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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२५ समूहको वियोगकर्ता उदयप्रातभये श्रीजिनेश्वरमरिके शिष्य जगत्में चन्द्रके जैसे श्रीजिनचंद्रसरिको मैं नमस्कार करूं ॥ ७१ ॥ संवेगरंगसाला विसालसालोवमा कया जेण। रागाइवेरि भयभीय भवजण रक्खणनिमित्तं ॥७२॥ अर्थ:-श्रीः जिनचन्द्रसरिने विशालसालाके जैसी उपमा ऐसी संवेगरंगशालानामकी ग्रंथपद्धति रची रागादिवैरियोंके भयसे डरेहुए भव्य प्राणियोंकी रक्षाके निमित्त ऐसे ॥ ७२ ॥ कयसिवसुहत्थि सेवो, भयदेवों वगयसमय पयक्खेवो। जस्सीसो विहियनवंगवित्ति जलधोय जललेवा ॥ ७३ ॥ अर्थ:-किया शिवसुखके आर्थियोंने सेवनजिन्होंका ऐसे अभयदेवसरि, जाना है सिद्धान्तका. परमार्थजिन्होंने ऐसे नवाझवृत्तिरूप जलसे धोया है अज्ञानरूप लेप जिन्होंने ।। ७३ ॥ जेण नवंगविवरणं, विहियं विहिणा समं सिवसिरीए । काउं नवंगविचरणं, विहियमुझिझयभवजुवइसंजोगं ॥७४॥ अर्थ:-जिसअभयदेवआचार्यने ठाणङ्गादि नवअङ्गका विवरण किया विधिः और शिवलक्ष्मीके साथ नवाङ्गका विचार करनेके लिए भवयुवतिके संयोगको छोड़के शिवस्त्रीका आश्रय किया जिन्होंने ॥ ७४ ॥ जेहिं बहुसीसेहि, शिवपुरपहपत्थियाणं भवाणं । सरलो सरणी समगं कहिओ ते जेण जत्ति तयं ॥५॥ अर्थः-बहुत शिष्योंकरके सहित ऐसे श्रीअभयदेवसरिः महा For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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