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३२६ राजने मोक्षनगरके मार्गमें चलेहुए भव्योंको शरलमार्ग कहा जिससे वह सुखसे जावें ॥७५ ॥ गुणकणमवि परिकहिउँ, न सकई सक्कई वि जेसि फुडं। तसि जिणेसरसूरीणं, चरण सरणं पवजामि ॥ ७६ ॥ - अर्थ:-जिन्होंके सामने अच्छाकवि भी गुणका कण कहनेको नहीं समर्थ होवे है उन जिनेश्वरसूरि के चोंका शरण मैं अंगीकार करूं ॥ ७६ ॥ युगपवरागमजिणचंदसूरि विहिकहिय सूरि मंतपयो। सूरी असोगचंदो, महमणकुमुयं विकासेउ ॥ ७७॥ ___ अर्थः-युगप्रवर आगम जिन्होंका ऐसे श्रीजिनचंदसरि आचार्यका जो सूरिमंत्रपद उसका विधि कहा जिन्होंने ऐसे अशोकचंदसूरिः मेरे मनकुमुदको विकासित करो ॥ ७७॥
कहिय गुरु धम्मदेवो, धम्मदेवो गुरुउवझ्झाओअ । मझ्झावि तेसिं य दुरंत दुहहरो सो लहु होउ ॥७८॥
अर्थः-कहा गुरुधर्मदेव वेंहि गुरुः उपाध्यायपदधारक ऐसे मेरेभी दुरन्त दुःखके हरनेवाले ऐसे उनके प्रसादसे शीघ्रकल्याणकी प्राप्तिः होवे ॥ ७८ ॥ तस्स विणेओ निद्दलिअगुरुगओ जो हरिव हरिसीहो। . मझ्झगुरु गणि पवरो, सो महमणवंच्छियं कुणउ ॥ ७९ ॥
अर्थः-धर्मदेव उपाध्यायके शिष्य कुत्सितमतरूप बड़े हाथीको दलन करनेमें सिंह जैसे हरिसिंह आचार्य मेरेगुरुः गणिप्रवर वह मेरेको मनोवांछित देवो ॥ ७९ ॥
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