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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३७ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन धर्म ( अर्थात् ) चतुर्विधसंघ, और सर्वशास्त्र विच्छेद हो गये । ( तब ) तिन ब्राह्मणा भासोंकों लोक पूछने लगे । ( कि ) धर्मका स्वरूप हमको बतलावो । तब तिनोंने जो मनमें माना । (और) अपणा जिसमें लाभ देखा सो धर्म बतलाया । अनेक तरहके ग्रंथ बनाते रहे ( जब दशमा ) श्री सीतलनाथ अरिहंत हुए । तिनोंने जब फेर जैनधर्म प्रगट करा ( तथापि ) कितनेक ब्राह्मणभासने न माना स्वकपोल कल्पित मतहीका कदाग्रह - ररका ( जबसें) अन्य मति ब्राह्मण भए (और) उलटे जिन धर्म साधुवां द्वेषी बन गए ( इसी तरे ) ८ भगवानके ७ अंतर कालमें जिनधर्म विच्छेद होता रहा ( इससे ) बहुत मिथ्या धर्म वढता गया || ( यदुक्तं आग मे ) सिरिभरहचकवट्टी । आय रियवेयाण विस्सुउप्पत्ती । माहण पढणत्थमिणं । कहियं सुहझाण विवहारं ॥ १ ॥ जिणतित्थे बुच्छिने । मिच्छत्ते माहणेहिं ते ठविया । अस्संजयाण पूआ । अप्पार्णकाहियातेहिं ॥ २ ॥ ( इत्यादि ) | ( फेर ) कितनेक काल पीछे, याज्ञवल्क्य, सुलसा, पिप्पलाद, अरु पर्वत, प्रमुख ब्राह्मणाभासोनें, धनके लोभसें, तिन वेदोंमें जीवहिंसा प्रमुख प्ररूपणा करके उलट पुलट कर डारे । जैन धर्मका नामभी वेदांमेंसे निकाल दीया | लकी अन्योक्ति करके ( दैत्पदस्युवेदबाह्य ) इत्यादिनामोंसे, साधुआंकी निंदा गर्भित, १ ऋग् । २ यजु । ३ साम । ४ अथर्वण, ये ४ नाम कल्पन कर दीये । ( यही वात ) बृहदारण्य उपनिषद भाष्य में लिखा है ( कि ) यज्ञोंका कहनेवाला सो For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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