SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 335
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २९७ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीभुवन चंद्रसूरिगुरुरुदियाय प्रवरतेजाः ॥ १ ॥ तस्य विनेयः प्रशमैकमंदिरं देवभद्रगणिपूज्यः, । शुचिसमयकनकनिकषो बभूव मुनिविदितभूरिगुणः ॥ २ ॥ तत्पादपद्मभृंगा निस्संगाचंगतुंगसंवेगाः । संजनितशुद्धबोद्धा जगति जगच्चंद्रसूरिवराः ॥ ३ ॥ तेषामुभौ विनेयौ श्रीमान् देवेंद्रसूरिरित्याद्यः | श्रीविजयचंद्रसूरिद्वितीयको ऽद्वैत कीर्तिभरः ॥ ४॥ स्वाsन्ययोरुपकाराय श्रीमद्देवेंद्रसूरिणा । धर्मरत्नस्य टीकेयं सुखबोधा विनिर्ममे ॥ ५ ॥ ये श्लोक श्रीजगचंद्रसूरिजीके मुख्यशिष्य श्रीदेवेंद्रसूरिजीने अपनी रची हुई श्रीधर्मरत्नप्रकरणकी टीका उसकी प्रशस्तिमें लिखे हैं इन श्लोकोंमें तथा श्रीजगचंद्रसूरिजी के शिष्य श्री विजयचंद्रसूरिजी उनके शिष्य श्रीक्षेमचन्द्रकीर्तिसूरिजीने संवत् १३३२ में श्रीबृहत् कल्पसूत्र - कीटीका रची है उसकी प्रशस्ति में भी चित्रवालगच्छ में श्रीधनेश्वरसूरिजी उनके शिष्य श्रीभुवनचन्द्रसूरिजी उनके शिष्य श्रीदेवभद्रगणिजी उनके शिष्य श्रीजगचंद्रसूरिजी इत्यादि लिखा है किंतु न तो अपना या श्रीजगचंद्रसूरिजीका बृहत्गच्छ ना तपगच्छ ऐसा नाम या विशेषण लिखा और न तो उनके गुरुका नाम -- श्रीमणिरत्न- सूरिजी लिखा और न तो श्रीजगच्चंद्रसूरिजीने जावज्जीव आचाम्ल तप किया लिखा और न तो संवत् १२८५ में अमुक राजाने तपगच्छनाम या तपगच्छ विरुद दिय लिखा तथा ३२ दिगंबर जैनाचार्यों को अमुक विवाद में जीतनेसे For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy