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अणफुल्लियफुल्ल प्राकृतके अनंत होनेसे अप्राप्त फूल फलोंकों मत तोड, भावार्थ यह है कि योग जो है, सो कल्पवृक्ष है, किसतरे कि जिस योग रूप वृक्षमें तप नियम तो मूल है, और ध्यान रूप बड़ा स्कंध है, तथा समतापणां कविपणां वक्तापणां, यश, प्रताप, मारण, उच्चाटन, स्तंभन, वशीकरणादि सिद्धियों कि जो सामर्थ्य सो फूल है, अरु केवलज्ञान फल है, इससे अभी तो योगकल्पवृक्षके फूलही लगे हैं सो केवल ज्ञानरूप फल करके आगे फलेंगे, इसबास्ते तिन अप्राप्त फल पुष्पोंकों क्यों तोडता है अर्थात् मत तोड ऐसा भावार्थ है, तथा "मारोवा मोडिहिं" जहां पांच महाव्रत आरोपा है तिनकों मत मरोड "मणुकुसुमेत्यादि" मनरूप फूले करी निरंजनं जिनं पूजय (निरंजन जिनकों पूज) “वनात् वनंकिंहिँडसें" राजसेबादि बुरे नीरस फल क्यों करता है इति पद्यार्थ, तब सिद्धसेन सूरिने गुरु शिक्षाकों अपने शिर ऊपर धरके और राजाकों पूछके वृद्धवादी गुरुके साथ विहार करा, और निविड चारित्र धारण करा, अनेक आचार्योसें पूर्वोका ज्ञान सीखा, एकदा सिद्धसेनजीने सर्वसंघकों एकठो करके कहा कि तुम कहोतो सर्वागमोंकों में संस्कृत भाषामें कर देउं, तव श्रीसंघने कहा क्या तीर्थकर गणधर संस्कृत नही जानते थे, जो तिनहोनें अर्द्धमागधी भाषामें आगम करे ऐसी बात कहनेसें तुमको पारांचिक नाम प्रायश्चित्त लागा हम तुमसें क्या कहें तुम आपही जानते हो, तब सिद्धसेनने गुरुका वचन प्रमाण करके कहा कि, मैं मौन करके बारावर्षका पारांचिक नाम प्रायश्चित्त लेके गुप्त मुख वत्रिका, रजो
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