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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar मनसा भोजन कराके, सर्वके सन्मुख, श्री अरिष्टनेमि कुमर नाम स्थापन कीया (नाम स्थापनका यह हेतु है कि) भगवान् जब गर्भ में आया, तब मातानें अरिष्ट रत्नमय. बडा नेमी (चक्रधारा ) आकाशमें उत्पन्न स्वप्नमें देखा। तिस कारणसें अरिष्टनेमि नाम दिया । शंखके लंछनयुक्त, श्यामवर्ण, शरीरका प्रमाण १० धनुष हुवा । ३ ज्ञानसहित, महातेजस्वी, १००८ लक्षणालंकृत विवाह किये विगर कुमारअवस्थामें रहै (पीछे) काकेका बेटा श्रीकृष्ण, तथा बलभद्रनें बहुत हठ करके, मनविगर राजीमतीके साथ विवाह ठहराया । जब जान लेके भगवान् सुसराके घरे तोरणकेपास आये । उहां मारणके निमत्त बहुतसे जानवर वाडा पीजरामें भरे हुवे देखे । तब दया करके सर्व जीवां कों बंधमेंसें छोडाए । और आप पीछा घिरके दिक्षा लेनेकों तैयार भए, फेर लोकांतिक देवताके वचनसे, मिति श्रावणसुदि ६ के दिन, द्वारका नगरीके बाहिर गिरनारपर्वतपर, छठ तप करके, वेडसवक्षके नीचे, १००० पुरुषोंके साथ, दीक्षा ग्रहण करी ( उसवखत ) चोथो मनपर्यव ज्ञान उत्पन्न भयो । प्रथम छठको पारणो, वरदिन्नके घरे, परमान्नक्षीरसें हुवो । ५४ दिन छद्मस्थपणे विहार करके, फिर गिरनार पर्वतपर आये वहां अट्ठम तपसहित, आशोजवदि अमावसकेदिन, लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान उत्पन्नभया । उसवखत चतुर्निकाय देवगणका कीया भया समोसरणमें, १२ परिपदाके सन्मुख, भगवान धर्मोपदेश देके, चतुर्विध संघकी स्थापना करी । भगवानके १८ हजार सर्व साधुभये (जिसमें ) For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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