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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८७ श्रीजिनवल्लभमरिजी महाराज हुवे, अनुक्रमे सकलशास्त्रोंको पढकर महाविद्वान् हुवे तथा पिंडविशुद्धिप्रकरण, संघपट्टक प्रकरण, धर्मव्यवस्था प्रकरण, षडशीति, सूक्ष्मार्थसार्धशतक प्रकरण, श्रीजिनवल्लभमूरिसमाचारी, इत्यादि अनेक प्रकरण शास्त्र किये, तथा अढारे हजार वागडदेशमें श्रावक नवीन जैनी किये, और चित्रकूट नगरमें श्रीजिनवल्लभसूरिजीमहाराजने चण्डिकादेवीको प्रतिबोधी और जीवहिंसा छुडाई तथा धर्मप्रभावसे धनवाला हुवा साधारण नामका श्रावकनें कराया हुवा ७२ जिनालयमंडित श्रीमहावीर स्वामीके चैत्य ( मंदिर )की प्रतिष्ठा करी उसी चित्रकूटस्थानमें वि० संवत् ११६७ में श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजको आचार्यपद नवांगटीकाकार श्रीमद् अभयदेवमूरिजी महाराज देवलोक होनेसें उनके वचनसे उन्होंके संतानीय श्रीदेवभद्राचार्य महाराजनें दिया, याने नवांगटीकाकार श्रीअभयदेवमूरिजी महाराजके पाटपर मुख्य श्री. जिनवल्लभसूरिजी महाराजको आचार्यपदमें स्थापित किये, नवांगटीकाकार श्रीअभयदेवमूरिजी महाराजने श्रीभगवतीसूत्रकी टीकाके अंतमें अपने पूर्वजोंकी पाटपरंपरा इसतरह लिखी है कि चांद्रे कुले सदनकक्षकल्पे, ___ महाद्रुमो धर्मफलप्रदानात् , छायान्वितः शस्तविशालशाखः, श्रीवर्द्धमानो मुनिनायकोऽभूत् ॥ १॥ तत्पुष्पी विलसद्विहारसद्धसंपूर्णदिशौ समंतात् , बभूवतुः शिष्यवरावऽनीचवृत्ति श्रुतज्ञानपरागतौ ॥२॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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