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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २२४ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir और ८४ गछके नायक श्रीउद्योतनसूरिजी हूवे, उनोके पट्टमें श्रीसूरिमंत्रकों धरणेंद्रों तीर्थंकरपास भेजकर शुद्धकरवाणेवाले, और महाघोर तपके प्रभावसें श्रीविमलसाद मंत्रीकों प्रतिबोधके श्रावक धर्मधराणेवाले, आबुजी तीर्थंकों प्रगटकराणेवाले, श्रीउद्योतनसूरिजी के ज्येष्ठांतेवासी श्रीवर्धमानसूरिजी हूवे, उनोके पट्टनें युगप्रधान पदकों धारणकरणेवाले, १०८० में दुर्लभराजाके सन्मुख अणहिलपुरपाटणमे चेत्यवासीयोंकों जीतकर अतिनिर्मलखरतर विरुदकों धारणकरणेवाले और दशमे अछेरेके प्रभावकों दूर हटानेवाले, और अनेक निर्दोष शास्त्रोंकों रचनेवाले, श्रीजिनेश्वरसूरिजी और श्रीबुद्धिसागरसूरिजी हूवे, इनोके पहमें संवेगरंगशालादिग्रंथोंके कर्त्ता पद्मावतीसें वरकों प्राप्तहुवा और मौजदीन नामक बादसाहकों वरदेनेवाले, और उसको प्रतिबोध देनेवाले, श्रीजिनचन्द्रसूरिजी हूवे, इनोंके पट्टमें छोटे गुरु भाइ जयतिहुअणस्तोत्र बनायके श्रीस्तंभन कतीर्थकों प्रगटकर अपने शरीरमे उत्पन्नहुवे कोढरोगकों दूर हटानेवाले, और शासनदेवीके अनुरोधसें निर्दोष नवांगवृत्तिकों बनानेवाले, औरभी अनेक टीका प्रकरण वगेरे रचनेवाले, एकावतारी श्रीमान् अभयदेवसूरिजी हूवे. इस अनुक्रमसें स्थानांग, समवायांग, भगवती, ज्ञाताधर्मकथा, पंचाशक प्रकरणवगेरेकी वृत्तियोंके अंतप्रशस्तियोंमे वृत्तिकारनें अपनी गुरुशिष्य की परम्परा दिखाई है ऐसा वृत्तिकार खुद लिखतें है और चान्द्रकुल, वा चांद्रगछ एकहि है भिन्न भिन्न नहिं है इस कथनसें, वृत्तिकारनें यथाऽऽम्नाय पूर्वापर प्रसंगानुसार, शेष रहै कोटिक - गछ, वयरीशाखा, खरतर विरुदभी दिखाइ दिया है, एसा समजना चाहिये, और श्रीसुधर्मास्वामिसें लेकर श्रीउद्योतनसूरिजीतकतो चान्द्रकुलीय खरतरवडगच्छादिकों की पावली प्रायें कर एकसरिखीहि मिले है और आगे फरक है, वास्तेहि श्रीउद्योतनसूरिजी श्रीवर्धमानसूरिजीसें लेकर श्रीअभयदेवसूरिजीनें अपनेतक गुरुशिष्य की परम्परा और चांद्रकुल मात्र लिखा है, शेष रहै कोटिकगछ, वयरीशाखा, खरतर विरुद पूर्वापर प्रसंगानुसार स्पष्टतर होने में नहिं लिखा है, और गुरुशिष्य - परम्परा लिखनेकी अति आवश्यकता समजकर यथावस्थित अपनी परम्परा लिखीहै, इतने लिखने पर हि शेषरहि वातोंका बोध होता हूवा देखके जादा विस्तार नहिं किया, बडे पुरुष गंभीरस्वभाववाले होते हैं, जहांपर जितना प्रयोजन देखे उत - नाहि लेखादि कार्य करते हैं, ज्यादे नहिं, For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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