबोकी और जिनमंदिरोकी प्रतिष्ठाकरणेवाले ऐसे और स्वज्ञानके बलसे देखके निजपट्टोद्धारक रासलश्रावकके पुत्रको प्रव्रज्या देनेवाले वहस्तसे आचार्यपद देके भालस्तलमें मणिधारणेवाले श्रीजिनचंद्रसूरिनाम स्थापित करनेवाले सूर्यवत् प्रतिबोधकियाहै भारतवर्षके भव्य कमलोको जिनोने ऐसे गणधरसार्धशतकादि बहोत शास्त्रोंके करणेवाले युगप्रधान भट्टारक श्रीजिनदत्तसूरिजी महाराजका चरित्र लेशमात्र निरूपण कीया इतिश्रीजिनकीर्तिरत्नसरिशाखायां तत्परंपरायांच श्रीमजिनकृपाचंद्रसूरिशिष्य पं० आनंदमुनि संगृहीत तल्लघुभ्राता उपाध्याय जयसागरगणिना लोकभाषयाऽवतारित जंगम युगप्रधान भट्टारक श्री जिनदत्तमरिचरिते श्रीजिनदत्तसूरीश्वराणां जन्मदीक्षायुगप्रधानपदस्थापनाद्यधिकारवर्णनोनामपंचमसर्गः समाप्तः॥५॥ इति पूर्वार्द्ध समासम्। For Private And Personal Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar ॥ अशुद्धिशुद्धिपत्रम् ॥ शुद्धि م पृष्ठ पंक्ति अशुद्धि ४ १२-१३ में टिपनी है २ ओली १४से मूल है ४ १४ पृथ्वीके ऊपर१८सो समभूतलसें ९से नीचे योजन ९से ऊपर २१ सो ४३ २६ सो ३५ टिप्पनीकी लकीर है उपत्ति उत्पत्ति ८ १२ सुदर्शनविजय सुदर्शन विजय श्रीरिभदेव श्रीरिषभदेव २७ ५ पृथ्वीपर रत्न पीठपर कितनेक असंख्यात ३२ १२ संख्याण सांख्य १३-१४ देवलोकएसें देवलोकसें राजसगण राक्षसगण ५९ २१ आर्यशिवा आर्यासिवा कुंथकुमर कुंथुकुमर प्राप्ति प्राप्त प्राप्ति प्राप्त ... ano wa w For Private And Personal Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पृष्ठ शुद्धि अशुद्धि कुमरि कुमर मथुरा कुमारि 9 9 9 9 कुमारि मिथिला V9 प्राप्ति प्राप्त प्राप्ति प्राप्त प्राप्ति प्राप्त 999 0 ० ० . M००० सुभद्रा रिद्धि रिद्धि Es vwr 92m 2022 2020- 01 सुदामा शुद्धी शुद्धी पूछेकि निष्टितार्थ मध्यपापा प्रत्यक्त पूछ कि निष्टितार्थ मध्यमपापा प्रत्यक्ष N ११५ oC वेहू दरिद्रताका १८० धापे दरिद्राताका धाये रागबुधिका नखलु होने में १८८ २२४ २४९ २६० रागबृद्धिका नखलुनखलु होनेसैं धो तित्थयर छो तित्थर For Private And Personal Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar पृष्ठ पंक्ति २६२ १ २६३ ५ २८० ३ २९४७ अशुद्धि शानशाली वनच पूख्य पर्दे N शुद्धि ज्ञानशाली वचन मूख्य पहे प्रापणात् तापस यातपा दीया बोलेकि रविणेव निरंतरकिया संघंमि सीसो पूछा २९७ ग्ररूपणात् तापल दिय बोलोकि रविणेन निरंकियातर संघनि सासो m ३१२ ३१२ ३१५ m १३ १६ १३ ३१६ ३१८ m rur V m m m ३८४ तो विवाद m विषाद - For Private And Personal Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only